अर्थशास्त्र / Economics

परैटो अनुकूलतम की मान्यताएँ | परैटो अनुकूलतम की द्वितीय क्रम तथा उसकी समस्त दशाएँ | Assumptions of Pareto Optimum in Hindi

परैटो अनुकूलतम की मान्यताएँ | परैटो अनुकूलतम की द्वितीय क्रम तथा उसकी समस्त दशाएँ | Assumptions of Pareto Optimum in Hindi

परैटो अनुकूलतम की मान्यताएँ (Assumptions of Pareto Optimum)

(1) उपयोगिता एक क्रमवाचक विचार है तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए क्रमवाचक उपयोगिता फलन (ordinal utility function) दिया हुआ है।

(2) उत्पादक या फर्म का उत्पादन फलन (production function) एक निश्चित अवधि के अन्तर्गत दिया हुआ है।

(3) प्रत्येक व्यक्ति अपने सन्तोष को अधिकतम करना चाहता है।

(4) उत्पादक न्यूनतम लागत पर किसी वस्तु का अधिकतम उत्पादन करना चाहता है ताकि उसका लाभ अधिकतम हो सके।

(5) सभी वस्तुएँ पूर्णतया विभाज्य (perfectly divisible) है तथा सभी व्यक्ति प्रत्येक वस्तु की एक निश्चित मात्रा का प्रयोग करते हैं,

(6) पूर्ण प्रतिस्पर्धा के कारण सभी उत्पादन के साधन पूर्णतया गतिशील हैं।

उपर्युक्त मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए हम अनुकूलतम की दशाओं या प्रथम क्रम की दशाओं (first order conditions) या सीमान्त दशाओं (marginal conditions) की व्याख्या कर सकते हैं, जो नीचे दी गई है।

  1. उपभोग क्षेत्र में विनिमय अनुकूलतम (Exchange optimum in consume: ption sector)- पहली अनुकूलतम दशा वस्तुओं की मात्रा के विभिन्न उपभोक्ताओं में अनुकूलतम वितरण से सम्बन्धित है। इस दशा के अनुसार, “समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए किन्हीं दो वस्तुओं के मध्य प्रतिस्थापन की सीमान्त दर (MRS) समान होनी चाहिए।” किन्हीं दो वस्तुओं के मध्य प्रतिस्थापन की सीमान्त दर किसी वस्तु की सीमान्त इकाई के उपभोग में कमी होने से सन्तोष में क्षति की क्षतिपूर्ति के लिए आवश्यक अन्य वस्तु की मात्रा होती है ताकि कल्याण का स्तर यथावत् रहे। यदि प्रतिस्थापन की सीमान्त दर समान नहीं है तो दोनों व्यक्ति परस्पर विनिमय करेंगे जिससे किसी एक अथवा दोनों व्यक्तियों के सन्तोष के स्तर में वृद्धि होगी।

इस दशा का स्पष्टीकरण एजवर्थ- बाउले बॉक्स रेखाकृति द्वारा किया जा सकता है। रेखाकृति में X तथा Y अक्ष पर  क्रमशःX तथा Y वस्तुओं की मात्राएँ प्रदर्शित हैं जो दो व्यक्ति A तथा B द्वारा उपभोग की जाती हैं। A व्यक्ति का मूल बिन्दु 0A, तथा व्यक्ति का B तथा व्यक्ति का 0B है। Ia1, Ia2 तथा Ia2 तथा Ia3 अनधिमान वक्र A व्यक्ति के बढ़ते हुए सन्तोष के स्तर तथा Ib1, Ib2 तथा Ib3 अनधिमान वक्र B व्यक्ति के क्रमश: बढ़ते हुए सन्तोष को प्रदर्शित करते हैं। cc’ रेखा प्रसंविदा वक्र (contract curve) है जो विभिन्न अनधिमान वक्रों के स्पर्श बिन्दुओं से होकर जाती है। इन बिन्दुओं पर दोनों व्यक्तियों के लिए दोनों वस्तुओं के मध्य प्रतिस्थापन की सीमान्त दर समान होती है। प्रसंविदा वक्र से दूर दोनों व्यक्तियों के किसी वस्तु संयोग पर प्रतिस्थापन की सीमान्त दर समान नहीं होती है।

