विज्ञापन प्रबंधन / Advertising Management

विज्ञापन से हानियाँ | विज्ञापन की आलोचनाएँ | विज्ञापन के आलोचना का खण्डन

विज्ञापन से हानियाँ | विज्ञापन की आलोचनाएँ | विज्ञापन के आलोचना का खण्डन | Disadvantages of Advertising in Hindi | Criticisms of Advertising in Hindi | Criticism of advertising in Hindi

विज्ञापन से हानियाँ अथवा आलोचनाएँ

(Disadvantages or Criticisms of Advertising)

अथवा

“विज्ञापन पर व्यय किया गया धन अपव्यय है”

(“Money Spent on Advertising is Waste”)

विज्ञापन जहाँ एक ओर समाज के विभिन्न वर्गों के लिए लाभप्रद है, वहीं दूसरी ओर, समाज के लोगों द्वारा इसकी कटु शब्दों में आलोचनाएँ की जाती हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री गेलवेथ तथा प्रमुख दार्शनिक एवं इतिहासकार अर्नोड टॉयन्बी वार्ने तथा पेकार्ड आदि ने विज्ञापन की कड़े शब्दों में आलोचनाएँ की हैं। उनके अनुसार, “यह मानव जाति के नैतिक मूल्यों को कम कर देता है तथा मानव की आवश्यकताओं में वृद्धि कर आध्यात्मिक दृष्टि से उसे असंतुष्ट बना देता है।” आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से विज्ञापन के प्रमुख दोष अथवा आलोचनाएँ निम्नलिखित है:

(1) चंचलता- विज्ञापन उपभोक्ताओं के मन को चलायमान कर देता है क्योंकि  वह विज्ञापन की चमक-दमक से बहुत प्रभावित हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह उस वस्तु को नहीं खरीद पाता जिसको कि वह वास्तव में खरीदना चाहता है बल्कि उस वस्तु को खरीदता है जिसने उसके मन को मोह लिया है, जैसे-सिंगर कपड़ा सीने की मशीने के स्थान पर ऊषा मशीन खरीदना।

(2) धन का व्यय- बहुत से उपभोक्ता उन वस्तुओं को खरीदने के लिए लालयित हो उठते हैं जोकि उनके लिए निरर्थक होती हैं अथवा विलास की वस्तुएँ होती हैं, जैसे- शराब की बोतल। इस प्रकार उनका सीमित धन अनावश्यक वस्तुओं पर खर्च हो जाता है।

(3) मिथ्या बातों का प्रचार- विज्ञापन एक ठग-विद्या बन गई है क्योंकि इसके द्वारा बहुत-सी मिथ्या बातों का प्रचार किया जाता है। ऐसे विज्ञापन का उदाहरण निम्न प्रकार है:

 

केवल 21 रु. में

(1) प्लास्टिक चप्पल

(2) 1 गले का हार

(3) 1 आर्मलेट

(4) 1 जोड़ा कंगन तथा

(5) सुन्दर घड़ियां

अवसर न चूकिये

21 रु. भेजकर उक्त वस्तुओं को प्राप्त कीजिए।

पता- पोस्ट बॉक्स नं. 420, अमृतसर (पंजाब)

नोट- दो सेट एक साथ मँगाने पर डाक-व्यय माफ

 

मिथ्या विज्ञापन के सम्बन्ध में एक और बात बड़ी मशहूर है। एक बार एक व्यक्ति ने अखबार में यह विज्ञापन दिया कि 1 रु. के डाक टिकट भेजिये, आपको हजारों रुपये कमाने की सरल विधि बताई जायेगी। हजारों व्यक्ति ने एक रुपये की टिकटें भेजीं। कुछ दिनों के उपरांत प्रत्येक के पास एक-एक पोस्टकार्ड आया जिसमें लिखा था, “हजारों रुपया कमाने की वही विधि अपनाइये जो मैंने आपसे एक-एक रुपया वसूल करके अपनाई है।”

(4) अस्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा को जन्म- विज्ञापन द्वारा अस्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा को जन्म मिलता है जिससे वस्तुओं के मूल्य में अनायास कमी करनी पड़ती है। वस्तुओं के मूल्य में यह कमी उसकी क्वालिटी को गिराकर की जाती है।

(5) फैशन में परिवर्तन- विज्ञापन सदैव वस्तुओं के गुण तथा फैशन में परिवर्तन करते रहते हैं। उदाहरण के लिए, पेरिस की सुन्दरियाँ प्रति सप्ताह अपने हैट को बदल देती हैं। इन आकस्मिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप उपभोक्ता तथा फुटकर विक्रेता दोनों को ही क्षति पहुँचती है। एक ओर तो विक्रेता को ‘फैशन के बाहर’ वस्तुओं को कम मूल्य पर बेचना पड़ता है और दूसरी ओर, उपभोक्ता को केवल फैशन में परिवर्तन के कारण अधिक मूल्य देना पड़ता है।

