सीखने में अभिप्रेरण | अभिप्रेरण क्या है | अभिप्रेरक का अर्थ | अभिप्रेरण और अभिप्रेरक में अन्तर | अधिगम में अभिप्रेरण का तात्पर्य | अभिप्रेरकों के प्रकार | बालकों को कैसे अभिप्रेरित किया जावे | अभिप्रेरण का शिक्षा में महत्व | अधिगम में अभिप्रेरण के महत्व सम्बन्धी कुछ कथन

सीखने में अभिप्रेरण | अभिप्रेरण क्या है | अभिप्रेरक का अर्थ | अभिप्रेरण और अभिप्रेरक में अन्तर | अधिगम में अभिप्रेरण का तात्पर्य | अभिप्रेरकों के प्रकार | बालकों को कैसे अभिप्रेरित किया जावे | अभिप्रेरण का शिक्षा में महत्व | अधिगम में अभिप्रेरण के महत्व सम्बन्धी कुछ कथन

सीखने में अभिप्रेरण 

विद्यालय एवं समाज में प्रत्येक छात्र का जीवन व्यतीत होता है, और इन्हीं के, वातावरण में वह उत्तेजकों से अभिप्रेरित होकर शिक्षा ग्रहण करता है। इस संबंधित में प्रो० सीयर्स एवं हिलगार्ड ने लिखा है कि “विद्यालय की कक्षा एक शक्ति संरचना के साथ जिसमें सम्बन्ध, वयस्क-बालक के सम्बन्ध शामिल है, एक सामाजिक परिस्थिति होती है, अतएव अत्यधिक अनुकूल दशाओं की आवश्यकता इन सभी कारकों को ध्यान रखते हुए होती है, यह मानते हुए कि अध्यापक मॉडल और बल देने वाला होता है और एक प्रकार से उन्हें पूर्णतया समझता हुआ व्यक्ति होता है तथा आन्तरिक अभिप्रेरकों को मुक्त करने वाला होता है ।” इस कयन से स्पष्ट होता है कि शिक्षालय में अध्यापक अधिगम हेतु अभिप्रेरण देने वाला होता है।

अभिप्रेरण क्या है

अधिगम के लिए अभिप्रेरण अनिवार्य कहा जाता है। अभिप्रेरण व्यक्ति के मूल व्यवहार और अर्जित व्यवहार का स्रोत कहा जाता है। प्रो० केली ने अधिगम प्रक्रिया की कुशल और सुचारु व्यवस्था में अभिप्रेरण को केन्द्रीय कारक बताया है। अन्य विद्वानों ने अभिप्रेरण को अधिगम का अभिन्न अंग कहा है। इसी के द्वारा सीखने वालों को उत्साह, शक्ति, बल, उत्तेजना, क्रियाशीलता आदि सभी प्राप्त होते हैं। वास्तव में वह मनुष्य के भीतर पाई जाने वाली वह शक्ति वह दशा, वह प्रभाव है जिसके फलस्वरूप अधिगम करने वाला अपने कार्य में प्रस्तुत होता है और उसे समाप्त करके ही छोड़ता है। अंग्रेजी का शब्द ‘मोटीवेशन’ यह बताता है कि अभिप्रेरण मनुष्य की वह आन्तरिक भाव दशा है जो उसे गति देकर क्रिया को सम्पन्न कराती है। अंग्रेजी का शब्द ‘मोटिव’ (अभिप्रेरक) उस साधन को बताता है जिससे मनुष्य गतिवान होता है या आगे बढ़ता है। जब इस प्रकार का साधन मनुष्य के भीतर कार्य करने लगता है तो मनुष्य की जो आन्तरिक स्थिति या दशा होती है उसे अभिप्रेरण कहते हैं।

(अ) प्रो० जॉनसन- अभिप्रेरण प्राणी के व्यवहार का संकेत करने एवं दिशा दिखाने वाले क्रियाकलापों के सामान्य प्रतिदर्श का प्रभाव है।

(ब) प्रो० एम० के० थॉमसन-अभिप्रेरण आरम्भ से लेकर अन्त तक मानव व्यवहार के स्रोत के प्रत्येक कारक को शामिल करता है।

