संस्कृति और शिक्षा में सम्बन्ध (Relation Between Culture and Education in Hindi)
संस्कृति और शिक्षा में सम्बन्ध (Relation Between Culture and Education in Hindi)
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संस्कृति किसी समाज की पहचान होती है। यह उसके रहन-सहन एवं खान-पान की विधियों, व्यवहार प्रतिमानों, रीति-रिवाज, कला-कौशल, संगीत-नृत्य, भाषा-साहित्य, धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और मूल्यों के विशिष्ट रूप में जीवित रहती है। तब किसी समाज की शिक्षा पर उसकी संस्कृति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। आप देखे कि जिस समाज की संस्कृति अध्यात्मप्रधान होती है उस समाज में शिक्षा स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की प्राप्ति की ओर अधिक झुकी हुई होती है और जिस समाज की संस्कृति भौतिकवादी होती है उसकी शिक्षा प्रतियोगिता पर आधारित होती है और शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति का श्रम भौतिक उद्देश्यों की प्राप्ति की ओर नियोजित होता है। दूसरी ओर कोई समाज शिक्षा के माध्यम से ही अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखता है, उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीड़ी में संक्रमित करता है और उसमें परिवर्तन एवं विकास करता है। इस प्रकार संस्कृति और शिक्षा में गहरा सम्बन्ध होता है, ये एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। सच पूछिए तो एक के अभाव में दूसरे के विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यहाँ हम इनके एक-दूसरे पर पड़ने वाले प्रभावों को और अधिक स्पष्ट किए देते हैं।
संस्कृति का शिक्षा पर प्रभाव
आज किसी भी समाज की शिक्षा उसके धर्म-दर्शन, उसके स्वरूप, उसके शासनतन्त्र, उसकी अर्थव्यवस्था, मनोवैज्ञानिक खोजों और वैज्ञानिक आविष्कारों पर निर्भर करती है इन्हें ही दूसरे शब्दों में शिक्षा के दार्शनिक, समाजशास्त्रीय, राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक आधार कहते हैं। समाजशास्त्रीय आधारों में सबसे अधिक प्रभावशाली तत्त्व समाज विशेष की संस्कृति होती है।
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संस्कृति और शिक्षा के उद्देश्य
संस्कृति एक बहुत व्यापक सम्प्रत्यय है, यह किसी समाज की सम्पूर्ण जीवन-शैली की द्योतक है। इसमें समाज विशेष की रहन-सहन एवं खान-पान की विधियाँ, व्यवहार प्रीतिमान, आचार-विचार, रीति-रिवाज, कला-कौशल, संगीत-नृत्य, भाषा-साहित्य, धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और मूल्य सब कुछ समाहित होते हैं। और प्रत्येक समाज अपने आने वाली पीढ़ी को इन सब में प्रशिक्षित कर देना चाहता है और तदनुकूल शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करता है। हम देख रहे हैं कि धर्मप्रधान संस्कृतियों के समाजों की शिक्षा में चारित्रिक एवं नैतिक विकास पर अधिक बल दिया जाता है। और भौतिप्रधान संस्कृतियों के समाजों में व्यावसायिक विकास पर। इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी समाज की संस्कृति उस समाज की शिक्षा के उद्देश्यों को प्रभावित करती है।
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संस्कृति और शिक्षा की पाठ्यचर्या
