सिंधु सभ्यता का समाज तथा धर्म | सिंधु घाटी की सभ्यता के सामाजिक जीवन का वर्णन | सिंधु घाटी की सभ्यता के आर्थिक जीवन का वर्णन
सिंधु सभ्यता का समाज तथा धर्म | सिंधु घाटी की सभ्यता के सामाजिक जीवन का वर्णन | सिंधु घाटी की सभ्यता के आर्थिक जीवन का वर्णन
सिंधु सभ्यता का समाज तथा धर्म
सामाजिक जीवन (सिंधु घाटी की सभ्यता के सामाजिक जीवन का वर्णन)
(1) सामाजिक संगठन, आधार तथा रचना- सभ्यता के उस आदिम युग में सिन्धुघाटी सभ्यता का सामाजिक संगठन अपनी प्रारम्भावस्था में ही अनेकानेक उपलब्धियों से परिपूर्ण था। इस काल का सामाजिक जीवन सरल, सादा, उदार, उन्नत तथा सहज मानवीय अभिरुचियों से ओत-प्रोत या सामाजिक संगठन को इकाई परिवार था तथा परिवार के निकटतम सम्बन्धी एक ही घर में रहते थे। विश्वास किया जाता है कि परिवार मात्र प्रधान था। बहुतायत में प्राप्त नारी मूर्तियाँ इस विश्वास को पुष्ट करती है कि परिवार तथा समाज में नारी को प्रमुखता प्राप्त थी। समाज में अनेक वर्ग थे जिनका संगठन अथवा निर्माण कार्यकुशलता के आधार पर किया गया था। तत्कालीन चार प्रमुख वर्ग इस प्रकार थे- (1) विद्वान या बौद्धिक वर्ग- इसमें पुरोहित, वैद्य, ज्योतिषी आदि थ। (2) राजकीय पदाधिकारी तथा सुरक्षा कर्मचारी वर्ग- इसमें राज्य के उच्चपदाधिकारी, कर्मचारी तथा सैनिक एवं योद्धा थे। (3) व्यापारी या व्यवसायी वर्ग- इसमें व्यापारी, व्यवसायी, उद्योगपति तथा धनी वर्ग के लोग थे। (4) श्रमिक तथा कारीगर आदि वर्ग- वर्ग में वे लोग थे जो शारीरिक परिश्रम तथा हस्तकौशल द्वारा जीविकोपार्जन करते थे। तत्कालीन सामाजिक संगठन एवं रचना की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि इस समय जाति प्रथा का प्रचलन नहीं था। वर्ग विभाजन का आधार या तो कार्यगत विभिन्नता अथवा आर्थिक वैभिन्य था।
(2) भोजन तथा खाद्य सामग्री- सिन्धुवासियों का भोजन सुरुचिपूर्ण तथा विविधता से युक्त था। विशाल संख्या में प्राप्त बर्तन-भाण्डों के आधार पर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इनमें विविध प्रकार के खाद्य व्यंजन पकाये तथा रखे जाते थे। अनेक चित्रों से पता चलता है कि उन्हें अनेक फलों की उपज तथा उपयोगिता का ज्ञान था। अनार, नारियल, खजूर, नींबू तथा तरबूज उनके प्रिय फल थे। उन्हें गेहूँ, जौ, तिल, राई, चावल तथा विभिन्न शाक-सब्जियों को उपजाने की विधि विभिन्नता मालूम थी। गाय, भैंस, बकरी आदि उनके पालतू जानवर थे। इनसे दूध प्राप्त करके वे उसकी दही, मट्ठा तथा मक्खन बनाते थे। वे रोटी तथा मिष्ठान्न बनाना भी जानते थे। मुद्राओं पर अंकित मछली पकड़ने, शिकार करने तथा बलि देने के चित्र यह प्रमाणित करते हैं कि वे मांस का भी प्रयोग करते थे, उन्हें मुर्गी पालन का ज्ञान था। हो सकता है कि वे अण्डों का प्रयोग खाद्य सामग्री के रूप में करते थे। इस विषय का कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका है कि वे मदिरा के प्रयोग से परिचित थे अथवा नहीं।