(स) प्रो० ई० एल० लॉवेल-अभिप्रेरण औपचारिक रूप से मनोशारीरिक या आन्तरिक प्रक्रिया है जो किसी ऐसी आवश्यकता के द्वारा प्रारम्भ होती है जो उस क्रिया को जन्म देती है जिसके द्वारा उस आवश्यकता को सन्तुष्ट होना होता है |

(द) प्रो० मैकडॉनाल्ड- अभिप्रेरण व्यक्ति के – भीतर- पाया जाने वाला एक ऊर्जा- परिवर्तन है जिसकी विशेषता भावात्मक जाग्रति और आशान्वित लक्ष्य की ओर प्रतिक्रियाएँ होती हैं।

निष्कर्ष अभिप्रेरण एक आन्तरिक भाव-स्थिति है जो व्यक्ति के मन एवं शरीर दोनों को प्रभावित करती है और फलस्वरूप व्यक्ति एक निश्चित ढंग का व्यवहार करता है। यह व्यवहार उस समय तक होता रहता है। जब तक व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेता है।

अभिप्रेरक का अर्थ

कुछ मनोविज्ञानियों ने ‘मोटिव’ शब्द का प्रयोग ‘मोटीवेशन’ के लिए भी किया है। परन्तु अभिप्रेरक मोटिव अभिप्रेरण मोटीवेशन नहीं हैं। अभिप्रेरक भी आन्तरिक और वाह्य स्थिति को कहा जाता है लेकिन उसमें भावात्मक अंश नहीं पाया जाता है केवल उद्दीपक की तरह वह क्रिया की ओर उन्मुख करने वाला साधन है।

(क) प्रो० शेफर और अन्य- एक अभिप्रेरक की परिभाषा क्रिया के लिए एक प्रवृत्ति के रूप में दी जा सकती है जो एक अन्तर्नोद के द्वारा आरम्भ होती है और समायोजन द्वारा प्राप्त होती है।

(ख) प्रो० गिलफोर्ड- अभिप्रेरक एक विशेष आन्तरिक कारक या दशा है जो क्रिया को आरम्भ करने और बनाए रखने में प्रवृत्त करता हैं।

(ग) प्रो० मैकडूगल- अभिप्रेरक व्यक्ति के भीतर की वे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दशाएँ हैं जो किसी कार्य के लिए प्रेरित करती हैं।

(घ) प्रो० मन- अभिप्रेरक मनुष्य की मूल आवश्यकताओं को असन्तुष्ट करने वाली सामाजिक संस्थाओं के उत्पाद्य हैं।

निष्कर्ष- अभिप्रेरक मनुष्य के भीतर और बाहर पाए जाने वाले ये कारक हैं जो उसे उसकी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि में सहायता देते हैं, अतएव ऐसे कारकों के कारण मनुष्य अपनी सन्तुष्टिक तथा क्रियाशील रहता है। उदाहरण के लिए मनुष्य को भूख लगती है तो भूख अभिप्रेरक है क्योंकि भूख के कारण वह भोजन बनाता है, खाता है और भूख की आवश्यकता को सन्तुष्ट करता है। इसी प्रकार प्रो० मन ने “युद्ध”, को एक अभिप्रेरक बताया है जो लड़ाई करने वाले को कड़ाई करने के लिए तत्पर करता है। युद्ध कर लेने पर अभिप्रेरक हट जाता है। आज कल अपने देश में नेतागीरी चल रही है इसलिए कि उसके आर्थिक लाभ की सिद्धि होती है। एम० एल० ए०, एम० पी०, मिनिस्टर, चीफ मिनिस्टर या प्राइममिनिस्टर जो कोई भी हो अपनी नेतागिरी के लिए सतत् प्रयास करते हैं और उचित-अनुचित सभी कार्य करते रहते हैं। अतएव आर्थिक लाभ, सामाजिक लाभ, पद-प्राप्ति, शासन, मनमाना कार्य ये सब अभिप्रेरक ही हैं जो व्यक्ति के भीतर और बाहर दोनों जगह पाये जाते हैं।

