शिक्षाशास्त्र / Education

उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या | शिक्षा के निजीकरण का अर्थ | उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या का स्वरूप | उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या के कारण

उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या | शिक्षा के निजीकरण का अर्थ | उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या का स्वरूप | उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या के कारण

उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या

(The Problem of Privatisation of Higher Education)

निजीकरण का अर्थ (Meaning of Privatisation)-प्रत्येक शब्द की भाँति निजीकरण का अर्थ भी संदर्भवश होता है। जब किसी राज्य में उसके किसी उत्पादन के स्रोत अथवा सार्वजनिक कार्य के किसी क्षेत्र पर राज्य का आधिपत्य होता है और वह पूर्णतया राज्य के नियंत्रण में होता है तो इसे सार्वजनिक कार्य क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण (Nationalisation) कहते हैं। दूसरी ओर जब राज्य के किसी उत्पादन स्रोत अथवा सार्वजनिक कार्य के किसी क्षेत्र पर जनता अर्थात् निजी संस्थाओं का आधिपत्य होता है और वे उनके नियंत्रण में होते हैं तो इसे सार्वजनिक कार्य क्षेत्र का निजीकरण (Privatisation) कहते हैं।

शिक्षा के निजीकरण का अर्थ (Meaning of Privatisation of Education)-

भारत में शिक्षा समवर्ती सूची (Concurrent List) में है। यह एक सार्वजनिक कार्य है। इसकी व्यवस्था करना केन्द्रीय एवं प्रांतीय सरकारो का संयुक्त उत्तरदायित्व है। तथापि केंद्रीय एवं प्रांतीय सरकारें मिलकर भी इसकी व्यवस्था नहीं कर पा रही हैं। परिणामत: इसमें जन सहयोग तो पहले से ही लिया जा रहा था। इसके साथ कुछ पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक और माध्यमिक स्तर को स्ववित्तपोषित शिक्षा संस्थाओं को मान्यता भी दी जा रही थी।

गत कुछ वर्षों से इस दिशा में निम्न कदम उठाए गए हैं-

(1) उच्च शिक्षा को स्ववित्तपोषित करने की ओर पग उठाए गए हैं।

(2) सभी प्रकार की स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं को मुक्त रूप से मान्यता दी जा रही है।

(3) स्ववित्तपोषित विश्वविद्यालयों को मान्यता दी जा रही है।

उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या का स्वरूप (Nature of the Problem)- 

उच्च शिक्षा की स्ववित्तपोषित संस्थाओं को मान्यता देने के सम्बंध में निम्नलिखित दो परस्पर विरोधी मत हैं-

(1) विद्वानों का एक समूह इसे शिक्षा का निजीकरण नहीं मानता। मार्च, 2003 में जब विद्यार्थी परिषद ने स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं को मान्यता देने और इस प्रकार उच्च शिक्षा का निजीकरण करने के विरोध में संसद के सामने प्रदर्शन किया तो मानव संसाधन मंत्री और प्रधानमंत्री दोनों ने आश्वासन दिया कि सरकार उच्च शिक्षा के निजीकरण का कोई इरादा नहीं रखती है। इस विचारधारा के समर्थक विद्वानों का तर्क निम्न प्रकार हैं-

(i) जब स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं के लिए मानदण्ड सरकारी संस्थाएँ बनाती हैं, तो उन्हें मान्यता भी सरकारी संस्थाएँ ही देती हैं।

(ii) इन संस्थाओं के पाठ्यक्रम भी सरकारी संस्थाएँ ही बनाती हैं।

(iii) इन संस्थाओं में छात्र-छात्राओं के प्रवेश के नियम भी सरकारी संस्थाएँ बनाती हैं।

(iv) उनके छात्र-छात्राओं की परीक्षाएँ भी सरकारी संस्थाएँ लेती हैं।

(v) उत्तीर्ण छात्र-छात्राओं को प्रमाण-पत्र भी वे ही देती हैं।

उनके अनुसार उपरोक्त परिस्थिति में इसे शिक्षा का निजीकरण नहीं कहा जा सकता।

(2) विद्वानों का दूसरा समूह इसे उच्च शिक्षा का निजीकरण मानते हैं। यह वर्ग अपने मत के समर्थन में निम्न तर्क देता है-

(i) स्ववित्तपोषित संस्थाओं पर निजी संस्थाओं का आधिपत्य है,

(ii) वे निजी संस्थाओं के नियंत्रण में है।

(iii) वे अपनी संस्थाओं में 50% छात्र-छात्राओं को प्रवेश देने के लिए स्वतंत्र है,

(iv) वे छात्र-छात्राओं से मनमानी केपीटेशन फीस लेने के लिए पूर्णतया स्वतंत्र है तथा ऐसा कर भी रही हैं।

(v) वे उनसे मनमाना वार्षिक शुल्क लेने के लिए स्वतंत्र है,

(vi) वे अपनी संस्थाओं में शिक्षकों की नियुक्ति करने एवं उनको निकालने के लिए स्वतंत्र है।

