इतिहास / History

मुसोलिनी की विदेश नीति | मुसोलिनी की विदेश नीति के उद्देश्य | मुसोलिनी की विदेश नीति | मुसोलिनी की विदेश नीति का विश्व शान्ति पर प्रभाव

मुसोलिनी की विदेश नीति | मुसोलिनी की विदेश नीति के उद्देश्य | मुसोलिनी की विदेश नीति | मुसोलिनी की विदेश नीति का विश्व शान्ति पर प्रभाव

मुसोलिनी की विदेश नीति

प्रथम महायुद्ध में इटली की सेनाओं ने कोई विशिष्ट वीरता प्रदर्शित नहीं की थी। इटली निवासी अपनी सैनिक दुर्बलता को समझते थे और उनमें एक प्रकार का हीनभाव उत्पन्न हो गया था। महायुद्ध के उपरान्त पेरिस के शान्ति सम्मेलन में भी इटली के साथ उपेक्षा का बर्ताव हुआ था। और इटली वाले समझते थे कि इसका कारण उनकी दुर्बलता ही थी। मुसोलिनी ने जिस समय सत्ता अपने हाथों में ली थी, उस समय इटली में यही हीन भावना सर्वत्र व्याप्त हो रही थी और उसकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा भी बहुत ऊंची नहीं थी।

मुसोलिनी की विदेश नीति के उद्देश्य

मुसोलिनी की विदेश नीति के निम्नलिखित उद्देश्य थे-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इटली को महत्वपूर्ण स्थान दिलाया- प्रथम महायुद्ध में इटली की सैनिक दुर्बलता विश्व के सामने प्रकट हो चुकी थी। सम्भवतः इसी कारण पेरिस शान्ति सम्मेलन में सन्धि के समय मित्र राष्ट्रों में इटली के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया और उसे युद्ध की लूट में से पर्याप्त भाग नहीं दिया था। जिससे इटली में व्यापक असन्तोष था। अतः मुसोलिनी का मुख्य उद्देश्य यही था कि इटलीवासियों की दुर्बलता और हीनभावना का अन्त करके इटली को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में गौरवशाली स्थान दिलाया जाये और विश्व की महान शक्तियों में उसे स्थान दिलाकर उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि की जाये।
  2. विशाल साम्राज्य स्थापित करना- मुसोलिनी की विदेश नीति का द्वितीय उद्देश्य विशाल साम्राज्य की स्थापना करना था। पेरिस समझौते के फलस्वरूप इटली का बाल्कन प्रायद्वीप और अफ्रीका में साम्राज्य विस्तार का स्वप्न चकनाचूर होगया था। अतः मुसोलिनी वर्साय की सन्धि का संशोधन करना चाहता था। साम्राज्य-विस्तार के लिये वह युद्ध को आवश्यक समझता था। उसकी मान्यता थी कि “केवल युद्ध की समस्त मानवीय शक्ति को उच्चतम शिखर तक पहुँचता है और जो युद्ध का करने का साहस रखते हैं इन व्यक्तियों पर श्रेष्ठता की मोहर लगा देती है। हार्डी के अनुसार मुसोलिनी ने 1926 में कहा था कि ”हम भूमि के भूखे हैं क्योंकि हमारी जनसंख्या में वृद्धि हो रही है और हम ऐसा चाहते भी हैं।
  3. भूमध्यसागर में स्थिति सुदृढ़ करना- मुसोलिनी की विदेश नीति का एक प्रमुख उद्देश्य भूमध्यसागर में पूर्ण प्रभुता स्थापित करके उसे ‘रोमन झील’ के रूप में परिवर्तित करना था। सागरतटीय देश होते हुए भी इटली को भूमध्यसागर तक पहुँचने की निर्बाध छूट नहीं थी तथा इटली की स्थिति भूमध्यसागर के कैदी की थी। डीक्रिन के कथनानुसार इस जेल की छड़ें कोर्सिका, टयूनीसिया, माल्टा तथा साइप्रस हैं, उसके प्रहरी स्वेज एवं जिब्राल्टर हैं। “अतः एक महान शक्ति के रूप में इटली की स्थापना हेतु यह आवश्यक है कि वह इस बन्दी जीवन से मुक्ति प्राप्त करे और अपनी सामुद्रिक स्थिति को सुदृढ़ करे। इस प्रकार मुसोलिनी अपनी विदेशी नीति के द्वारा उपर्युक्त्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयासरत था।
मुसोलिनी की विदेश नीति