(3) वस्त्र तथा पहनावा- सिन्धुघाटी से प्राप्त अनेक चित्रों तथा खिलौनों में वस्त्रों का अंकन बहुत ही न्यून मात्रा में हुआ है। इनमें या तो शरीर आधा ढंका हुआ है अथवा वे वस्त्रहीन हैं। इस आधार पर प्रायः यह अनुमान भी लगाया जाता है कि वे या तो नग्नता प्रिय थे अथवा वस्त्रों के प्रति उदासीन थे। परन्तु प्रमाणों का परोक्ष रूप से विवेचन करने पर पता चलता है कि वे पर्दे अथवा आवरण के प्रति विशेष रूप से सजग थे। विशाल स्नानागार में बने कमरों में पर्दो तथा आवरणों का समुचित प्रबन्ध, मकानों के मुख्यद्वार के सामने आवरण के रूप में दीवाल का निर्माण, खिड़कियों का मुँह गलियों की ओर होना आदि यह प्रमाणित करते हैं कि वे पर्दे की प्रथा में विश्वास रखते थे। जब वे पर्दे में विश्वास रखते थे तो निश्चय ही वे वस्त्र भी धारण करते रहे होंगे। मूर्तियों तथा चित्रों में नग्नता की अभिव्यक्ति उनकी किसी विशिष्ट अभिरुचि का ही प्रमाण है- नग्नता का नहीं। एक ऐसी मूर्ति की प्राप्ति हुई है जिसमें पुरुष शाल ओढ़े हुए हैं तथा यह बायें कन्धे से होता हुआ दाहिनी कॉख के नीचे की ओर लपेटा हुआ है। अनेकय प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि इस समय प्रमुखत: दो प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग किया जाता था। पहला कमर से निचले भाग को ढंकने के लिये तथा दूसरा शरीर के ऊपरी भाग को कने के लिये। स्त्रियों तथा पुरुषों की वस्त्रभूषा में विशेष अन्तर नहीं था। स्त्रियाँ प्रायः अपने सिर पर एक ऐसा वस्त्र धारण करती थीं जो पीछे की ओर को उड़ता रहता था।
(4) आभूषण- स्त्री पुरुष समान रूप से आभूषण प्रेमी थे। साधारण तथा बहुमूल्य धातुओं से बने उनके आभूषण विविध तथा आकर्षक है। निर्धन तथा निम्न वर्ग के लोग अस्थियों, घोघों, सीपियों, तान तथा पकाई हुई मिट्टी से बने आभूषण धारण करते थे। समृद्ध वर्ग के स्त्री पुरुष स्वर्ण, रजत, हाथी दाँत, कीमती पत्थरों तथा मोतियों से बने आभूषण पहनते थे। कन्दौरे, इयरिंग, फूल, पायल, बालियाँ, हार, भुजबन्ध, लौंग, नाक की बालियाँ, अंगूठी, करधनी, बालों के पिन आदि आभूषणों के प्रयोग के अनेक प्रमाण उपलब्ध हुए हैं।
(5) श्रृंगार प्रसाधन- सिन्धु निवासियों की शृङ्गार प्रियता के दर्शन मातृदेवी की मूर्ति, अनेक रेखांकित चित्रों, मुद्राओं पर उत्कीर्ण आकृतियों तथा खिलौनों में होते हैं। पुरुष दाढ़ी मूंछ रखते थे तथा कुछ लोग इन्हें मुंडवाते भी थे। कुछ पुरुष लम्बे केशों का जूड़ा भी बनाते थे। कंधे, शीशे की प्राप्ति द्वारा यह प्रमाणित होता है कि केश तथा मुख सञ्जा की ओर ध्यान दिया जाता था। स्नान करने से पूर्व तथा पश्चात तेलादि का प्रयोग किया जाता था। स्त्रियों बालों को काढ़कर बीच में मांग बनाती थीं। मातृदेवी के शीर्ष पर कुल्हाड़ी की आकृति की शिरोभूषा-सिन्धु नारी की शिरोभूषा का प्रमाण प्रस्तुत करती है। हड़प्पा से प्राप्त बोतल में संभवतः काजल रखा जाता था। सीपी के पात्र में पाउडर जैसी चीज की प्राप्ति तथा श्रृङ्गार स्थल से प्राप्त घोंघे के पात्र इस विश्वास को पुष्टता प्रदान करते हैं कि इनमें विविध शृङ्गार प्रसाधन सामग्री रखी जाती रही होगी।
