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प्रयोजनवाद की विशेषताएँ | प्रयोजनवाद के प्रकार | प्रयोजनवाद के सिद्धान्त

प्रयोजनवाद की विशेषताएँ | प्रयोजनवाद के प्रकार | प्रयोजनवाद के सिद्धान्त

प्रयोजनवाद की विशेषताएँ

प्रयोजनवाद, प्रयोगवाद, व्यावहारिकतावाद, फलवाद या फलकवाद अथवा साधनवाद किसी भी नाम से इस दर्शन को हम पुकारें फिर भी इस दर्शन में कुछ अपनी विशेषताएँ मिलती हैं। जिन पर विचारकों ने अपनी दृष्टि डाली है। इन विशेषताओं को जानकर हम प्रयोजनवाद को अच्छी तरह समझ सकते हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :-

(i) यह दर्शन एक भौतिक और लौकिक अभिवृत्ति रखता है। इसका तात्पर्य है कि संसार की सभी चीजें सत्य हैं। मनुष्य जो कुछ अनुभव करता है वह सत्य है। सत्य की कसौटी वस्तु की स्वयं सिद्धाता है, जिसे सभी सत्य स्वीकार करें वह सत्य है।

(ii) सभी सत्य परिवर्तनशील होता है। प्रयोजनवाद सत्य, मूल्य, आदर्श सभी को परिस्थिति के अनुसार जाँचता है अतएव निश्चय है कि परीक्षण के परिणामस्वरूप उनमें परिवर्तन आता है।

(iii) सभी विचार, चिन्तन-प्रणाली, क्रियाप्रणाली स्थिर नहीं होती है। संसार में जो विचार एवं उनकी प्रणाली है वह शाश्वत एवं स्थिर नहीं है, एक दैवी मान्यता के रूप में स्थायी नहीं है बल्कि प्रगति के प्रवाह में बहने की प्रवृत्ति है।

(iv) परीक्षण और प्रयोग तथा उपयोगिता के कारण ही ज्ञान प्राप्त होता है। मनुष्य एक बुद्धि एवं तर्क से युक्त प्राणी है अतएव वह अपने काम की वस्तु ढूँढ़ता रहता है और इसके लिए वह एक विज्ञानी की भाँति सभी चीजों का परीक्षण, प्रयोग तथा जाँच करता रहता है और अन्त में उसे स्वीकार करता है।

(v) यह आत्मा को एक क्रियाशील तथ्य मानता है। व्यवहारवादियों का कहना है कि आत्मा एक तथ्य तथा क्रिया है (Self is a kind of fact and function) । सामाजिक परिस्थितियों में मनुष्य जो व्यवहार करता है उसके परिणामस्वरूप उसकी आत्मा प्रकट होती है। अतः आत्मा सामाजिक स्थिति में कार्य करने पर निर्भर करती है। आत्मा की अन्य प्रकार से कल्पना नहीं की जानी चाहिए। इस प्रकार प्रयोजनवाद आत्मा को स्थूल क्रिया के रूप में ही समझता है।

(vi) मन भी आत्मा की तरह क्रियारूप में होता है। सामाजिक स्थिति के आधार पर प्रयोजनवादी मन को भी परिवर्तनशील क्रिया (Function) कहते हैं।

(vii) ज्ञान क्रिया और अनुभव से उत्पन्न होता है। प्रयोजनवादियों ने जोर देकर कहा है कि ज्ञान केवल इन्द्रिय निरीक्षण या मन के द्वारा विश्लेषण-संश्लेषण से नहीं प्राप्त होता है बल्कि उसकी प्राप्ति समाज में रह कर और विभिन्न प्रकार के कार्य-कलाप में भाग लेकर होती है। क्रिया, अभ्यास, अनुभव के आधार पर ज्ञान की प्राप्ति की जाती है।

