विनिमय दर का अर्थ | क्रय-शक्ति समता सिद्धान्त | क्रय-शक्ति समता सिद्धान्त की आलोचनायें | क्रय शक्ति समता सिद्धान्त का व्यावहारिक महत्व
विनिमय दर का अर्थ | क्रय-शक्ति समता सिद्धान्त | क्रय-शक्ति समता सिद्धान्त की आलोचनायें | क्रय शक्ति समता सिद्धान्त का व्यावहारिक महत्व
विनिमय दर का अर्थ
विदेशी विनिमय दर- वह दर है जिस पर एक देश की मुद्रा दूसरे देश की मुद्रा में परिवर्तित की जाती है। इस प्रकार यह मुद्रा भी एक इकाई का मूल्य है।
‘क्रय-शक्ति समता सिद्धान्त’
आज विश्व के लगभग सभी देशों में अपरिवर्तनशील पत्र-मुद्रामान का प्रचलन है, अत: इन देशों में विनिमय दर के निर्धारण में क्रय-शक्ति समता सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सर्वप्रथम जॉन व्हीटले (John Wheatlay) ने 1982 में अपनी पुस्तक ‘Remarks on Currency and Commerce’ में किया था। परन्तु इस सिद्धान्त को वैज्ञानिक ढंग से विकसित करने का श्रेय स्वीड़न के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो० गुस्ताव कैसल (Gustav Cassel) को है। इस सिद्धान्त के अनुसार जो देश अपरिवर्तनीय पत्र-मुद्रामान पर होते हैं उनके बीच उचित विनिमय दर उन देशों की मुद्रा इकाइयों की क्रय-शक्ति द्वारा निर्धारित होती है। इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न लेखकों ने इस प्रकार की है-
(i) गुस्ताव कैसल के शब्दों में, “दो मुद्राओं के मध्य विनिमय दर अवश्य ही इनकी आन्तरिक क्रय-शक्ति के भागफल पर निर्भर करती है।”
(ii) प्रो० जी० डी० एच० कोल के शब्दों में, “उन देशों की मुद्राओं का पारस्परिक मूल्य जो स्वर्णमान पर आधारित नहीं हैं, दीर्घकाल में विशेषकर उनकी वस्तुओं तथा सेवाओं की क्रय-शक्ति से निश्चित होता है।”
(iii) प्रो० क्राउथर के अनुसार, “दो मुद्राओं के मध्य विनिमय अनुपात वही होने की प्रवृत्ति रखता है जो उनकी सापेक्षिक क्रय-शक्ति का अनुपात होता है।”
(iv) प्रो० टॉमस के शब्दों में, “विनिमय दर उस बिन्दु पर रहने की प्रवृत्ति रखता है जो मुद्राओं की सापेक्षिक क्रय-शक्ति की समता को प्रकट करता है। इस बिन्दु को क्रय- शक्ति समता बिन्दु कहते हैं।”
पूर्वोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अपरिवर्तनीय पत्र-मुद्रामान पर आधारित दो देशों के बीच विनिमय दर उनकी मुद्राओं की क्रय-शक्ति की समता से निर्धारित होती है। उदाहरण के लिये, यदि भारत में 1 किलो चीनी 5 रुपये में आती है और अमेरिका में 1 किलो चीनी एक डालर में आती है तो भारत और अमेरिका के बीच विनिमय दर 5 रुपये = 1 डालर होगी। इस प्रकार विनिमय दर उस बिन्द्र पर निर्धारित होगी जहाँ दो देशों की मुद्राओं की क्रय-शक्ति में समानता हो जाती है।
चूंकि प्रत्येक वस्तु के लिये मुद्रा की क्रय-शक्ति अलग-अलग होती है, अत: यदि किसी एक वस्तु में दो देशों की मुद्राओं की क्रय शक्ति समय के आधार पर विनिमय दर निर्धारित करने का प्रयास किया जाता है तो वह उचित नहीं है। वास्तव में पत्र-मुद्रामान के अंतर्गत कोई भी वस्तु नहीं हो सकती जिसे विभिन्न देशों की मुद्रा की शक्ति का निर्धारण किसी एक वस्तु के मूल्य के आधार पर नहीं बल्कि वस्तुओं के एक समूह के मूल्यों के आधार पर किया जाता है। इसके लिये सामान्य मूल्य निर्देशांकों का प्रयोग किया जाता है। इसमें समान्यत: उन सभी वस्तुओं को सम्मिलित करते हैं जिनका अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में महत्वपूर्ण स्थान है। इस प्रकार दोनों देशों में मुद्राओं को सामान्य क्रय-शक्ति के अनुपात के आधार पर उन देशों के बीच विनिमय दर का निर्धारण होता है।
विनिमय दरों में परिवर्तन- क्रय-शक्ति समता सिद्धान्त विनिमय दर में होने वाले परिवर्तनों के कारणों के साथ-साथ परिवर्तन के अनुपात को भी स्पष्ट करता है। प्रो० कैसल के अनुसार, “विनिमय दर ठीक उसी अनुपात में बढ़ती है जिस अनुपात में अन्य देशों की अपेक्षा कीमत-स्तर में कमी होती है और ठीक उसी अनुपात में कम होती है जिस अनुपात में अन्य देशों की अपेक्षा कीमत-स्तर में वृद्धि होती है। इस प्रकार जब दो देशों की मुद्राओं की क्रय-शक्ति (अर्थात् सामान्य कीमत-स्तर) में परिवर्तन होता है तो इनके बीच विनिमय दर में भी परिवर्तन होगा। इस परिवर्तन को जानने की रीति प्रो० कैसल ने यह बतायी है कि जब मुद्राओं का प्रसार हुआ है तो उनके बीच सामान्य विनिमय दर दोनों देशों में स्फीति की मात्रा भजनफल को पुरानी विनिमय दर से गुणा करके ज्ञात किया जा सकता है। इसे इस प्रकार भी ज्ञात किया जा सकता है-
