विज्ञापन प्रबंधन / Advertising Management

विज्ञापन बजट निर्धारण के ढंग | विज्ञापन बजट निर्धारण की विधियां

विज्ञापन बजट निर्धारण के ढंग | विज्ञापन बजट निर्धारण की विधियां | Advertising Budgeting Methods in Hindi | Advertising Budgeting Methods in Hindi

विज्ञापन बजट निर्धारण के ढंग/विधियां

(Methods of Allocating Advertising Budget, methods)

विज्ञापन बजट निर्धारण अथवा विज्ञापन विनियोजन अथवा विज्ञापन के लिए व्यय की जाने वाली राशि के निर्धारण की अनेक विधियाँ हैं। प्रमुख विधियों का वर्णन यहाँ प्रस्तुत हैं:

(I) क्षमतानुसार विधि (Affordable Method)—

यह अत्यन्त सरल विधि है। इस विधि के अन्तर्गत विज्ञापन पर उतनी ही राशि व्यय की जाती है जितनी संस्था वहन कर सकती है। प्रायः सभी प्रकार की स्थायी एवं चल लागतों की पूर्ति के बाद जो राशि बचती है, वह विज्ञापन हेतु निर्धारित कर दी जाती है। इस प्रकार इस विधि के अन्तर्गत विज्ञापन बजट का निर्धारण संस्था की सामर्थ्य के अनुसार किया जाता है, न कि विज्ञापन कार्यक्रमों की आवश्यकतानुसार। यदि संस्था कम व्यय करने की क्षमता रखती है तो विज्ञापन बजट भी छोटा बनाया जाता है।

गुण– क्षमतानुसार विधि अत्यन्त सरल है क्योंकि विज्ञापन प्रबंधक को विज्ञापन बजट के निर्धारण में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं आती। तर्क की दृष्टि से भी ऊपरी तौर पर यह विधि ठीक प्रतीत होती है। एक संस्था को विज्ञापन पर उतनी ही राशि खर्च करनी चाहिए जितनी वह खर्च करने की क्षमता रखती है।

दोष- इस विधि में निम्न दोष भी पाये जाते हैं—(1) इस विधि के आधार पर संस्था विज्ञापन के लिए दीर्घकालीन नीति का निर्माण नहीं कर सकती। (2) यह विधि अवसरों की भी उपेक्षा करती है। अवसर का लाभ उठाने हेतु  अतिरिक्त विज्ञापन राशि इस विधि के अन्तर्गत प्राप्त नहीं की जा सकती। (3) यह विधि विज्ञापन व्ययों और विज्ञापन प्रभावों के पारस्परिक सम्बन्धों को स्वीकार नहीं करती। (4) विज्ञापन बजट में कमी और वृद्धि होती रहती है क्योंकि संस्था की क्षमता में परिवर्तन होता रहता है। इससे संस्था विज्ञापन के सम्बन्ध में किसी निश्चित नीति का पालन नहीं कर सकती।

(II) विक्रय प्रतिशत विधि (Percentage of Sales Method)-

इस विधि में विज्ञापन बजट का आधार विक्रय होता है। यह विक्रय गत वर्ष का भी हो सकता है या आने वाले वर्ष का विक्रय का अनुमान हो सकता है। कभी-कभी भूतकालीन एवं भावी विक्रय के सम्मिश्रण के आधार पर भी विज्ञापन बजट का निर्धारण किया जाता है। इस विधि के अन्तर्गत कुल विक्रय की एक निश्चित प्रतिशत राशि विज्ञापन पर व्यय की जाती है। अमेरिका में 90 प्रतिशत से अधिक कम्पनियाँ इस विधि का प्रयोग करती हैं। भारत में भी इस विधि का प्रयोग बढ़ रहा है। इस विधि के अन्तर्गत विज्ञापन हेतु व्यय किया जाने वाला विक्रय प्रतिशत सभी अवस्थाओं में समान नहीं होता। अमेरिका की 2,325 कम्पनियों के सर्वेक्षण से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार विभिन्न कम्पनियों ने औसतन विक्रय के 25 प्रतिशत से लेकर 16.47 प्रतिशत तक राशि विज्ञापन पर व्यय की। विज्ञापन पर सबसे कम व्यय बीमा कम्पनियों ने किया और सर्वाधिक व्यय शृंगार सामग्री बनाने वाली कम्पनियों द्वारा किया गया। इनमें से 21 कम्पनियों ने तो विक्रय का 40 प्रतिशत से भी अधिक भाग विज्ञापन पर व्यय किया।