उदाहरणार्थ यदि दोनों व्यक्तियों द्वारा उपभोग की जाने वाली X तथा Y की मात्रा K द्वारा प्रदर्शित है तो यह अनुकूलतम स्थिति नहीं होगी क्योंकि K से S अथवा K से Q वस्तु- संयोग की ओर परिवर्तन होने से एक व्यक्ति का सन्तोष स्थिर रहते हुए दूसरे व्यक्ति के सन्तोष में वृद्धि होती है। इसी प्रकार K से R संयोग की ओर परिवर्तन होने पर दोनों व्यक्तियों के कल्याण में वृद्धि होती है क्योंकि दोनों अपेक्षाकृत ऊँचे अनधिमान वक्र पर जाने में सफल होते हैं।

चूँकि अनधिमान वक्र के प्रत्येक बिन्दु पर ढाल प्रतिस्थापन की सीमान्त दर प्रदर्शित करती है; अत: दोनों व्यक्तियों के लिए दो वस्तुओं के मध्य प्रतिस्थापन की सीमान्त दर उनके अनधिमान वक्रों के स्पर्श बिन्दुओं पर ही समान होती है। विभिन्न स्पर्श बिन्दुओं में से कौन सर्वश्रेष्ठ है, यह परैटो की कसौटी के अनुसार अनिर्धारणीय (indeterminate) है।

  1. उत्पादन क्षेत्र में उत्पादन अनुकूलतम (Production Optimum in Production Sector)- उत्पादन के क्षेत्र में अनुकूलतम स्थिति प्राप्त करने के लिए विभिन्न साधनों के अनुकूलतम प्रयोग तथा उत्पादन की अनुकूलतम मात्रा की व्याख्या की जाती है। अब हम उत्पादन के क्षेत्र में इन दोनों दशाओं की व्याख्या करेंगे।

A. साधनों के प्रयोग की अनुकूलतम दशा (Optimum Condition of Utilisation of Factors)- इस दशा को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है। किसी वस्तु विशेष के उत्पादन में दो साधनों का प्रयोग करने वाली किन्हीं दो फर्मों के लिए दो साधनों के मध्य तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर समान होनी चाहिए। यदि यह दशा पूरी नहीं होती है तो साधनों को एक फर्म से दूसरी फर्म में हस्तांतरित करके कुल उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है। इसके परिणामस्वरूप एक वस्तु का उत्पादन अपरिवर्तित रहते हुए दूसरी वस्तु के उत्पादन में वृद्धि हो जाती है अथवा दोनों वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि हो जाती है।

एजवर्थ बाउले बॉक्स रेखाकृति में समोत्पादन वक्रों का प्रयोग करके इस दशा को सरलतापूर्वक स्पष्ट किया जा सकता है।

रेखाकृति में X तथा Y अक्षों पर क्रमशः श्रम तथा पूँजी की कुल मात्रा प्रदर्शित है जिनका प्रयोग करके तथा B फर्मे किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा  का उत्पादन करती हैं।

फर्म का मूल बिन्दु OA तथा B फर्म का O2, है। Ia1, Ia2, Ia3 तथा Ib1, Ib2, Ib3 क्रमश : A तथा B फर्म के बढ़ते हुए उत्पादन के स्तर को प्रदर्शित करते हैं। सममात्रा वक्र (Isoquant) की प्रत्येक बिन्दु पर ढाल तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर को प्रदर्शित करती है। अत: जिस बिन्दु पर दोनों फर्मों के सममात्रा वक्र स्पर्श रेखाएँ हैं वहाँ दोनों के लिए दोनों साधनों के मध्य तकनीकी प्रतिस्थापन की सीमान्त दर समान है। रेखाकृति में Q, R, S, बिन्दु अनुकूलतम स्थिति को प्रदर्शित करते हैं। उदाहरणार्थ यदि K बिन्दु द्वारा व्यक्त साधन संयोग प्रयोग होता है तो वह अनुकूलतम स्थिति नहीं होगी क्योंकि ऐसी दशा में K से R की ओर तथा K से Q की ओर साधन संयोग परिवर्तित करके दोनों फर्मों के कुल उत्पादन में वृद्धि हो सकती है। K से R की ओर परिवर्तन से A फर्म के उत्पादन में वृद्धि होती है तथा B फर्म का उत्पादन पूर्ववत् रहता है। इसी प्रकार K से Q की ओर परिवर्तन से B फर्म के उत्पादन में वृद्धि होती है तथा A फर्म का उत्पादन यथावत् रहता है। इस प्रकार कुल उत्पादन में वृद्धि होती है। इस प्रकार Q तथा R दोनों में कौन अपेक्षाकृत अधिक कुल उत्पादन प्रदान करता है, यह अनिर्धारणीय है।