उपरोक्त स्थिति में यह उच्च शिक्षा का निजीकरण ही है।

दोनों पक्षों के तर्कों को सुनकर यदि निष्पक्ष भाव से देखा-समझा जाये तो स्पष्ट होगा कि हमारे देश में न तो शिक्षा का राष्ट्रीयकरण है और न निजीकरण, इसका कारण यह है कि शिक्षा की व्यवस्था सरकार और निजी सस्थाएँ दोनो मिलकर कर रही हैं। चूकि इन स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं के प्रशासन एवं वित्त का भार निजी संस्थाओं के ऊपर है और वे उन्हीं के नियंत्रण में हैं इसलिए ये निजीकरण के क्षेत्र में आती हैं।

इस सम्बन्ध में स्ववित्तपोषित संस्थाओं के लिए छात्र/छात्राओं से जाने वाला वार्षिक शुल्क विवादा स्पद मुद्दा है। यह सत्य है कि सरकार अथवा संबंधित नियंत्रक तंत्र इनमें लिए जाने वाले वार्षिक शुल्क का निर्धारण करते हैं परन्तु यह मनमाना शुल्क है। कभी-कभी स्थिति उस समय विकट हो जाती है, जब वे संस्थाएँ पाठ्यक्रम के मध्य में शुल्क बढ़ा देती है। यही कारण है कि वर्तमान में इनके विरोध में आवाज उठ रही है। इनके फीस बढ़ाने के विरोध में प्रदर्शन करते हैं।

गुण (Merits)-  इन स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं के मुख्य गुण इस प्रकार हैं-

(1) ये संस्थाएँ उच्च शिक्षा की व्यवस्था में सरकार का सहयोग कर रही हैं।

(2) ये संस्थाएँ उच्च शिक्षा के प्रसार में अहम् भूमिका निभा रही हैं।

(3) ये संस्थाएँ उच्च शिक्षा के इच्छुक सामान्य छात्र-छात्राओं को किसी भी प्रकार की उच्च शिक्षा के अवसर प्रदान कर रही हैं।

(4) ये संस्थाएँ उच्च शिक्षा की सरकारी एवं अनुदान प्राप्त गैरसरकारी संस्थाओं में छात्र/छात्राओं के प्रवेश के दबाव को कम कर रही हैं।

(5) इन संस्थाओं में परस्पर भारी स्पर्धा है, इनमें से अधिकतर संस्थाओं की अधिसंरचना (Infrastructure) उत्तम कोटि की है। इनमें ‘काम के बदले दाम’ का सिद्धांत लागू है, इसी कारण शिक्षक परिश्रम से पढ़ाते हैं। ये सामान्य छात्रों को प्रवेश देकर सामान्य से अच्छा परीक्षाफल देती हैं।

दोष (Demerits)-  इन संस्थाओं के मुख्य दोष इस प्रकार हैं-

(1) ये भारी कैपीटेशन फीस वसूल करती है।

(2) इन संस्थाओं के वार्षिक शुल्क बहुत अधिक हैं। परिणामत: उच्च शिक्षा अति महंगी होती जा रही है। वर्तमान में शिक्षा आर्थिक दृष्टि से मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों की पहुंच से बाहर हो गयी है।

(3) इनमें से कुछ शिक्षा संस्थाएँ सिफारिश और धन के बल पर बिना शर्त पूरी किए मान्यता प्राप्त कर लेती हैं। इनसे अच्छे उत्पाद की आशा करना पूर्णतया व्यर्थ है।

(4) इनमें से अधिकतर शिक्षण संस्थाएँ भ्रष्टाचार की नींव पर खड़ी हैं।

(5) इन संस्थाओं से निकलने वाले उपाधि धारको का मूल्यांकन अपेक्षाकृत कम किया जाता है।

(6) इनको मान्यता देने से शिक्षित बेरोजगारी में भारी व सतत् वृद्धि होती है।

उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या के कारण (Reasons for the Problem)-

पहले जब शिक्षा निजी व्यक्तियो एवं संस्थाओं के हाथ में थी, इसे सर्वसुलभ करना असंभव था। उस स्थिति में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व निश्चित किया गया। परन्तु हमारे देश में राज्य इस कार्य को करने में असमर्थ हैं। इस प्रकार की स्थिति में निजी व्यक्तियों एवं संस्थाओं का सहयोग लेना विवशता है।

पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की स्ववित्तपोषित शिक्षा संस्थाओं को मान्यता देने के सम्बन्ध में कोई विशेष समस्याएँ उपस्थित नहीं हुई। इसके सर्वथा विपरीत, उच्च शिक्षा की स्ववित्तपोषित संस्थाओं को मान्यता देने से अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। इन समस्याओं में मुख्य समस्या है उच्च शिक्षा का अति महंगा होना। 14 अगस्त, 2003 की संध्या को अपने राष्ट्र के नाम संदेश में देश के राष्ट्रपति श्री कलाम ने देश की शिक्षा अति महँगी होने को स्वीकार किया। उन्होंने सत्य ही कहा कि शिक्षा आर्थिक दृष्टि से मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों की पहुंच से भी बाहर हो गई है। इस समस्या के मुख्य कारण निम्न प्रकार हैं-