(viii) यह जगत केवल भौतिक तत्वों से बना हुआ है। प्रकृतिवाद तथा भौतिकवाद की तरह प्रयोजनवाद भी यह मानता है कि यह जगत आध्यात्मिक तत्व से सम्बन्ध नहीं रखता है और न तो आध्यात्मिक तत्व है ही। केवल भौतिक तत्वों से ही जगत का निर्माण हुआ है। संसार में बहुत से तत्व हैं और इनके अलावा इनसे परे कोई नहीं है। ये तत्व प्रगतिशील, परिवर्तनशील, अनिश्चित, अनुभव-परक, तर्क-ज्ञान-विवेक से सम्बन्धित होते हैं।

(ix) प्रयोजनवाद का ईश्वर में विश्वास नहीं पाया जाता है। मनुष्य को छोड़कर प्रयोजनवाद का विश्वास किसी में नहीं है। आदर्शवाद का यहीं विरोध दिखाई पड़ता है। जो ईश्वर में विश्वास रखता है।

(x) मनुष्य की क्रिया एवं रचना शक्ति वातावरण का निर्माण करती है। मनुष्य के पास जो शक्ति है उसी के द्वारा वह अपने चारों ओर के वातावरण को सुन्दर, सुष्ठ, उपयोगी, आकर्षक बनाता है। इस प्रकार सत्यं शिवं सुन्दरं का निर्माण करने वाला मनुष्य ही होता है और वही मापदण्ड भी माना जाता है।

(xi) समाज का वातावरण अधिक महत्वपूर्ण होता है। इसका कारण यह है कि समाज में ही मनुष्य को प्रयोग तथा परीक्षण का अवसर मिलता है। समाज के वातावरण में ही व्यक्ति प्रगति करता है, सभ्यता और संस्कृति ग्रहण करता है तथा अपने गुणों, मूल्यों, आदर्शों को धारण करने में समर्थ होता है। समाज में सभी मनुष्य समान होते हैं, मिलजुल कर रहते हैं, मेल से काम करते हैं तभी उनका विकास होता है।

(xii) नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का महत्व उनकी उपयोगिता पर निर्भर करता है। प्रयोजनवादी विश्वास करते हैं कि सभी मूल्य सामाजिक क्रिया के आधार पर उपलब्ध होते हैं। मनुष्य समाज में जब अपने कार्य पूरा कर लेता है तभी उसकी उपयोगिता उसे मालूम होती है और उन्हें वह धारण करता है, अन्यथा छोड़ देता है।

(xiii) प्रयोजनवाद विज्ञान और वैज्ञानिक प्रणाली से कार्य करने में विश्वास रखता है। विज्ञान की प्रगति के फलस्वरूप यह दर्शन बढ़ा है अतएव वह पूर्व निर्मित्त (Readymade) चीजों में विश्वास नहीं करता है। विज्ञान हमें ऐसे ढंग से काम करने को प्रेरित करता है कि हमेशा नई चीज मिलती है। फलतः इसी में प्रयोजनवाद विश्वास करता है।

(xiv) कार्यकुशलता में प्रयोजनवाद विश्वास करता है। मनुष्य के पास बुद्धि-विवेक है अतएव प्रयोजनवाद इस बात पर जोर देता है कि जो भी काम किया जावे उसे पूर्ण कुशलता के साथ किया जाये, तभी उसकी उपयोगिता होती है, उसकी प्रमाणिकता है और दूसरे उसे स्वीकार करते हैं।

(xv) समाज के लोगों का व्यवहार एवं कार्य मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करता है। कार्यकुशल होने के लिए समाज के वातावरण दूसरों के साथ हमें व्यवहार तथा कार्य करना जरूरी है। इसी सम्पर्क एवं सम्बद्ध क्रियाशीलता से मनुष्य का व्यक्तित्व बनता है।

