रिचर्ड्स की काव्य भाषा

रिचर्ड्स की काव्य भाषा | काव्य भाषा के संबंध में रिचर्ड्स द्वारा प्रस्तुत स्थापना

रिचर्ड्स की काव्य भाषा | काव्य भाषा के संबंध में रिचर्ड्स द्वारा प्रस्तुत स्थापना

रिचर्ड्स की काव्य भाषा की विषयक अवधारणा

आर्मस्ट्रांग रिचर्ड्स ने काव्य भाषा के निम्नलिखित दो रूप माने हैं- (1) वैज्ञानिक, (2) रागात्मक।

रिचर्ड्स ने वैज्ञानिक भाषा के अनेकों पर्याय बताए हैं जैसे प्रतीकात्मक, सूचनात्मक, निर्देशात्मक इत्यादि। वैज्ञानिक तथा रागात्मक में रिचर्ड्स मैं निम्नलिखित अंतर बताएं हैं-

(क) रिचईस के अनुसार वैज्ञानिक भाषा में निरूपण, संन- सूचन या निर्देशन अभिमत होता है जबकि रागात्मक भाषा में ऐसा नहीं है, वहां भाव का उद्बोधन होता है। अर्थात् वैज्ञानिक भाषा सीधी और स्पष्ट होती है तथा रागात्मक भाषा रमणीयता संपन्न।

आचार्य भामह ने भी भाषा के दो भेद किये हैं जो रिचईस से मिलते-जुलते हैं। भामह वैज्ञानिक भाषा को वार्ता तथा रागात्मक भाषा को वक्रता कहते हैं। भामह के अनुसार वार्ता के उदाहरण हैं-सूर्य अस्त हो गया। चन्द्रमा चमकने लगा पक्षी घोंसलों में जा रहे- आदि वाक्य। क्योंकि ये सूचनात्मक हैं, इनमें वक्रता का योग नहीं है। किन्तु निम्नलिखित पंक्तियों में भाव का उद्बोधन निहित है अतएव इसकी भाषा रागात्मक या वक्रता कही जायेगी-

अंतरिक्ष में आकुल लातुर

कभी इधर उड़, कभी उधर उड़

पंथ नीड़ का खोज रहा है पिछड़ा पंछी एक अकेला

(ख) रिचर्ड्स का मानना है कि यदि तथ्य के निरूपण या निर्देशक में अन्तर पड़ता है तो यह वैज्ञानिक भाषा की असफलता है। क्योंकि वैज्ञानिक भाषा का लक्ष्य है, तथ्य को यथावत् प्रस्तुत करना उसमें कुछ जोड़ना या घटाना कल्पना से काम लेना उचित नहीं है किन्तु रागात्मक भाषा में तथ्य विषयक बड़े से बड़े भेद या असंगति का भी विशेष महत्व नहीं है यदि उससे भाव उद्बुद्ध हो रहा है, उसमें इतना ही देखना है कि भाव या मनोवृत्ति पर प्रभाव पड़ता है या नहीं। तात्पर्य यह है कि रागात्मक भाषा में तथ्य सतध्य का प्रश्न नितान्त गौण है। असत्य होने पर भी यदि कोई उक्ति भाव जापत करने में समर्थ है तो वह सफल कही जायेगी। जैसे-“फूली चम्पक बेलि ते झरत चमेली फूल।” वनस्पति विज्ञान की दृष्टि से यह कथा असत्य है क्योंकि चम्पा की लता से चमेली के फूल भला कैसे झड़ सकते हैं। लेकिन कवि के ऐसा कहने में कोई हिचक नहीं है क्योंकि उसका उद्देश्य भावों को उद्दीप्त करना है। तथ्य का निरूपण करना नहीं।

