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विद्यापति के काव्य का भावपक्ष एवं कलापक्ष | विद्यापति के संयोग श्रृंगार की विशेषताएँ | विद्यापति की काव्य भाषा

विद्यापति के काव्य का भावपक्ष एवं कलापक्ष | विद्यापति के संयोग श्रृंगार की विशेषताएँ | विद्यापति की काव्य भाषा

विद्यापति के काव्य का भावपक्ष एवं कलापक्ष

विद्यापति की ख्याति उनकी पदावली के मुख्य तीन कारण निम्नलिखित है।

(1) वंदना और नचारी, (2) राधा-कृष्ण की प्रणयलीला, (3) विविध-युद्ध, दृष्टिकूट, बाल- विवाह आदि।

पदावली‘ एक संकलन ग्रंथ है। प्रारम्भ में कृष्ण, राधा एवं देवी की वंदना है और अंत में प्रार्थना और नचारियों हैं, जिनमें-दुर्गा, सीता और गंगाजी की स्तुति के अतिरिक्त शिव-विवाह सम्बन्धी पद हैं। ‘पदावली’ का मुख्य विषय-राधा-कृष्ण की प्रेम-लीला है।

भावपक्ष और कालपक्ष के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि विद्यापति के काव्य में यदि भावपक्ष की मंजुल-पयस्विनी कल-कल-निनाद करती हुई पवाहित है तो कलापक्ष की पूर्व साज-सज्जा भी है।

भावपक्ष का विवेचन इस प्रकार है –

(1) रस- विद्यापति का मुख्य प्रतिपाद्य शृंगार रस है। इन्होंने शृंगार रस के दोनों रूपों-संयोग और वियोग का अत्यन्त विस्तार से वर्णन किया है, जो बहुत ही स्वाभाविक एवं मर्मस्पर्शी है। ‘पदावली’ में शृंगार रस की अविरल धारा बहती हुई दृष्टिगोचर होती है।

मधुर रस- मधुर रस का वस्तु-शिल्प शृंगार रस जैसा ही होता है तथापि उसमें भाव का कुछ अन्तर होने से वह भक्ति कहलाता है। भक्ति रस का स्थायी-माव है – कृष्ण-विषयक रति। संक्षेप में यह रति मधुर रस के विभाव के अन्तर्गत कृष्ण को नायक और गोपियों को नायिका माना गया है।

संयोग श्रृंगार- विद्यापति ने संयोग शृंगार के अन्तर्गत विद्यापति ने तरुण और तरूणियों के अन्तर्जगत् की सूक्ष्मताओं को मनोवैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा उपस्थित किया है। हृदय में किस प्रकार की भावधारा उठने से तरुण-तरुणियों की बाह्य चेष्टाएँ किस प्रकार की हो जाती हैं, उनसे विद्यापति भली- भांति परिचित थे। शृंगार रस का जैसा सुन्दर परिपाक उनके काव्य में हुआ है, वैसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता।

श्रृंगार का रस-राजत्व राधा-कृष्ण को नायिका और नायक के रूप में स्वीकार करके स्थापित किया गया हैं। विद्यापति की वयःसन्धि, अभिसार खंडिता, कलहान्तरिता, विरह, प्रवृत्ति-विषयक कविताएँ सुविदित हैं।

विद्यापति के संयोग श्रृंगार की विशेषताएँ

कुलटोपदेश- राधा और कृष्ण की लीला में सखी का काम ही दोनों का मिलाप-साधन करना है।

सद्यःस्माता- नख-शिख के पश्चात् राधा को सद्यःस्नाता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उसकी भावुकता का प्रसार इस प्रकार है

कामिनि करए सनाने।

हेरतहि हृदय हनए पंचबान।।

चिकुर गरए जलधारा।

जनु-मुख सझि डर रोआए अंधारा।।

वियोग श्रृंगार- विद्यापति का वियोग-वर्णन उतना सुन्दर नहीं हैं, जितना संयोग वर्णन है। श्री बड़सूवाला ने लिखा है – “वियोग-वर्णन में विद्यापति को संयोग-वर्णन की अपेक्षा अधिक सफलता मिली है। संयोग में हृदय की वैसी दशा नहीं होती जो वियोग में होती है। विरहिणी का हृदय वेदना से तप्त होकर पारे के समान तरल हो जाता है। विरहिणी की दशा का चित्रण निम्न पद में देखें

सखि मोर पिया।

अबहु आओलुं कुलिस हिया॥

नखर खोआओलुं दिवस लिखि-लिखि।

नयन अँधाओलुं पिया पथ देखि।

प्रकृति-वर्णन- विद्यापति ने प्रकृति-वर्णन केवल उद्दीपन विभाव के अन्तर्गत किया है। डॉ. आनन्दप्रकाश दीक्षित ने लिखा है – “विद्यापति ने प्रकृति को शृंगार के आलम्बन-उद्दीपन के रूप में चित्रित किया है। शुद्ध प्रकृति-वर्णन की ओर भी उन्होंने ध्यान दिया है। मिथिला की प्राकृतिक सुन्दरता भी उन्हें प्रकृति सम्बन्धी काव्य-रचना के लिए प्रेरित कर रही थी। यों तो बसन्त ऋतुराज होने के नाते वैसे ही सवत्र अपनी सौन्दर्यश्री बगराता और आकर्षण का केन्द्र बन जाता है, किन्तु बसन्त में मिथिला की शस्य-श्यामल भूमि भाँति-भाँति के पुरुषों से सजकर और भी उरेहे हैं। शृंगारी कवि होने के नाते बसंत और पावस ही उसको प्रेरित भी करते हैं, इसी से उनकी अनुभूति गहन भी होता है।