अभिप्रेरण और अभिप्रेरक में अन्तर

अभिप्रेरण हमारी भाव दशा को बताता है जो हमेशा मन में होगी। इसलिए यह आन्तरिक स्थिति होती है यद्यपि इसका प्रभाव मन और शरीर दोनों पर पड़ता है जिससे क्रिया होना सम्भव होता है। अभिप्रेरक की स्थिति भाव दशा के रूप में होकर शारीरिक और मानसिक उत्तेजक के रूप में होती है। परन्तु अभिप्रेरण एव अभिप्रेरक दोनों का सम्बन्ध मनुष्य से होता है। वास्तव में अभिप्रेरण अभिप्रेरक का उत्पाद्य कहा जा सकता है।

मनुष्य अपनी परिस्थिति का सामना करने में आन्तरिक वाह्य रूप से अव्यवस्थित पाया जाता है। यह एक स्वाभाविक दशा है स्थिति है, अथवा एक विन्यास है जिसमें मनुष्य अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए प्रयलशील पाया जाता है। इसे प्रकट करते हुए प्रो० स्टैगनर ने संकेत किया है कि “ऊर्जा संचय की गतिशीलता उस समय आरम्भ होती है जब तक आन्तरिक सन्तुलन अव्यवस्थित होता है और उस समय तक होती रहती है जब तक यह सन्तुलन पुनः प्राप्त नहीं होता है ।” और यही अभिप्रेरण है।

प्रो० स्टैग्नर के शब्दों से मालूम होता है कि अभिप्रेरण सन्तुलन को पुनः प्राप्त करने की दशा है। इस प्रकार का सन्तुलन ऊर्जा के संचय की गतिशीलता में पाया जाता है। अभिप्रेरण में दो भाव-दशाएँ होती हैं—(1) ऊर्जा की संचय गतिशीलता, (2) आन्तरिक सन्तुलन की पुनः प्राप्ति तथा उसकी चेष्टा । अतएव यह एक जटिल दशा है। अभिप्रेरक इस दशा को उत्तेजित करने वाला कारक कहा जाता है। दूसरे शब्दों में हम यों कह सकते हैं कि अभिप्रेरक आन्तरिक सन्तुलन को प्राप्त करने में ऊर्जा संचय को गतिशील करने वाला कारक होता है।

अधिगम में अभिप्रेरण का तात्पर्य

अधिगम या सीखना केवल एक मानसिक प्रक्रिया मात्र नहीं है। हमें अधिगम का तात्पर्य विद्यालय की परिस्थितियों में ज्ञान, अनुभव और कौशल के अर्जन की परिस्थिति का सामना करता है तो उसकी आन्तरिक दशा में एक अव्यवस्था होती है। उदाहरण के लिए किसी बालक को गणित का एक प्रश्न मिला या विज्ञान का एक प्रयोग मिला अथवा काष्ठ की किसी वस्तु के निर्माण का कार्य मिला तो निश्चित है कि उसके मन में जिज्ञासा होगी, उत्साह होगा, भय भी होगा, फल प्राप्ति की आशा-निराशा भी होगी। यदि यह अव्यवस्थिति उसे एक निश्चित एवं धनात्मक दिशा में कार्य करने की ओर अर्थात् गणित या विज्ञान के प्रश्न या प्रयोग पूरा करने की ओर भाय दशा उत्पन्न करे और क्रिया में लगावे तो वहाँ हम अधिगम में अभिप्रेरण का होना पाते हैं। इस प्रकार आन्तरिक रूप से पुनः बल प्राप्त होता है और मनुष्य अपनी क्रिया में जुटा रहता है और उसे पूरा करके छोड़ता है। अन्तर्नोद भी एक आन्तरिक बल के रूप में कार्य निष्पादन में प्राणी को लगाता है परन्तु कार्य पूरा हो पायेगा कि नहीं यह अन्तर्नोद में नहीं होता है।

