इतिहास / History

ऋग्वैदिक काल की सामाजिक दशा | ऋग्वैदिक काल का दैनिक जीवन | ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक जीवन | The social life of the Rigvedic Age in Hindi

ऋग्वैदिक काल की सामाजिक दशा | ऋग्वैदिक काल का दैनिक जीवन | ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक जीवन | The social life of the Rigvedic Age in Hindi

ऋग्वैदिक काल की सामाजिक दशा

ऋग्वैदिक काल की सामाजिक दशा का परिचय ऋग्वेद की अनेकानेक ऋचाओं द्वारा प्राप्त होता है। पं० नेहरू के अनुसार, “ऋग्वेद की आरम्भिक ऋचाओं में बाहरी दुनिया की बातें भरी पड़ी हैं। इनमें प्रकृति की सुन्दरता, रहस्य तथा जीवन के आनन्द का वर्णन है तथा उनमें भरपूर जीवन–बल देखने को मिलता है।” ऋग्वेद के श्लोकों में व्यभिचार, सतीत्व हरण, वैवाहिक विश्वासघात, गर्भपात कराने, धोखे, चोरी और डकैती के उल्लेख मिलते हैं। इसलिए ऋग्वैदिक सामाजिक जीवन को न तो अत्यधिक सभ्य और न ही ऋग्वैदिक लोगों को अति भोले भाले मान लेना चाहिए। ऋग्वेद के श्लोकों में जिस सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति मिलती है उससे ज्ञात होता है कि आर्य जब राजनैतिक संघर्षों से मुक्त होकर एक सुव्यवस्थित सामाजिक जीवन की आधार शिला रख रहे थे। ऋग्वैदिक कालीन समाज का वर्णन निम्नलिखित है –

सामाजिक संगठन के आधार

ऋग्वैदिक सामाजिक जीवन के संगठन के दो प्रमुख आधार थे- (1) आर्य तथा अनार्य, एवं (2) चतुर्वर्ण व्यवस्था । इन दोनों सगंठनों का निर्माण या विकास आर्य अनार्य संघर्ष तथा स्वयं आर्यों के मध्य हुए संघर्ष के परिणामस्वरूप हुआ था।

(1) आर्य तथा अनार्य- आर्य तथा अनार्य एवं स्वयं आर्यों के मध्य हुए संघर्षों के आधार पर ऋग्वैदिक सामाजिक संगठनों का जन्म तथा विकास हुआ था। यथा आर्यों के सामाजिक संगठन पर आर्य तथा अनार्यों के सम्बन्धों का गहरा प्रभाव पड़ा था। डा० बेनी प्रसाद के अनुसार, “पराजय के बाद अनार्यों तथा आर्यों के बीच संग्राम का कोई प्रश्न नहीं था, दोनों वर्ग शान्तिपूर्वक रहने लगे, परन्तु अनार्यों का दर्जा बहुत नीचा था। एक तो साधारण सभ्यता  में वे आर्यों से घट कर थे, दूसरे उनका रंग काला था, तीसरे पराजय का कलंक उनके माथे पर था, चौथे धरती छिन जाने से वे गरीब हो गये थे। ऐसी दशा में जहाँ कोई ऐसे दो वर्ग साथ रहते हैं वहाँ कुछ जटिल प्रश्न जरूर ही पैदा होते हैं।’ आर्यों द्वारा अनार्यों की पराजय के परिणामस्वरूप अनेक सामाजिक प्रश्न पैदा हो गये। आर्य तथा अनार्यों के सम्बन्धों द्वारा वर्ण संकरों की उत्पत्ति तथा अन्य सामाजिक दुविधाओं के कारण ऋग्वैदिक आर्यों के सामाजिक संगठन की रूपरेखा तथा सामाजिक व्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा।