(1) केन्द्र और प्रांतीय सरकारों के पास संसाधनों की भारी कमी। इसके परिणाम स्वरूप शिक्षा के लिए आवश्यकता से कम बजट और विवश होकर स्ववित्तपोषित शिक्षा संस्थाओं को मान्यता देना।

(2) स्ववित्तपोषित संस्थाओं की स्थापना एवं संचालन दोनों का अति व्यय साध्य होना।

(3) स्ववित्तपोषित शिक्षा संस्थाओं को स्थापित करने वाली संस्थाओं के सदस्यों का मुख्य उद्देश्य आर्थिक लाभ अर्जित करना।

(4) स्ववित्तपोषित शिक्षा संस्थाओं की मान्यता के मानदण्ड काफी कठोर हैं, परन्तु सिफारिश तथा धन के बल पर बिना शर्ते पूरी किए उन्हें मान्यता का मिल जाना।

(5) ईमानदारी एवं कर्त्तव्यनिष्ठ का अभाव होना।

समस्या का समाधान (Solution of the Problem)-

स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं के विरूद्ध शिक्षार्थियों का आर्थिक एवं शैक्षिक शोषण का आरोप सर्वत्र ज्ञात है, तथापि अन्य विकल्प न होने पर देश में उच्च शिक्षा की बढ़ती माँग की दृष्टि से इन्हें मान्यता देना सरकार की विवशता है। फिर भी इस समस्या के समाधान की आवश्यकता है। इसके लिए निम्नलिखित उपाय किए जाने चाहिये-

(1) उच्च शिक्षा का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र के विभिन्न कार्य के लिए विशेषज्ञों का निर्माण करना है। इसके लिए अति योग्य एवं परिश्रमी छात्र-छात्राओं का चयन करना होता है। ये प्राय: 10 प्रतिशत होते हैं। इनकी उच्च शिक्षा की व्यवस्था राज्य को स्वयं करनी चाहिए। परन्तु वर्तमान स्थिति में यह आवश्यक है कि सरकार प्रथम 5 प्रतिशत अति मेधावी एवं अति परिश्रमी, छात्र-छात्राओं की उच्च शिक्षा की व्यवस्था स्वयं करे और शेष 5 प्रतिशत मेधावी एवं परिश्रमी छात्र-छात्राओं की व्यवस्था को निजी संस्थाओं को सौंप दे।

(2) स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं को मान्यता देते समय निम्न दो बातों को दृष्टिगत रखा जाये-

(i) एक क्षेत्र विशेष में उनकी मांग का।

(ii) दूसरा क्षेत्र विशेष एवं राष्ट्र में उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की माँग का।

(3) किसी भी क्षेत्र की स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं को, उसी समय मान्यता प्रदान की जाये जब उनके द्वारा निश्चित मानदण्डों को पूरा कर दिया जाये। मान्यता देने में किसी प्रकार की सिफारिश व भट-पूँजी को बन्द किया जाये। इसके लिए इस प्रक्रिया में सम्मिलित सभी व्यक्तियों का ईमानदार होना आवश्यक है।

(4) सरकार स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं में मैनेजमेण्ट कोटे के द्वारा छात्र-छात्राओं के प्रवेश सम्बन्धी नियमों का भी निर्माण करें तथा उनका क्रियान्वीकरण देखें।

(5) सरकार स्ववित्तपोषित संस्थाओं के कुल व्यय का आंकलन कर उस आधार पर छात्र-छात्राओं के लिए जाने वाले वाषिक शुल्क का निर्धारण करें। 14 अगस्त, 2003 को उच्चतम न्यायालय ने दो निर्देश दिये थे-

(i) प्रथम, इन संस्थाओं द्वारा कैपीटेशन फीस वसूल करने पर रोक का निर्देश।

(ii) द्वितीय, छात्र-छात्राओं के लिए प्रवेश नियम बनाने एवं उनके लिए जाने वाले वार्षिक शुल्क को निश्चित करने के लिए प्रांतीय स्तर पर अलग-अलग समितियों के गठन का निर्देश।

परंतु नियमों के विपरीत कार्य करना एक सामान्य चलन है। इसलिए नियमों का कठोरतापूर्वक पालन कराने की आवश्यकता है। इन संस्थाओं पर नियंत्रण करने के लिये पहले से ही 3-3, 4-4 प्रशासन एवं निरीक्षण तंत्र हैं, अब एक अन्य तंत्र खड़ा कर दिया जाना कोई हितकारी पग नहीं है। आवश्यकता तो सभी तंत्रों के ईमानदारी से काम करने की है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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