शैशवावस्था की विशेषताएँ | शैशवास्था में शारीरिक विकास | शैशवावस्था में मानसिक विकास | शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास | शैशवावस्था में सामाजिक विकास

शैशवावस्था की विशेषताएँ | शैशवास्था में शारीरिक विकास | शैशवावस्था में मानसिक विकास | शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास | शैशवावस्था में सामाजिक विकास

जन्म के बाद से प्रौढ़ावस्था के पूर्व विकास की 3 प्रमुख अवस्थाएँ मानी गई हैं-शैशवावस्था, बाल्यावस्था और किशोरावस्था। इन तीनों अवस्थाओं का कालक्रम क्रमशः जन्म से 6 वर्ष तक, 6 से 12 वर्ष तक और 12 से 18 वर्ष तक समझा जाता है। इन अवस्थाओं में शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक विकास किस प्रकार का होता है, उसकी क्या विशेषतायें होती हैं इन सभी पर प्रकाश डालना जरूरी है।

शैशवावस्था की विशेषताएँ

शैशवावस्था सामान्य रूप से जन्म से 6 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में हमें कुछ विशेष शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक लक्षण दिखाई देते हैं जिन्हें यहाँ प्रकट किया जा रहा है।

शैशवास्था में शारीरिक विकास

(1) जन्म के समय शरीर का छोटा होना- लगभग डेढ़ फीट का । धीरे-धीरे सभी अंगों का बढ़ना परन्तु तीव्रता के साथ | 6 वर्ष तक शरीर की लम्बाई जन्म के समय की लम्बाई की दुगुनी से अधिक हो जाती है।

(2) कोमलता और पराश्रिता होना- जन्म नमय और बाद में 1साल तक शिशु का शरीर कोमल होता है। माता-पिता के ऊपर ही भोजन, देख-रेख और अन्य व्यवहार निर्भर करती है। 2 साल के बाद शिशु अपने-आप करने-धरने के योग्य हो जाता है।

(3) छोटा नाजुक ढाँचा होना लेकिन धीरे-धीरे बड़ा और दृढ होना- छः वर्ष की आयु में अच्छी तरह परिपक्व हो जाता है।

(4) प्राकृतिक रूप से स्वस्थ होना फिर पौष्टिक आहार का आवश्आवश्यकता होना- सुरक्षा प्रदान करना चाहिये, विशेष आहार दूध होता है 4 वर्ष के बाद अन्य पोषण देना चाहिये।

(5) 2 वर्ष बाद 20 वर्ष तक अच्छा पालन-पोषण होना चाहिए- 2 से 20 वर्ष तक बच्चों की देखभाल अच्छी तरह होनी चाहिए तभी शारीरिक विकास की दिशा एवं दशा दोनों ठीक रहेगी।

(6) 21 वर्ष से छः वर्ष तक मस्तिष्क जैसे अग का तीव्र विकास होता है, लगभग पूरा विकास 7 वर्ष तक हो ही जाता है। इससे शिशु सभी क्रियाएँ 6 वर्ष तक करने में समर्थ हो जाता है।

(7) शरीर के अंगों और मस्तिष्क में क्रियात्मक सन्तुलन लगभग तीन वर्ष के बाद से शुरू हो जाता है। इसलिए इस आयु के बाद से शिशु चीजो को उठाता है, रखता है, फेंकता है, दौड़-धूप करता है। जैसे चाहता है वह हाथ-पाँव का प्रयोग करता है।

(8) आयु के बढ़ने के साथ शरीर का भार बढ़ता है। जन्म के समय लगभग 3 1/2 किलो भार होता है, 1 साल में इसका दोगुन, हो जाता है और 6 वर्ष तक शिशु 12-13 किलो का हो जाता है।

(9) शरीर की लम्बाई छः वर्ष तक 40-45 इंच हो जाती है। जबकि जन्म के समय लम्बाई 14-16 इंच हो जाती है। इस बाढ़ में तीव्रता और स्थिरता भी पाई जाती है।

(10) शिशु के जन्म के समय दाँत नहीं होते। 8 मास के बाद से दाँत निकलने लगते हैं और 6 वर्ष तक लगभग 24 दाँत निकल आते हैं। दांत निकलते समय शारीरिक कष्ट एवं अस्वस्थता भी होती है।