(2) वर्ण व्यवस्था-‌ जब आर्य भारत में आये थे तो पूर्ण रूप से एक ही जाति के थे तथा  उनमें कर्म या जन्मानुसार वर्ण विभिन्नता की भावना मात्र भी नहीं थी। वे भेद भाव रहित होकर कृषि, व्यवसाय, उद्योग तथा धार्मिक अनुष्ठान करते थे। आर्य अनार्य संघर्ष के कारण तथा अनार्यों से सम्पर्क होने के कारण शीघ्र ही उन्हें मनुष्य तथा मनुष्य के बीच भेद का अनुभव होने लगा। यहीं से वर्ण भेद के विचारों ने फलना-फूलना शुरू कर दिया। ऋग्वेद के प्रथम नौ मण्डलों में वर्ण व्यवस्था या जाति प्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। विद्वानों की मान्यतानुसार ऋग्वेद का दसवाँ मण्डल जिसमें विराट पुरुष के शरीर के अंगों से वर्णों की उत्पत्ति बताई गई है ऋग्वैदिक काल की रचना नहीं है। अतः अनेक विद्वानों का विचार है ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का जन्म नहीं हुआ था। हमारा विश्वास है कि ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का अंकुरण मात्र हुआ था। इस समय जाति के रूप में केवल दो ही वर्ग थे आर्य तथा अनार्य।

ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक जीवन

कुटुम्ब- आर्यों के सामाजिक जीवन की सर्वप्रथम तथा सर्वप्रमुख इकाई कुटुम्ब थी। कुटुम्ब पितृसत्तात्मक तो था परन्तु नारी को मातृरूप में विशेष सम्मान प्राप्त था। पितामह अथवा पिता परिवार का प्रधान होता था उन्हें ‘गृहपति’ या कुलाप कहा जाता था। ‘गृहपति’ तथा ‘कुलाप’ का पद वंशानुगत था। ज्येष्ठ पुत्र पिता की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होता था परन्तु कतिपय परिस्थितियों में पारिवारिक सम्पत्ति का विभाजन भी किया जाता था। संयुक्त पारिवारिक प्रणाली के अनुरूप परिवार के सदस्य में समानता तथा सामूहिकता की भावना बनी रहती थी। परिवार के सम्मान, परम्पराओं, रीतिरिवाजों तथा मान्यताओं के पालन को परम कौटुम्बिक कर्त्तव्य समझा जाता था। संक्षेप में, तत्कालीन पारिवारिक जीवन प्रेम, सहानुभूति, कर्त्तव्यनिष्ठा, सद्भावना एवं सामूहिक सुख समृद्धि की प्राप्ति आदि गुणों से ओत प्रोत था। परिवार की सम्पन्नता का मानदण्ड उसकी बृहदता तथा आकार था। ऋग्वेद के अनुसार, “हमारे घर संतान से भरे रहें तथा हमें वीर पुत्रों की कमी न हो।”

विवाह- लौकिक तथा पारलौकिक सुख शान्ति के लिये पुत्र प्राप्ति तथा यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठानों में पली की उपस्थिति के लिये विवाह आवश्यक था। समाज में विवाहित पुरुष को सम्मान प्राप्त था। अतः व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में विवाह का बड़ा महत्व था। विवाह द्वारा ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश होता. था। विवाह के मामलों में स्त्रियों को पर्याप्त स्वतन्त्रता थी। ऋग्वेद की ऋचाओं से विदित होता है कि उस समय प्रेम विवाह भी होते थे। युवक युवतियाँ रुचिनुसार प्रेम करते थे। वे छिप कर मिला करते तथा प्रेम विवाह कर लेते थे। एक ऋचा में युवक द्वारा मन्त्र प्रयोग करके बालिका के घर वालों को सुला देने का वर्णन किया गया है। प्रेम विवाह तथा तत्कालीन विवाह प्रणाली के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बाल विवाह का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में बाल विवाह का कोई उल्लेख नहीं है। इसके विपरीत नामक स्त्री के प्रौढ़ावस्था तक अविवाहित रहने का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद की 1/11; 1/71/1 ऋचाओं से पता चलता है कि कतिपय समर्थ पुरुष बहुविवाह करते थे। ऋग्वेद में अनेक ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं जिनमें बहुविवाह करने वाले पुरुषों दुविधाओं तथा कष्टों का पता चलता है। ऋग्वेद की ऋचा 10/18/88 से पता चलता है कि विधवा विवाह का भी प्रचलन था। इस ऋचा में कहा गया है ”स्त्री, तुम उसके पास लेटी हुई हो जिसकी इहलीला समाप्त हो गई है। अपने मृत पति से हट कर जीवितों के संसार में आओ  और उसकी पत्नी बनो जो तुम्हारा हाथ मांगता है और तुमसे विवाह करने को उत्सुक हैं।”