भारत में भी ‘इकनोमिक टाइम्स’ द्वारा 138 कम्पनियों का सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षण से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार इन कम्पनियों ने 1974-75 में अपने विक्रय का 0.7 प्रतिशत भाग विज्ञापन पर व्यय किया। सबसे कम राशि चीनी बनाने वाली कम्पनियों द्वारा व्यय की गयी जिन्होंने विक्रय का केवल 0.1 प्रतिशत भाग विज्ञापन पर खर्च किया। शराब बनाने वाली कम्पनियों द्वारा सर्वाधिक 4.5 प्रतिशत विक्रय राशि विज्ञापन पर व्यय की गयी।

गुण- विक्रय प्रतिशत विधि के निम्न प्रमुख लाभ हैं—(1) इस विधि का प्रयोग करके ‘विज्ञापन युद्धों’ (Advertising Wars) से बचा जा सकता है क्योंकि विज्ञापन करने वाली अन्य कम्पनियों से मुकाबला नहीं किया जाता और अपनी बिक्री के अनुसार ही विज्ञापन बजट बनाया जाता है। (2) यह विधि विज्ञापन लागत, विक्रय कीमत और प्रति इकाई लागत के पारस्परिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में सोचने के लिए प्रबंध को प्रेरित करती है। (3) विज्ञापन व्ययों का संस्था को बिक्री के साथ सम्बन्ध बना रहता है।

दोष- इस विधि के दोषों में निम्नलिखित को सम्मिलित किया जा सकता है- (1) इस विधि का एक दोष यह है कि विज्ञापन बजट की मात्रा में परिवर्तन होते रहते हैं। संस्था के विक्रय के अनुसार विज्ञापन बजट की राशि भी परिवर्तित होती रहती है। इससे विज्ञापन की दीर्घकालीन नीति का निर्धारण नहीं किया जा सकता। (2) प्रारम्भ में जब संस्था को विज्ञापन पर अधिक व्यय करने की आवश्यकता होती है, उस समय संस्था की बिक्री कम होने के कारण संस्था विज्ञापन पर कम राशि खर्च कर पाती है। (3) यह विधि इस भ्रम धारणा पर आधारित है कि विक्रय विज्ञापन का परिणाम न होकर कारण है। इस विधि की मान्यता के अनुसार विज्ञापन विक्रय के पीछे चलता है, जबकि वास्तव में विक्रय को विज्ञापन के पीछे चलना चाहिए। (4) व्यापारिक चक्रों की परिस्थितियों से उत्पन्न विपणन अवसरों का लाभ उठाने के लिए विज्ञापन बजट को घटाना या बढ़ाना सम्भव नहीं होता। (5) विज्ञापन पर व्यय किये जाने वाले विक्रय के प्रतिशत का भाग भी तर्कयुक्त नहीं होता। प्रायः मनचाहे ढंग ही इस प्रतिशत का निर्धारण किया जाता है।

(III) प्रतिस्पर्द्धा समता विधि (Competitive Matching or Parity Method)-

इस विधि के अन्तर्गत विज्ञापन बजट का निर्धारण प्रतिस्पर्द्धिओं के बजट के अनुसार किया जाता है। इसमें यह मानकर चला जाता है कि कोई भी संस्था प्रतिस्पर्द्धियों की क्रियाओं की अनदेखी नहीं कर सकती। यदि प्रतिस्पर्द्धा संस्थाएँ अधिक राशि विज्ञापन पर खर्च करती हैं तो संस्था को भी अधिक राशि खर्च करना अनिवार्य हो जाती है। इस विधि का प्रयोग प्रायः नयी संस्थाओं द्वारा अधिक किया जाता है। इस विधि की यह भी मान्यता है कि बाजार भाग एवं विज्ञापन व्ययों में सम्बन्ध होता है।