अधिगम में अभिप्रेरण अभिप्रेरकों के द्वारा उत्तेजित किया जाता है। ऊपर गणित या विज्ञान के कार्य को पूरा करने में अध्यापक की सहायता, निर्देशन, शिक्षण आदि अभिप्रेरक हैं। इसके अलावा कार्य पूरा होने पर विद्यालय के विद्यार्थी समाज में सम्मान, प्रतिष्ठा, पद, पारितोषिक, प्रलोभन एवं जीवन में सफलता ये सब भी अभिप्रेरक हैं। ये सब न भी मिले यदि मनुष्य को आन्तरिक सुख, उसकी आकांक्षा की प्राप्ति हो जाये तो वहाँ भी अभिप्रेरक होते हैं। तुलसीदास जी ने स्वान्तः सुखाय के लिए रामचरितमानस लिखा। उनका आन्तरिक सुख, भक्ति की पूर्ति यह रामचरितमानस के लिखने का अभिप्रेरक था। कक्षा में लड़के केवल पास हो जावें, स्नातक बन जावें ऐसे ‘स्वान्तःसुख’, अभिलाषा-इच्छा के कारण ये शिक्षा लेते हैं। यह सब अभिप्रेरक ही कहे जावेंगे। अब साफ-साफ मालूम हो गया होगा कि अधिगम मे अभिप्रेरण का तात्पर्य उस आन्तरिक भाव-दशा से होता है जो विभिन्न अभिप्रेरकों के द्वारा उपस्थित या उत्पन्न होती है और जिसके फलस्वरूप मनुष्य ज्ञान कौशल के अर्जन में अन्त तक जुटा रहता है। इससे ज्ञान, अनुभव, कौशल आदि प्राप्त, “स्वान्तः सुख” होता है, मन की अशान्ति और अव्यवस्था दूर होती है।

अभिप्रेरकों के प्रकार

अभिप्रेरक और अभिप्रेरण भी कई प्रकार के हैं। अभिप्रेरक के प्रकार तो सीधे समझे जा सकते हैं परन्तु अभिप्रेरण के प्रकार समझना कठिन है, फिर भी जिस प्रकार अभिप्रेरक होगा उसी पर आधारित अभिप्रेरण भी तद्रूप होगा।

(i) प्रो० थॉमसन ने दो प्रकार के अभिप्रेरक बताए हैं : (क) प्राकृतिक अभिप्रेरक और (ख) कृत्रिम अभिप्रेरक । प्राकृतिक अभिप्रेरक जन्म प्राप्त होता है जैसे भूख, प्यास, निद्रा, सुरक्षा आदि। इस दृष्टि से इसे जन्मजात अभिप्रेरक भी कह सकते हैं। कृत्रिम, अभिप्रेरक पर्यावरण से सम्बन्धित होता है। इसका आधार प्राकृतिक अभिप्रेरक होता है। अपने वातावरण, परिस्थिति, दशा और सम्पर्क से मनुष्य प्रभावित होता है और तदनुकूल कार्य-व्यवहार करता है। इस प्रकार से समाज के पर्यावरण या प्रकृति के वातावरण के अनुकूल व्यक्ति आचरण करता है। सामाजिक सम्मान, प्रतिष्ठा, पद प्राप्ति की आकांक्षा, समाज-सेवा की भावना, सामाजिक सम्बन्ध, प्रकृति के तत्व से सुरक्षा से साधन (मकान, वन, आदि) ये सब कृत्रिम अभिप्रेरक हैं। आजकल सिनेमा भी एक कृत्रिम अभिप्रेरक कहा जाता है। चित्र, मॉडल, पुस्तकें आदि भी ऐसे कृत्रिम अभिप्रेरक हैं।

(ii) प्रो० मैसलो ने अभिप्रेरक को (क) जन्मजात और (ख) अर्जित दो वर्गों में बाँटा है। जन्मजात अभिप्रेरक में भूख, प्यास, यौन, सुरक्षा आदि आते हैं। अर्जित अभिप्रेरक के अन्तर्गत उन मूलप्रवृत्तियों को रखा गया है जो व्यक्तिगत एवं सामाजिक क्रियाओं में लगाती है। इसलिए इस प्रकार के अभिप्रेरक को पुनः दो भागों में व्यक्तिगत और सामाजिक वर्गों में बाँट दिया गया है। व्यक्तिगत अभिप्रेरक मनुष्य की आदत अभिवृत्ति, रुचि, अभ्यास और अचेतन क्रियाएँ हैं। सामाजिक अभिप्रेरक के अन्तर्गत समाज में रहने की इच्छा, समाज के कार्य में भाग लेना, युद्ध, मेला, सहयोग, स्वाग्रह एवं आत्मस्थापना आदि आते हैं।

