सन् 1917 की क्रान्ति से पूर्व रूस की दशा | रूस की 1917 की क्रान्ति के पूर्व की राजनीतिक दशा | रूस की 1917 की क्रान्ति के पूर्व की सामाजिक दशा
सन् 1917 की क्रान्ति से पूर्व रूस की दशा | रूस की 1917 की क्रान्ति के पूर्व की राजनीतिक दशा | रूस की 1917 की क्रान्ति के पूर्व की सामाजिक दशा
सन् 1917 की क्रान्ति से पूर्व रूस की दशा
फ्रांस की स्थिति- सन् 1917 की क्रान्ति से पूर्व रूस की राजनीतिक तथा सामाजिक दशा बहुत कुछ वैसी ही थी, जेसी कि सन् 1789 की क्रान्ति से पहले फांस की थी। फ्रांसीसी क्रान्ति के विचार यूरोप के अनेक देशों में फैल चुके थे, किन्तु रूप में अभी उनका यथेष्ट प्रभाव नहीं पड़ा था। यद्यपि सन् 1905 की क्रान्ति के पश्चात् लोकतंत्र की दिशा में एक कदम यह बढ़ाया गया था कि एक निर्वाचित द्युमा (संसद) की स्थापना की गई थी, परन्तु उस घुमा को राजनीतिक शक्ति प्राप्त नहीं थी। शासन की वास्तविक सता पूरी तरह जार (सम्राट) के हाथ में केन्द्रित थी और जार पूरी तरह निरंकुश थी।
सामाजिक दशा
रूस सबसे विशाल देश- रूस पृथ्वी का सबसे विशाल देश था। उसका क्षेत्रफल सारी पृथ्वी के स्थल भाग का छठा अंश था। उसकी जनसंख्या 19 करोड़ थी।
सामाजिक विषमता- रूस की जनता तीन भागों में विभक्त थी; (1) कुलीन सामन्त (2) मध्यम वर्ग और (3) तीसरा वर्ग।
कुलीन सामंत रूस के धनी तथा प्रभावशाली लोग थे। इसके पास बड़ी-बड़ी जमीनें थीं और सरकार के सैनिक तथा असैनिक सभी उच्च पद् इसी वर्ग के लोगों को प्राप्त होते थे। इनकी जमीनों पर खेती कृषक दास (Seri) करते थे। यद्यपि कानून द्वारा कृषक दास प्रथा समाप्त कर दी गई। थी, फिर भी भूतपूर्व कृषक दासों की स्थिति भली नहीं थी।
मध्यम वर्ग में व्यापारी, छोटे जमींदार तथा पूंजीपति थे। इन्हें कुलीन सामन्तों की भांति कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं थे, फिर भी इनकी आर्थिक स्थिति तीसरे वर्ग की अपेक्षा बहुत अच्छी थी। तीसरे वर्ग के प्रति मध्यम वर्ग का व्यवहार अच्छा नहीं था।
तीसरे वर्ग में किसान, कृषक दास और मजदूर थे। इन लोगों की स्थिति शोचनीय थी। देश की सारी उपज इन लोगों की जी-तोड़ मेहनत पर आधारित थी, फिर भी इनको ही जीवन की सुख-सुविधाएं सबसे कम प्राप्त थीं। उन्हें दो समय भरपेट भोजन भी कठिनाई से मिलता था। रूस में कड़ाके की सर्दी पड़ती है। कपड़ा और ईंधन वहां जीवन की बड़ी आवश्यकता है। ये चीजें तीसरे वर्ग के लोगों को दुर्लभ थीं। कुलीन तथा मध्यम वर्ग के लोग तो शिक्षा प्राप्त कर लेते थे। किन्तु तीसरे वर्ग के लोगों के लिए शिक्षा का कोई प्रबन्ध न था। यह तीसरा वर्ग सब सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकारों से वंचित था और बाकी दोनों वर्ग इसका बुरी तरह शोषण करते थे।
पश्चिमी विचारधारा का प्रभाव- परन्तु पश्चिम की हवा रूस तक भी पहुंचने लगी थी। पुस्तकों के द्वारा स्वतंत्रता, समानता, राष्ट्रीयता और लोकतंत्र के विचार रूस में भी फैलने लगे थे और कुछ शिक्षित लोग सांविधानिक शासन की बात करने लगे थे।
राजनीतिक दशा
जार की निरंकुशता रूस का सम्राट निरंकुश शासक था। डा० सत्यकेतु विद्यालंकार ने लिखा है कि “वहाँ का सम्राट निकोलस द्वितीय बड़ा शक्तिशाली राजा था। सारी राजशक्ति उसके हाथों में थी। सम्राट जो चाहे कर सकता था। उसकी मनमानी को रोकने का कोई जबरदस्त साधन जनता के पास नहीं था।”