(xvi) प्रयोजनवाद आदर्शवाद तथा प्रकृतिवाद का मध्य मार्ग है। प्रो० रॉस ने लिखा है कि प्रयोगवाद वास्तविकता को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाता है तथा सचेतन रूप से सप्रयत्न जीवन में प्रयोग करता है। प्रयोगवादी अतीव बौद्धिकता के विरुद्ध प्रतिक्रिया करता है और कार्यासक क्रियाओं की ओर ध्यान आकर्षित करता है। इससे स्पष्ट है कि यह आदर्शवाद की आध्यात्मिक वास्तविकता को भौतिक जीवन से संबंधित करने का प्रयत्न करता है तथा उपयोगी दृष्टिकोण से कार्य व्यवहार पर जोर देता है न कि केवल विचारात्मकता पर। इस दृष्टि से प्रयोजनवाद आदर्शवाद को और प्रकृतिवाद को मिलाने वाली कड़ी है (Pragmatism is the joining link between Idealism and Naturalism)

प्रयोजनवाद के प्रकार

प्रयोजनवाद के तीन रूप पाये जाते हैं-(i) मानवीय प्रयोजनवाद, (ii) प्रयोगात्मक प्रयोजनवाद, (iii) जैविक प्रयोजनवाद । मानवीय प्रयोजनवाद मनुष्य के प्रयोजन, इच्छाओं, मूलप्रवृत्तियों तथा इनकी सन्तुटियों के आधार पर सत्य, मूल्य, आदर्श आदि का होना बताता है। यह विचारधारा यह मानती है कि “संसार की जो चीजें मानव प्रकृति को सन्तोष प्रदान करती हैं और उसके कल्याण के लिए उपयोगी हैं वे वास्तविक हैं, सत्य हैं।

प्रयोगात्मक प्रयोजनवाद का कहना है कि “जो चीजें काम की हैं वे सत्य हैं लेकिन इसका प्रमाण तभी पूरा होता है जबकि वे प्रयोग की कसौटी पर सत्य उतरें। इसका तात्पर्य है कि हम किसी चीज को अपने जीवन की परिस्थितियों में पहले जाँच कर देख लेवें कि वह काम की है तो हमे उसे स्वीकार करना चाहिए। प्रयोगात्मक प्रयोजनवाद का एक रूप नामरूपवादी प्रयोजनवाद है जो परिणाम के भिन्न रूपों को महत्व देता है।

जैविक प्रयोजनवाद मनुष्य की शक्ति पर बल देता है। मनुष्य अपनी शक्ति के कारण ही अपने वातावरण को अपने अनुकूल बताता है और उससे लाभ उठाता है। इससे मनुष्य वातावरण का दास नहीं होता है बल्कि उसका स्वामी बनता है। इसके फलस्वरूप वह सभी चीजों का मापदण्ड माना जाता है, निर्माता समझा जाता है।

प्रयोजनवाद के सिद्धान्त

प्his environment and is regarded as the measure and maker of all things. और उसके समाज तया समाज में मनुष्य की क्रियाओं पर यह बल देता है। दूसरी ओर यह उपयोगितावादी दर्शन भी कहा जा सकता है। लेकिन इसका अस्तित्व एक स्वतन्त्र दर्शन के रूप में लोगों ने माना है। इससे हमें इसके जो कुछ सिद्धान्त हैं उन पर भी विचार करना चाहिए। ये सिद्धान्त नीचे दिये जा रहे हैं :-

(i) बहुतत्ववादी सिद्धान्त- प्रयोजनवाद का विश्वास है कि जगत का निर्माण बहुत से तत्वों के द्वारा हुआ है। इनमें विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ होती हैं और उसके फलस्वरूप यह संसार प्रकट होता है। निर्माण की क्रिया सदैव होती रहती है।

(ii) भौतिकवादी सिद्धान्त- जगत का निर्माण भौतिक तत्वों से हुआ है और ये भौतिक तत्व अपने आप में पूर्ण, वास्तविक और सत्य हैं। इनके अलावा अन्य कोई तत्व नहीं हैं और वास्तविकता नहीं है। इस कारण आध्यात्मिकता की अवहेलना की जाती है।

(iii) परिवर्तनशीलता का सिद्धान्त- प्रयोजनवाद सभी सत्य, मूल्य, आदर्श को परिवर्तनशील मानता है। देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार मनुष्य मूल्य, आदर्श, सत्य को धारण करता है।