मुसोलिनी की विदेश नीति को उसके निम्न कार्यों में देखा जा सकता है।

  1. भूमध्यसागर में स्थिति सुधारने के लिए प्रयत्न- भूमध्यसागर में अपनी स्थिति सुधारने के लिए उसने लोसान की सन्धि (1923) के द्वारा टर्की से डोडेकेनीज तथा रोड्ज द्वीप, जो पहले उसके पास थे परन्तु 1920 में उससे लेकर ग्रीस को दे दिए गये थे, पुनः प्राप्त करके उसकी किलेबन्दी की और वहाँ अच्छे नौसैनिक अड्डे स्थापित कर लिए। उसने पेण्टेलेरिया द्वीप की किलेबन्दी की और सिसली तथा ट्रिपोली में वायुसेना के अच्छे अड्डे तैयार किये। 1924 में यूगोस्लाविया से सन्धि करके एड्रियाटिक सागर के शीर्ष पर फ्यूम का नगर प्राप्त किया, हालांकि उसका उपनगर जिसमें बन्दरगाह है, यूगोस्लाविया के पास ही रहा। इसके साथ ही उसने अल्बानिया को आर्थिक सहायता देकर उस पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया। इस प्रकार एड्रियाटिक सागर को इटालियन झील बना लिया। आगे चलकर 1939 में उसने अल्बानिया को इटली में शामिल कर लिया।
  2. कांर्फ्यू पर बम वर्षा- इन प्रयत्नों के साथ ही वह अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इटली की धाक जमाकर प्रतिष्ठा प्राप्त करने का भी प्रयल करना चाहता था। 1923 में ग्रीस तथा अल्बानिया की सीमा निर्धारित करने वाले कमीशन में जो-जो इटालियन लोग थे, उनकी कांर्फ्यू नामक द्वीप मे कुछ ग्रीक लोगों ने हत्या कर दी। इस पर मुसोलिनी ने कांर्फ्यू पर गोलाबारी करके उस पर अधिकार कर लिया और ग्रीस से भारी क्षतिपूर्ति की मांग की। उसने इस मामले में राष्ट्र-संघ की उपेक्षा की और पेरिस में स्थित महान् राष्ट्रों के राजदूतों की समिति की सहायता से ग्रीस से क्षतिपूर्ति प्राप्त की।
  3. मैत्री-सम्बन्धों की स्थापना- इस प्रकार मुसोलिनी ने इटली की प्रतिष्ठा बढ़ाने तथा भूमध्यसागर में अपनी स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए। 1922 में वाशिंगटन की सन्धि के द्वारा नाविक शक्ति में इटली को फ्रांस के साथ समानता का पद मिल चुका था। उसने अड्डे तैयार कर लिए थे और समुद्री जहाजों की भी तैयारी शुरू कर दी थी। वह स्थल-सेना तथा नभ-सेना का भी विस्तार कर रहा था, परन्तु फिर भी उसकी स्थिति निर्बल थी क्योंकि उसे बहुत सा आवश्यक माल बाहर से मंगाना पड़ता था और युद्ध के दिनों में उसका तटावरोध बड़ी सरलता से हो सकता था। अतः वह शान्तिपूर्वक बातचीत द्वारा ही सन्धि का संशोधन और प्रादेशिक विस्तार करना चाहता था।
  4. रूस से मित्रता- तत्कालीन यूरोप में मित्रता की खोज सरल नहीं थी। फ्रांस, इंग्लैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, पोलैण्ड आदि राष्ट्र संघ की यथास्थिति के समर्थक थे और सन्धि-संशोधन के विरोधी थे। केवल आस्ट्रिया, हंगरी और बल्गारिया ही ऐसे राज्य थे जो सन्धि में संशोधन चाहते थे। ये राज्य इटली की ओर आकर्षित होने लगे और हंगरी से तो इटली का 1926 तक घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गया, परन्तु ये सब राज्य छोटे थे। बड़े राज्यों में जर्मनी की दशा क्षीण हो रही थी। केवल रूस बचा था। वह भी सन्धि के संशोधन के पक्ष में था। अतः मुसोलिनी में फरवरी 1924 में रूस की सोवियत सरकार को वैध मान्यता प्रदान करके उसके साथ व्यापारिक सन्धि कर ली। वह सोवियत रूस को राष्ट्र संघ में सम्मिलित करने का प्रयल करने लगा और दोनों देशों में घनिष्ठता बढ़ने लगी।
  5. अल्बानिया पर अधिकार करने की नीति- मुसोलिनी एड्रियाटिक सागरके तटवर्ती राज्य अल्बानिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। 1926 में उसने इटली के साथ एक समझौता किया जिसके अनुसार निम्नलिखित शर्ते निश्चित की गई