द्युमा की अशक्तता- यद्यपि सन् 1905 की क्रान्ति के बाद रूस में एक संसद् (द्युम) की स्थापना की गई थी, किन्तु उसके पास शासन की वास्तविक शक्ति नहीं थी। वह जार को केवल सलाह दे सकती थी और यह जार की इच्छा थी कि वह उस सलाह को माने या न माने।
चर्च का प्रभाव- अशिक्षित प्रजा पर चर्च का बहुत प्रभाव था। यह चर्च जार का पूर्ण समर्थक था। यह राजा के दैवी अधिकार के सिद्धान्त का प्रतिपादन और प्रचार करता था। अर्थात् यह प्रजाजनों को समझाता था कि राजा को शासन का अधिकार ईश्वर ने दिया है। अतः उसकी आज्ञा का पालन करना पूजा का परम धर्म है। उसके विरुद्ध करने वाले ईश्वर के कोपभाजन बनेंगे। इस प्रकार चर्च जार की निरंकुश शक्ति का प्रबल समर्थक था।
भ्रष्ट नौकरशाही- जार के शासन में सरकारी कर्मचारी कर्तव्य भावना से शून्य हो गये थे। देशहित को सामने रखते हुए अपने कर्तव्य का पालन करने की बजाय वे जार को खुश करके अपनी पदोन्नति करते जाना ही ठीक समझते थे। वे सुस्त, कामचोर और घूसखोर थे। परन्तु वे जार के पक्के समर्थक थे।
विशाल सेना- चर्च और नौकरशाही के अलावा ज़ार की शक्ति का एक बड़ा आधार रूस की विशाल सेना थी। सेना में भर्ती होने वाले सैनिकों और अफसरों को जीवन की सुख सुविधाएँ बाको प्रजा की अपेक्षा अधिक प्राप्त होती थी। सेना में पदोन्नति जार की कृपा पर अवलम्बित थी, इसलिए सेना उत्साह से जार का समर्थन करती थी। जिस दिन सेना ने जार का समर्थन बन्द कर दिया, उसी दिन जार को अपने पद से हटना पड़ गया।
दरबार पर रानी और रास्पुतिन का प्रभाव- जार निकोलस द्वितीय की रानी जर्मन थी। जार पर उसका बहुत प्रभाव था। उसकी बात को वह कभी टालता नहीं था। यह रानी कुछ धार्मिक स्वभाव की थी। एक रूसी साधु रास्पुतिन ने उस पर अपना असर जमा लिया था। एक बार रानी का एकमात्र पुत्र बीमार पड़ गया। उसके जीवित बचने की कोई आशा न रही। तब केवल प्रार्थना के बल से रास्मुतिन ने उसे स्वस्थ कर दिया। इस चमत्कार से रानी उसकी परम भक्त बन गई। इस भक्ति का लाभ उठाकर रासुतिन ने राजनीति और प्रशासन में दखल देना शुरू कर दिया। नियुक्तियाँ और पदोन्नतियाँ उसकी इच्छा से होने लगी । इससे शासन और भी गड़बड़ा गया। अनेक प्रभावशाली लोग रास्सुतिन से रुष्ट हो गये और उन्होंने उसकी हत्या कर दी। रास्पुतिन की हत्या से जार बहुत दुखी हुआ। प्रो० फिशर ने लिखा हे कि “लुई 16वें की भांति निकोलस द्वितीय भी सार्वजनिक जीवन के लिए नहीं अपितु व्यक्तिगत जीवन के लिए बना था। वह भला व्यक्ति, किन्तु अयोग्य शासक था।
युद्धों में रूस की पराजय- सन् 1855 में हुए क्रीमिया युद्ध में इंगलैंड तथा फ्रांस के हाथों और सन् 1904 में हुए युद्ध में जापान के हाथों रूस को पराजित होना पड़ा था। प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी और ऑस्ट्रिया ने उसे कई लड़ाईयों में बुरी तरह हराया था। इससे सरकार और सेना की दुर्दूलता जनसाधारण के सम्मुख स्पष्ट हो गई। लोग ऐसे भ्रष्ट और दुर्बल शासन को बदलने के इच्छुक थे।
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