सिन्धु घाटी सभ्यता की वास्तुकला | सिन्धु घाटी सभ्यता की वास्तुकला की प्रमुख विशेषताएँ | सैंधव संस्कृति में नगर नियोजन | सिन्धु घाटी सभ्यता में नगर नियोजन | सिन्धु घाटी सभ्यता की वास्तुकला
सिन्धु घाटी सभ्यता की वास्तुकला | सिन्धु घाटी सभ्यता की वास्तुकला की प्रमुख विशेषताएँ | सैंधव संस्कृति में नगर नियोजन | सिन्धु घाटी सभ्यता में नगर नियोजन | सिन्धु घाटी सभ्यता की वास्तुकला
सिन्धु घाटी सभ्यता की वास्तुकला
वास्तुकला का उद्भव और विकास मानव सभ्यता के विकास की कहानी से जुड़ा हुआ है। वास्तव में भवन निर्माण एवं शिल्प विज्ञान का नाम वास्तुकला है। सिन्धु घाटी की खुदाई से प्राप्त अवशेष के आधार पर यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि नगरों का निर्माण एक योजनाबद्ध कार्य था जिसके कारण ही नगर मार्ग संकीर्ण न होकर पर्याप्त विस्तृत हैं। सड़कें ज्यादातर सीधी हैं, तथा एक-दूसरे को प्रायः समकोण पर काटती हुई चौराहे का निर्माण करती हैं। इन सड़कों से एक शाखा स्वरूप गलियाँ भी निकाली गयी हैं।
“वहाँ गलियाँ और सड़कें पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण एकदम सीध में गई हैं। उसकी कुछ सड़कें काफी बड़ी और काफी चौड़ी हैं। एक सड़क जिसकी लम्बाई का पता लगभग आधा मील तक लगा है एकदम सीधी और उत्तर से दक्षिण जाती है 33 फूट तक चौड़ी है। अनुमान किया जाता है कि वही मुख्य मार्ग है। इसके दक्षिण की ओर एक दूसरी और अधिक चौड़ी सड़क आकर इसे काटती है। पहली को काटने वाली एक तीसरी सड़क 18 फुट चौड़ी है। एक अन्य सड़क 13.1/2 फुट चौड़ी है और उत्तर से दक्षिण जाती है। इनके अतिरिक्त अन्य सड़कें 9 से 12 फुट तक चौड़ी हैं। गालियाँ भी कम से कम 4 फुट चौड़ी हैं। सड़कें सम्भवतः पक्की नहीं होती थीं। केवल एक सड़क पर ईंटों के टुकड़े और बर्तनों के फूटन डालकर पक्का करने की चेष्टा की गई जान पड़ती है।”
मोहनजोदड़ों एवं हड़प्पा की संस्कृति, सभ्यता तथा उनका नागरिक जीवन इस बात की प्रतीक है कि भारतवर्ष में वास्तुकला का अतीत वैभवपूर्ण है। ई० से 4000 वर्ष पूर्व की इस सभ्यता की खुदाई में उपलब्ध अवशेषों के देखने से विदित होता है कि उस काल में नगर एवं भवन निर्माण एवं निश्चित योजना के आधार पर किया जाता था। वहाँ से उपलब्ध भवन, गलियाँ इतने सुव्यवस्थित एवं एकरूप है कि इस काल में इस वैभवपूर्ण वास्तुकला को देखकर आश्चर्य ही करना पड़ता है, अस्तु ।
हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ों के समस्त भवन तथा गृह ईंटों से निर्मित थे और प्रायः इनमें पंक्की ईंटों का भी प्रयोग हुआ है, जिनका रंग हल्का लाल है। कहीं-कहीं नींव में कच्ची तथा पक्की दोनों ईंटों का प्रयोग किया गया है। ईंटें कच्ची हों या पक्की-एक बात विशेष ध्यान देने की यह है कि ईंटें सुडौल तथा अनुपात में हैं। सामान्यतः उनकी लम्बाई चौड़ाई से दुगुनी है और मोटाई आधी है।