(11) प्रथम तीन वर्ष तक स्नायु मण्डल एवं नाड़ियों की तेजी से वृद्धि होती है। बाद में कुछ स्थिरता आ जाती है। इसलिये शारीरिक एवं मानसिक विकास में सहसंबंध होता है। अच्छे शारीरिक स्वास्थ्य पर अच्छा मानसिक विकास निर्भर करता है। इसे माता-पिता को ध्यान में रखना चाहिये।

(12) कुछ प्राकृतिक अन्तरों के सिवाय इस अवस्था में लड़के-लड़कियों में कुछ भी भेद नहीं रहता है। शारीरिक ढाँचा एक-सा होता है। बनावट एवं विकास भी समान होता है। इससे दोनों में अन्तर नहीं दिखाई देता है।

(13) तीन वर्ष के बाद से शरीर सभी अंग सुचारु रूप से काम करने लगते हैं और निरन्तर अभ्यास होने से उनमें कार्य कुशलता छठे वर्ष तक आ जाती है। इस आयु तक शिशु खाना, नहाना, कपड़े पहनना, काम-काज स्वयं करता है। एक प्रकार से उसमें सन्तुलन अच्छी तरह आ जाता है।

(14) 4 वर्ष के बाद से सीखने की स्वतन्त्र इच्छा पाई जाती है जिससे शिशु आत्मनिर्भर होकर सभी कार्य करने लगता है। नर्सरी स्कूल के बच्चों में काम की ऐसी आदत शुरू भी कराई जाती है और छः वर्ष तक वे अपने सभी काम बिना किसी के कहे- सुने करते पाए जाते हैं।

शैशवावस्था में मानसिक विकास

शरीर के सभी अंगों के बढ़ने से शिशु का मस्तिष्क भी बढ़ता है जिससे उसे मानसिक और बौद्धिक अनुभव प्राप्त होते हैं। इस प्रकार से उसकी विभिन्न मानसिक क्षमताओं का क्रमिक एवं तीव्र विकास होता है।

(1) अवबोधन का विकास- शुरू  में केवल ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा संवेदन होता है जिसमें स्पर्श और स्वाद इन्द्रियों का प्रयोग जन्म से 1 वर्ष तक होता है। पुनः अन्य ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग शिशु करता है- आँख, कान और नाक का। तीसरे वर्ष से प्रत्यक्षीकरण शुरू हो जाता है जिससे शिशु को चीजों और व्यक्तियों की पहचान होने लगती है।

(2) प्रत्यक्षी शान और प्रत्यय का निर्माण- तीसरे वर्ष से आगे यह मानसिक क्रिया चलती है। तीन साल का शिशु माता, पिता, भाई, बहिन को अलग-अलग करके पहचानता है। अपने मन के भाव भी व्यक्त करता है।

(3) भाषा का विकास- रोना चिल्लाना भी भाषा के संकेत हैं। पाँच-छ: मास का शिशु गल गलाता है, अस्पष्ट आवाज करता है। परन्तु 1 वर्ष के बाद से वह क्रमशः शब्द एवं वाक्यांश बोलने का प्रयास करता है। प्रो० स्मिय ने बताया है कि एक वर्ष से तीन वर्ष में 272, तीन वर्ष में 896, चार वर्ष में 540, पाँच वर्ष में 2072 तथा 6 वर्ष में 2562 शब्द सीख लेता है। चार वर्ष से शिशु साधारण वाक्य बोलने लगता है। शिक्षा के साथ उसकी भाषा तेजी से बढ़ती है।

(4) सीखने का विकास- शिशु जन्म के 6 मास बाद से सीखने का प्रयास करता है। पहले तो वह करवटें बदलने, मुख में उँगली डालने और हाथ-पाँव मारने में सीखने की शक्ति को लगाता है। माता के गोद में उछल कर जाना भी एक प्रकार का सीखना है। सम्बन्धियों को पहचानना 1 वर्ष से शुरू होता है। 2 वर्ष से बोलने में अनुकरण, क्रिया में अनुकरण, खेल में अनुकरण से वह सीखता है। इसके बाद नर्सरी पाठशालाओं में गाना, दौड़ना, गणित के पहाड़े गिनती आदि तेजी से सीखता है जिसमें अनुकरण ही अधिक होता है।

