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भाषा की प्रमुख विशेषताएँ | भाषा के अभिलक्षण

भाषा की प्रमुख विशेषताएँ | भाषा के अभिलक्षण

भाषा की प्रमुख विशेषताएँ

भाषा पर जब हम विचार करते हैं तो उसका आशय मनुष्य की भाषा से ही होता है। यहाँ ‘अभिलक्षण’ (Property) से तात्पर्य ‘विशेषता’ या ‘मूलभूत लक्षण’ से ही है। क्योंकि किसी वस्तु या पदार्थ के लक्षण हो उसको दूसरे पदार्थ से अलग करते हैं। अतः डॉ० भोलानाथ तिवारी के अनुसार मानव-भाषा के अभिलक्षण वे हैं जो उसे अन्य सभी प्राणियों की भाषाओं से अलगाते हैं। यहाँ भाषा के अभिलक्षणों (विशेषताओं) का संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है-

भाषा के अभिलक्षण अथवा भाषा की विशेषताएँ

मानव भाषा के मूलभूत लक्षण अथवा उसकी तात्विक विशेषताएँ निम्नलिखित रूप में हैं-

  1. यादृच्छिकता- हमारी भाषा में किसी भाव अथवा पदार्थ का किसी शब्द से किसी प्रकार का सहज अथवा तर्कपूर्ण सम्बन्ध नहीं। किसी भी वस्तु के लिए शब्द का प्रयोग समाज ने स्वेच्छा से निर्धारित करके उन दोनों पदार्थ और शब्द- में नित्य सम्बन्ध स्थापित कर दिया है। शब्द के स्तर पर ही नहीं अपितु व्याकरण के स्तर पर रूप-रचना तथा वाक्य रचना में भी यही यादृच्छिकता पायी जाती है। उदाहरणार्थ-हिन्दी में वाक्य रचना में कर्ता, कर्म और क्रिया के विन्यास का क्रम है तो अंग्रेजो के कर्ता, क्रिया और कर्म के विन्यास का क्रम है। संस्कृत में किसी प्रकार के क्रम का कोई बन्धन नहीं है। इस क्रम-विन्यास अथवा क्रम-राहित्व के पीछे किसी प्रकार का कोई तर्क, कोई युक्ति अथवा कोई आधार नहीं है। यही यादृच्छिकता-स्वेच्छा से निर्धारित मानव-भाषा की स्वीकृति की सर्वप्रधान विशेषता है।
  2. सृजनात्मकता- मानव भाषा की दूसरी उल्लेखनीय विशेषता सृजन क्षमता है। भाषा में शब्दों और रूपों के सीमित होने पर भी सादृश्य के आधार उसमें नये शब्दों की रचना की असीम क्षमता निहित रहती है। विलक्षणता यह है कि नव-निर्मित शब्दों तथा वाक्यों को समझने में श्रोता को किसी प्रकार की कोई असुविधा नहीं होती। भाषा की यह उत्पादन-शक्ति ही भाषा को समृद्ध और समर्थ बनाने वाला तत्व है।
  3. अनुकरण ग्राह्यता- मानव-भाषा सामाजिक सम्पत्ति है। कोई भी व्यक्ति जिस समाज में रहता है, वह उसी की भाषा को अनुकरण के माध्यम से सहज रूप से ही सौख जाता है। इसी अनुकरण की शक्ति से ही व्यक्ति अपनी भाषा के अतिरिक्त अन्यान्य भाषाओं को भी सीख सकता है।
  4. परिवर्तनशीलता – मानव-भाषा का एक महत्वपूर्ण गुण उसका निरन्तर परिवर्तित होते रहना है। परिवर्तन का रूप भले ही पर्याप्त समय के व्यतीत होने पर स्पष्ट हो, परन्तु परिवर्तन का चक्र निरन्तर अबाध गति से परिवर्तित होता रहता है। इसी सतत परिवर्तन के कारण ही भारतीय आर्य-भाषा ने वैदिक संस्कृत अपभ्रंश अवहट्ट तथा लोकभाषा आदि विविध नामरूप धारण किये हैं। परिवर्तन के फलस्वरूप ही संस्कृत के “भद्र” शब्द का प्राकृत में “भन्ते” और हिन्दी में “भद्दा” प्रयोग से स्पष्ट है कि भाषा में केवल रूप ही नहीं प्रत्युत शब्दों के अर्थ भी मूल से भिन्न हो जाते हैं।
  5. विविक्तता- मान्य-भाषा विभिन्न वाक्यों का समुच्चय है। प्रत्येक वाक्य में अनेक शब्दों का प्रयोग होता है और प्रत्येक शब्द अनेक ध्वनियों के योग से निर्मित होता है, परन्तु विचार, विनिमय में इन्हें- ध्वनियों, शब्दों तथा वाक्यों को-विच्छिन्न रूप में ग्रहण न करके इनमें एक अविच्छिन्न सम्बन्ध की स्थापना की जाती है। भाषा में इस अविच्छिन्न रूप का आवश्यकता पड़ने पर विच्छेद अथवा विश्लेषण किया जा सकता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि विविक्तता का यह तत्व केवल मानव-भाषा का ही गुण है। किसी भी पशु-पक्षी द्वारा उच्चरित किसी भी ध्वनि का विखण्डन नहीं किया जा सकता। ऐसा करने पर उसकी सार्थकता ही नष्ट हो जाती है।