B. उत्पादन क्षेत्र में विशिष्टता के अनुकूलतम अंश की दशा (Condition of Optimum Degree of Specialisation in Production Sector)- इस दशा का सम्बन्ध दो फर्मों में दो वस्तुओं के उत्पादन की अनुकूलतम मात्रा निर्धारित करने से है। इस दशा के अनुसार, “किन्हीं दो फर्मों के लिए किन्हीं दो वस्तुओं के मध्य रूपान्तरण की सीमान्त दर समान होनी चाहिए जो दोनों वस्तुओं का उत्पादन करती है।” किसी फर्म की दो वस्तुओं के मध्य रूपान्तरण की सीमान्त दर.साधनों के स्थिर रहने पर एक वस्तु की वह मात्रा है जो दूसरी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई उत्पादन करने के लिए त्याग करनी पड़ती है। एक रूपान्तरण वक्र (Transformation Curve) या उत्पादन सम्भावना वक्र (Production Possibility Curve) के प्रत्येक बिन्दु पर ढाल दो वस्तुओं के मध्य रूपान्तरण की सीमान्त दर को व्यक्त करती है।‘रूपान्तरण वक्र दो वस्तुओं के उन विभिन्न संयोगों का बिन्दु पथ है जिनको एक उत्पादक अपने हुए साधनों के प्रयोग से उत्पादित कर सकता है।”

उपर्युक्त अनुकूलतम दशा को दो फर्मों के रूपान्तरण वक्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है। रेखाकृति (a) तथा (b) में क्रमश: A तथा B फर्म के रूपान्तरण वक्र प्रदर्शित है जो वर्द्धमान अवसर लागत के विचार पर आधारित है अर्थात् एक वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने के लिए दूसरी वस्तु के उत्पादन की अधिकाधिक मात्रा का त्याग करना पड़ता है। इसीलिए दोनों वक्र मूल बिन्दु के नतोदर (concave) हैं।

माना कि फर्म A वस्तु X की OL तथा Y वस्तु की LC मात्रा उत्पादित करती है। इसी प्रकार फर्म B वस्तु X तथा Y की क्रमशः O’E तथा ED मात्रा उत्पादित करती है। इस प्रकार X वस्तु का दोनों फर्मों द्वारा कुल उत्पादन OL+OE तथा Y वस्तु का कुल उत्पादन LC+DE मात्रा के बराबर है। दोनों फर्मों द्वारा उत्पादित X तथा Y वस्तु की कुल मात्राओं को रेखाकृति 10.6 में एक साथ प्रदर्शित किया गया है।

दोनों फर्मों के दोनों वस्तुओं के उत्पादन को एक साथ प्रदर्शित करने के लिए रेखाकृति में रेखाकृति (b) को उल्टा करके रेखाकृति 10.5 (a) पर इस प्रकार रख दिया गया है कि फर्म A तथा Y वस्तु B के रूपान्तरण वक्रों के C तथा D बिन्दु एक दूसरे से मिल (coincide) लें। इस प्रकार रेखाकृति में X वस्तु की कुल उत्पादन (MC+ON)= M N जहाँ MC=OL तथा ON+O’F है। इसी प्रकार Y वस्तु का उत्पादन LC+CE=LE है। रेखाकृति से स्पष्ट होता है कि C बिन्दु पर दोनों फर्मों के रूपान्तरण वक्र एक- -दूसरे की स्पर्श रेखाएँ न होकर परस्पर प्रतिच्छेद (inter- section) करते हैं। अत: दोनों फर्मों के रूपान्तरण की सीमान्त दर समान नहीं है। अत: परैटो के अनुसार यह विशिष्टीकरण की अनुकूलतम दशा नहीं है। अनुकूलतम स्थिति की प्राप्ति के लिए B फर्म के रूपान्तरण वक्र को इस प्रकार सरकाया (shift) किया गया है कि वह A फर्म के रूपान्तरण वक्र को K बिन्दु पर स्पर्श करती है। ऐसी दशा में दोनों फर्मों द्वारा X वस्तु का उत्पादन ST हो जाता है जो पहले के संयुक्त उत्पादन MN=SQ की अपेक्षा QT अधिक है। इसी प्रकार Y वस्तु का संयुक्त उत्पादन भी पहले के संयुक्त उत्पादन LE=WR की अपेक्षा RJ मात्रा अधिक है। इस प्रकार इस दशा की पूर्ति होने पर दोनों वस्तुओं का कुल उत्पादन पहले की अपेक्षा बढ़ जाता है। अनुकूलतम की स्थिति में फर्म Aवस्तु Y के उत्पादन में तथा फर्म B वस्तु X के उत्पादन में पहले की अपेक्षा अधिक विशिष्टीकरण (specialization) करती है।