(ग) रिचर्ड्स के अनुसार भाषा के वैज्ञानिक प्रयोग की सफलता के लिये निर्देशों का सही होना काफी नहीं है, उनका परस्पर सम्बन्धन और संयोजन भी तर्कसंगत होना चाहिए। यह जरूरी है कि वे एक-दूसरे के बाधक न हो साथ ही इस प्रकार संघटित हो कि आगे के निर्देशों में अपराध न आने पाये। किन्तु रागात्मक भाषा के लिए तर्कसंगत या यौक्तिक विन्यास अपेक्षित नहीं है बल्कि वह बाधक भी बन सकता है, कभी-कभी बन भी जाता है। अतएव महत्वपूर्ण बात यह है कि निर्देशों से उत्पन्न मनोवृत्तियों का उचित संघटन एवं भावात्मक अन्तः सम्बन्धन (Interrelation or Interconnection) हो। यह चीज निर्देशों के तर्कसंगत सम्बन्धों पर प्रायः निर्भर नहीं किया करती तात्पर्य कि वैज्ञानिक भाषा में निर्दोष सही भी होने चाहिये और तर्कसंगत ढंग से सम्बद्ध भी। रागात्मक भाषा में इन दोनों के बिना भी कोई हानि नहीं है। जैसे-है बहुत बरसी घरिनी पर अमृत की धार पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार।” दिनकर इन पंक्तियों में शब्द-विन्यास यौक्तिक नहीं है। होना यों चाहिये-“अमृत की धार धरिनी पर बहुत बरसी है पर अब तक संसार सुशीतल नहीं हो सका।” शब्दों के इस क्रम-भंग से कविता में कोई क्षति नहीं हुई है बल्कि इससे लय और छन्द की जो निष्पत्ति हुई है उससे ये पंक्तियाँ अधिक प्रभावी बन गयी है। इसके प्रतिकूल तथ्य निरूपक यानी वैज्ञानिक भाषा में यदि क्रम-भंग हो जाये तो अर्थ की स्पष्टता भी अधिक हो जाती है-उदाहरणार्थ- “है जाता काम लिया भावाभिव्यंजन का जिनसे कराती है बोध उन सभी माध्यमों का सामान्य रूप से भाषा। इसका यौक्तिक क्रम होगा-सामान्य रूप से भाषा उन सभी माध्यमों का बोध कराती है जिनसे भावाभिव्यंजना का काम लिया जाता है।” रिचर्डस ने वैज्ञानिक और रागात्मक भाषा के जो उपर्युक्त अन्तर प्रदर्शित किये हैं उनमें कोई विमतिपत्ति नहीं है किन्तु द्विविधभेद काल्पनिक है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से ही नहीं, वास्तविक दृष्टि से भी भाषा एक ही होती है, सामान्य भाषा से न तो रागात्मक भाषा का शब्द भंडार भिन्न होता है और न व्याकरण रिचईस स्वयं कहते हैं कि शब्दों में कोई अन्तर्निहित साहित्यिक विशेषता नहीं होती है। कोई अपने आप में न तो असुन्दर होता है, न सुन्दर न अनाहादक न आह्लादक। इससे स्पष्ट है कि रागात्मक भाषा स्वतः सिद्ध नहीं होती, उसको सिद्धि के लिये सामान्य भाषा में हो कुछ अंगो भेद करना पड़ता है कुछ साधन काम में लाने पड़ते हैं जिनसे समन्वित होने पर भाषा में रागात्मकता आती है। रिचईस ने उन साधनों को चर्चा बिना रागात्मक भाषा को सिद्ध मान लिया है। जो ठीक नहीं है। उन्होंने जो चर्चा की भी है वह The Meaning of Meaning के अन्तिम अध्याय में एक तो अपर्याप्त है, दूसरे Principles’ के अध्येता के लिये सुलभ नहीं है। साहित्यालोचन  पर लिखित प्रस्तुत ग्रन्थ Principles of Literary Criticism में इस विषय का स्वतन्त्र विवेचन अपेक्षित था। “The Meaning of Meaning’ में रागात्मक तत्व की उत्पत्ति का पहला साधन शब्द विन्यास है। शब्द साक्षात् ध्वनि के रूप में, साथ ही साहचर्य (Association) आदि अन्य गौण रूपों में भी भाव को जगाते हैं। शब्दों के ध्वनि गुणों (Sound qualities) का साक्षात् प्रभाव तो कम हो पड़ता है, किन्तु लय और तुक से जो संचित (Curnulative) और सम्मोहक (hypnotic) प्रभाव पैदा होता है वह अधिक महत्वपूर्ण है। तात्पर्य कि शब्द विन्यास, लय (Rhythm) और तुक (Rhyne) को रागात्मक बनान के साधन हैं। परोक्ष साधनों में रिवस विम्य विधान (Imagery) लक्षण (Metaphor) आदि का उल्लेख करते हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि रिचर्ड्स की दृष्टि में शब्द (Sound) से उत्पन्न होने वाले प्रभाव रागात्मक भाषा के साक्षात् साधन है। आचार्य भामह (6वीं शताब्दी) ने भी अपने से पूर्ववर्ती दो मतों का उल्लेख किया है जिससे एक मत शब्द को हो काव्य का प्रधान तत्व मानता था और अर्थ को गौड़ तत्व रिचर्ड्स का मन्तव्य उससे बहुत कुछ समानता रखता है। रिचर्ड्स की  अर्थ-सम्बन्धी मीमांसा मुख्यतः The Meaning of Meaning नामक प्रन्थ में किया गया है। उसको संक्षिप्त चर्चा Practical Criticism’ में भी है। सम्भवतः इसीलिए Principles of Literary Criticism’ में अर्थ का विचार बहुत कम किया गया। है। Practicial criticism में जो अर्थ विषयक विचार है वह काव्यालोचन की पृष्ठभूमि के रूप में क्योंकि जब तक अर्थ का बोध न हो तब तक काव्य का आस्वाद सम्भव नहीं और बोध तथा आस्वाद के अभाव में आलोचना सम्भव नहीं है। रिचर्ड्स  स्वयं कहते हैं- “समस्त अध्ययन की मौलिक कठिनाई अर्थबोध को समस्या है जो हमारा प्रस्थान बिन्दु है। अर्थ क्या है? जब हम अर्थ तक पहुंचने का प्रयत्न करते हैं तब वस्तुतः क्या करते हैं ? वह कौन सी चीज है जिसे हम समझते हैं ? इन सरल प्रतीत होने वाले प्रश्नों के उत्तर आलोचना सम्बन्धी समस्याओं की प्रधान कुंजियाँ हैं।” साहित्य के अथवा सम्प्रेषण की किसी अन्य पद्धति के अध्ययन के लिये सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अर्थ के अनेक प्रकार होते हैं। चाहे हम वक्ता या लेखक के रूप में सक्रिय हो चाहे श्रोता या पाठक के रूप में निष्क्रिय हो जिस सम्पूर्ण अर्थ को हम परण करते हैं वह प्रायः सदा विभिन्न प्रकार के अनेक सहायक अर्था का मिश्रण हुआ करता है। भाषा को विशेषतः काव्य में प्रयुक्त भाषा को एक नहीं बल्कि अनेक कार्य करने पड़ते हैं और जब तक यह बात हम ठीक से नहीं समझते तब तक आलोचना की बहुत सारी कठिनाइयों के बारे में हमारी धारणा भ्रान्त हो सकती है। हमारे प्रयोजन के लिये अर्थ का चार प्रकारों में विभाजन पर्याप्त होगा। जो इस प्रकार है-