भारतीय वास्तुकला के लेखक लिखते हैं कि ‘इनके आकार 10.25″ x 5″ x 2.25″ से 20.05″ = 8.5″ x 2.5″ के बीच भिन्न-भिन्न हैं। बहुत बड़ी ईंटों का उपयोग विशेष कामों- यथा नाली आदि ढकने के लिए किया गया है। मकानों में 10’ x 5.25″ x 2.25″ की ईंटों का प्रयोग हुआ है। कच्ची ईंटों का जहाँ-जहाँ उपयोग हुआ है। वहाँ उनका आकार 13.9″ x 7.35″ x3.5″ से 15″ x 7.15″ x 3.1″ तक है। इन ईंटों के अतिरिक्त कुछ विशेष आकार की ईंट मिली हैं। कुओं में जो ईंटें लगी हैं वे चौडाई में एक ओर कम और दूसरी ओर अधिक हैं। इस प्रकार की ईटों का प्रयोग साधारणतया वर्तुलाकार वस्तु के बनाने में किया जाता है, पर मकानों में आवश्यकता होने पर भी उनका कहीं भी प्रयोग नहीं हुआ है। फर्श आदि कामों के लिए छोटे-छोटे टुकड़ों यथा 9.5″ x 4.35″ x 2″ में काटकर ईंटों का प्रयोग किया गया है और उनकी कोरें रगड़कर चिकनी कर ली गयी हैं। कहीं-कहीं पर < आकार की ईटों का प्रयोग किया गया है।
दीवारों की चिकनाई भी आधुनिक दंग पर ही है। दीवारों में ईंटों को लगाने के लिए गारे तथा चूने का प्रयोग किया गया है। दीवारों की ऊँचाई 25 फीट तक है। मकानों में पत्थर का केप्रयोग नहीं मिलता है। छतों के सम्बन्ध में अनुमान किया जाता है कि प्रायः सपाट रही होगी। पानी के बहाने के लिए पनाले लगे रहते थे जिससे पानी गली में गिरा करता था। खपरैल के अवशेष उपलब्ध नहीं हैं; अतः उनके प्रयोग का का पता नहीं लगता है। छतों के सम्बन्ध में यह भी अनुमान किया जाता है कि पहले शहतीरें डाली जाती थीं। फिर चटाई बिछाई जाती थी। फिर चटाई पर मिट्टी डालकर उसकी कुटाई की जाती थी। खिड़कियाँ थीं अथवा नहीं इस सम्बन्ध में कोई प्रमाण नहीं केवल अनुमान ही है। क्योंकि खिड़कियों के कोई चिह्न इन भवनों के अवशेषों में उपलब्ध नहीं हुए हैं।
दरवाजों की चौड़ाई 3.4′ है, किन्तु कहीं-कहीं 7.10 तक के फाटक उपलब्ध हो जाते हैं। मकानों में स्तम्भों का भी प्रयोग हुआ है, जो कि छत के भार को रोके हुए हैं। वे सामान्यतः आयताकार हैं। एक ऐसा भी स्तम्भ मिला है जिसका आधार 3 वर्गफुट है और शीर्ष 2 ½ फुट है। इस काल में मकान कई खण्ड वाले थे। इसका अनुमान दीवारों की मोटाई के आधार पर किया गया है। भवन छोटे-छोटे तथा विशाल दोनों रूपों में थे। एक प्राप्त विशाल भवन की लम्बाई 242 फीट व चौड़ाई 112 फीट है, तथा दीवारों की मोटाई 5 फीट है। इसी प्रकार 90 वर्गफीट का एक विशालाकार मध्य हाल भी मिला है।
इस नगर संस्कृति में प्रत्येक घर के साथ स्नानागार था, जो कि मकाने के एक कोने में होता था कुछ मकानों में शौचालय भी मिले हैं सानागार और शौचालय मकान के नीचे और ऊपर किसी भी खण्ड में हो सकते थे। दोनों ही स्थानों से पानी के बहने के लिए उपयुक्त परनालों की व्यवस्था थी, जिससे पथिकों पर पानी आदि के छीटें पड़ें।
