सार्वजनिक ऋण का प्रभाव | सार्वजनिक ऋण का उत्पादन पर प्रभाव | सार्वजनिक ऋण का वितरण पर प्रभाव | सार्वजनिक ऋण का व्यावसायिक क्रियाओं एवं रोजगार पर प्रभाव
सार्वजनिक ऋण का प्रभाव | सार्वजनिक ऋण का उत्पादन पर प्रभाव | सार्वजनिक ऋण का वितरण पर प्रभाव | सार्वजनिक ऋण का व्यावसायिक क्रियाओं एवं रोजगार पर प्रभाव
सार्वजनिक ऋण का प्रभाव
सार्वजनिक ऋण का प्रभाव किसी अर्थव्यवस्था के लिए वरदान एवं अभिशाप दोनों हैं। आर्थिक संक्रान्ति के दौर से गुजरते देशों के लिए सार्वजनिक ऋण सदैव अहितकर समझना अन्यायपूर्ण है। क्योंकि सार्वजनिक ऋण की दो क्रियायें होती हैं- (अ) सार्वजनिक ऋण का व्यय करना, (ब) सार्वजनिक ऋण को वापस करना। इन दोनों का किसी अर्थव्यवस्था पर मिश्रित प्रभाव पड़ता है। इसलिए सार्वजनिक ऋण की सुखद अनुभूति के साथ-साथ दुःखद परिणति भी होती है। सामान्यतः सार्वजनिक ऋण के प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था के व्यापार, उद्योग, परिवहन, उपभोग, वितरण आदि पर प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। इसमें विशेष बात यह है कि सरकार जब सार्वजनिक ऋण का व्यय करती है तो मुद्रा जिस क्षेत्र में खर्च होती है, उससे सम्बद्ध लोगों में मुद्रा का हस्तान्तरण होता है इस प्रकार सार्वजनिक ऋण के प्रभाव निम्न परिलक्षित होते हैं-
सार्वजनिक ऋण का उत्पादन पर प्रभाव-
सार्वजनिक ऋणों का उत्पादन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है, यदि सार्वजनिक ऋणों का व्यय उत्पादन पर किया जा रहा है तो भविष्य में उत्पादकता वृद्धि होती है, जिससे राष्ट्रीय आय में वृद्धि के फलस्वरूप प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है, जीवन स्तर ऊँचा होने लगता है। इसके विपरीत अनुत्पादक व्यय बढ़ने पर लोगों की आय में तब भी वृद्धि होती है जिससे कार्य करने एवं बचत करने की क्षमता में वृद्धि होती है। लेकिन सरकार ऐसे व्ययों को जब मूलधन + ब्याज सहित वापस करता है, तो करारोपण अपरिहार्य हो जाता है, जबकि उत्पादक व्ययों से अतिरेक लाभ के सृजन से भुगतान की समस्या नहीं रहती है। अतः अनुत्पादक व्यय के पुनर्भुगतान में करारोपण के समय लोगों की कार्य एवं बचत क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव भी अपेक्षित है। इसीलिए सरकार को ऋणों के अनुत्पादक व्ययों से बचना चाहिए।
यदि सरकार ऋणों का व्यय उत्पादक कार्यों पर ही किया जा रहा है तो कुछ लोग ही लाभान्वित होते है जिनकी कार्य एवं बचत क्षमता में वृद्धि होती है लेकिन ऐसे ऋणों का भुगतान चुकाने के समय सम्पूर्ण समाज प्रभावित होता है। इसलिए सार्वजनिक ऋणों का उत्पादन पर अनुकूल प्रभाव अवश्य पड़ता है। जब सरकार के व्यय विवेक आधारित रहे हैं। अन्यथा प्रौद्योगिक इकाइयाँ घाटे में संचालित होने की दशा में सार्वजनिक ऋण द्वारा कार्यशील पूँजी प्रदान करना कभी-कभी अभिशाप बन जाता है। भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र में आंशिक या पूर्णतः लगभग यही स्थिति है।
सार्वजनिक ऋण का वितरण पर प्रभाव-