गोद लेने की प्रथा- पितृ प्रधान परिवार प्रणाली होने के कारण सन्तानहीनता बड़ा भारी दोष माना जाता था। सन्तान हीन पुरुष दूसरों के पुत्रों को गोद ले सकते थे परन्तु गोद ली हुई सन्तान वास्तविक सन्तान के समकक्ष नहीं समझी जाती थी।

दास प्रथा- ऋग्वेद की अनेकानेक ऋचाओं में दास तथा दासियों का उल्लेख मिलता है। ऋचा 1/92/8 में एक ऋषि ऊषा से पुत्रों के साथ-साथ दासों के लिये प्रार्थना करता है। ऋचा 8/19/36 के अनुसार राजा जसदस्यु ने पचास दासियाँ दान में दी थीं। इस आधार पर हम यह मान सकते हैं कि ऋग्वैदिक समाज में दास प्रथा का प्रचलन था।

अतिथि सत्कार- ऋग्वैदिक सामाजिक जीवन में अतिथि सत्कार का विशेष महत्व था। ऋग्वेद में अग्निदेव को अतिथि कहा गया है। राजा दिवोदास को अतिथियों का विशेष सत्कार करने के कारण ‘अतिथिग्व’ की संज्ञा से विभूषित किया गया है।

नैतिक आदर्श- ऋग्वैदिक सामाजिक जीवन नैतिकता पूर्ण था। अनेक मन्त्रों में असत्य की निन्दा की गई है तथा झूठा अपराध लगाने वाले को शाप दिया गया है। अनेक ऋचाओं में सत्कर्म तथा सद्मार्ग के लिये देवताओं से याचना की गई है। सत्य को ‘ऋत’ कहते हुए अनृत को जीतने की प्रार्थनाएँ भी की गई हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि ऋग्वैदिक आर्य नैतिक आदर्शों में बड़ी आस्था रखते थे।

शिक्षा- ऋग्वैदिक काल के सामाजिक जीवन में शिक्षा को प्रमुख स्थान प्राप्त था। सामाजिक कुशलता प्राप्त करने के लिए शिक्षा का उद्देश्य आध्यात्मिक एवं मानवीय गुणों के मध्य सन्तुलन स्थापित करना था। शिक्षा अनिवार्य नहीं थी। शिक्षा का केन्द्र आचार्य का घर था। इसे गुरुकुल कहा जाता था। गुरु के समीप रहकर शिष्य गुरु के दैनिक जीवन तथा कार्यों में जो सहायता करता था उसी के द्वारा शिष्य को जीवन विषयक ज्ञान हो जाता था। डा० राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार –

“Thus the education was treated mainly as a process of life and growth of discipline, development and as the instrument of knowledge.”

ऋग्वैदिक काल का दैनिक जीवन

ऋग्वैदिक काल के सामाजिक संगठन के आधारों तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं के उपरोक्त वर्णन के उपरान्त अब हम उस युग के दैनिक जीवन पर प्रकाश डालेंगे।