पाठ्यचर्या तो उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन होती है। जब किसी समाज की शिक्षा के उद्देश्यों पर उसकी संस्कृति का प्रभाव पड़ता है तो उसकी पाठ्यचर्या पर भी पड़ना चाहिए। किसी समाज की सामान्य एवं आधारभूत पाठ्यचर्या तो मूल-रूप से उसकी संस्कृति पर ही आधारित होती है, उसमें उसी समाज की भाषा, उसी समाज का साहित्य, उसी समाज के कला-कौशल, उसी समाज का संगीत-नृत्य, उसी समाज के आदर्श-विश्वास और उसी समाज के मूल्यों की शिक्षा को सम्मिलित किया जाता है। आज चूँकि संसार के सभी देश एक-दूसरे से प्रभावित हो रहे हैं इसलिए उनकी शिक्षा के उद्देश्य भी व्यापक हो रहे हैं और पाठ्यचर्या भी विस्तृत हो रही है।
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संस्कृति और शिक्षण विधियाँ
इस सन्दर्भ में सबसे पहली बात तो यह है कि जिन संस्कृतियों में जिन शिक्षण विधियों का विकास हुआ है उनमें शिक्षा के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रयोग उन्हीं विधियों का किया जाता है। उदाहरण के लिए अपने भारतीय समाज को ही लीजिए। इसमें आज भी आगमन-निगमन, विचार-विमर्श और तर्क विधियों का प्रयोग अधिक किया जाता है। दूसरी बात यह कि उदार संस्कृतियों वाले समाजों में दूसरे समाजों में विकसित शिक्षण की नई-नई विधियों को भी स्वीकार किया जाता है और संकीर्ण संस्कृतियों वाले समाजों में ऐसा नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए हिन्दू संस्कृति में कहीं से भी कुछ लेने में संकोच नहीं किया जाता, परन्तु मुस्लिम संस्कृति में वही रटने की पुरानी शिक्षण विधि का वर्चस्व आज भी बरकरार है।
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संस्कृति और अनुशासन
यह बात किसी से छिपी नहीं कि धर्मप्रधान संस्कृतियों में अनुशासन का महत्त्व धर्मविहीन संस्कृतियों से अधिक होता है और तद्नुकूल उनकी शिक्षा में भी। इनमें एक बड़ा अन्तर और होता है और वह यह कि धर्मप्रधान संस्कृतियों में अनुशासन को एक आन्तरिक शक्ति के रूप में लिया जाता है और धर्मविहीन संस्कृतियों में केवल बाह्य व्यवस्था के रूप में। इस प्रकार समाज विशेष को संस्कृति उसकी शिक्षा में अनुशासन के महत्त्व एवं रूप, दोनों को प्रभावित करती है।
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संस्कृति और शिक्षक
संस्कृति शिक्षक के स्वरूप को भी निश्चित करती है, उसके महत्त्व का भी प्रभावित करती है। धर्मप्रधान संस्कृतियों में शिक्षक को समाज के पथप्रदर्शक के रूप में आदर दिया जाता है। और उद्योगप्रधान संस्कृतियों में उसे बच्चों के पथप्रदर्शक के रूप में समझा जाता है। एक मे उस वेतन भोगी मार्गदर्शक माना जाता है और दूसरी में वेतन भोगी सामान्य कार्यकर्ता। इतना ही नहीं अपितु हर समाज में हर क्षेत्र के व्यक्तियों के लिए व्यवहार प्रतिमान निश्चित होते हैं, शिक्षकों के लिए भी।
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संस्कृति और शिक्षार्थी
संस्कृति शिक्षार्थी के स्वरूप निश्चित करने में भी प्रभाव डालती है। आज मनोविज्ञान ने शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षार्थी को केन्द्रीय स्थान अवश्य प्रदान किया है परन्तु फिर भी भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के समाजों में उसकी भिन्न-भिन्न स्थिति है। हमारे देश भारत में आज भी छात्रों से विनम्र व्यवहार की अपेक्षा की जाती है जबकि अमेरिका में ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती। इतना ही नहीं अपितु हर समाज में हर क्षेत्र के व्यक्तियों के लिए व्यवहार प्रतिमान निश्चित होते हैं, शिक्षार्थियों के लिए भी।
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संस्कृति और विद्यालय