(6) सामाजिक बुराइयाँ-विज्ञापन अधिकतर आरामदायक एवं विलासिता सम्बन्धी वस्तुओं के लिए किया जाता है। इसके कई सामाजिक दुष्परिणाम निकलते हैं। किन्हीं व्यक्तियों को जब किसी एक चीज के उपभोग करने की बुरी आदत पड़ जाती है तो उसका छूटना बहुत कठिन होता है, जैसे-सिगरेट तथा शराब पीना। आजकल विभिन्न प्रकार की सिगरेटों तथा शराब का प्रचार विभिन्न आकर्षक तरीकों से किया जा रहा है, जैसे- “Smoking adds to personality”, “Wine is symbol of friendship.” इन विज्ञापनों से प्रभावित होकर बहुत से व्यक्ति सिगरेट तथा शराब पीना आरम्भ कर देते हैं, बाद में यह आदत छूटती नहीं है।

(7) एकाधिकार को प्रोत्साहन-जिन वस्तुओं का चिन्हित विज्ञापन होता है, वे प्रायः बाजार में अपना अधिकार स्थापित कर लेती हैं और इस प्रकार फिर उत्पादक तथा व्यापारी धीरे-धीरे इच्छानुसार वस्तुओं का मूल्य परिवर्तन करते रहते हैं।

(8) नगर स्वच्छता में कमी- यत्र-तत्र किया हुआ विज्ञापन नगर की प्राकृतिक शोभा को कम कर देते हैं। इस प्रकार मकानों की दीवारें एवं सड़कें आदि गंदी दिखाई देने लगती हैं।

(9) मूल्यों में वृद्धि से उपभोक्ताओं पर भार- विज्ञापन करने से बहुत सा धन अपव्यय होता है जिससे मूल्यों में वृद्धि हो जाती है क्योंकि विज्ञापन का भार तो उपभोक्ताओं को ही सहन करना पड़ता है।

(10) अश्लील विज्ञापन हानिकारक है- अश्लील विज्ञापन से जनता का नैतिक पतन होता है। आजकल नग्न अथवा अर्द्ध-नग्न स्त्रियों के चित्र प्रदर्शित करना तो एक आम बात हो गई है, जैसे- दिल्ली में दिखायी जाने वाली एक अंग्रेजी फिल्म “Night of the Quarter Moon” के पोस्टर का जनता द्वारा जो विरोध किया गया था, वह इस बात का ज्वलन्त उदाहरण है कि ऐसा विज्ञापन जन समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुँचाता है।

(11) अन्य दोष-(i) कुछ लोगों का यह कथन है कि विज्ञापन से राष्ट्रीय साधनों का अपव्यय होता है। (ii) विज्ञापन उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं में वृद्धि करता है जिसके कारण वे आर्थिक भार के नीचे सदैव दबे रहते हैं। (iii) राष्ट्रीय मार्गों, चौराहों और मोड़ों पर लगे बड़े-बड़े एवं मनमोहक विज्ञापन यात्रियों एवं वाहन चालकों का ध्यान अनायास ही आकर्षित कर लेते हैं जिसके परिणामस्वरूप दुर्घटनाओं की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।

निष्कर्ष-

विज्ञापन के लाभ-दोषों का अध्ययन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि विज्ञापन उत्पादक, उपभोक्ता, समाज एवं मध्यस्थ के लिए लाभप्रद है। विज्ञापन के दोष वास्तव में दोष न होकर स्वार्थी एवं अनैतिक व्यक्तियों द्वारा विज्ञापन का दुरुपयोग किये जाने के दोष है।

विज्ञापन के आलोचना का खण्डन (Criticism Assailed)

उपर्युक्त आलोचनाओं तथा दोषों के होते हुए भी यह डंके की चोट पर कहा जा सकता है कि विज्ञापन आज के प्रगतिशील युग की अनिवार्यता है जिसका सहारा लिये बिना शायद ही कोई व्यवसायी सफलता की मंजिल पार कर सकता है। जिन आलोचनाओं का ऊपर विवेचन किया गया है, उनके खोखले होने के कारण कोई भी विचारशील व्यक्ति खण्डन कर सकता है। झूठे तथा कपटपूर्ण विज्ञापन को ही लीजिए। इस प्रकार के विज्ञापनदाता इस सिद्धांत पर चलते हैं कि दुनिया बहुत बड़ी है और उसमें बेवकूफों की कमी नहीं है। कोई न कोई शिकार फँस ही जायेगा किन्तु उनको यह ख्याल रखना चाहिए कि ‘काठ की हाँडी एक बार चढ़ती है।’ कभी न कभी कलई खुल ही जाती है। इसके अतिरिक्त, विज्ञापन-कला कभी यह आदेश नहीं देती कि झूठा अथवा कपटपूर्ण विज्ञापन किया जाय। यदि कोई व्यापारी धोखाधड़ी या कपट का आश्रय लेता है तो यह उसकी (स्वयं की) त्रुटि है। विज्ञापन कला को क्यों व्यर्थ में कलंकित किया जाय।