(iv) क्रियाशीलता का सिद्धांतसंसार में सभी वस्तुएं स्थिर नहीं होती है वे क्रियाशील होती है। मनुष्य की आत्मा भी कियाशील होती है। ईश्वर या ब्रह्मा जैसी कोई सार्वभौमिक सत्ता भी नहीं होती है। प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण की उत्तेजना से मनुष्य की आत्मा क्रियाशील होती है। विचार क्रिया के परिणाम होते है।

(v) उपयोगिता का सिद्धान्त- प्रयोजनवाद का विश्वास है कि संसार की दोक वस्तु उपयोगी होने के कारण ही राल होती है, खीला होती है। जीवन में मुख, सन्तोष और अच्छा फल देने वाला कार्य ही मनुष्य करता है। यही उसकी उपयोगिता का प्रमाण है।

(vi) विकास का सिद्धान्त- प्रयोजनवाद के अनुसार मनुष्य अपने सामाजिक पर्यावरण में विकारा करता है। उसके विकास का कारण उसकी आत्या या प्रकृति नहीं है। सामाजिक क्रियाओं में भाग लेकर मनुष्य आगे बढ़ता है।

(vii) प्रगतिशीलता का सिद्धान्त- प्रयोजनवाद के मानने वालों का कहना है कि मनुष्य के द्वारा सत्यान्वेषण होता है। इस खोज के कारण वह प्रगति करता है। समाज की भाषा, उसका ज्ञान, कौशल, उद्योग, व्यवसाय सभी मानवीय प्रगति के परिणाम हैं। प्रगति निरन्तर होती रहती है।

(viii) सुखवादी सिद्धान्त- प्रयोजनवादियों के अनुसार मानव जीवन का उद्देश्य सुखपूर्वक जीना है। इसके लिए परिस्थिति के साथ समायोजन की आवश्यकता पड़ती है और इससे समस्या का समाधान होता है तथा गुख की प्राप्ति होती है।

(ix) सामाजिक कुशलता का सिद्धान्त- प्रयोजनवादी लोगों का विश्वास है कि प्रत्येक सदस्य को अपने समाज में रहकर उसके उद्योग, उत्पादन, व्यवसाय आदि का विकास करना जरूरी है। इस प्रकार से कार्य करने में मानव में कुशलता आती है, वह समाज का उपयोगी सदस्य बनता है।

(x) मानवीय श्रेष्ठता का सिद्धान्त- आदर्शवाद तथा प्रयोजनवादी दोनों मानव को सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानते हैं। मानव के पास विचार करने और क्रिया करने तथा निर्माण करने की क्षामता होती है। ऐसी क्षमता अन्य प्राणियों में नहीं पाई जाती अतएव मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ होता है। मानव शक्ति पर प्रयोजनवाद इसी कारण बल देता है। मनुष्य ही सत्य का निर्माता है।

(xi) जनतन्त्रीय सिद्धान्त- जहाँ प्रयोजनवाद मनुष्य को महत्व देता है वहाँ वह उसके द्वारा बनाये गये समाज और जनतन्त्र में भी विश्वास करता है और इन पर बल देता है। इससे समानता, स्वतन्त्रता एवं भ्रातृत्व और सामाजिक न्याय के ऊपर प्रयोजनवाद जोर देता है। यह जनतन्त्रीय सिद्धान्त के कारण होता है।

(xii) राज्य निर्माण का समाजवादी सिद्धान्त- प्रयोजनवादियों का विचार तथाविश्वास है कि मनुष्य अपनी प्रगति एवं उन्नति के लिए राज्य का निर्माण करता है। यह एक सामाजिक संस्था है और एक वास्तविक न कि कृत्रिम संस्था है। इसीलिए पूरे समाज का हित राज्य के ध्यान में रहता है। इसी आधारभूत सिद्धान्त पर अमरीका में लोकतन्त्र की रचना हुई है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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