सिन्धु सभ्यता में मूर्तिकला का विकास | सिन्धु घाटी सभ्यता के समय की मूर्तिकला
सिन्धु सभ्यता में मूर्तिकला का विकास | सिन्धु घाटी सभ्यता के समय की मूर्तिकला
सिन्धु सभ्यता में मूर्तिकला का विकास
भारत की प्राचीनतम सभ्यताओं में सिन्धु घाटी की सभ्यता सबसे प्राचीन सभ्यता है। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई में किसी भी मन्दिर के भग्नावशेष न प्राप्त होने के उपरान्त भी यह अनुमान लगाया जाता है कि सिन्धुवासी मूर्ति पूजक थे। इसका प्रमाण है उत्खनन में प्राप्त लिंग, मूर्तियाँ एवं योनि मूर्तियाँ । अनेक इतिहासकारों का कहना है कि सिन्धु सभ्यता के लोग, सृष्टि का निर्माण करने वाली शक्ति के रूप में इनकी पूजा करते थे।
इस युग में, अनेक प्रकार के पत्थरों, चट्टानों एवं सेलखड़ी को काटकर, मूर्तियाँ बनाई गई हैं। इन मूर्तियों की बनावट एवं यथार्थता को देखकर यह ज्ञात होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के कलाकार, हृदयगत भावों को, अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ चित्रित करने में दक्ष थे। गति एवं विभाव दोनों को ही समान रूप से प्रकट करने वाली नृत्य करती हुई, खुदाई में प्राप्त नर्तकी की मूर्ति के अंग विन्यासों एवं हाव-भाव को देखकर इस तथ्य का अत्यन्त सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है। उत्खनन से प्राप्त, पूर्णरूप से पत्थर एवं काँसे से निर्मित कोरी मूर्तियों से उस समय की कला की सजीवता प्रकट होती है उस युग की मूर्तियों की मुख्य विशेषता यह थी कि इनमें गाल एवं हड्डियाँ स्पष्ट रहती थीं, गर्दन छोटी, मोटी एवं मजबूत होती थी तथा उनकी आँखें तिरछी एवं पतली होती थीं। हड़प्पा से खुदाई में प्राप्त, लाल पत्थर से निर्मित मूर्ति में माँसपेशियों का अत्यन्त ही सुन्दर चित्रण किया गया है अतः सिन्धु युगीन इस प्रकार की कला, यूनानी कला से भी अत्यन्त उत्कृष्ट कही जा सकती है। यूनान की कला में सजावट अलंकार तो अत्यधिक है लेकिन सिन्धु युग की कला के समान सूक्ष्मता नहीं है। सिन्धु घाटी सभ्यता के कलाकारों ने सूक्ष्मता की ओर अत्यधिक ध्यान दिया है, जबकि यूनानी कलाकारों ने स्थूलता की ओर विशेष ध्यान दिया।
मूर्ति कला-
भारतीय कला एवं साहित्य का अन्धकार युग अभी खोज की अपेक्षा रखता है। जिस प्रकार अभी चालीस वर्ष के अन्दर ही सिन्धु-घाटी की सभ्यता की हमें जानकारी मिली है और उसी प्रकार हो सकता है कि निकट भविष्य में इस दो हजार वर्षीय अन्धकार युग की कहानी भी स्पष्ट हो सके। इसके साथ ही वैदिक आर्यों की संस्कृति एवं परम्पराएँ महान् थीं। उनका साहित्य अनुपम था। वे आध्यात्मवाद, औषधि-विज्ञान, भूगोल, खगोल आदि में पूर्ण पारंगत थे। इस दिशा में वे उन्नति के शिखर पर आरूढ़ थे। उनका जीवन असुव्यवस्थित था। उन्होंने अपने निवास के लिए सुन्दर भवनों पर निर्माण किया था। आर्य-संस्कृति निश्चय ही उस काल में फल-फूल रही थी। वैदिक साहित्य में भी आर्य-अनार्य भावना के दर्शन हो जाते हैं। बौद्धों की कतिपय मान्यताएँ अनार्यजुष्ट हैं। फिर भी वहाँ की संस्कृति का अपना लम्बा इतिहास है। सिन्धु घाटी को सभ्यता के उद्घाटन से