(1) मुख्यार्थ

जब भी हम बोलते हैं तो कुछ कहने के लिए और सुनते हैं तो इस जिज्ञासा से कि कुछ कहा जायेगा। इस प्रकार अगर देखा जाये तो हम शब्दों का प्रयोग निम्नलिखित तीन बातों के लिए करते हैं-

(1) श्रोता का ध्यान किसी कार्य विशेष की ओर आकृष्ट करने के लिए।

(2) श्रोता के विचारार्थ कोई विषय वस्तु प्रस्तुत करने के लिए।

(3) उपर्युक्त विषयों के सम्बन्ध में कतिपय विचार जागृत करने के लिए। अर्थात् किसी कार्य का विचार का उपस्थापन मुख्यार्थ है।

(2) भावना

उपर्युक्त कार्यों का विषयों के सम्बन्ध में हमारी कुछ भावनायें भी होती है, उन भावनाओं को अभिवृत्ति (attitude), पक्षपात (Bias), निर्देशन (direction), अभिरूचि (interest) चाहे जो कर लें तो भाषा का प्रयोग इन भावनाओं अभिवृत्तियों या अभिरुचियों को अभिव्यक्त करने के लिए होता है। बोलने के समान सुनने के समय भी यह प्रक्रिया काम करती रहती है। अर्थात् कुछ सुनते समय श्रोता के मन में भी भावनायें उठती रहती है। निष्कर्ष यह है कि वस्तु निर्देश के साथ भावना का अंश  भी मिला रहता है। भावना से सर्वथा रहित वस्तु-निर्देश शायद ही कभी होता हो। इसलिये अर्थ विचार में भावना का भी योग अपरिहार्य है।

(3) वचन-भंगी

जिस प्रकार विषय, वस्तु और काव्य के साथ कुछ न कुछ हमारी भावना भी मिली होती है, उसी तरह श्रोता के प्रति भी हमारी अभिवृत्ति (attitude) हुआ करती है। उदाहरणार्थ श्रोता के अनुसार ही हम शब्दों का चयन या विन्यास करते हैं। बच्चे को कुछ कहते समय हमारी भाषा वहीं नहीं होती जो किसी विद्वत्मण्डली में भाषण करते समय हुआ करती है। गुरुजन और समवयस्क के साथ हम एक तरह से ही बात नहीं करते। मतलब यह कि श्रोता के साथ अपने सम्बन्ध को ध्यान में रखकर ही हम कुछ कहते हैं और उससे हमारे वचन भंगी में अन्तर होता है।

(4) उद्देश्य

भाषा के प्रयोग में जाने-अनजाने वक्ता का उद्देश्य या प्रयोजन भी रहता है। चूंकि हम जो कुछ कहते हैं वह किसी न किसी उद्देश्य से प्रेरित होकर हो, इसलिए हमारे उद्देश्य से भी हमारी भाषा नियंत्रित होती है।

इस प्रकार चार बातें सामने आयी- हमारा कथ्य, कथ्य के प्रति हमारी भावना, श्रोता के प्रति हमारी अभिवृत्ति तथा कथन के पीछे हमारा उद्देश्य प्रकरण के अनुसार इन चारों की मात्रा में अन्तर हुआ करता है। जैसे-विज्ञान में मुख्यार्थ प्रधान होता है किन्तु काव्य में भावना या अभिवृत्ति प्रधान हो जाती है। जहाँ भावना की प्रधानता होगी वहाँ भाषा स्वभावतः रागात्मक हो जायेगी।

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *