शिक्षक शिक्षण / Teacher Education

प्रभावशाली शिक्षण में शिक्षकों की भूमिका | Role of Teachers in Teaching learning in Hindi

प्रभावशाली शिक्षण में शिक्षकों की भूमिका
प्रभावशाली शिक्षण में शिक्षकों की भूमिका

प्रभावशाली शिक्षण में शिक्षकों की भूमिका | Role of Teachers in Teaching learning in Hindi

शिक्षण की प्रकृति को समझने से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि शिक्षण क्या है? शिक्षण की अवधारणा में वे सभी क्रियाकलाप सम्मिलित होते हैं जो दूसरों को शिक्षा देने के लिये अपनाये जाते हैं। अध्यापक अपने विद्यार्थियों को उत्तम ज्ञान देने के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग करता है। वह अपनी तरफ से पूरी कोशिश करता है कि विद्यार्थी प्रकरण को समझ सकें। अध्यापक का कर्तव्य है कि वह विद्यार्थियों को सीखने के लिए प्रोत्साहित करें। शिक्षण का अर्थ है-अध्यापक और विद्यार्थी के मध्य चलने वाली अन्तर्किया।

शिक्षण प्रक्रिया में अध्यापक और विद्यार्थी दोनों का पारस्परिक लाभ सन्निहित होता है। दोनों के अपने-अपने उद्देश्य होते हैं और शिक्षण के माध्यम से दोनों अपने-अपने उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं।

शिक्षण अधिगम में शिक्षकों की भूमिका (Role of Teachers in Teaching learning)

विद्यालयों में शिक्षण शिक्षक केन्द्रित है जहाँ शिक्षक ज्ञान का प्रसार करने वाले तथा छात्र उसे ग्रहण करने वाले होते हैं। छात्रों से यह अपेक्षा रहती है कि वे शिक्षकों अथवा पाठ्य पुस्तकों द्वारा दिये गये ज्ञान को स्मरण रखें तथा उसे परीक्षा में पुनः प्रस्तुत करें। शैक्षणिक सत्र की समाप्ति के बाद छात्रों की उपलब्धि को उनके द्वारा परीक्षा में प्राप्त ग्रेड/अंकों के माध्यम से प्रमाणित किया जाता है। बहुत से विद्यालयों में शिक्षण अधिगम का एक परिणाम यह भी देखने में आया है कि बच्चे प्रश्नों और उत्तरों को याद रखने के लिए, यहाँ तक कि प्राथमिक विद्यालयों में भी, गाइड पुस्तकों का सहारा लेते हैं। जानकारी का स्मरण अथवा याद करने से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि छात्र ने उसे समझ लिया है तथा जीवन की विभिन्न स्थितियों में बह उसका प्रयोग कर सकेगा। सार्थक ज्ञान वही है, जब विद्यार्थी अपने ज्ञान का सूजन स्वयं करें।

विद्यार्थी अच्छा सीख पायेंगे जब-

  • वे अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लें।
  • अधिगम उनके जीवन के दैनिक अनुभवों से सम्बद्ध हो।
  • अधिगम की स्थितियाँ उनके परिवेश से प्राप्त हों ।
  • छात्र शिक्षक तथा छात्र-छात्र के बीच अन्त: सम्बन्धों को प्रोत्साहित किया जाये।
  • शिक्षक की भूमिका ज्ञान के प्रसारक के बजाय बच्चों को ज्ञान सृजन कराने वाले उत्प्रेरक के रूप में बदल गयी है।
  • विद्यार्थियों को अधिगम की विविध स्थितियाँ उपलब्ध कराये।
  • यह सुनिश्चित करें कि हर बच्चा अधिगम प्रक्रिया में संलिप्त है।
  • विद्यार्थियों को सहभागिता तथा एक दूसरे से सीखने, वाद-विवाद के लिए प्रोत्साहित करें।
  • जब विद्यार्थी चाहे तभी सहायता करें।
  • इस प्रकार सेवाकालीन प्रशिक्षण कार्यक्रमों में अध्यापकों को एक चिन्तनशील व्यवहारकर्ता बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए।

शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया जाय-

  • छात्रों के सन्दर्भ और आवश्यकताओं के अनुरूप अध्ययन परिवेश विकसित करना, अभिकारल्पित करना तथा चयन करना।
  • अधिगम तथा मूल्यांकन के सम्बन्ध में प्रबन्धकीय निर्णय लेना।
  • सहयोगी अधिगम की व्यवस्था करना।
  • छात्रों के अध्ययन कार्यों का आकलन।