कलापक्ष की विशेषताएँ

(1) अलंकार-योजना- अलंकार भाव-विधान और दृश्य-चित्रण में पूर्ण सहयोग देते हैं। विद्यापति की अलंकार-योजना कहीं तो सर्वथा मौलिक है, किन्तु जहाँ उन्होंने परम्परासिद्ध उपमानों को लिया है, वहाँ भी नवीनता का निर्मोक चढ़ा दिया है। विद्यापति ने रीतिकालीन कवियों की ही भांति किसी-किसी पद में अनेक अलंकारों का विधान किया है, किन्तु उनके अलंकार भावाभिव्यक्ति में कहीं भी बाधक नहीं है। विद्यापति ने शब्दालंकारों की ओर अधिक रुचि नहीं दिखायी है। कालिदास की ही भांति विद्यापति भी अनूठी उपमाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। एक-एक पद में अनेक उपमाएं दी गयी हैं। उन्होंने जयदेव तथा उनसे पूर्ववर्ती शृंगारी कवियों के भाव ही नहीं, अपितु अलंकार-विधान को भी अपनाया है, किन्तु उसमें अपनी ओर से चमत्कार भर दिया है।

शब्द-शक्ति- विद्यापति को शब्द-शक्ति का पूर्ण ज्ञान था। वे जानते थे कि किस स्थान पर कौन शब्द सबसे अधिक प्रभावोत्पादक हो सकता है।

भाषा-शैली- विद्यापति को शब्द-शक्ति का पूर्ण ज्ञान था। वे जानते थे कि किस स्थान पर कौन-सा शब्द उपयुक्त एवं प्रभावोत्पादक है। ‘कीर्तिलता’ की भाषा परिनिष्ठित अपभ्रंश है, किन्तु उसमें कुछ-कुछ मैथिली का मिश्रण है। गद्य और पद्य दोनों ही काम में लाये गये हैं। अतः यह रचना केवल कविता में लिखे हुए अपभ्रंश-चरित काव्यों से भिन्न हैं। मैथिली भाषा में लिखे गये पद रस और माधुर्य से ओत-प्रोत हैं। विद्यापति की उपलब्ध रचनाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है

(1) संस्कृत रचनाएँ- शैव सर्वस्वसार, दुर्गा-भक्ति-रंगिनी, पुरुष-परीक्षा, भू-परिकृमा, गोरक्ष- विजय तथा तिखनावली।

(2) अवहट्ट वेसिलबयना की कृतियाँ- ‘कीर्तिलता’ तथा ‘कीर्तिपताका’।

(3) मैथिली भाषा की रचना- ‘विद्यापति की पदावली’।

विद्यापति ने जयदेव की शैली का अनुकरण किया है, और लोक-भाषा के कारण विद्यापति के पदो में मधुरता जयदेव से आगे बढ़ गयी है। ‘गीत गोविन्द’ की शैली में मैथिली भाषा में उन्होंने श्रृंगारी गीतों की परम्परा चलायी। आधुनिक भारतीय भाषा के एक रूप का, मिथिला की देशभाषा की शक्ति और क्षमता का, मधुरता और व्यंजना का सुन्दरतम रूप विद्यापति की पदावली में मिलता है। विद्यापति-जैसा कवि किसी भाषा के साहित्य मन्दिर में देव- तुल्य पूजा जायेगा। हिन्दी-साहित्य के इतिहासकारों ने हिन्दी की एक ‘बोली’ का सुकवि मानकर अपने इतिहास में गौरव के साथ विद्यापति का स्मरण किया है। अब मैथिल भाषा हिन्दी-से भिन्न भाषा के रूप में अपनी स्वीकृति चाहती है। अतः विद्यापति को क्या हिन्दी प्रेमी अपने से पृथक कर देगे? विद्यापति निःसंदेह महाकवि है, श्रेष्ठ गीतकार हैं, रसिक, कवि हैं, बहुभाषी कवि हैं और हमारी भाषा के गौरव हैं। ‘पदावली’ ही विद्यापति की यशोधर कृति है।’

साहित्य में स्थान- विद्यापति को हिन्दी का आदि-गीतकार माना जाता है। ये मैथिल- कोकिल और ‘अभिनव जयदेव’ के नाम से पुकारे जाते हैं। अपभ्रंश में रचित इनकी ‘कीर्तिलता’ तथा ‘कीर्तिपताका’ रचनाएं हैं जो बड़ी महत्वपूर्ण हैं। रामअवध द्विवेदी ने लिखा है – “इनके और जयदेव के पदों में पर्याप्त साम्य है। अतः इनको ‘अभिनव जयदेव’ कहना उचित ही है। अनुभूति के साथ-साथ कला के सुन्दर सामंजस्य के कारण इनका स्थान विश्व के महाकवियों की श्रेणी में आता है।”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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