(5) स्मरण और कल्पना तथा चिन्तन का विकास- इन मानसिक क्रियाओं का विकास 3 वर्ष के बाद ही होता है। निरीक्षण के फलस्वरूप प्रतिभा और प्रत्यय बनते हैं और इससे स्मरण तथा. कल्पना करना सम्भव होता है। निरीक्षण के कारण 4 वर्ष की आयु में जिज्ञासा बढ़ती है और 5-6 वर्ष तक चिन्तन के लिए शिशु समर्थ हो जाता है। लकड़ी के घोड़े पर चढ़ना, चित्रण करना तस्वीरों पर ध्यान लगाना, प्रश्न पूछना ये सब स्मरण, कल्पना, चिन्तन का विकास बनाते हैं।

(6) विचार और बुद्धि का विकास- प्रो० ऐण्डर्सन, बिने, बर्ट आदि के प्रयोगों ने बताया है कि शिशु में 3 वर्ष के बाद से विचार और बुद्धि का विकास होता है। रचनात्मक बुद्धि का विकास 5 वर्ष की आयु से होता है। बुद्धि के खेलों में शिशु की रुचि 5-6 वर्ष में पाई जाती है।

(7) ध्यान और रुचि का विकास- प्रो० सिरिल बर्ट के प्रयोग से ज्ञात होता है कि तीन वर्ष के बाद से ध्यान का विकास होने लगता है और 5-6 वर्ष तक का शिशु चीज पर 5-6 मिनट तक ध्यान लगा सकता है। विभिन्न चीजों के चुनाव तथा पसन्द करने में उसकी रुचि पाई जाती है यह भी–5-6 वर्ष की आयु में ही सम्भव होता है।

शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास

शिशु अत्यन्त संवेगात्मक प्राणी होता है। इसमें शुरू से ही संवेगों और भावों का विकास होने लगता है। जन्म के समय प्रथम सदन इसकी भावात्मक अभिव्यक्ति का परिचय देती है। प्रो० ब्रिजेज ने इसका अध्ययन करके बताया है कि किस प्रकार 6 मास से लेकर वर्ष तक में शिशु में भावात्मक विकास होता है।

(1) शिशु प्रेम भाव का भूखा होता है तभी माँ की गोद से छोटे बच्चे को हटा देने पर वह रो देता है। यह भावना 6 मास में ही विकसित होती है। 6 से 12 मास तक उसके क्रोध का भाव भी विकसित होने लगता है। 1 से 1 वर्ष तक उसमें भय, ईर्ष्या और घृणा का भाव भी आता है तथा क्रमशः बढ़ता है। 2 वर्ष के बाद से शिशु में अपने और पराए के लिए प्रेम का अलगाव होने लगता है। यह भावना 5-6 वर्ष की आयु तक बहुत स्पष्ट हो जाती है। इस समय तक उसमें आश्चर्य का भाव भी बढ़ने लगता है।

(2) काम प्रवृत्ति का विकास भी शिशु में 1 वर्ष के पूर्व ही शुरू होता है। शुरू में यह स्वार्थ से परिपूर्ण होता है जबकि वह अपने अंगों से ही प्रेम करता है, अँगूठा चूसता है। इसे मनोविश्लेषणवादियों ने ‘नरसीसिज्म’ कहा है। 2-3 वर्ष का शिशु माता-पिता से प्रेम करता है विशेषकर लड़का माता से और लड़की पिता से । इसे मनोविश्लेषणवादियों ने पितृविरोधी भावग्रंथि (एडीपस काम्प्लेक्स) और मातृविरोधी भावग्रंथि (एलेक्ट्रा काम्लेक्स) कहा है। 5-6 वर्ष की आयु तक बालक बालिका मिल-जुलकर रहते हैं।

(3) शिशु का सभी व्यवहार मूलप्रवृत्तियों के आधार पर होता है। वह एकान्त प्रिय होता है और अन्तर्विष्ट तथा स्वार्थपरक व्यवहार करता है। इसीलिए छोटे शिशु को माँ से अलग करने पर वह रोता है। 27 साल के शिशु की चीज छू लेने पर चीजों को फेंक देता है या दाँत पीसता है। 3 से 6 तक उसमें अपने खेलने की प्रवृत्ति पाई जाती है। कभी-कभी वह पड़ोस के बालकों के साथ भी पाया जाता है।