(6) मनोरंजन के साधन- तत्कालीन मुद्राओं पर ढोल, तुरही, वीणा तथा नर्तक मुद्राओं के चित्र मिले हैं। एक मुद्रा पर दो मुर्गों के लड़ने का चित्र अंकित है। सिंह तथा अन्य पशुओं के आखेट चित्र भी मिले हैं। उत्खनन द्वारा संगमरमर, पाषाण तथा सीपियों की गिट्टियाँ भी मिली हैं। ये समस्त प्रमाण तत्कालीन मनोरंजन के साधनों तथा विधियों की विविधता के परिचायक हैं। मछली पकड़ना, आखेट तथा तैराकी भी उनके प्रमुख आमोद थे। वे स्वास्थ्य रक्षा के लिये व्यायाम भी करते थे। उन्हें नृत्य से विशेष लगाव था। वे द्यूत क्रीड़ा तथा शतरंज के भी विशेष प्रेमी थे।
(7) दैनिक जीवन में प्रयुक्त उपकरण- सिन्धुवासी अपने दैनिक जीवन में मिट्टी तथा धातुओं के घड़े, थाली, कटोरियाँ, चम्मच, गिलास, तश्तरियाँ, कलश आदि का प्रयोग करते थे। सामान रखने की टोकरियों, जमीन पर बिछाने के लिये चटाई, बैठने के लिये तिपाई तथा कुर्सी, शयन हेतु खाट तथा पलंग, प्रकाश के लिये दीपक, सूत कातने के लिये तकई, सीने के लिये सूई, काटने, छीलने तथा तराशने के लिये चाकू, हंसिया, कुल्हाड़ी, छेनी, छुरी, आरी उस्तरे एवं मछली पकड़ने के लिये काँटे का प्रयोग किया जाता था।
(8) रोग उपचार- अनेक प्रमाणों से पता चलता है कि सिन्धुवासियों को अनेक औषधियों का भी ज्ञान था। वैद्य तथा चिकित्सक औषधियों के साथ-साथ जादू टोने द्वारा भी रोगों का उपचार करते थे। स्वास्थ्य रक्षा के लिये ताबीज पहने जाते थे। इन पर मातृदेवी तथा पशुपक्षियों की आकृतियाँ बनी रहती थीं।
(9) स्त्रियों की दशा- सिन्धु सभ्यता के सामाजिक जीवन की इकाई के रूप में परिवार मातृ प्रधान था। मातृ प्रधान परिवार होने के कारण स्त्रियों की स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। धार्मिक विश्वासानुसार भी मातृदेवी को प्रमुखता प्राप्त थी। उत्खनन द्वारा प्राप्त मूर्तियो, चित्रों तथा खिलौनों में नारी अंकन बहुसंख्यक मात्रा में प्राप्त हुआ है। इन सभी प्रामाणिक आधारों से निष्कर्ष निकलता है इस समय के सांस्कृतिक, सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में स्त्रियों को प्रमुख स्थान प्राप्त था।
निष्कर्ष- सिन्धु सभ्यता के सामाजिक जीवन के उपरोक्त विभिन्न पहलू यह स्पष्ट संकेत देते हैं कि सभ्यता तथा संस्कृति के उस ऊषाकाल में भारतीय भूमि पर एक सुगठित, सुरचित तथा विशिष्ट सामाजिक अभिरुचियों से युक्त सामाजिक जीवन हँस-खेल रहा था। तत्कालीन सामाजिक जीवन की परिपक्वता हमारे इस विश्वास को अतिरिक्त पुष्टता प्रदान करती है कि भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता की परम्परा अति प्राचीन तथा वैविध्यपूर्ण है।
आर्थिक जीवन (Economic Life)- सिंधु घाटी की सभ्यता के आर्थिक जीवन का वर्णन