(i) अल्बानिया किसी ऐसे देश से समझौता नहीं करेगा जिससे इटली को हानि पहुंचे।

(ii) अल्बानिया के अनुरोध पर इटली को अल्बानिया की आन्तरिक व बाह्य नीति में हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया गया।

(iii) इटली ने अल्बानिया से 20 वर्ष के लिए एक रक्षात्मक समझौता कर लिया। मुसोलिनी उपर्युक्त सन्धि से ही सन्तुष्ट नहीं हुआ। 18 अप्रैल, 1939 को इटली ने अल्बानिया पर अधिकार कर लिया।

  1. फ्रांस के साथ वैमनस्यता व मित्रता के सम्बन्ध- मुसोलिनी भूमध्यसागर में फ्रांस के विरुद्ध अपने वादों के समर्थन के लिए रूस से मित्रता स्थापित की थी। फ्रांस यह समझता था और उसे इन बातों को देखकर इटली की तरफ से बड़ी आशंका थी। फ्रांस और इटली के बीच कई कारणों से वैमनस्य था। फासिस्ट प्रचारक भूमध्यसागर को ‘अपना समुद्र’ कहते थे और मुसोलिनी के प्रयल स्पष्टतः उस समुद्र पर प्राधान्य स्थापित करने की दिशा में हो रहे थे। फ्रांस में कोई दस लाख इटेलियन मजदूरी करते थे और उसे उनमें फासिस्ट प्रचार की आशंका थी। ट्यूनिस का उपनिवेश फ्रांस के अधीन था। परन्तु इसमें फ्रेंच लोगों की अपेक्षा इटेलियन लोगों की संख्या अधिक थी और मुसोलिनी इनके लिए विशिष्ट व्यवहार की मांग कर रहा था, इसके साथ ही वह लीबिया और मोटे तौर से उत्तरी अफ्रीका में अधिकाधिक प्रदेश मांग रहा था। जून 1925 में इटली की उपेक्षा करके इंग्लैण्ड, फ्रांस और स्पेन ने आपस में एक समझौता करके टेन्जियर की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति स्वीकार कर ली। मुसोलिनी इस बात से बड़ा नाराज हुआ, लेकिन उसने इस समझौते को अस्वीकार कर दिया। फ्रांस ‘लघु मैत्री’ वाले देशों से घनिष्ठता स्थापित करने का जो प्रयल कर रहा था। उससे भी मुसोलिनी अप्रसन्न था। इस प्रकार फ्रांस और इटली के बीच वैमनस्य के अनेक कारण थे, यथार्थवादी मुसोलिनी झगड़ा मोल लेना नहीं चाहता था और फ्रांस भी इटली को शत्रु बनाना नहीं चाहता था। अतः ऊपर से दोनों के सम्बन्ध मित्रतापूर्ण बने रहे। इतना ही नहीं, 1928 में दोनों ने टेन्जियर के सम्बन्ध में स्पेन को शामिल करके एक समझौता किया और अपने-अपने अधिकारों का निर्णय कर लिया।
  2. हिटलर का उदय और मुसोलिनी की नीति में परिवर्तन- जर्मनी में 1933 के आरम्भ में हिटलर के सत्तारूढ़ होने पर रूस की नीति में परिवर्तन हो गया और इटली बड़े असमंजस में पड़ गया। हिटलर बोल्शेविज्म का शत्रु था। उधर पूर्व में जापान आगे बढ़ रहा था। ऐसी स्थिति में रूस को अपनी एकाकिता की अनुभूति होने लगी। इन शत्रुओं के सामने इटली की मित्रता में कोई सार नहीं था। अतः वह फ्रांस की तरफ झुकने लगा। 1934 में वह राष्ट्र-संघ में सम्मिलित हो गया और 1935 में उसने फ्रांस तथा चेकोस्लोवाकिया से सन्धि कर ली, परन्तु यह मित्रता केवल दिखावटी थी। उधर मुसोलिनी जर्मनी की ओर से भी सशक्त था क्योंकि उसकी आस्ट्रिया पर निगाह थी।
  3. फ्रांस और इंग्लैण्ड से सहयोग- ऐसी परिस्थिति में मुसोलिनी को अपना पैतरा बदलना पड़ा। उसने हिटलर के विरुद्ध फ्रांस और इंग्लैण्ड से अपने सम्बन्ध सुधारने और उनके साथ सहयोग करने का निश्चय किया। उसने फरवरी, 1934 में इंग्लैण्ड और फ्रांस से मिलकर आस्ट्रिया की स्वतन्त्रता कायम रखने के लिए एक संयुक्त घोषणा पर हस्ताक्षर किये और जब जुलाई, 1935 में आस्ट्रिया में नाजी विप्लव हुआ तो मुसोलिनी ने ब्रेनर के दर्रे में अपनी सेना भेजकर हिटलर के आस्ट्रिया पर अधिकार करने के स्वप्र को भंग कर दिया। इसी प्रकार जब मार्च,1935 में हिटलर ने वर्साय पर सन्धि करके उसके विरुद्ध संयुक्त मोर्चा कायम किया।
