इतिहास / History

फ्रांस की राज्यक्रांति के आर्थिक कारण | Economic Causes of the Revolution in Hindi

फ्रांस की राज्यक्रांति के आर्थिक कारण | Economic Causes of the Revolution in Hindi

फ्रांस की राज्यक्रांति के आर्थिक कारण

(Economic Causes of the Revolution)

1789 ई० की फ्रांसीसी राज्यक्रांति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण आर्थिक था। ऐसे तो फ्रांस की सामाजिक-राजनीतिक अवस्था भी बहुत बिगड़ चुकी थी, किंतु वहाँ को आर्थिक दशा विशेष रूप से खराब हो चली थी। क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण कारण फ्रांस की आर्थिक स्थिति का ख़राब होना ही माना जाता है। यदि राजा के समक्ष एक भयंकर आर्थिक संकट उपस्थित नहीं हुआ होता तो शायद वह कुछ दिनों तक उसी प्राचीन व्यवस्था के अनुसार फ्रांस का शासक बना रह सकता था। लुई सोलहवें ने उस दशा को सुधारने के असफल प्रयत्न किए और अंत में नए कर लगाने के लिए इस्टेट्स जनरल को भी आमंत्रित किया, जिसके परिणामस्वरूप क्रांति का सूत्रपात हुआ। अतः, यह कहना उचित है कि अन्य सब कारणों से महत्वपूर्ण कारण आर्थिक दशा का गिरना था जिसके कारण फ्रांस में क्रांति का विस्फोट हुआ।

फ्रांस के राजाओं की फिजूलखर्ची तथा लुई चौदहवें के लगातार युद्ध के कारण शाही कोष खाली हो गया था। उसकी मृत्यु के समय देश की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। उसकी मृत्यु के बाद लुई पंद्रहवा उसका उत्तराधिकारी हुआ, जिसने पोलैंड के उत्तराधिकार युद्ध, आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध और सप्तवर्षीय युद्ध में भाग लिया। लुई पंद्रहवें के बाद लुई सोलहवें ने अमेरिकी स्वातंत्र्य युद्ध में भाग लिया जिससे उसकी आर्थिक दशा अत्यंत खराब हो गई। इन युद्धों में फ्रांस को ढेर सारा धन व्यय करना पड़ा। देश आर्थिक संकट में आ गया, अतः राजा को इस्टेट्स जनरल को बुलाना पड़ा, ताकि सरकार के आर्थिक संकट को दूर किया जा सके।

दोषपूर्ण अर्थ-विभाजन-

तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था अत्यंत दोषपूर्ण थी। आर्थिक दृष्टिकोण से फ्रांस का विभाजन असमानता के आधार पर था। फ्रांस में अधिकतर दो प्रकार के मनुष्य निवास करते थे-धनी और दरिद्र । राज्य के समस्त उच्च पदों पर कुलीनों का अधिकार था। उच्च वर्ग के कुलीनों एवं उच्च पदाधिकारियों को विशेषाधिकार दिए गए थे। समय पड़ने पर ये लोग धन तथा सेना से राजा की सहायता करते थे। रिशलू के मंत्रित्वकाल में जागीरदारों को उनके समस्त कर्तव्यों के भार से मुक्त कर दिया गया था, इसलिए जनता उनको एक व्यर्थ अंग समझती थी जिसके न होने से कुछ विशेष अंतर नहीं पड़ता था, किंतु ये लोग समस्त फ्रांस की लगभग आधी भूमि के मालिक थे। साथ ही राज्य-करों से बिल्कुल मुक्त पादरीवर्ग भी अपने कर्तव्य की उपेक्षा करता था। ये लोग धार्मिक कृत्यों की परवाह न कर दिन-रात भोग-विलास में लिप्त रहते थे तथा दरवार में षड्यंत्र रचते थे। अत:, साधारण जनता उच्चवर्गों से अत्यंत दुःखी थी तथा उनके अत्याचारों से अपने को मुक्त करना चाहती थी। क्रांति के आरंभ में राजा तथा राजपरिवार की अपेक्षा जनता का सबसे अधिक क्रोध इस उच्चवर्ग पर ही था।

