विज्ञापन वस्तुओं की लागत में वृद्धि करता है | विज्ञापन वस्तुओं की लागत में कमी करता है | विज्ञापन की मर्यादाएँ अथवा सीमाएँ
विज्ञापन वस्तुओं की लागत में वृद्धि करता है | विज्ञापन वस्तुओं की लागत में कमी करता है | विज्ञापन की मर्यादाएँ अथवा सीमाएँ | Advertising increases the cost of goods in Hindi | Advertising reduces the cost of goods in Hindi | Advertising Limits or Limitations in Hindi
विज्ञापन वस्तुओं की लागत में वृद्धि करता है (Advertising Increases Cost of the Articles)
प्रायः लोग यह कहते हैं कि विज्ञापन वस्तुओं की लागत में वृद्धि करता है। उनकी यह मान्यता है कि उत्पादन से सम्बन्धित प्रत्येक व्यय वस्तु की लागत में वृद्धि करता है और वितरण से सम्बन्धित प्रत्येक व्यय वस्तु के मूल्य में वृद्धि करता है। विज्ञापन व्यय भी वितरण लागत का ही एक अंग है जिसके परिणामस्वरूप वस्तु के मूल्यों में वृद्धि होती है। इस मूल्य वृद्धि का सारा भार अन्ततः उपभोक्ताओं पर ही पड़ता है। इस सम्बन्ध में एक कहावत भी है कि “ऊन तो भेड़ की ही काटी जाती है।” अतः जेव ग्राहक की ही कटेगी अर्थात् विज्ञापन व्यय का भार उपभोक्ताओं पर ही पड़ेगा। जिस प्रकार गाड़ी भाड़ा, गोदाम किराया, मजदूरी एवं विक्रय व्यय वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि करते हैं, ठीक उसी प्रकार विज्ञापन व्यय भी वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि करता है और इसे अन्य व्ययों की तरह वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि करके उपभोक्ताओं से वसूल किया जा सकता है।
विज्ञापन वस्तुओं की लागत में कमी करता है
(Advertising Reduces Cost of Articles)
ऊपरी तौर पर तो विज्ञापन व्यय से वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होती है, इस कथन को स्वीकार करना बिल्कुल वैसा ही सीधा लगता है जैसा कि यह मानना कि एक और एक दो होते हैं किन्तु सच्चाई तो उपर्युक्त कथन के बिल्कुल विपरीत ही है। वास्तविकता तो यह है कि विज्ञापन पर किया गया व्यय वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि करने के स्थान पर कमी करता है। इस कमी के निम्नलिखित कारण हैं:
(1) माँग का सृजन- विज्ञापन माँग का सृजन करता है। बढ़ती हुई मांग उत्पादन में वृद्धि करती है और उत्पादन में वृद्धि होने से प्रति इकाई लागत घट जाती है। इसके परिणामस्वरूप विज्ञापन करने से वस्तुओं के मूल्य में कमी होती है, वृद्धि नहीं।
(2) विशिष्टीकरण एवं प्रमापीकरण को प्रोत्साहन- बड़ी मात्रा में उत्पादन होने के कारण विशिष्टीकरण एवं प्रमापीकरण को प्रोत्साहन मिलता है। बड़ी मात्रा में उत्पाद से अनेक बचतें होती हैं। इसके कारण पूर्ण उत्पादन क्षमता का उपयोग करना सम्भव होता है एवं वस्तुओं की किस्म में आश्चर्यजनक तरीके से सुधार होता है। स्टॉक एवं पूँजी की गतिशीलता में वृद्धि होती है। इन कारणों से भी उत्पादन लागत में कमी आती है जिसके परिणामस्वरूप वस्तुओं के मूल्यों में कमी होना स्वाभाविक ही है।
(3) उपभोक्ताओं को जानकारी- विज्ञापन करने से उपभोक्ताओं को वस्तुओं के बारे में आवश्यक जानकारी मिल जाती है जिसके परिणामस्वरूप विक्रय व्ययों में कमी होती है तथा विक्रय की मात्रा में वृद्धि होती है फलतः प्रति इकाई विक्रय व्यय कम हो जाता है और इस प्रकार वस्तुओं के मूल्य बढ़ने के स्थान कम हो जाते हैं।