सम्भवतः इस काल में इस प्रदेश में वर्षा अधिक होती थी, इसीलिए यहाँ पर नालियों की सुन्दरतम व्यवस्था थी। नालियाँ-नाले ढके हुए भी थे । नालियाँ सम्भवतः गन्दे पानी के लिए तथा नाले बरसाती पानी के लिए थे। मोहनजोदड़ों में पानी की व्यवस्था बहुत सुन्दर थी। पर्याप्त मात्रा में कुएँ पाये गये हैं। बड़े मकानों में भी कुएँ होते थे जिनकी गच पक्की होती थी। किसी-किसी कुएँ पर बैठने के लिए चबूतरे भी मिलते हैं। साधारणतया कुएँ 3 फुट चौड़े होते थे पर कहीं-कहीं दो फुट से लेकर सात फुट चौड़े कुएँ भी उपलब्ध हुए हैं।
स्थापत्य कला की अनुपम कृति सार्वजनिक सभा भवन तथा स्नानागगार हैं, जो कि उस काल की स्थापत्य कला का प्रतिनिधित्व करते हैं। सबा भवन का हाल 85′ वर्गाकार है, जिसकी छत ईटों के 20 आयताकार स्तम्भों पर बनी रही होगी, जो पाँच-पाँच स्तम्भों के 4 पंक्ति में बने थे। ईंटों का पक्का फर्श है, केवल बीच में उत्तर से दक्षिण 3 1/2 फुट चौड़ी एक कच्ची पट्टी है। इस हाल के सम्बन्ध में सर जान मार्शल का विचार है कि वह किसी प्रकार का धार्मिक सभा भवन रहा होगा, किन्तु अर्नेट के मत से यह कोई पण्डी थी जिसमें स्तम्भों के मध्य में दुकानें रही होंगी। स्तूप के पश्चिम की ओर एक भवन में विशाल स्नान का जलकुण्ड है। यह जलकुण्ड 39.3′ लम्बा तथा 22.2′ चौड़ी पक्की ईंटों से निर्मित है। कुण्ड में उतरने के लिए चारों ओर सीढ़ियाँ हैं, जो 9′ चौड़ी और 8″ ऊंची हैं। ऊपर सीढ़ियों के चारों ओर एक 15 फुट चौड़ा मार्ग है, जो कि फर्श से युक्त कुण्ड के पूरब में एक बड़ा सा कुआँ है। कुण्डज्ञके उत्तर में 8 स्नानागारों का समूह है। इनमें चार मार्ग के उत्तर की ओर तथा चार दक्षिण की ओर हैं। मध्य में जल प्रवाहित नाली भी है। प्रत्येक प्रकोष्ठ के फर्श जुड़े हुए हैं, तथा ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों के अवशेष आज भी दृष्टिगत होते हैं। इन कमरों में जाने वाला मार्ग अतीव संकुचित है, परिणामस्वरूप बाहर से प्रयत्न करने पर भी अन्दर की वस्तु दृष्टिगत नहीं हो सकती है। “इन स्नानागारों के उपयोग के सम्बन्ध में अनुभान किया जाता है कि वे सम्भवतः पुरोहित आदि कर्मकाण्डी लोगों के लिए बने थे, जो स्नानागारों के ऊपरी तल्लों में रहा करते थे। सारे भवन का सम्बन्ध किसी धार्मिक कृत्य से लगाया जाता है।”
मोहनजोदड़ो नगर के उत्तर भाग में ‘240×112’ आकार के भवन का एक भग्नावशेष भी मिला है। इस भवन के बाहर की दीवारों की मोटाई 5 फुट है और उसके दक्षिण-पश्चिम भाग में प्रवेश द्वार है। दक्षिण की ओर एक दूसरा भवन है। विद्वानों के अनुमान से यह राजमहल होगा। इसके साथ में नौकरों के रहने के लिए भी मकान और भण्डार घर दृष्टिगत होते हैं। यह सम्पूर्ण स्थान 220’ लम्बा और 115° चौड़ा है और इसकी दीवारें 5 फुट तक मोटी हैं। इस भवन तथा स्थान के चारों और मुख्य सड़कें हैं।