पूर्व ही स्वर्गीय डा० पाजिटर महोदय ने लिखा है कि आर्यों ने भारत आगमन पर ऐसी सभ्यता देखी थी, जो उनकी सभ्यता के समकक्ष ही थी। सिन्धु प्रान्त में गाड़ी तथा रथों का प्रचार था। गाड़ी कि खिलौनों के बहुत से पहिये मिले हैं। एक खिलौना का पहिया तो रथ से जुड़ा हुआ था। दूसरा रथ एक बन्दूक की तरह है। गाड़ियों का बैल खींचते थे। मोहनजोदड़ों में अनेक सीलें भी मिली हैं। उन पर अद्भुत प्रकार के पशु-पक्षी अंकित हैं। इनमें बैलों की सुन्दर आकृतियाँ हैं। कुछ आकृतियाँ पूज्यनीय घोड़ों के समान हैं, किन्तु उन्हें ठीक-ठीक घोड़ा नहीं कहा जा सकता। सम्भवतः यह आकृतियों पूज्यनीय हों। मिस्त्र देश में उसी समय के अनेकों मानवीय तथा पशु-पक्षियों की आकृतियाँ मिलती हैं, जो विशेष रूप से किसी देव भावना को ही लेकर रची गयी थीं। उनके शरीर के अन्य भाग नग्न हैं। सोने की एक मातृ देवी की मूर्ति की तुलना ऋग्वेद के दाहमन्त्र 10/1/6 से की गयी है। यह पृथ्वी देवी की मूर्ति कही जाती है। काली देवी की भी मूर्ति मिली है। इस प्रकार सिन्धु घाटी सभ्यता के समय के दो प्रकार की मूर्तियाँ मिली हैं। एक सांस्कृतिक और दूसरी साधारण लोककला एवं निम्न वर्ग की है। जहाँ पर एक ओर नग्न नर्तकी की मूर्ति देखते हैं वहीं एक ऐसी मूर्ति भी मिलती है, जो किसी प्रसिद्ध योगी की जान पड़ती है। उनकी आकृति इतनी स्पष्ट है कि उससे भली-भाँति प्रतीत होता है कि यह योगी ध्यानावस्थित पद्मासन लगाकर बैठा है। अतः यह तो स्पष्ट ही है, कि केवल मोहनजोदड़ो के समय से ही नहीं बल्कि उससे भी पूर्व अति प्राचीन काल से मूर्तिकला के दो मुख्य विषय रहे हैं। एक वह जिसका उपयोग जनसाधारण के मनोरंजनार्थ किया जाता था और दूसरा आत्म-जिज्ञासा एवं ज्ञान तथा शिक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं मूर्तिकला की उस दूसरी श्रेणी में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, योगी तथा अन्य देवी भावनाओं की प्रतीक विभिन्न प्रकार की मूर्तियाँ भी थीं। मिस्त्र देश की मूर्तिकला एवं अन्य कलायें भी मोहनजोदड़ों की समकालीन ही जान पड़ती हैं। आज से लगभग आठ सहस्त्र वर्ष पूर्व मिस्त्र की सभ्यता भी बहुत ऊँची थी, मोहनजोदड़ों की कलाओं में विशेष कर मुद्राओं की अक्षर लिपि मित्र देश के समान ही है। इसीलिए यह जान पड़ता है कि भारत और मिस्त्र देशीय संस्कृति एवं कलाओं का आदान-प्रदान एक-दूसरे देश में अवश्य होता रहा है। किस सभ्यता ने किस देश को अधिक प्रभावित किया है, यह नहीं कहा जा सकता। मूर्तिकला के क्षेत्र में इस युग के निवासियों की दो प्रकार की भावनाएँ रही हैं। इनका विश्वास था कि वास्तविक जीवन संसार में नहीं है इसलिये वे अपनी भावना के अनुरूप एक देव संसार की सृष्टि करते थे। सुन्दर देवी-देवताओं की मूर्तियाँ निर्मित करते थे। अनेक देवताओं की उपासना होती थी पुरोहित लोग अपने-अपने समाज के प्रधान माने जाते है। वे राजा और प्रजा दोनों के कल्याण के लिये देवताओं की पूजा (उपासना) करते थे। जान मार्शल हड़प्पा में पायी जाने वाली दो प्रकार की मूर्तियों के सम्बन्ध में कहते हैं-