(4) संदेहों को दूर करना-विज्ञापन ग्राहकों के मन में वस्तुओं के प्रति उत्पन्न होने वाले विभिन्न संदेहों को दूर करने में सहायक होता है।
(5) बाजार का क्षेत्र व्यापक करना- विज्ञापन बाजार के क्षेत्र को व्यापक करने में बड़ी सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यह विज्ञापन की ही देन है कि आज हम अमेरिका, जापान, जर्मनी एवं रूस आदि देशों में निर्मित वस्तुओं का क्रय करने को तैयार हैं।
(6) उत्पादन एवं विक्रय के मध्य स्थायित्व- विज्ञापन द्वारा उत्पादन एवं विक्रय के मध्य स्थायित्व लाना सम्भव होता है। विज्ञापन मौसमी वस्तुओं के विक्रय को गैर- मौसम में भी सम्भव बनाता है। उदाहरण के लिए, “चाय सर्दियों में गर्मी तथा गर्मी में ठण्डक प्रदान करती है।” इसके कारण उत्पादन एवं विक्रय में लगे साधन निष्क्रिय नहीं हो पाते। इसके कारण भी वस्तुओं की लागत में कमी आती है।
(7) प्रतिस्पर्द्धा में तीव्रता- विज्ञापन प्रतिस्पर्द्धा को और अधिक तीव्र बनाता है। इस प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने के लिए भी प्रत्येक व्यावसायिक इकाई एक ओर तो मूल्यों में कमी करने तथा दूसरी ओर किस्म में सुधार करने के लिए बाध्य होती है।
निष्कर्ष (Conclusion)- उपर्युक्त विवेचन से निष्कर्ष निकलता है कि विज्ञापन वस्तुओं की लागत में वृद्धि न करके कमी ही करता है। प्रसिद्ध उद्योगपति राकवेल (Rookwell) के अनुसार, “विज्ञापन वस्तुओं की लागत बढ़ाने की अपेक्षा लाभों को अधिक तीव्र गति से बढ़ाता है।”
विज्ञापन की मर्यादाएँ अथवा सीमाएँ
(Limitation of Advertising)
यह ठीक है कि विज्ञापन के अनेक लाभ हैं तथा आधुनिक युग में उसका महत्वपूर्ण स्थान है किन्तु वह कोई ऐसा जादू नहीं जिसके द्वारा प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त हो ही जाय और न यह अवास्तविकता को वास्तविकता में ही बदल सकता है। संक्षेप में, विज्ञापन की निम्न सीमाएँ अथवा मर्यादाएँ हैं:
(1) जनता की रुचि के विरुद्ध कोई भी विज्ञापन सफल नहीं हो सकता है चाहे कितना ही आकर्षक एवं प्रभावशाली क्यों न हो।
(2) सफल विज्ञापक को अपना विज्ञापन बारम्बार प्रकाशित करते रहना चाहिए जिससे कि वस्तु की माँग निरंतर बनी रहे। केवल एक या दो बार के विज्ञापन से ही सफलता नहीं मिल सकती है।
(3) विज्ञापन द्वारा वस्तु की माँग में वृद्धि की जा सकती है किन्तु विक्रय कला के अभाव में व्यर्थ सिद्ध होता है। व्यवसाय में सफलता पाने के लिए विक्रय-कला एवं विज्ञापन दोनों का महत्व है।
(4) विज्ञापन अर्थशास्त्र तथा मनोवैज्ञानिक नियमों के अनुसार होना चाहिए अन्यथा सफलता नहीं मिलेगी।
(5) बुरी एवं हानिप्रद वस्तुओं का विज्ञापन निर्भर नहीं रह सकता है।
(6) यदि वस्तु की माँग लोचहीन है तो उसकी माँग को विज्ञापन द्वारा नहीं बढ़ाया जा सकता है, जैसे-नमक।
(7) यदि विज्ञापन समाज के रीति-रिवाजों के प्रतिकूल हो तो वह निरर्थक सिद्ध होगा।
अन्त में यह कहना निरर्थक न होगा कि विज्ञापन की उपरोक्त सीमाएँ होते हुए भी वह अपने उपासकों को लाभ अवश्य पहुँचाता रहेगा। आधुनिक युग में विज्ञापन का महत्व केवल एक देश या नगर तक ही सीमित नहीं बल्कि वह अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है।
विज्ञापन प्रबंधन – महत्वपूर्ण लिंक
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