सिद्धान्ततः सार्वजनिक ऋण धन के असमान वितरण पर अंकुश लगाने का यंत्र है। क्योंकि निर्धन वर्ग को सार्वजनिक ऋण द्वारा आर्थिक सहायता देकर अथवा कुटीर एवं लघु उद्योगों के लिए पूँजी प्रदान करके समाजवादी समाज के लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है। सामान्यतः सरकार सार्वजनिक ऋण का व्यय औद्योगीकरण पर करती है। परिणामस्वरूप धन का हस्तान्तरण कुछ ही लोगों तक हुआ। इसी प्रकार आन्तरिक ऋण को प्राप्त करने में सरकार ने प्रतिभूतियाँ विक्रय की तो धन का हस्तान्तरण धनी वर्ग से सरकार के पास होता है। तत्पश्चात् सरकार ऋण को लोकहित या गरीब वर्ग के हितार्थ प्राथमिकता के आधा पर व्यय कर देती है तो निश्चय ही धन का समान वितरण होता है। दुःख है, व्यावहारिक स्तर पर ऐसा नहीं हो जाता है क्योंकि ऋण की वापसी करों द्वारा करने की दशा में कर-भार गरीब वर्ग को ही सर्वाधिक सहन करना पड़ता है। इस प्रकार सार्वजनिक ऋण के वितरण पर अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों ही प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं।
सार्वजनिक ऋण का व्यावसायिक क्रियाओं एवं रोजगार पर प्रभाव-
सार्वजनिक ऋण व्यावसायिक क्रियाओं एवं रोजगार स्तर को भी प्रभावित करते हैं, क्योंकि ऋणों का व्यय उद्योग, खनिज, कृषि एवं अन्य उत्पादक क्षेत्रों पर होने से रोजगार अवसरों में अभिवृद्धि करता है। इससे देशवासियों की आय में वृद्धि होती है, बचत क्षमता बढ़ती है, निवेश के लिए पूँजी प्राप्त होती है। फलतः आर्थिक स्थायित्व का लक्ष्य प्राप्त होता है। सार्वजनिक ऋणों से राष्ट्रीय एवं विदेशी व्यापारिक क्रियायें तीव्र होती हैं, बाजार का विस्तार होता है। इतना ही नहीं, वर्तमान युग में घाटे की वित्त व्यवस्था की पूर्ति भी सार्वजनिक ऋणों की आधारशिला पर खड़ी की जा रही है। सार्वजनिक ऋणों के व्यय द्वारा आर्थिक मन्दी के सम आर्थिक स्थिरता के बिन्दु तक पहुँचा जा सकता है। अतः सार्वजनिक ऋण व्यावसायिक क्रियाओं एवं रोजगार की दृष्टि से अत्यन्त प्रभावी सिद्ध हुए हैं।
सार्वजनिक ऋण के अन्य प्रभाव-
सार्वजनिक ऋण का वर्तमान उपभोग पर अच्छा प्रभाव पड़ता है, लेकिन भविष्यकाल के उपभोग पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, क्योंकि सार्वजनिक ऋण के व्यय काल में जनता की आय बढ़ती उनका उपभोग स्तर ऊँचा हो जाता है, लेकिन,,ऋण चुकाने के लिए सरकार जब ऊँचे करारोपण करती है तो दुर्भाग्यपूर्ण हो जाता है। इस दशा में उपभोग पर प्रतिकूल प्रभाव दर्शाते हैं।
निष्कर्ष-
किसी देश की अर्थव्यवस्था में ऋणभार की वृद्धि भुगतान क्षमता से अधिक प्राप्त करना आर्थिक बुराई है, लेकिन ऋण भार को पुनर्भुगतान के लिए ऐसे उत्पादक व्यय करके अगाम के लिए स्थाई स्रोत सृजित करना आर्थिक स्फूर्ति का द्योतक है। इसलिए अन्धाधुन्ध ऋणों से बचना चाहिए। आधुनिक युग में ऋणां पर निर्भरता बढ़ती जा रही है, इस परिप्रेक्ष्य में सरकार को देश की भावी पीढ़ी को कर बोझ से बचाने का प्रयत्न करके विवेक का परिचय देना ही श्रेयस्कर होगा। क्योंकि कर बनाम् ऋण में दोनों ही आगम के स्रोत भिन्न उद्देश्यों के लिए संजोए हुए हैं। इनकी आर्थिक प्रासंगिकता को दृष्टिगत रखकर पूँजीगत व्यय सार्वजनिक ऋणों पर एवं अन्य सामान्य व्यय कर से प्राप्त आगम द्वारा करना चाहिए।
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