विद्यालय तो सामाजिक संस्थाएँ होती हैं, उन पर तो समाज का, या यूँ कहें कि समाज की संस्कृति का पूरा-पूरा प्रभाव होता है। उनके भवन समाज की संस्कृति के अनुसार बनते हैं, उनके शिक्षक और छात्र समाज की संस्कृति के अनुसार व्यवहार मानदण्ड अपनाते हैं, उनकी समस्त क्रियाएँ समाज की संस्कृति के अनुकूल होती हैं। यूँ आज सभी समाजों में एक-दूसरे से सीखने की प्रवृत्त है पर फिर भी उनके विद्यालयों में उनकी संस्कृति का वर्चस्व अलग दिखाई देता है।
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संस्कृति और शिक्षा के अन्य पक्ष
संस्कृति शिक्षा के अन्य पक्षों को भी किसी न किसी रूप में प्रभावित करती है। जिन समाजों की संस्कृति में वर्गभेद होता है उनमें जन शिक्षा की अवहेलना की जाती है। और जिन संस्कृतियों में वर्गभेद नहीं होता उनमें जन शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। इसी प्रकार पुरुषप्रधान संस्कृतियों में स्त्रियों की शिक्षा की अवहेलना की जाती है और जिन समाजों की संस्कृति में स्त्री-पुरुष में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जाता उनमें स्त्री-पुरुषों की शिक्षा में कोई भेद नहीं किया जाता। इसी प्रकार उद्योगप्रधान संस्कृतियों में उद्योग की शिक्षा और धर्मप्रधान संस्कृतियों में धार्मिक शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता है।
शिक्षा का संस्कृति पर प्रभाव
यदि एक और यह बात सत्य है कि किसी समाज की संस्कृति का प्रभाव उसकी शिक्षा पर पड़ता है तो दूसरी और यह बात भी सत्य है कि किसी समाज की शिक्षा का प्रभाव उसकी संस्कृति पर पड़ता है। शिक्षा के संस्कृति पर प्रभाव को हम निम्नलिखित रूप में देख-समझ सकते हैं।
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शिक्षा और संस्कृति का संरक्षण
किसी स्थान की संस्कृति उसकी युग युग की साधना का परिणाम होती है, इसके प्रति उसका विशेष लगाव होता है और इसे वह सुरक्षित रखना चाहता है। शिक्षा उसके इस कार्य में उसकी सहायता करती है। आज हम देख रहे हैं कि वैज्ञानिक आविष्कारों ने हम भारतीयों के जीवन को बहुत बदल दिया है परन्तु फिर भी हमारी आस्था अपनी संस्कृति भाषा संस्कृत और उसके साहित्य में बनी हुई है, हमारे आदर्श, विश्वास और मूल्य वही हैं जो हमारी संस्कृति के हैं। लाख परिवर्तन होने के बाद भी हम आध्यात्मिकता का आँचल आज भी पकड़े हुए हैं। आखिर यह कार्य कौन कर रहा है ? यह कार्य हमारी शिक्षा कर रही है। यदि शिक्षा की पाठ्यचर्या से संस्कृत भाषा, संस्कृत साहित्य और प्राचीन इतिहास को निकाल दिया जाए तो फिर हम अपनी संस्कृति को खो बैठेंगे।
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शिक्षा और संस्कृति का हस्तान्तरण
सामान्यतः मनुष्य जिस समाज में पैदा होता है उसी की क्रियाओं में भाग लेकर उसी की संस्कृति को सीखकर उसमें समायोजन करता है और इस प्रकार किसी समाज की संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है परन्तु इस कार्य में शिक्षा की भी बड़ी अहम् भूमिका होती है। कोई भी समाज अपनी आने वाली पीढ़ी में संस्कृति का हस्तान्तरण अपने सही रूप में शिक्षा द्वारा ही करता है, यह बात दूसरी है कि यह कार्य वह अनौपचारिक शिक्षा द्वारा करता या निरीपचारिक शिक्षा द्वारा या औपचारिक शिक्षा द्वारा। बच्चों को अपनी संस्कृति का सही ज्ञान तो औपचारिक शिक्षा द्वारा ही होता है। यही कारण है कि आज प्रायः सभी समाजों की शिक्षा का एक उद्देश्य सांस्कृतिक विकास है। हाँ, यह वात अवश्य है कि इस सांस्कृतिक विकास से तात्पर्य भिन्न भिन्न समाजों में भिन्न भिन्न लिया जाता है।
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शिक्षा और संस्कृति का विकास