(4) जिज्ञासा की मूलप्रवृत्ति प्रायः 5-6 वर्ष की आयु से बढ़ती है। वह दूसरे को काम करते देख चीजों को उलट-पुलट करने लगता है। कल्पना के घोड़े पर इसी मूत-प्रवृत्ति के विकसित होने पर शिशु सवार होता है । इस प्रकार अनुकरण की प्रवृत्ति भी बढ़ती है।

(5) शिशु में सभी भाव एवं प्रवृत्तियाँ अपरिपक्व होते हैं। इसके दो काल हैं, एक तो कोमल शरीर और अंग होता है जिसमें अनुभूति का अवसर नहीं होता है, और दूसरे अनुभव की कमी होती है। फिर भी धीरे-धीरे संवेगात्मक परिपक्वता और स्थिरता की ओर शिशु बढ़ता है।

(6) समायोजन शीलता का अभाव होता है। शारीरिक एवं मानसिक अपरिपक्वता के कारण शिशु अपने आपको परिस्थितियों के साथ अनुकूलित नहीं कर पाता है। 2 1/2 साल का शिशु इसी काल में रोता है, जमीन पर लोटता अथवा अन्य प्रकार के समायोजित व्यवहार करता है। 2 1/2 वर्ष के बाद जो बच्चे नर्सरी स्कूलों में जाने लगते हैं उनमें समायोजन की क्षमता शीघ्र बढ़ जाती है।

शैशवावस्था में सामाजिक विकास

प्रो० को और को ने लिखा है कि शिशु को बड़ा पर्यावरण मिलने पर उसमें सामाजिक विकास शीघ्र होता है और यह स्थिति 2-3 वर्ष की आयु में ही आती है। वैसे सामाजिक विकास और पहले ही शुरू हो जाता है।

(1) आत्मीय लोगों से सम्बन्ध का विकास दूसरे-तीसरे महीने ही होता है। जबकि शिशु माँ से चिपटा रहता है। एक वर्ष में वह माता-पिता व घर के अन्य लोगों के साथ सम्बन्धित हो जाता है। या इनको पहचानता है और इनके सम्पर्क में रहना चाहता है। 2 वर्ष से 4 वर्ष तक यह सामाजिकता और दृढ़ होती है। 5-6 वर्ष तक यह स्पष्ट रूप से बढ़ जाती है जब कि शिशु अन्य लोगों के साथ मैत्री करता है, खेलता है, पढ़ता लिखता है।

(2) मेल-जोल का विकास 3 साल से होने लगता है। खाने-पीने, खेलने, आने-जाने में समूह जीवन के लक्षण दिखाई देने लगता है। नर्सरी शिक्षा की अवस्था में 2 1/2 से 6 वर्ष तक शिशु एक सामाजिक प्राणी बन जाता है।

(3) समूह निर्माण की स्थिति 4 से 6 वर्ष की आयु में आती है। विद्यालय में शिशु को विभिन्न टोलियों में बाँट कर खेल एवं काम कराते हैं। खाने-पीने के समय भी ऐसी टोलियाँ बन जाती हैं।

(4) शिशु के व्यवहार में सामाजिकता का लक्षण भी चार वर्ष के बाद ही प्रकट होता है। लड़के लड़कियाँ जिम्मेदारी की भावना के कारण समूह रूप में व्यवहार करती हैं। प्रतियोगिता और सहानुभूति के साथ व्यवहार में सामाजिकता पाई जाती है यह प्रायः 5-6 वर्ष की आयु में ही होता है।

(5) समाज में आदान-प्रदान के व्यवहार से शिशु में नैतिकता का भी विकास होता है जो सामाजिक विकास का ही एक स्वरूप है। चार से छः वर्ष की आयु तक शिशु को उचित-अनुचित सही-गलत, अच्छे-बुरे व्यवहार की पहचान होती है। घर और घर से बाहर के वातावरण का प्रभाव लेकर वह अपना नैतिक विकास करता है। प्रो० ओसलर के विचारानुसार सामाजिक विकास के लिए दो वर्ष से ही शिक्षा देनी चाहिए।

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