सिन्धु सभ्यता के काल में वास्तुकला अपने सर्वांग रूप में विकसित थी। इस वास्तुकला की समता में परवर्ती काल में शताब्दियों तक कोई निदर्शन दृष्टिगत नहीं होता है। यह एक आश्चर्यजनक किन्तु सत्य घटना है। परमेश्वरी लाल गुप्त भारतीय वास्तुकला’ में लिखते हैं- “इस प्रकार हम देखते हैं कि सैन्धव सभ्यता की वास्तुकला प्रत्येक अंग में पूर्ण एवं विकसित थी। वैसे विकसित वास्तु-व्यवस्था का परिचय हमें इस युग के बाद बहुत दिनों तक नहीं मिलता। चौथीं पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक तो किसी भी प्रकार के नागरिक अथवा अन्य प्रकार के वास्तु का पता ही नहीं लगता उसके पश्चात् की नागरिक वास्तु का पता उतने विस्तृत रूप में नहीं लगता जितना हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के भानावशेषों को देखकर सैन्धव सभ्यता का होता है।”
धार्मिक वस्तु- प्राकृतिक शक्तियों की महत्ता-
शक्तिमत्ता को देखकर मानव-मन में उनकी जानकारी के लिए सहज जिज्ञासा उदित हुई होगी। उस जिज्ञासा का उत्तर ही देवता- ईश्वर की भावना के उदय का कारण बना होगा। इस शक्तिशाली पदार्थ की प्रसन्नता के लिए मानव उपासना-पूजा की ओर उन्मुख हुआ होगा; इसी भावना ने धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि के उदय में योग दिया होगा । विश्व के विभिन्न देशों में व्यक्तियों ने उस परम शक्ति के सम्बन्ध में विभिन्न कल्पनायें की, अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार देवों की कल्पना की उनकी उपासना के लिए विधान रचे और स्तूप, मन्दिर आदि की कल्पना की, परिणामतः धार्मिक वास्तुकला का उदय हुआ।
आर्यों के प्राचीन ग्रन्थ वेद में यज्ञवेदी और यज्ञशाला का उल्लेख उपलब्ध होता है। इसे हम भारतवर्ष की आदिम धार्मिक वास्तुकला कह सकते हैं। इसका प्रारम्भिक रूप एक चबूतरे से प्रारम्भ होकर कलात्मक वेदिका आदि के रूप में परिणत हुआ। विभिन्न आकारों (पक्षी, रथ, करोत्तान मानव) की वेदिकाओं के उल्लेख वैदिक साहित्य एवं ब्राह्मण साहित्य में उपलब्ध हैं।
वैदिक कालीन वास्तु सम्बन्धी इन यज्ञशालाओं के अतिरिक्त ई. पूर्व पृष्ठ शतक तक हमें धार्मिक वास्तु का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। महात्मा बुद्ध के आविर्भाव से बौद्ध धर्म का उदय हुआ और उनके निर्वाण के तदनन्तर स्तूप नामक वास्तु का उदय हुआ। इस स्तूप के मूल में वैदिक काल की समाधि ही थी। इसके साथ-साथ स्तूप-भवन और विहार भी बौद्ध वास्तुकला के दो तत्व हैं। इनके अतिरिक्त ‘मन्दिर’ नामक वास्तु ब्राह्मण-धर्म का प्रमुख तत्व है जो कि चतुर्थ शतक से लेकर आज तक निरन्तर भारतवर्ष की वास्तुकला का प्रिय विषय बना हुआ है और जिसने भारतीय वास्तुकला के विकास, परिष्कार तथा मूल्यांकन का अवसर प्रदान किया है। इस प्रकार वास्तुकला के प्रमुख उपकरण निदर्शन स्तम्भ, स्तूप्त, मन्दिर, भवन आदि तत्त्व हैं।
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