  1. आहार- ऋग्वैदिक आर्यों के आहार के विषय में कीथ महोदय ने लिखा है, ”समूचे भारतीय इतिहास में तरकारियों तथा फलों के ही भोजन उपादान रहे हैं, परन्तु ऋग्वैदिक आर्य मांसाहारी थे।” इस उल्लेख से हम पूर्ण रूप से सहमत नहीं हो सकते। ऋग्वेद में मछली का नाम नहीं लिया गया है तथा गाय माता के समान एवं पवित्र मानी गई है। जहाँ तक इस सम्बन्ध में ऋग्वेद के अन्य विवरणों का प्रश्न है उनके आधार पर हम केवल इतना ही मान सकते हैं कि आर्य मांस का उपभोग विशेष अवसरों पर ही करते थे। सामान्य रूप से वे शाकाहारी ही प्रतीत होते हैं। दूध तथा इसी से बने हुए अन्य भोजन उपादान, जौ, चावल तथा घी के मिश्रण से बना हुआ ‘यव’ (हलुआ) गेहूँ, धान, उड़द, मूंग तथा अन्य दालें उनका प्रिय आहार थे। ऋग्वेद में रोटी तथा तवे का उल्लेख नहीं है अतः हम निश्चपूर्वक नहीं कह सकते कि वे आटे का उपयोग किस रूप में करते थे। सामान्यतः ऋग्वैदिक आर्यों का भोजन सादा, पौष्टिक, सन्तुलित तथा सुरुचिपूर्ण था।
  2. सुरापान- यदि ऋग्वेद के नवें तथा छः अन्यसूक्तों में ‘सोम’ की मादकता तथा आनन्ददायिनी गुणों का वर्णन किया गया है तो ऋग्वेद के आठवें मण्डल में कहा गया है ‘पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासों न सुरायाम” (अर्थात् सुरापान करके लोग दुर्मुद हो जाते हैं तथा सभा समितियों में उत्पात करते हैं।) अतः वे सुरा के गुण तथा दोषों से पूर्णतः परिचित थे। यज्ञादि एवं अन्य विशिष्ट अवसरों पर सुरापान किया जाता था।
  3. वस्त्र-वेशभूषा- इस काल में प्रमुख रूप से प्रयुक्त किये जाने वालों तथा वस्त्र प्रकारों के नाम ‘नीवी’ (धोती के रूप में प्रयुक्त) ‘वास’ (नीचे पहनने का वस्त्र), ‘अधिवास’ (ऊपर पहनने का वस्त्र) ‘द्रार्पि’ (लबादे की भाँति का वस्त्र) ‘वाधूय’ (नववधु द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र) ‘अधोवस्त्र’ कमर के नीचे के भाग में पहना जाने वाला ‘उत्तरीय’ आदि हैं। ऋग्वेद के अनेक स्थानों पर ‘उष्णीय’ (सर पर पहनी जाने वाली पगड़ी) का भी उल्लेख मिलता है। उनके वस्त्र ऊन, सूत तथा मृग चर्म द्वारा बनाये जाते थे। वस्त्रों की सिलाई, रंगाई तथा छपाई भी होती थी। उत्सवों आदि के अवसर पर विशेष आकर्षक वस्त्र पहनने की प्रथा थी।
  4. आभूषण- ऋग्वेद में उल्लिखित आभूषणों में ‘क्रम्ब’ (माथे का टीका), निष्क (गले में पहना जाने वाला) ‘खादि’ (अंगूठी), रुक्स (गले में पहना जाने वाला) ‘केयूर’, ‘नूपुर’, ‘कंकण’ मुद्रिका ‘कर्ण शोभन’ आदि प्रमुख हैं। स्त्री तथा पुरुष समान रूप से आभूषण प्रेमी थे। आभूषणों के निर्माण में स्वर्ण, रजत, बहुमूल्य पत्थर, हाथी दाँत तथा मोती आदि का प्रयोग किया जाता था।
  5. श्रृंगारप्रियता- ऋग्वेद (2/123/10) में कहा गया है कि अनेक स्त्रियाँ अपने श्रृंगार तथा सौन्दर्य पर फूली नहीं समाती थीं तथा वे प्रेमियों का चित्तहरण करने में कुशल थीं। वेणी स्त्री सौन्दर्य का प्रतीक थी। तत्कालीन युवतियाँ अपने केशों को विविध प्रकार से गूंथती थी। विविध पुष्पों तथा आभूषणों द्वारा श्रृंगार किया जाता था। काजल, सुगन्धित तेल तथा इत्र, विविध रंगों तथा तिलक आदि का प्रयोग करके शारीरिक सौन्दर्य तथा श्रृंगार में पर्याप्त रुचि थी। पुरुष भी लम्बे केश रखते थे। दाढ़ी को ‘श्मश्रु’ कहा गया है तथा ‘क्षौर’ कराने का भी उल्लेख मिलता है। नाई को ‘वत्पा’ कहा जाता था।
  6. मनोरंजन- ऋग्वैदिक आर्यों का जीवन उल्लासपूर्ण एवं आनन्दमय था। आमोद-प्रमोद के लिए विविध उत्सवों का आयोजन किया जाता था। नृत्य, गायन, वादन आदि के द्वारा संगीत का आनन्द लिया जाता था। आखेट, मल्लयुद्ध, रथों की दौड़ का आयोजन भी होता था। खुले मैदान में स्त्रियाँ तथा पुरुष झाँझ की लयताल पर नृत्य भी किया करते थे। द्युत क्रीड़ा भी व्यसन तथा मनोरंजन का साधन थी ।