विज्ञापन पर किये गये व्यय को बर्बादी कहने वालों को प्रो. एस. आर. डावर ने बड़े  ही तीखे शब्दों में उत्तर दिया है। उनके अनुसार, बर्बादी तो लगभग सभी वस्तुओं की होती है। क्या जरूरत है कि शरीर को ढँकने के लिए मूल्यवान वस्त्रों की ही खरीद की जाय ? क्यों न हम साधारण एवं मोटे कपड़े से ही संतुष्ट हो जायें जो अधिक मजबूत तथा दीर्घ आयु वाले होते हैं। क्यों न सिनेमाघरों, नाचघरों, नाट्यशालाओं, विलासितापूर्ण जलपान-गृहों एवं होटलों आदि को समाप्त कर दिया जाय जो निरर्थक व्यय के द्योतक हैं। मनुष्य को तो ‘सादा जीवन एवं उच्च विचारों को पुनः अपना लेना चाहिए।

श्री जे. एफ. पायले ने यह स्वीकार करते हुए मिथ्या विज्ञापन ईमानदार व्यक्तियों द्वारा भी प्रयोग में लाये गये हैं, एक स्थान पर लिखा है कि “चूँकि असावधान मोटरगाड़ी के ड्राइवरों से सैकड़ों व्यक्ति हर वर्ष मर जाते हैं तो क्या इसका यह तात्पर्य है कि मोटरगाड़ियों का प्रयोग बन्द कर देना चाहिए।” कदापि नहीं, क्योंकि इसमें दोष विज्ञापन का न होकर विज्ञापक का है। फिर विज्ञापन दोषी क्यों ?

जहाँ तक धन के व्यय का प्रश्न है, वे लोग भूल जाते हैं कि विज्ञापन माँग में वृद्धि करता है और माँग में वृद्धि के कारण प्रदाय में वृद्धि होती है तथा बढ़ता हुआ आर्थिक प्रदाय वस्तु के मूल्य में कमी करता है।

डेनियल स्टार्च ने 22 संस्थानों का अनुसंधान करके यह ज्ञात किया कि एक वर्ष में विज्ञापन न करने से उनके विक्रय में लगभग 12% कमी आ गई।

आधुनिक व्यापार में एकाधिकार का प्रश्न इसलिए नहीं उठता है कि विश्व में प्रतिदिन नये-नये आविष्कारों तथा वस्तु के सुधारों के कारण आज की वस्तु कल के लिए पुरानी हो जाती  है अतः एकाधिकार क्यों और कैसे ?

जहाँ तक आरामदायक तथा विलासिता की वस्तुओं के प्रचार का प्रश्न है, हम जानते हैं कि मनुष्य सर्वप्रथम अपनी आवश्यकताओं की वस्तुओं की पूर्ति करता है और इसके पश्चात् ही यदि धन शेष बचता है। तो वह उपरोक्त वस्तुओं के मूल्य के क्रय का साहस कर सकता है।

जहाँ तक मूल्य परिवर्तन का प्रश्न है, प्रतिस्पर्द्धा के इस युग में मूल्य परिवर्तन सदैव उपभोक्ताओं के हित में ही होगा।

अन्त में, विज्ञापक को चाहिए कि वह विज्ञापन करते समय अपने व्यापार, आर्थिक स्थिति, सच्चाई, उपभोक्ता वर्ग, विज्ञापन के उचित साधन का चुनाव आदि की ओर विशेष ध्यान दे। यदि विज्ञापन नियोजित है और व्यापार-गृह आकर्षक है तथा विक्रेता कुशल तथा गुणवान है तो विज्ञापन से ग्राहकों और बिक्री की संख्या के साथ ही साथ लाभ भी अवश्य बढ़ेगा। हाँ, अश्लील एवं मिथ्या विज्ञापन को तुरंत बन्द कर देना चाहिए। दीवारें आदि खराब करने वालों को दण्ड मिलना चाहिए। शांति भंग करने वाले विज्ञापन (जैसे- लाउडस्पीकर का प्रयोग) का कम-से-कम प्रयोग करना चाहिए।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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