K स्पर्श बिन्दु कोई अकेला बिन्दु नहीं वरन् अनेक बिन्दुओं में से एक है जिसके रूपान्तरण वक्र एक-दूसरे को स्पर्श कर सकते हैं। यह बिन्दु 0 की स्थिति पर निर्भर करता है। 0″ की विभिन्न सम्भव स्थितियों को एक वक्र द्वारा जोड़ देने से अनुकूलतम बिन्दु पथ (optimum locus) UV प्राप्त हो जाता है। U तथा V पर 0″ की स्थिति होने पर क्रमशः केवल Yतथा X के कुल उत्पादन में वृद्धि होगी तथा अन्य वस्तु की कुल मात्रा पूर्ववत् रहेगी। 0″ की स्थिति UV के मध्य कहीं होने पर दोनों वस्तुओं के कुल उत्पादन में वृद्धि होगी। UV वक्र के किस बिन्दु पर उत्पादन सर्वश्रेष्ठ होगा। इसका उत्तर देने में परैटो का मानदण्ड असमर्थ है।

  1. उत्पादन में किसी साधन के अनुकूलतम प्रयोग की दशा (Condition of Optimum Utilisation of any Factor in Production)- इस दशा के अनुसार किसी साधन का प्रयोग किसी फर्म द्वारा उस सीमा तक किया जाना चाहिए कि दोनों फर्मों में साधन की सीमान्त उत्पादकता समान है। इस दशा को प्रो० रेडर ने निम्न प्रकार व्यक्त किया है। “किसी साधन तथा किसी पदार्थ के मध्य रूपान्तरण की सीमान्त दर किन्हीं दो फर्मों के लिए समान होनी चाहिए जो उस साधन का प्रयोग तथा पदार्थ का उत्पादन करती है।”

यदि ऐसा नहीं है तो एक फर्म में से दूसरी फर्म में साधन का स्थानान्तरण (transfer) करके वस्तु विशेष के कुल उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है। रेखाकृति में X- अक्ष पर यदि फर्म A द्वारा प्रयुक्त साधन की मात्रा को दाहिनी से बायीं ओर तथा फर्म B द्वारा प्रयुक्त साधन की मात्रा को बायीं से दाहिनी ओर पढ़ें तथा उत्पादित वस्तु को Y- अक्ष पर प्रदर्शित करें तो OF तथा 0G रेखाएँ साधन के वस्तु के रूप में रूपान्तरण व्यक्त करती हैं। फर्म A द्वारा साधन के प्रयोग में वृद्धि से वस्तु का उत्पादन बढ़ता जाता है। यही स्थिति B फर्म का रूपान्तरण वक्र भी प्रदर्शित करता है। रेखाकृति से स्पष्ट है कि दोनों रूपान्तरण वक्रों के प्रतिच्छेद करने पर वस्तु के उत्पादन की कुल मात्रा LC+CE=LE है किन्तु दोनों रूपान्तरण रेखाओं के स्पर्श बिन्दु से स्पष्ट होता है कि वस्तु का उत्पादन WE+KL=WJ हो जाता है जो LE=WR की अपेक्षा RJ अधिक है। यही परैटो के अनुसार अनुकूलतम साधन प्रयोग की स्थिति है।

  1. उत्पादन के अनुकूलतम दिशा की दशा (Condition of Optimum Direction of Production)- यह दशा उत्पादन की तकनीकी दशाओं तथा उपभोक्ता के अधिमानों (consumer’s preference) पर आधारित है। इस दशा द्वारा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की अनुकूलतम उत्पादन की मात्रा का निर्धारण किया जाता है। प्रो० रेडर ने इस दशा को निम्न प्रकार परिभाषित किया है