जन्मजात और अर्जित अभिप्रेरकों में अन्तर समझ लेना चाहिए-

जन्मजात अभिप्रेरक अर्जित अभिप्रेरक
(1) जन्म से प्राप्त होता है, अतः प्राकृतिक एवं स्वाभाविक होता है। (1) पर्यावरण से प्राप्त होने से अप्राकृतिक और अस्वाभाविक होता है।
(2) अपरिवर्तनीय होता है, मनुष्य को कार्य के लिए बाध्य करता है। (2) परिवर्तनीय होता है, मनुष्य उसे हटा भी सकता है।
(3) व्यक्ति के मन एवं शरीर से संबंधित होता हैं। (3) व्यक्ति के मन और शरीर को प्रभावित करता है फिर भी व्यक्ति के नियंत्रण में होता है। व्यक्ति स्वेच्छा से इसका प्रयोग करता है।
(4) व्यक्ति की आंतरिक न्यूनता या अधिकता से क्रियाशील होता है। (4) व्यक्ति की सामाजिक न्यूनता या अधिकता के कारण क्रियाशील होता है।
(5) स्वत: क्रियात्मक बनता है। (5) दूसरे से तुलना करने पर क्रियात्मक बनता है।
(6) प्राथमिक और अत्यधिक आवश्यक होता है। (6) कम आवश्यक भी कहा जाता है।

जन्मजात अभिप्रेरक अर्जित अभिप्रेरक का आधार माना जाता है। अतएव अभिप्रेरक अविच्छेद्य सम्बन्ध पाया जाता है।

(iii) अन्य लोगों के द्वारा अभिप्रेरक (क) जैविक और (ख) सामाजिक कहा गया है। जैविक अभिप्रेरक के अन्तर्गत भूख, प्यास, नींद, थकान, मल-मूत्र त्याग, प्रेम, क्रोध, काम आदि भाव आते हैं। सामाजिक अभिप्रेरक व्यक्तिगत और सामूहिक होता है। “व्यक्तिगत अभिप्रेरक वे हैं जो किसी विशेष संस्कृति में स्वतः प्रभाव डालने वाले नहीं होते जब कि वे शारीरिक और सामान्य सामाजिक अभिप्रेरकों से सम्बन्धित होते हैं।”-(प्रो० मन)। इसके उदाहरण हैं व्यक्ति की आकांक्षा उसके जीवन का लक्ष्य, उसकी आदतें, उसके व्यसन, रुचि, अभिवृत्ति, अचेतन शक्ति। सामूहिक अभिप्रेरक समाज के जीवन, रहन- सहन, पर्यावरण के कारण अर्जित किए जाते थे। इनमें सामूहिकता, आत्म गौरव, संग्रह, युयुत्सा, दैन्य आदि की मूल प्रवृत्तियाँ, अनुकरण, संकेत, सहानुभूति की समन्वय प्रवृत्तियाँ, सामाजिक दायित्व, समाज-सेवा, सामाजिक प्रतिष्ठा आदि शामिल हैं। इस प्रकार जैविक एवं सामाजिक अभिप्रेरक जन्मजात और अर्जित अभिप्रेरक होते हैं फिर भी कहीं कहीं दोनों में अन्तर भी हैं। मुख्यतः हम जन्मजात या प्राकृतिक और अर्जित या सामाजिक दो वर्गों में अभिप्रेरक को बाँट सकते हैं।

अभिप्रेरण के सिद्धान्त

प्रो० के० बी० मैडसन ने निम्नलिखित सिद्धान्त बताए हैं-

(1) मूल प्रवृत्तियों का सिद्धान्त- जिसमें मूल प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को अभिप्रेरित करती हैं-जैसे भूख की मूल प्रवृत्ति रोजगार दूढने में अभिप्रेरण देती है।

(2) मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त- जिसमें अचेतन मन में दबी हुई भावनाएँ प्रबल होती है और व्यक्ति के कार्य-व्यापार के लिए अभिप्रेरित करते हैं जैसे गरीब व्यक्ति धन बचाने का प्रयत्न करता है क्योंकि वह समझता है कि वक्त पड़ने पर उसे कोई मदद नहीं करेगा।

(3) सामाजिक सिद्धान्त- जिसमें समाज के व्यक्ति, कार्य व्यापार, प्रतियोगिताएँ सदस्यों को अभिप्रेरित करती हैं।

(4) व्यवहार या अधिगम सिद्धान्त- जिसमें मनुष्य का निजी व्यवहार और अधिगम उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है जैसे एक कक्षा में उत्तीर्ण होने पर आगे बढ़ने की प्रेरणा होती है।

बालकों को कैसे अभिप्रेरित किया जावे ?