एक ओर तो यह उच्चवर्ग था, दूसरी ओर साधारण लोगों की अवस्था शोचनीय थी। तत्कालीन दार्शनिकों ने अपने लेखों द्वारा समाज के इन वर्गों का चित्रण किया है, जिससे तत्कालीन असमानता का पूर्ण मिलता है। एक ओर तो यह अमीरवर्ग दरिद्रों पर अत्याचार कर अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग कर रहा था तथा दूसरी ओर गरीब जनता अत्याचारों की चक्की में पिस रही थी। राज्य के प्रति, चर्च के प्रति, जागीरदारों के प्रति कर देने में उन लोगों के परिश्रम से अर्जित लगभग अस्सी प्रतिशत धन निकल जाता था तथा अत्यंत दरिद्रतापूर्ण अवस्था में गरीब लोग अपना तथा अपने परिवार का पालन करते थे।

उच्चवर्ग एवं निम्नवर्ग के बीच का वर्ग मध्यमवर्ग (middle class) कहलाता था। यह संपन्न तथा शिक्षित वर्ग था तथा इन असमानताओं में सबसे अधिक असंतुष्ट भी यही वर्ग था। ला फावरे (Lia Favre) के अनुसार फ्रांसीसी समाज का ढाँचा सामंतो था, किंतु आर्थिक शक्ति मध्यमवर्ग के हाथों में आ रही थी। यही विसंगति फ्रांस के आर्थिक जीवन की सबसे बड़ी समस्या थी। मध्यमवर्ग ने फ़्रांस के कारीगरों तथा शिल्पियों के छोटे-छोटे संघ बना रखें थे, जिससे छोटे-छोटे कारीगरों पर इनका अधिकार हो गया था। ये लोग इनके नेतृत्व में बड़े कार्य करने को प्रस्तुत थे।

दोषपूर्ण कर-व्यवस्था-

देश् का ऋण बहुत बढ़ चुका था। जिनके पास धन था तथा जो सरलतापूर्वक धन दे सकते थे, वे करों के भार से सर्वथा मुक्त थे तथा गरीब किसानों को भूखा रहकर राज्य-कोष भरना पड़ता था। सरकारी कर्मचारीगण प्रजा से कर लेते समय बहुत अत्याचार करते थे । कर वसूल करने के लिए भी फ्रांस में विचित्र प्रणाली थी, कर वसूल करने का ठेका दिया जाता था। जो सबसे अधिक धन राजा को देने को तैयार हो जाता था, उसी को निश्चित भूमि से कर वसूल करने का अधिकार मिल जाता था। राज्य को थोड़ा-सा भाग देकर बाकी सब वसूल करने वाले अपने जेबों में रखते थे तथा प्रजा से अधिक-से-अधिक धुन बर्बरतापूर्वक छीन लेते थे। इस प्रकार, राज्य को तो अधिक आमदनी नहीं हो पाती थी और गरीब किसान धनहीन हो जाते थे। उनके परिश्रम का अधिकांश धन अत्याचारी कर उगाहनेवाले को मिल जाता था।

लुई पंद्रहवें के समय से ही राज्य की ओर से कृषि का महत्व समाप्त हो गया था। गांवों से राज्य का संबंध केवल कर वसूलने से था। अकाल की स्थिति में राज्य का शासनतंत्र किसानों की मदद करना अपना फर्ज न समझकर चुप रहना अधिक पसंद करता था। इस कारण कृषि में अवनति हुई ।