यद्यपि प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति को उसी रूप में सुरक्षित रखना चाहता है जिस रूप में वह उसे प्राप्त करता है, परन्तु परिवर्तन तो प्रकृति का शाश्वत नियम है, संस्कृति में भी परिवर्तन और विकास होता है, यह बात दूसरी है कि किसी संस्कृति में इस परिवर्तन एवं विकास की गति बहुत मन्द होती है और किसी में अपेक्षाकृत कम मन्द। परन्तु कोई भी संस्कृति अपने मूल रूप को कभी नहीं छोड़ती। शिक्षा द्वारा एक ओर बच्चे अपनी संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करते हैं और दूसरी ओर देश-विदेश की अन्य संस्कृतियों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। साथ ही शिक्षा द्वारा उनमें विवेक शक्ति का विकास होता है और उनका दृष्टिकोण विकसित होता है। इस विवेक शक्ति से वे आगे चलकर अपनी संस्कृति के मूल तत्त्वों में से चुनाव करते हैं एवं अपने अनुभव एवं विवेक के आधार पर उनमें से कुछ में परिवर्तन करते हैं और इस प्रकार अपनी संस्कृति का विकास करते हैं। इतना ही नहीं, अपितु वे संसार की अन्य संस्कृतियों के भी तत्त्वों को ग्रहण करते हैं और अपनी संस्कृति का विकास करते हैं। हमारी भारतीय संस्कृति तो एक उदार संस्कृति है, यह तो कहीं से भी, जो अच्छा है उसे ग्रहण करने में संकोच नहीं करती, यह बात दूसरी है कि उसे कुछ अपने रंग में स्वीकार करती है। यही कारण है कि यह संसार की सबसे अधिक समृद्ध संस्कृति है।
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शिक्षा और सांस्कृतिक सहिष्णुता
संसार में भिन्न-भिन्न समाजों की भिन्न-भिन्न संस्कृतियाँ हैं और सभी समाज अपनी-अपनी संस्कृति को श्रेष्ट्व समझते हैं। इससे कभी-कभी सांस्कृतिक टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है। यह स्थिति तब बड़ी घातक होती है जब किसी राष्ट्र की विभिन्न संस्कृतियों में टकराव होता है। आज अन्तर्राष्ट्रीयता का युग है, आज सांस्कृतिक संकीर्णता के स्थान पर सांस्कृतिक सहिष्णुता का विकास किया जाता है और यह कार्य शिक्षा द्वारा ही किया जाता है। परिवार और समुदाय के बीच बच्चे अपने समाज की संस्कृति से ही परिचित होते हैं, विद्यालयों में उन्हें देश-विदेश की विभिन्न संस्कृतियों का ज्ञान कराया जाता है और यह ज्ञान मुख्य रूप से इतिहास और भूगोल के माध्यम से कराया जाता है। और साथ ही उन्हें उन संस्कृतियों की विशेषताओं से परिचित कराया जाता है और इस प्रकार उनमें संसार की विभिन्न संस्कृतियों के प्रति उदार भाव पैदा किया जाता है। इससे वर्ग संघर्ष ही समाप्त नहीं होता अपितु सभी संस्कृतियों में विकास भी होता है।
उपसंहार
वर्तमान में किसी भी समाज की शिक्षा मुख्य रूप से उसके स्वरूप एवं धर्म दर्शन राज्यतन्त्र एवं अर्थतन्त्र और मनोवैज्ञानिक तथ्यों एवं वैज्ञानिक आविष्कारों पर निर्भर करती है। और समाज का स्वरूप और धर्म एवं दर्शन उसकी संस्कृति के अंग होते हैं। तब कहना न होगा कि किसी समाज की शिक्षा पर उसकी संस्कृति का बड़ा प्रभाव होता है। दूसरी तरफ किसी समाज की शिक्षा अनेक कार्यों के साथ-साथ समाज विशेष की संस्कृति को सुरक्षित रखती है, उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित करता है और उसमें विकास करती है। आज अन्तर्र्राष्ट्रीयता का युग है। आज सभी प्रगतिशील समाज अपने बच्चा ने सांस्कृतिक सहिष्णुता का विकास करने की ओर प्रयत्नशील हैं और यह कार्य वे शिक्षा द्वारा ही कर रहे है। एक वाक्य में हम यह कह सकते हैं कि किसी समाज की संस्कृति और शिक्षा किसी न किसी रूप और मात्रा में एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और यह एक ऐसा चक्र है जो सदैव से चलता आ रहा है और सदैव चलता रहेगा।
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