“जब मैंने उन्हें पहले देखा, तब यह विश्वास करना मेरे लिए कठिन हो गया कि प्रागैतिहासिक काल की है, वे प्रारम्भिक कला के निर्धारित सभी विचारों के विपरीत दिखाई पड़ती हैं। इनके समान रूप विन्यास करना प्राचीन जगत में ग्रोस के कालं तक अज्ञात था।”
हड़प्पा कालीन मूर्तिकला के उदाहरणों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
(अ) धार्मिक रूप में उपास्य मूर्तियों, (ब) सामान्य आकृतियों की मूर्तियाँ।
तत्कालीन मूर्तियों के निरीक्षण से हमें यह ज्ञात होता है कि इनके निर्माणार्थ निम्नलिखित चार प्रकार की शैलियाँ प्रचलित थीं।
(1) धातु को गलाकर तथा साँचे में ढाल कर मूर्तियाँ बनाना।
(2) छेनी हथौड़ी द्वारा पत्थर को तराश कर मूर्ति बनाना।
(3) मिट्टी की मूर्तियाँ बनाकर उन्हें आग में तपाकर तैयार करना।
(4) ठप्पा बनाकर मूर्तियाँ बनाना।
तत्कालीन मूर्तियों में भावा भिव्यंजना, हाव-भाव प्रदर्शन तथा शरीर के विभिन्न अंगों की सन्तुलित अभिव्यक्ति है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकियों की मूर्तियों में खडिया मिट्टी की बनी ध्यानावस्थित योगी की मूर्ति में अंग विन्यास अलंकरण तथा चिन्तन के यथार्थ गुण विद्यमान है। हड़प्पा से प्राप्त दो मूर्तियाँ तो इतनी उत्कृष्ट हैं कि मार्शल महोदय को कहना पड़ा है कि ईसा पूर्व चौथी शताब्दी का कोई भी यूनानी कलाकार इन मूर्तियों को स्वयं द्वारा निर्मित करने में गौरव का अनुभव करेगा, सिन्धु घाटी से प्राप्त मूर्तियों के प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन मूर्तिकला में कल्पना सौन्दर्य, सजीवता, उपयोगिता तथा पर्यायवादिता का अद्भुत समन्वय है।
(1) धातु कला-
सिन्धु घाटी के कलाकारों को विभिन्न प्रकार की विभिन्न धातुओं का पूरा-पूरा ज्ञान था। सोना, चाँदी, ताँबा, काँसा, पीतल तथा शीशे के साथ हड्डियों, सीपों आदि धातुओं से वे भली-भाँति परिचित थे। उनका धातु सम्बन्धी ज्ञान इतना विकसित था कि वे विभिन्न धातुओं के मिश्रण के माध्यम से एक नयी प्रकार की सुन्दर मूर्तियाँ बनाने में कुशल थे। सोने चांदी, सीप, हाथी दाँत आदि से निर्मित आभूषण उस समय की धातुकला को विशिष्टता के सजीव प्रमाण हैं।
(2) पाषाण कला-
सिन्धु घाटी के कलाकारों को पत्थरों की उपयोगिता, आकार-प्रकार, उन्हें काटने, छांटने तथा तराशने आदि का पूरा-पूरा ज्ञान था। भावों के अंकन में वे सिद्धहस्त थे। उन्हें मिश्रित मामलों का भी ज्ञान था जो पत्थरों को भली-भाँति जोड़ देता था।
(3) गुरिया निर्माण कला-
सिन्धु सभ्यता से मिले सोने-चाँदी तथा पत्थरों व हाथी दांत और घोंघों तथा सीपों द्वारा निर्मित गुरियाओं की प्राप्ति यह सिद्ध करती है कि उस समय गुरिया निर्माण कला अपनी चरम सीमा पर थी। इन गुरियाओं पर पालिश तथा चित्रकारी भी का गयी है।
(4) चित्रकला-
भारतीय चित्रकला के इतिहास पर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से मिली वस्तुओं के द्वारा नवीन प्रकाश पड़ता है। इस समय के कलाकारों ने मिट्टी के बर्तनों तथा पत्थरों पर सुन्दर चित्र बनाये हैं। उपर्युक्त स्थानों पर खुदाई से जो चित्र प्राप्त हुए उन्हें देखकर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सिन्धु घाटी के कलाकारों को चित्रकारी का अच्छा-खासा अभ्यास था तथा वे कला के बहुत प्रेमी थे। उनके चित्र प्राचीन भारत की चित्रकला के गौरव हैं सिन्धु घाटी सभ्यता की चित्रकला का विकास सामान्य जीवन से सम्बन्धित था, इस काल के चित्रों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।