व्यापार की दशा-

व्यापार भी इस समय अवनतावस्था में था। फ्रांस के विभिन्न भागों की व्यापार प्रणाली भी भिन्न थी। नापने-तौलने की विधि भी स्थान-स्थान पर पृथक्-पृथक् थी। सिक्के भी समस्त फ्रांस में समान न थे। चुंगी दर भी विभिन्न स्थानों पर विभिन्न थी तथा फ्रांस के अंदर भी एक स्थान से दूसरे स्थान तक माल ले जाने में कई बार चुंगी देनी पड़ती थी। छोटे-छोटे कारीगरों के संघ बने थे, किंतु इन लोगों को पेट भरने योग्य आमदनी भी न थी। मिलमालिकों को बहुत लाभ होता था, किंतु बेचारे मजदूर दिनभर परिश्रम करके भी भूखे मरते थे। उस समय फ्रांस में वस्तुएं बहुत कम मात्रा में तैयार की जाती थीं। परिणामस्वरूप व्यापार से राज्य को कोई आर्थिक लाभ न था।

ऋण का भार-

यद्यपि फ्रांस यूरोप में एक धनी देश् समझा जाता था तथा राज्य की आय भी यथेष्ट थी, किंतु फ्रांस तब भी ऋण के भार से लदा हुआ था। इसका विशेष कारण था कि राज्य तथा राजा की आय अलग-अलग नहीं थी। राजा अपने खर्च के लिए राज्यकोष से चाहे जितना रुपया ले सकता था। परिणामस्वरूप राजपरिवार के लोग मनमाना खर्च करते थे तथा उनको कोई रोकने वाला नहीं था। उस समय फ्रांस का कोई बजट भी नहीं था। राज्य की आय और व्यय का पूर्ण पता लगाना किसी भी अधिकारी के लिए असंभव था। राज्य का कोष एकदम रिक्त था। लुई पंद्रहवें के समय से ही उसके कृपापात्रों को पेंशन और इनाम मिलते थे, जिसके लिए ऋण लेना पड़ता था, किन्तु ऋण भी आखिर कब तक मिल सकता था। लुई सोलहवें के काल में फ्रांस की आर्थिक स्थिति अत्यंत संकटपूर्ण बन चुकी थी। अमेरिका के स्वाधीनता संग्राम में भी बहुत धन फ्रांस को कर्ज लेना पड़ा तथा क्रांति के समय व्यापार पर लिया हुआ ऋण लगभग साठ करोड़ डॉलर तक जा पहुंचा था। यह ऋण प्रतिवर्ष ढाई करोड़ डॉलर की दर से बढ़ता जा रहा था। मूलधन की तो बात ही क्या, फ्रांस ब्याज़ तक चुकाने में असमर्थ था। इसका अर्थ था कि फ्रांस दिवालिया बनता जा रहा था।

लुई सोलहवें ने इसकी रोक-थाम के लिए बहुत प्रयल किए। कई योग्य मंत्रियों, की नियुक्ति हुई किन्तु मंत्री लोग क्या कर सकते थे जब राजा तथा रानी खर्च कम करने को किसी प्रकार भी तैयार न थे। विवश होकर विशिष्टों की सभा (Assembly of Notables) का आयोजन हुआ, किंतु वह भी असफल रही; क्योंकि अमीरवर्ग ने अब तक परिस्थिति की गंभीरता को नहीं समझा था तथा उच्चवर्ग के जागीरदार व पादरी कर देने में अपना अपमान समझते थे। ये लोग यह नहीं समझ सके कि इस समय राजा की बात को न मानकर ये लोग कितनी बड़ी भूल कर रहे हैं तथा उसका बदला उन्हें अपने खून से देना पड़ेगा। जो काम राजा पूरा जोर लगाकर वर्षों में न कर पाया था, राष्ट्रीय सभा (National Assembly) ने एक सप्ताह में कर दिखाया। उसने आते ही समस्त विशेषाधिकारों का अंत कर जागीरदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया तथा क्रांति के समय जागीरदारों को अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि रक्त भी देकर जनता के रोष का प्रतिकार करना पड़ा। इस्टेट्स जनरल के अधिवेशन का सबसे प्रमुख कारण फ्रांस की बिगड़ती हुई आर्थिक दशा ही थी। इसलिए तत्कालीन आर्थिक दुर्दशा को ही फ्रांस की क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण कारण समझा जाता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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