समाज में स्त्रियों की दशा तथा स्थान

ऋग्वैदिक सामाजिक परम्परानुसार स्त्रियों की दशा अति उन्नत थी। बौद्धिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में नारी सहयोग आपेक्षित था। पर्दे की प्रथा नहीं थी तथा स्त्रियों को शिक्षा प्राप्ति का समान अवसर प्राप्त था। ऋग्वेद संहिता की अनेक ऋचाओं की रचना स्त्रियों द्वारा की गई थी। ऋग्वेद के अनेक उल्लेखों में पुत्र तथा पुत्रों की दीर्घायु की कामना की गई है। पुत्र के अभाव में पुत्री को पुत्र के समान समझा जाता था। बाल-विवाह का सर्वथा अभाव यह प्रमाणित करता है कि यौवनावस्था आने पर विवाह होता था तथा इस समय स्त्रियाँ अनेक प्रकार के कार्यों में शिक्षा तथा अभ्यास प्राप्त कर लेती थीं। कन्याओं को वैदिक शिक्षा दी जाती थी तथा पुत्री का उपनयन भी होता था। ऋग्वेद में लोपामुद्रा, घोषा, सिकता तथा विश्वारा जैसी पारंगत तथा विदूषी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है। भार्या की अनुपस्थिति में यज्ञों का अनुष्ठान तथा सम्पादन नहीं किया जा सकता था यथा स्त्रियों को भी यज्ञ करने का अधिकार था। स्त्रियों के अपने विचार, व्यवहार तथा आदर्श उच्च थे।

निष्कर्ष

ऋग्वैदिक काल के सामाजिक जीवन के उपरोक्त वर्णन द्वारा हमें इस निष्कर्ष की प्राप्ति होती है कि उस समय का सामाजिक जीवन भावी भारत के समाज का पहला चरण था। अपने इस प्रारम्भिक स्वरूप में ही भारतीय समाज ने अनेकानेक उत्कृष्टताएँ कर ली थीं। डा० बेनीप्रसाद के शब्दों में, “ऋग्वेद के समय में जैसा उल्लास और सामाजिक स्वातन्त्र्य था, वैसा हिन्दुस्तान में फिर कभी नहीं देखा गया। प्रेम और प्रसन्नता के भाव में आर्य लोग आनन्द से जीवन व्यतीत करते थे। परलोक की बहुत अधिक चिन्ता नहीं थी, तप का कोई विचार नहीं था, खान-पान की कोई रोक-टोक नहीं थी।” ऋग्वैदिक कालीन सामाजिक जीवन का आकलन करते हुए पं० नेहरू ने ‘डिसकवरी ऑफ इण्डिया’ में उचित ही लिखा

“The early Vedic Aryans were so full of zest for life that they paid little attention to the soul. In a vague way they believed in some kind of existence after death.”

उन्मुक्त तथापि नैतिक मान्यताओं के प्रति आस्थावान ऋग्वैदिक समाज सभ्यता के प्रारम्भिक युग में उन्नति के शिखर पर जा पहुंचा था। ऋग्वेद की ऋचाओं में सभ्यता तथा संस्कृति की दोनों धारायें साथ-साथ प्रवाहित हो रही थीं। यह पूर्णतः सत्य तथा निश्चित है कि ऋग्वैदिक सामाजिक जीवन अपने गुणों तथा उपलब्धियों के कारण तत्कालीन विश्व की समस्त सभ्यताओं तथा संस्कृतियों से बढ़चढ़ कर था।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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