(अ) ज्यमितीय चित्र, (ब) दृश्यात्मक चित्र
(अ) ज्यामितीय चित्र- इसके अन्तर्गत रेखाओं की सहायता से चित्र बनाये जाते थे।
(ब) दृश्यात्मक चित्र- इसके अन्तर्गत पशुओं, पक्षियों, बेल, बूटों, मानव आकृतियाँ आदि के साथ-साथ वृक्षों का भी चित्रण किया जाता था। तत्कालीन चित्रकला की अभिव्यक्ति तथा स्वरूप इतने सुन्दर ढङ्ग से विकसित हैं कि हमें ऐसा लगता है जैसे इसके पीछे परम्परागत अश्यस्त हाथों का मेल हैं।
(5) मुद्रा निर्माण-
सिन्धु घाटी से लगभग 550 मुद्रायें प्राप्त हुई हैं, जिनके आकार प्रकार तथा प्रतीक चिह्नों से मालूम होता है कि मुद्रा निर्माण कला भी पूर्ण विकसित थी।
(6) लेखन कला-
सिन्धु घाटी के कलाकार लेखन कला से भी परिचित थे। इसका प्रमाण प्राप्त मुद्राओं पर चित्रात्मक लिपि है
डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी ने सिन्धु घाटी की लेखन शैली पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि- “सिन्धु सभ्यता से उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों से प्रमाणित है कि इसके नागरिक किसी प्रकार की लेखन शैली से भी अवगत थे। निष्कर्ष अत्यन्त सुदृढ़ आधार पर अवलम्बित है। इसमें संदेह नहीं कि असीरिया और मिस्त्र की भाँ वहाँ अभिलिखित प्रस्तर अथवा मृस्ति रूप पद्दिको नहीं मिली है, परन्तुं उत्खनित उल्लिखित मुहरों की जो राशि मिली हैं वह इसे सिद्ध करने के अकाट्य प्रमाण हैं। इन मुहरों पर गैंडे, सांड और अन्य पुश्वाकृतियों के साथ-साथ एक प्रकार का उत्कीर्ण आलेखन भी है, जिसे विद्वानों ने मिस्त्री, मिनोअन, सुमेरी और आगेलमी वर्ग का माना है। इसलिये इन लिपि के अध्ययनार्थ विद्वानों के सारे प्रत्यन अब तक असफल हुए हैं। उनका साधारण विश्वास है कि यह लेखन शैली भी चित्र प्रणाली ही है और इसका प्रत्येक चिह्न समूचे शब्द अथवा वस्तु को प्रकट करता है। कुछ विद्वानों ने मात्राओं को स्वर चिह्न अनुमित किया है। सम्भवतया इस लेखन का पश्चात् कालीन विकास प्रकट करता है। इतिहास के विद्वानों का मत है कि साधारणतया इस लिपि की लिखावट दाहिनी ओर से बायीं ओर को और दूसरी में बायीं से दाहिनी ओर को लिखी जाती है। यह लिपि स्वयं अपनी भूमिका लम्बे काल जीवित न रह सकी।”
(7) संगीत तथा नृत्य कला-
हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त एक मुद्रा पर संगीत समारोह का चित्रांकन है। इसके अतिरिक्त एक अन्य मुद्रा पर नर्तकी की नृत्य मुद्रा का अंकन है कुछ अन्य मुद्राओं पर बीजा तथा ढोल का अंकन है। कुछ पक्षियों के खिलौनों की पूँछ पर सीटी तथा बांसुरी का होना भी उस समय की संगीत कला के प्रमाण हैं। संगीत कला के साथ-साथ नृत्य कला भी पर्याप्त रूप से विकसित थी उस समय के कलाकार नृत्य कला के विभिन्न हाव-भावों से पूर्णतया परिचित थे।
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