विद्यालय अधिगम के लिए समुचित एवं सुव्यवस्थित संस्था है। यहाँ अध्यापक अधिगम के लिए नियुक्त होते हैं। इसलिए अध्यापक को अधिगम के लिए विद्यार्थी को तैयार एवं तत्पर करना होता है। इसके लिए अध्यापक निम्नलिखित प्रयत्न करे-

(i) विद्यार्थी को अधिगम के लिए उत्सुक, जाग्रत और क्रियान्वित करे । उत्सुक और जिज्ञासु बनाने के लिए ऐसे ढंग से सामग्री प्रस्तुत करे व व्यवहार करे कि छात्र उसे ग्रहण करने को तैयार हो जावे।

(ii) रोचक कार्यों से बालक की शक्ति को वह संचालित करे ।

(iii) बालक को लगातार काम में लगाए रहे। पूरे सत्र के काम को विभिन्न खण्डों में बाँट कर उन्हें पूरा बता दिया जावे और एक-एक खण्ड को पूरा करने के लिए कहा जावे । एक खण्ड पूरा हो जाने पर दूसरा, और दूसरे के बाद तीसरा इस क्रम को लगातार पूरे वर्ष तक कार्य कराया जावे ।

(iv) तनाव दूर करने की कोशिश करना भी अध्यापक के लिए जरूरी है। तनाव की स्थिति दूर करने में उचित निर्देशन, शिक्षण एवं सहायता देनी चाहिये। अध्यापक आवश्यकतानुसार स्वयं भी बालकों के साथ काम करे।

(v) पुरस्कार और दण्ड का भी प्रयोग अध्यापक करे। इससे भी प्रोत्साहन मिलता है। जो तरीका उचित हो उसी के द्वारा पुरस्कार या दण्ड दिया जावे ।

(vi) अवधान केन्द्रित करने का प्रयास भी अध्यापक करे। इसके लिए उसे बालकों की क्षमता, योग्यता आवश्यकता, रुचि आदि के अनुसार कार्य करना जरूरी है।

(vii) लक्ष्य प्राप्ति में पूरा सहयोग देना अध्यापक की जिम्मेदारी है। जब तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती है तब तक अभिप्रेरण पूरा नहीं होता है।

(viii) अध्यापक कक्षा एवं विद्यालय के पर्यावरण को ऐसे ढंग से आयोजित करे जिससे कि बालक शिक्षा कार्य में लगा रहे। कक्षा की शान्ति, छात्रों में परस्पर सहयोग, कक्षा में आवश्यक सामग्री का होना छात्र की ओर ध्यान रहना, सहानुभूति एवं सहायता, प्रशासकों की अभिवृत्ति बालकों के विकास की ओर होना, सभी साज-सज्जा व सामान की व्यवस्था शीघ्र करना एवं उदार दृष्टिकोण रखना, ये सब शिक्षा के लिए अभिप्रेरित करते हैं। परिचर्या, गोष्ठी, खेलकूद, प्रतियोगिता, सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम, बौद्धिक प्रगति का विवरण प्रकाशन, सम्भ्रान्त लोगों का आना-जाना अभिप्रेरण के साधन हैं। इन सब दृष्टान्तों से यह सिद्ध होता है प्रेरणा सीखने में व्यावहारिक रूप से सहायता करना है।

पुरस्कार और दंड द्वारा अभिप्रेरण

पुरस्कार और दण्ड क्रमशः धनात्मक और ऋणात्मक अभिप्रेरक हैं। पुरस्कार वस्तु रूप या प्रशंसा रूप में दिया जाता है, इसके द्वारा व्यक्ति के गुणों को मान्यता मिलती है और उसको आत्म-सम्मान की अनुभूति होती है, आत्म-सन्तुष्टि होती है। इस प्रकार आगे भी अच्छे कार्य, व्यवहार आदि वह करता है। अतः पुरस्कार व्यवहार के लिए अभिप्रेरक होता है।