  4. फ्रांस से मित्रता- फ्रांस भी हिटलर के इरादों से अपनी सुरक्षा के लिए चिन्तित था, अतः उसने भी इटली की शिकायतों को दूर करके उससे घनिष्ठता स्थापित करने का प्रयत्न आरम्भ किया। जनवरी, 1935 में फ्रांस का विदेश मन्त्री लावाल रोम पहुँचा और उसने लीबिया में कुछ हजार वर्ग-मील मरुस्थली प्रदेश जिबुटी से आदिस अबाबा को जाने वाली रेल लाइन में जो हिस्से थे, उन्हें इटली को देकर उससे समझौता कर लिया। सम्भवतः इसी भेंट से मुसोलिनी ने लावाल से एबीसीनिया पर अधिकार करने की अपनी आकांक्षा प्रकट की और ऐसा विश्वास किया जाता है कि लावाल ने मुसोलिनी को यह आश्वासन दिया कि एबीसीनिया में फ्रांस का कोई हित नहीं है, अर्थात् उसे छूट दे दी।
  5. राष्ट्र संघ की दुर्बलता और मुसोलिनी के हौसले में वृद्धि- फ्रांस से इस प्रकार अच्छे सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर तथा एबीसीनिया के सम्बन्ध में लावाल का प्रच्छन आश्वासन मिल जाने पर मुसोलिनी का साहस बढ़ा। राष्ट्रसंघ की निर्बलता प्रमाणित हो चुकी थी। 1931 में जापान में मंचूरिया पर सफल आक्रमण करके उसे चुनौती दी थी परन्तु वह कुछ भी नहीं कर सका था। हिटलर ने वर्साय सन्धि को भंग किया था, परन्तु राष्ट्रसंघ उसके विरुद्ध भी कोई कार्यवाही नहीं कर सका था। यह देखकर मुसोलिनी एबीसीनिया पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया।
  6. एबीसीनिया में हस्तक्षेप- इस आक्रमण की वह बहुत पहले से कूटनीति एवं सैनिक तैयारियाँ कर रहा था।1925 में उसने इंग्लैण्ड से समझौता करके एबीसीनिया में ‘रियायतें’ प्राप्त करने की अनुमति ले ली थी, परन्तु एबीसीनिया उस समाचार को पाकर सशंक हो गया और राष्ट्रसंघ से, जिसको वह सदस्य था, शिकायत की। इस पर उसकी आशंका का निवारण करने के लिए मुसोलिनी ने 1926 में एबीसीनिया से ‘चिर कालीन मित्रता तथा मध्यस्थता’ की सन्धि की, परन्तु इससे एबीसीनिया के सम्राट हेल सलासी की शंका नहीं मिटी और वह मुसोलिनी को किसी की भी रियायते देने से इनकार करता रहा।
  7. राष्ट्र-संघ से सम्बन्ध विच्छेद- इस प्रकार इटली ने राष्ट्र-संघ के एक सदस्य की स्वतन्त्रता का अन्त कर दिया और वह देखता ही रहा। इटली की निन्दा करने के अतिरिक्त उससे कुछ नहीं बन पड़ा। इटली राष्ट्र-संघ से अलग हो गया और राष्ट्रसंघ ने भी जुलाई 1936 में उसके विरुद्ध लगाये हुए प्रतिबन्धों को हटाकर अपनी निर्बलता स्वीकार कर ली।
  8. रोम बर्लिन धुरी का निर्माण- एबीसीनिया के मामले में इंग्लैण्ड और फ्रांस का रूख देखकर मुसोलिनी उनसे चिढ़ गया। उनका विरोध होते हुए भी उसने एबीसीनिया की विजय कर लिया था। यह देखकर उसे उनकी ओर से कोई भय नहीं रहा और वह समझने लगा कि बिना लड़े ही उन्हें दबाकर भूमध्यसागर में तथा उसके तट पर प्रादेशिक विस्तार किया जा सकेगा। इस युद्ध में उसे हिटलर ने बड़ी सहायता दी थी। अतः अब उसने जर्मनी से मैत्री करने की ओर कदम बढ़ाया-26 अक्टूबर, 1936 को दोनों में सन्धि हो गई और रोम-बर्लिन धुरी का निर्माण हुआ। इस बीच में मुसोलिनी इंग्लैण्ड, फ्रांस और रूस से अधिक रूष्ट हो गया था। इससे भी मुख्य बात यह थी और मुसोलिनी इसे अच्छी तरह समझता था कि इटली व जर्मनी के हित न केवल एक-दूसरे से अलग है। अपितु कुछ स्थलों पर एक-दूसरे के विरोधी भी हैं।
  9. जर्मनी से सैनिक मैत्री- हिटलर और मुसोलिनी की मैत्री निरन्तर बढ़ती गई। 22 मई, 1939 को जर्मनी और इटली के बीच एक सैनिक सन्धि हुई जिसे “फौलादी समझौता” कहते हैं। इस समझौते के अनुसार दोनों देशों ने पारस्परिक विचार-विमर्श, सामान्य हितों की रक्षा करना एवं एक-दूसरे को सैनिक सहायता देने का निश्चय किया।
  10. द्वितीय महायुद्ध और इटली की विदेश नीति- इस प्रकार इटली के सम्बन्ध जर्मनी तथा इंग्लैण्ड दोनों से अच्छे रहे, परन्तु जर्मनी द्वारा चेकोस्लोवाकिया को हड़पने के बाद इंग्लैण्ड को विश्वास हो गया कि अधिनायकों के वचनों में विश्वास नहीं किया जा सकता, परन्तु इटली की सेनाओं को अनेक स्थानों पर पराजित होना पड़ा। अन्त में28 अप्रैल, 1945 को इटली की कुद्ध जनता ने मुसोलिनी तथा उसकी पत्नी को गोली मार दी। इस प्रकार मुसोलिनी का अन्त हुआ।