सिन्धु घाटी की खुदाइयों से बहुत सी ऐसी सामग्री प्राप्त हुई है जो उस काल के लोगों की आर्थिक व्यवस्था पर प्रकाश डालती है। यदि कुछ वस्तुओं में हमें उनके उद्योग-धन्धों का पता चलता है तो कुछ से हमें उनके कला-कौशल के विषय में जानकारी प्रास होती है। सिन्धु घाटी के आर्थिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-
(1) कृषि- सिन्धुवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। उत्खन्न में प्राप्त अवशेषों से पता लगता है कि लोग खेतों में मुख्यत: गेहूँ और जो उत्पन्न करते थे। इसके अतिरिक्त कपास, चावल, मटर, तिल भी उत्पन्न करते थे। वे फलों का प्रयोग भी जानते थे और अनार तथा खजूर उपजाते थे।
(2) पशुपालन- सिन्धुवासी पशुपालन से भली भाँति परिचित थे। वे लोग गाय, बैल, बकरियाँ, हाथी, ऊँट आदि ‘पालते थे। इसके अतिरिक्त बन्दर, बिल्ली, खरगोश, हिरन, मुर्गा, मोर तथा आदि से भी परिचित थे।
(3) अन्य व्यवसाय- उपलब्ध जेवरों, बर्तनों, खिलौनों तथा चाकुओं से यह ज्ञात होता है कि सिन्धुवासी उद्योगों से भली-भाँति परिचित थे। कताई-बुनाई उन दिनों बहुलोकप्रिय उद्योग के रूप में विकसित था। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के नगरों में प्रत्येक घर में सूत कातने वाली तकलियाँ प्रास हुई हैं। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र थे। इस काल में विदेश व्यापार मुख्य रूप से अफगानिस्तान, ईरान तथा मध्य एशिया के साथ होता था। बैलगाड़ियाँ माल परिवहन के मुख्य साधन के रूप में थे।
(4) तौल तथा माप के उपकरण- मोहजोदड़ो तथा हड़प्पा में छोटे बड़े सभी प्रकार के बाँट पाये गये हैं। ये बाँट चर्ट नामक सरला पत्थर से बनाये गये हैं इन बाँटों में से कुछ तो आधुनिक जौहरियों के प्रयोग में आने वाले बाँटों की भाँति बहुत ही छोटे है और कुछ तो इतने बड़े हैं कि वे रस्सी से उठाये जाते थे। नाप-तौल में सोलह ईकाइयाँ मानी जाती थी और तराजुओं का भी प्रयोग किया जाता था। हड़प्पा में कांसे की एक छड़ी भी मिली है जिस पर निश्चित योजना के अनुसार चिन्ह लगे हुये हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि आजकल के फुट की भाँति यह उन लोगों के मापने का पैमाना होगा।
(5) धातु उद्योग- सिन्धु सभ्यता के लोग विभिन्न प्रकार की धातुओं से भली-भाँति परिचित थे। वे सोने, चाँदी एवं कांसे का उपयोग अच्छी तरह से जानते थे तांबे और कांसे के बर्तन बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त हुये है। सीप तथा हाथी दाँतों से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं बनायी जाती थी। चन्दहड़ो में एक ऐसा कारखाना पाया गया है जहाँ मालाओं के मनके बड़ी कुशलता के साथ बनाये जाते थे। रोमिला थापर के अनुसार कई स्थानों पर लोहे भी प्राप्त हुये है। इस प्रकार सिन्धु घाटी वासियों का आर्थिक जीवन बहुत समुन्नत था।
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
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