दण्ड शारीरिक, आर्थिक, या मानसिक पीड़ा है। दण्ड पाकर व्यक्ति को अपने कार्य व्यवहार के लिए दुखानुभूति होती है जबकि पुरस्कार ऊँचा उठाता है। इस दृष्टि से दण्ड बुरे व्यवहार को रोकता है, सुधार के लिए प्रयल करता है। ऐसी स्थिति में दण्ड भी अच्छे व्यवहार का अभिप्रेरण देता है।

अभिप्रेरण का शिक्षा में महत्व

(i) अधिगम का आधार होना- अधिगम के लिये अभिप्रेरण एवं अभिप्रेरक आधार का काम करते हैं क्योंकि इसी के बल पर बालक ज्ञान, अनुभव, कौशल योग्यता सब कुछ प्राप्त करने में समर्थ पाया जाता है।

(ii) संकल्प का विकास- अधिगम करने की इच्छा होने से बालक मन में संकल्प करता है कि उसे पूरा करना है, इसलिए अध्यापक समस्या की जानकारी श्रम का महत्व, प्रगति आदि के द्वारा बालक में आत्मविश्वास जाग्रत करे तो निश्चय ही उसमें संकल्प का विकास होता है।

(iii) तनाव दूर होना और आवश्यकताओं की पूर्ति- अभिप्रेरण के साथ यदि निर्देशन दे दिया जाता है तो उससे बालक का मानसिक तनाव दूर हो जाता है उसकी आवश्यकता पूरी हो जाती है और फलस्वरूप वह आगे बढ़ता है।

(iv) रुचि और अभियोग्यता का विकास- अभिप्रेरण से कार्य रोचक होता है और बालक तथा प्रौढ़ दोनों अभियोग्यता अर्जित करते हैं।

(v) मूल एवं मान्यता का विकास- अनुशासन, व्यवस्थित ढंग से काम करना अधिगम की ओर ध्यान देना, शिक्षा के प्रति निष्ठा रखना ये सब मूल्य एवं मान्यता ही हैं। अभिप्रेरण से सब सम्भव होते हैं।

(vi) मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य का विकास- अभिप्रेरण के प्रभाव से मानसिक एवं शारीरिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य का विकास होता है।

(vii) शिक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति- अभिप्रेरण से ज्ञान कौशल की प्राप्ति होती है, उससे शिक्षा का उद्देश्य भी सिद्ध होता है।

(viii) वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास- अभिप्रेरक वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों होते हैं, अतएव इनके द्वारा मनुष्य का वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकार का विकास सम्भव होता है। ऐसी दशा में अभिप्रेरण एवं अभिप्रेरक दोनों मनुष्य को पूर्णता प्रदान होता है। बड़े-बड़े महात्मा, सामाजिक नेता, महापुरुष अभिप्रेरण परिणामस्वरूप ही उच्च पद पर पहुंचे हैं।

(xi) महान आविष्कार, उत्पादन एवं कृति का प्रमुख कारण- संसार में मनुष्य के ज्ञान एवं कौशल का जो कुछ व्यावहारिक रूप होता है वह महान आविष्कार, उत्पादन एवं कृति है। परन्तु इनका कारण मौन है। इसका उत्तर अभिप्रेरण और अभिप्रेरक है जो शिक्षा से सम्बन्धित हैं।

अधिगम में अभिप्रेरण के महत्व सम्बन्धी कुछ कथन

(क) प्रो० स्किनर- अभिप्रेरण अधिगम के लिए उच्च कोटि का राजमार्ग है।

(ख) प्रो० गेट्स- अभिप्रेरण सीखने के लिए अनिवार्य है।

(ग) प्रो० केली- सभी अधिगम में किसी न किसी प्रकार का अभिप्रेरण जरूर होना

 (घ) प्रो० थॉमसन- छात्र में रुचि उत्तेजित करने की कला अभिप्रेरण है।

(ड.) बर्नार्ड- अभिप्रेरण बालक की विद्यालय द्वारा प्रदान किये जाने वाले अधिगम के लिए उत्सुक बनता है।

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