“दोनों वस्तुओं का उपभोग करने वाले किसी एक व्यक्ति के लिए दोनों वस्तुओं के मध्य प्रतिस्थापन की सीमान्त दर (MRS) समुदाय (community) के लिए उनके मध्य रूपान्तरण की सीमान्त दर समान होनी चाहिए।”

इस दशा के अनुसार समाज में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वह यथासम्भव उपभोक्ताओं की पसन्द (testes) के अनुरूप हो। इससे कल्याण को अधिकतम किया जा सकेगा। इस दशा को रेखाकृति की सहायता से सरलतापूर्वक प्रदर्शित किया जा सकता है।

रेखाकृति में X तथा Y अक्ष पर क्रमश: X तथा Y वस्तु की मात्राएँ प्रदर्शित हैं। AB समाज के लिए दोनों वस्तुओं के मध्य रूपान्तरण वक्र है। W1 तथा W2 समाज के अनधिमान वक्र हैं। K बिन्दु  पर समाज की दोनों वस्तुओं के मध्य रूपान्तरण की सीमान्त दर (MRT) तथा प्रतिस्थापन की सीमान्त दर (MRS) समान है। यही अनुकूलतम स्थिति है जिसमें Y वस्तु की OD मात्रा तथा X वस्तु की OC मात्रा का उत्पादन समाज में किया जाता है। यदि N बिन्दु द्वारा व्यक्त वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है तो यह समाज के अधिमान के अनुरूप नहीं है क्योंकि Y वस्तु का कम तथा X वस्तु का अधिक उत्पादन करके समाज अपेक्षाकृत ऊँचे अनधिमान वक्र W2 पर के बिन्दु K को जा सकता है। रेखाकृति में देखा जायेगा कि बिन्दु K पर उत्पादन सम्भावना वक्र समाज के अनधिमान वक्र W2 को स्पर्श कर रहा है। जिससे बिन्दु K पर वस्तु X तथा Y में रूपान्तरण की सीमान्त  दर(MRTsy) समाज के उनमें प्रतिस्थापन की सीमान्त दर (MRSsy) के समान है। अत: N बिन्दु अनुकूलतम स्थिति व्यक्त नहीं करता।

  • साधन के समय के अनुकूलतम वितरण की दशा (Condition of Optimum Allocation of Factor’s Time)- यह दशा किसी उत्पादन के साधन विशेषतया मानवीय (human) साधनों के समय के कार्य (work) तथा अवकाश (leisure) के मध्य अनुकूलतम वितरण से सम्बन्धित है। इस दशा के अनुसार, “किसी वस्तु की उत्पादित मात्रा तथा उसमें व्यय समय (spent time) के मध्य प्रतिस्थापन की सीमान्त दर, साधन द्वारा व्यय किये गये समय तथा वस्तु के उत्पादन के रूपान्तरण की सीमान्त दर (MRT) के समान होनी चाहिए।” एक श्रमिक का अनधिमान वक्र अवकाश (leisure) तथा कार्य करने से प्राप्त आय के विभिन्न संयोगों को व्यक्त करता है जिन्हें श्रमिक समान रूप से अधिमान प्रदान करता है। अनधिमान वक्र का प्रत्येक बिन्दु कार्य करने से प्राप्त आय अर्थात् मजदूरी तथा अवकाश के मध्य प्रतिस्थापन की दर व्यक्त करता है। इसी प्रकार श्रमिक के निश्चित समय तक कार्य करने पर वस्तु का उत्पादन होता है। अत: कार्य करने के समय तथा समाज के लिए वस्तु के विभिन्न संयोगों को प्रदर्शित करने वाला रूपान्तरण वक्र होता है जिसका प्रत्येक बिंदु कार्य के घण्टे तथा वस्तु के मध्य रूपान्तरण की सीमान्त दर को प्रदर्शित करता है। जहाँ पर अनधिमान वक्र तथा रूपान्तरण वक्र एक-दूसरे की स्पर्श रेखा होती है वह बिन्दु इस अनुकूलतम की स्थिति को व्यक्त करता है। उसके अतिरिक्त कोई अन्य बिन्दु अनुकूलतम नहीं होता है।
  • पूँजी के अन्त:कालीन अनुकूलतम की दशा (Inter-temporal Optimum Condition of Captial)- यह दशा पूँजी के उधार देने तथा उधार लेने से सम्बन्धित है। इस दशा के अनुसार उधार लेने वाले व्यक्ति के लिए पूंजी पर ब्याज दर, उधार लेने वाले व्यक्ति की पूँजी की सीमान्त उत्पादकता के बराबर होनी चाहिए। इस दशा की व्याख्या निम्न रेखाकृति की सहायता से सरलतापूर्वक की जा सकती है।