गुण- प्रतिस्पर्द्धा समता विधि के पक्ष में यह कहा जाता है कि प्रतिस्पर्द्धियों से समता बनाये रखने के कारण विज्ञापन युद्धों (Advertising Wars) की रोकथाम हो जाती है। साथ ही प्रतिस्पर्द्धा संस्थाओं के व्यय उद्योग के सामूहिक विवेक (Collective Wisdom) का प्रतिनिधित्व करते हैं।

दोष- पक्ष में दिये दोनों तर्कों के अध्ययन से स्पष्ट है कि ये उचित प्रतीत नहीं होते। यह कहना कि प्रतिस्पर्द्धा समता विधि विज्ञापनबाजी या विज्ञापन युद्धों को समाप्त करती है, त्रुटिपूर्ण है। वास्तव में, इस विधि के प्रयोग से तो विज्ञापन युद्धों को बढ़ावा ही मिलता है। प्रतिस्पर्द्धा संस्थाओं के व्यय को विवेकपूर्ण एवं तर्क संगत कराना भी उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस हेतु हमारे पास कोई तर्कसंगत आधार नहीं होता। प्रत्येक संस्था के साधन, अवसर एवं क्षमता में विभिन्नता होती है। अतः एक संस्था द्वारा किया गया विज्ञापन व्यय दूसरे के लिए सदैव आदर्श नहीं हो सकता। इनके अतिरिक्त इस विधि का प्रयोग करने में प्रतिस्पर्द्धियों के व्यय का पता लगाना भी कठिन होता है। इसके अन्तर्गत विज्ञापन की दीर्घकालीन योजना बनाना भी  सम्भव नहीं हो पाता।

(IV) लक्ष्य एवं कार्यविधि (Objective and Task Method)-

इस विधि के अन्तर्गत विज्ञापन बजट का निर्धारण करने हेतु विज्ञापक (Advertiser) को निम्न तीन कदम उठाने पड़ते हैं- (1) जहाँ तक सम्भव हो, विशिष्ट विज्ञापन उद्देश्यों को परिभाषित करना। (2) घइन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु किये जाने वाले कार्यों का निर्धारण करना। अन्य शब्दों में, विज्ञापन किस रूप में, कितना और कहाँ-कहाँ किया जायेगा। (3) इन कार्यों पर होने वाला अनुमानित व्यय या लागत। यही विज्ञापन विनियोजन होता है।

यह विधि अधिक तर्कसंगत है और निरंतर लोकप्रियता प्राप्त करती चली जा रही है। इतना होने के बावजूद भी इस विधि का मुख्य दोष यह है कि विज्ञापन उद्देश्यों का सही निर्धारण कठिन है और यह भी ज्ञात नहीं होता कि अमुक उद्देश्य लागत की दृष्टि से स्वीकार योग्य है या नहीं। इस विधि को अधिक उपयोगी बनाने के लिए उद्देश्यों का मूल्यांकन लागतों के सन्दर्भ में किया जाना चाहिए।

(V) अन्य विधियाँ

सामान्यतः उपर्युक्त वर्णित विधियों का ही विज्ञापन बजट के निर्धारण में प्रयोग किया जाता है परन्तु अध्ययन की दृष्टि से कुछ और विधियों का उल्लेख किया जा सकता है जो निम्नलिखित हैं:

  1. उत्पादन पर आधारित (Based on Production)– अनेक निर्माता वस्तुओं के उत्पादन की लागत का एक निश्चित प्रतिशत भाग विज्ञापन पर व्यय करते हैं। ये निर्माता अपने अनुभव के आधार पर यह पता लगा लेते हैं कि प्रति इकाई उत्पाद के विक्रय हेतु कितनी विज्ञापन राशि की आवश्यकता होगी।
  2. प्रत्यय पर आधारित (Based on Returns)- यह विक्रय प्रतिशत विधि का ही सुधारा हुआ रूप है। इस विधि के अन्तर्गत एक निर्माता तब तक विज्ञापन पर राशि व्यय करता रहता है जब तक कि उसे उसके बदले में विक्रय का प्रतिफल प्राप्त होता रहे। यह विधि डाक द्वारा प्रत्यक्ष व्यापार की अवस्था में अधिक उचित है।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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