  6. द्वैतता- मानव-भाषा की एक विशेषता उनमें दोनों-रूपिम और स्वनिम-का एक साथ महण है। रूपिम सार्थक इकाइयां है और स्वनिम निरर्थक परन्तु अर्थ-भेदक तथा सार्थक इकाइयों का निर्माण करने वाली ध्वनियाँ है। उदाहरणार्थ-“राम ने रावण को मारा” वाक्य में पाँच सार्थक रूपिम अथवा इकाइयाँ हैं। राम में र् आ म अ चार ध्वनियाँ हैं, जिनका अपना तो कोई अर्थ नहीं है परन्तु ये आपस में मिलकर भाषा में सार्थक इकाइयों का निर्माण करती हैं। उदाहरणार्थ- क् घ् ध्वनियाँ अपने आप में निरर्थक हैं परन्तु इनके कारण कोड़ा और घोड़ा जैसे भिन्न-भिन्न अर्थ देने वाले शब्द बनते हैं। स्पष्ट है कि इनसे न केवल शार्थक इकाइयों का निर्माण होता है, अपितु अर्थ-भेद की स्थिति भी बनती है।
  7. परिवर्तित भूमिका- मानव, मानव से वार्तालाप करते समय, वक्ता श्रोता के रूप में और श्रोता वक्ता के रूप में आता रहता है। ऐसी स्थिति विरल ही होती है, जहाँ बातचीत में वक्ता, वक्ता ही बना रहे और श्रोता, श्रोता बना रहे। भाषण, प्रवचन तथा व्याख्यान आदि में तो यह स्थिति अवश्य रहती है, परन्तु बातचीत में, विचार-विनिमय में वक्ता श्रोता का रूप बदलता रहता है। वक्ता के श्रोता बनने और श्रोता के वक्ता बनने को ही भूमिका परिवर्तन’ नाम दिया जाता है।
  8. दिक्-काल, अन्तरणता- मानव-भाषा की एक विशेषता उनका स्थान-विशेष तथा समय-विशेष तक सीमित न होना है। दिल्ली में बैठकर व्यक्ति मुम्बई, कलकत्ता, लन्दन तथा पेरिस आदि नगरों के विषय में चर्चा करते तथा कर सकते हैं। इसी प्रकार आज का व्यक्ति अतीन तथा भविष्य से सम्बन्धित विषयों पर भी समान अधिकार में चर्चा कर सकता है। मानव-भाषा स्थान और समय की सीमाओं में बृद्ध न होकर सभी बन्धनों से सर्वथा मुक्त है।
  9. द्विमार्गता- मानव भाषा के प्रयोग की दो सारणिया हैं- (1) मुख द्वारा उच्चारण तथा (2) शश्रोत्र द्वारा श्रवण भाष की लिखित पठित सारणी भी मूलतः इन्हीं दोनों सारणियों पर आवृत है।
  10. असहजवृत्तिकता- जीवन की सहजवृत्तियों- क्षुधा, तृषा तथा काम-वासना आदि के लिए पशु-पक्षी जिस प्रकार मुख से कुछ ध्वनियां निकालते हैं मानव वैसा नहीं करता। यदि इस प्रकार की सहजवृत्ति के लिए वह कोई ध्वनि निकालता भी है तो उसे भाषा का नाम नहीं दिया जाता। इस प्रकार मानव-भाषा सहजवृत्तियों को अभ्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं। इसी आधार पर उसकी एक विशेषता असहजतृत्तिकता है।
  11. स्वतः पूर्णता- मानव भाषा का अपने आप में पूर्ण होना अर्थात् अपने समाज के भावों को व्यक्त करने में समर्थ होना उसकी एक अन्य विशेषता है। प्रत्येक भाषा की शब्दावली उस भाषा के बोलने वालों के प्राकृतिक वातावरण के आधार पर बनती है। संस्कृत में दार्शनिक शब्दों की ओर अंग्रेजी में वैज्ञानिक शब्दों की बहुलता इसका प्रमाण है। अतः भाषा की पूर्णता का अभिप्राय समाज के परिवेश को अभिव्यक्त करने की क्षमता से सम्पन्न होना है।
  12. निजी वैयक्तिकता- मानव-भाषा स्थान और समय भेद से पृथक-पृथक् व्यक्तित्व (आकार-प्रकार) लिये रहती है। व्यक्तित्व (बनावट का ढाँचा) को यह भिन्नता ही एक भाषा को दूसरी भाषा से अलग करती है। उदाहरणार्थ-संस्कृत के तीन लिंग, तीन वचन और दस काल हैं। हिन्दी में दो लिंग, दो वचन और तीन काल रह गये हैं। हिन्दी में संयुक्त ध्वनियों का प्रचलन है परन्तु पंजाबी में नहीं।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रत्येक भाषा को प्रायः एक निश्चित भौगोलिक सीमा (Jurisdication Limit) होती है. जिसमें समय-समय पर परिवर्तन आता रहता है। क्षेत्र का विस्तार संकोच भाषा के महत्व में वृद्धि-हास के सूचक होते हैं।

  1. सतत् प्रवहणशीलता- यद्यपि भाषा परिवर्तनशील है तथापि उसका प्रवाह नैसर्गिक और अविच्छिन्न रहता है। जिस प्रकार नदी का प्रवाह कुटिल मार्गों से होता हुआ आगे बढ़ जाता है, उसी प्रकार भाषा भी अपना रूप परिवर्तित करती हुई निरन्तर आगे बढ़ती रहती है। उसकी धारा न कभी विच्छिन्न होती है और न ही उसमें कभी किसी प्रकार का गतिरोध आता है। प्रवाह रुका कि भाषा मर मिट गई।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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