शिक्षकों की भूमिका को बजाय ज्ञान के प्रसारक के सूचना तथा ज्ञान सृजन को सुगम बनाने वाले के रूप में स्थापित किये जाने की जरूरत है। शिक्षक उस तरह के शिक्षण अधिगम का सृजन करे जो सीखने के प्रजातान्त्रिक माहौल में आलोचनात्मक चिन्तन के विकास को सुगम बनाये, जहाँ जाति, धर्म, क्षेत्र, समुदाय तथा वर्ग के भेदभाव किये बिना सभी बच्चे भाग ले सकें। अध्यापक छात्रों को ऐसे तैयार करें जिससे वे ज्ञान के विभिन्न स्रोतों को समन्वित कर सकें, जैसे- बच्चों के जीवन के अनुभव, पाठ्य पुस्तकों से अलग हटकर स्थानीय जानकारी आदि।

शिक्षकों के लिए आवश्यक है कि-

  • वे बच्चों का ख्याल कर सकें तथा उनके साथ रहना पसन्द करें।
  • बच्चों को उनके सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक सन्दर्भों में समझ सकें।
  • ग्रहणशील तथा निरन्तर सीखने वाले हों।
  • शिक्षा को अपने व्यक्तिगत अनुभवों की सार्थकता की खोज के रूप में देखें तथा ज्ञान निर्माण में मननशील अधिगम की लगातार उभरती प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करें।
  • ज्ञान को पाठ्य पुस्तकों में निहित बाह्य वास्तविकता के रूप में न देखकर उसके निर्माण को शिक्षण अधिगम के साझा सन्दर्भी और व्यक्तिगत अनुभवों के रूप में देखें।
  • समाज के प्रति अपना दायित्व समझें और एक बेहतर विश्व के निर्माण के लिए कार्य करें।

शिक्षक शिक्षा के उभरते केन्द्र बिन्दु

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा 2005 की अनुशंसा में शिक्षक शिक्षा कार्यक्रमों में निम्न बदलाव सुझाये गये-

  • शिक्षार्थियों की आवश्यकताओं की समझ को प्राथमिकता देने की जरूरत है। शिक्षार्थी को शिक्षण प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी के रूप में देखना चाहिए न कि निष्क्रिय ग्रहणकर्ता के रूप में तथा ज्ञान को मूर्त निर्धारित न मानकर प्रत्यक्ष स्व-अनुभवों से निर्मित माना जाना चाहिए।
  • शिक्षण अधिगम प्रक्रिया इस प्रकार व्यवस्थित की जाये कि विद्यार्थियों को प्रत्यक्ष अवलोकन के अवसर मिलें, शिक्षार्थियों के प्रश्नों को समझने तथा प्राकृतिक एवं सामाजिक घटनाओं के अवलोकन में मदद करने वाले कार्य मिल सकें, बच्चों में चिन्तन सम्बन्धी अन्तर्दिष्ट विकसित हो और बच्चों की बातें ध्यान से हास्य और सहानुभूति के साथ सुनने के अवसर मिलें।
  • अधिगम को सहभागिता की उस प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए जो सहपाठियों और वृहत् सामाजिक समुदाय या पूरे राष्ट्र के साझे सामाजिक सन्दर्भों के बीच होती है। अधिगम एक स्व-अनुभव आधारित प्रक्रिया है जिसमें शिक्षार्थी अपने ज्ञान का निर्माण अपने तरीके से आत्मसात कर, अन्तः क्रिया, अवलोकन तथा मनन-चिन्तन द्वारा करते हैं।
  • शिक्षक की भूमिका ज्ञान के स्रोत के बदले एक सहायक की होनी चाहिए जो विविध उपायों से सूचना को ज्ञान/बोध में बदलने की प्रक्रिया में मदद करें।
  • ज्ञान को एक सतत् प्रक्रिया माना जाना चाहिए जो वास्तविक अनुभवों के अवलोकन, पुष्टिकरण आदि से उत्पन्न होता है।
  • शिक्षक प्रशिक्षण में अवधारणात्मक निवेश को इस प्रकार प्रस्तुत करना चाहिए कि वे शैक्षिक घटनाओं, जैसे-अवधारणा, प्रयोग, क्रिया, अधिगम प्रक्रिया और घटनाओं का वर्णन विश्लेषण करें।
  • शिक्षण प्रशिक्षण में सैद्धान्तिक समझ और उसके व्यवहारिक प्रयोगों को समन्वित रूप से देखने के लिए पर्याप्त मौके दिये जाने की जरूरत है न कि उनको दो अलग-अलग पहलुओं के रूप में देखने की। अध्यापक को कक्षा में क्षेत्र आधारित पद्धतियों के प्रति आलोचनात्मक संवेदना विकसित करने की जरूरत है।
  • विविध प्रकार के सन्दर्भ अधिगम में विभेद पैदा करते हैं स्कूल की शिक्षा स्कूल के बाहर के व्यापक सामाजिक सन्दर्भीं से प्रभावित होती है और विकसित होती है।
  • शिक्षक प्रशिक्षक/रिसोर्स व्यक्ति शिक्षकों के सहयोग, सहकार, अन्वेषण तथा एकीकरण, की क्षमताओं को परखते हैं तथा इसके साथ ही दृष्टिकोण, प्रस्तुति आदि में मौलिकता आदि की क्षमताओं का मूल्यांकन करते हैं।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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