रेखाकृति में X तथा Y अक्ष पर क्रमशः भविष्य तथा वर्तमान में आय के रूप में द्रव्य की मात्रा प्रदर्शित की गयी है। K1K2 दो अनधिमान वक्र हैं जो वर्तमान तथा भविष्य की आय के उन विभिन्न संयोगों को प्रदर्शित करते हैं जिससे उधार देने वाले व्यक्ति को समान सन्तोष प्राप्त होता है। वर्तमान तथा भविष्य में आय की मात्रा के मध्य प्रतिस्थापन की सीमान्त दर निरन्तर घटती हुई है जो स्पष्ट करती है कि उधार दाता भविष्य की एक निश्चित मात्रा में आय प्राप्त करने के लिए वर्तमान में निरन्तर कम आय त्यागना चाहता है। इसी प्रकार AB उधार लेने वाले व्यक्ति की उत्पादन सम्भावना रेखा है जो मूल बिन्दु के नतोदर है जिसका अभिप्राय यह है कि वर्तमान की अपेक्षा भविष्य में पूँजी की सीमान्त उत्पादकता घटती हुई होने के कारण उत्पादन की लागत बढ़ती हुई होती है। रेखाकृति में K2 वक्र तथा AB वक्र बिन्दु K पर एक-दूसरे की स्पर्श रेखाएँ हैं। अत: K अनुकूलतम स्थिति को व्यक्त करता है।

परैटो अनुकूलतम की द्वितीय क्रम तथा उसकी समस्त दशाएँ

(The Second Order and Total Conditions of Pareto Optimum)

ऊपर के अध्ययन में हमने परैटो अनुकूलतम की जो सीमान्त दशाओं अथवा प्रथम-क्रम की दशाओं की व्याख्या की है, वे अधिकतम सामाजिक कल्याण की प्राप्ति के लिए आवश्यक तो हैं किन्तु पर्याप्त (sufficient) नहीं। कारण यह है कि ये सीमान्त दशाएँ तो न्यूनतम सामाजिक कल्याण की स्थिति में भी पूरी होंगी। इसलिए अधिकतम सामाजिक कल्याण अथवा परैटो अनुकूलतम की प्राप्ति के लिए उपर्युक्त सीमान्त (प्रथम-क्रम) दशाओं के अतिरिक्त द्वितीय क्रम की दशाओं (second order conditions) की पूर्ति भी आवश्यक है। इन द्वितीय क्रम की दशाओं के अनुसार जहाँ पर सीमान्त दशाओं की पूर्ति है वहाँ यदि अनधिमान वक्र मूल बिन्दु की ओर उत्तल (convex) हों और रूपान्तरण वक्र (transformation curves) मूल बिन्दु की ओर अवतल (concave) हो तो सामाजिक कल्याण अधिकतम होगा अर्थात् परैटो अनुकूलतम की स्थिति प्राप्त होगी।

समस्त दशाएँ (Total Conditions)-  परन्तु यदि प्रथम क्रम तथा द्वितीय क्रम दोनों प्रकार की शर्ते पूरी होती हैं तो भी यह आवश्यक नहीं कि अधिकतम सामाजिक कल्याण की स्थिति प्राप्त हो क्योंकि किसी स्थिति में इन दशाओं के पूरा होने पर भी यह सम्भव हो सकता है कि वहाँ से किसी ऐसी स्थिति तक जाया जा सके जिसमें सामाजिक कल्याण अधिक है। अधिकतम सामाजिक कल्याण की प्राप्ति के लिए एक अन्य प्रकार की दशाओं, जिनको जे०आर० हिक्स (J.R. Hicks) ने समस्त दशाओं (total conditions) की संज्ञा दी है, की पूर्ति होना भी आवश्यक है। इन समस्त दशाओं के अनुसार अधिकतम कल्याण की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि कोई ऐसी वस्तु उत्पादित करके जो पहले उत्पादित नहीं की जा रही है अथवा ऐसे साधन का प्रयोग करके जिसका प्रयोग नहीं हो रहा है कल्याण में वृद्धि करना असम्भव हो।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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