मुसोलिनी की विदेश नीति का विश्व शान्ति पर प्रभाव

मुसोलिनी की विदेश नीति के विश्व शान्ति पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े-

  1. हथियारों की दौड़ में वृद्धि- मुसोलिनी की विदेश नीति के कारण यूरोप में हथियारों की दौड़ में वृद्धि को प्रोत्साहन मिला। विश्व की महाशक्तियों एवं अन्य राष्ट्र भी विनाशकारी शस्त्रास्त्रों के निर्माण तथा आदान-प्रदान में जुट गए। इसके कारण विश्व शान्ति के लिए खतरा उत्पन्न हो गया।
  2. राष्ट्रसंघ की प्रतिष्ठा को आघात- मुसोलिनी की आक्रामक विदेश नीति ने राष्ट्रसंघ की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाया। इससे राष्ट्रसंघ के निर्णय की अवमानना हुई तथा राष्ट्रसंघ और राष्ट्र के सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त को प्रबल आघात पहुंचा।
  3. हिटलर को प्रोत्साहन- मुसोलिनी की विदेश नीति ने हिटलर की आक्रामक नीति को प्रोत्साहित किया । परिणामस्वरूप शीघ्र ही उसने आस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया को हड़प कर अपने कब्जे में कर लिया।
  4. एबीसीनिया का पतन- मुसोलिनी की विदेश नीति के कारण ही एबीसीनिया का पतन हुआ और उसे इटली साम्राज्य में सम्मिलित किया जा सका।
  5. फासिज्म का प्रसार- मुसोलिनी की फासिज्म प्रसार की विदेश नीति से स्पेन में भी फासिस्टवादी सरकार की स्थापना हुई।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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