विनिमय दर = आधार वर्ष में विनिमय दर x आन्तरिक कीमत निर्देशांक/विदेशी कीमत निर्देशांक
मान लीजिये, आधार वर्ष में जब भारत तथा अमेरिका दोनों देशों में सामान्य कीमत निर्देशांक 100 था तो डालर की क्रय-शक्ति 7 रुपये के बराबर होने के कारण कीमतों में वृद्धि हुई जिसके कारण भारत में कीमत निर्देशांक 200 हो गया और अमेरिका में 150। इस प्रकार भारत में अमेरिका की अपेक्षा कीमतों में अधिक वृद्धि हुई। इसका प्रभाव यह होगा कि डालर की तुलना में रुपये का विदेशी मूल्य गिर जायेगा और विनिमय दर में इस प्रकार परिवर्तन होगा।
विनिमय दर = 7×200/150 =9.33
अतः विनिमय दर 9.33 रु० =1 डालर होगी।
क्रय-शक्ति सिद्धान्त के दो पहलू हैं-(i) निरपेक्ष अथवा वास्तविक रूप, (ii) सापेक्ष अथवा तुलनात्मक रूप। सिद्धान्त का निरपेक्ष रूप (Absolute-aspect) यह बताता है कि किसी समय विनिमय दर साम्यावस्था में तभी होगी जबकि प्रचलित दर पर देश की मुद्रा की बाह्य व आन्तरिक क्रय- शक्ति के बराबर होगी। सापेक्ष रूप में इस सिद्धान्त का उद्देश्य दो देशों के मध्य साम्य दर का पता लगाना नहीं होता बल्कि पहले से निर्धारित साम्य दर में परिवर्तन की मात्रा अथवा दिशा का पता लगाना होता है। व्यावहारिक दृष्टि से सिद्धान्त का सापेक्ष रूप निरपेक्ष रूप की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में दो मुद्राओं के बीच क्रय-शक्ति के आधार पर साम्य दर ज्ञात करना कठिन होता है किन्तु एक बार जो दर निश्चित हो जाती है उसमें होने वाले परिवर्तनों के अनुपात को सम्बन्धित मुद्राओं की क्रय-शक्ति में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर अपनाया जा सकता है।
निम्नांकित चित्र में PP रेखा क्रय- शक्ति समता की अस्थिर दर, UP रेखा उच्चतम सीमा तथा LP रेखा निम्नतम सीमा को व्यक्त करती है। MP रेखा बाजार विनिमय दर को दर्शाती है। इसके अन्तर्गत न तो सामान्य विनिमय दर ही एक स्थिर समता है और न इसके उतार-चढ़ाव की सीमायें स्थिर हैं।
प्रो० एल्सवर्थ (Ellsworth)- ने क्रय-शक्ति समता में होने वाले परिवर्तनों की माप के लिये निम्नलिखित समीकरण अपनाया है-
विवेशी मुद्राकी माँगऔर पूर्ति
Rp = Rb x P1/P2
अर्थात् क्रय-शक्ति समता = पुरानी साम्य दर (Rb) x दोनों देशों के कीमत-स्तरों के बीच अनुपात (P1/P2) जिस देश में मुद्रा की पुरानी साम्य दर व्यक्त की जायेगी, P1 के स्थान पर उसी देश का कीमत निर्देशांक रखेंगे और P2 दूसरे देशों का कीमत निर्देशांक होगा।
क्रय-शक्ति समता सिद्धान्त की आलोचनायें (Criticism)-
इस सिद्धान्त की विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने समय-समय पर कटु आलोचना की है। प्रमुख आलोचनाएँ अग्रलिखित हैं-
(1) अधूरा स्पष्टीकरण- यह सिद्धान्त दो देशों के बीच विनिमय दर के निर्धारण में केवल पूर्ति पक्ष की ओर संकेत करता है और माँग पक्ष पर कोई ध्यान नहीं देता। इस प्रकार इस सिद्धान्त द्वारा विनिमय दर निर्धारण के सम्बन्ध में की गयी विवेचना अधूरी मानी जाती है।
(2) क्रय शक्ति की सही नाप कठिन है- इस सिद्धान्त में क्रय शक्ति नापने तथा उसकी तुलना करने के लिये सूचक अंकों का प्रयोग किया जाता है किन्तु सूचक अंक बनाना कठिन है, क्योंकि –(i) सूचक अंक सदैव भूतकाल से सम्बन्धित होते हैं।
(ii) कीमत सूचकांकों में ऐसी वस्तुओं की कीमतों को सम्मिलित कर लिया जाता है जिनका अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता है।
(iii) दोनों देशों में कीमत सूचकांक में एक ही प्रकार की वस्तुओं का समावेश नहीं होता बल्कि अलग-अलग वस्तुओं को सम्मिलित किया जाता है।
(3) विनिमय दर में होने वाले परिवर्तनों का मूल्य-स्तर पर भी प्रभाव पड़ता है- इस सिद्धान्त के अनुसार दो देशों के आन्तरिक कीमत स्तरों में होने वाले परिवर्तन उनके बीच की विनिमय दर को प्रभावित करते हैं, जबकि दो देशों के बीच होने वाले परिवर्तन आन्तरिक कीमत- स्तरों को भी प्रभावित करते हैं।
(4) माँग की लोच सम्बन्धी गलत मान्यता पर आधारित है- यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि किसी देश की वस्तुओं के सम्बन्ध में विदेशों की माँग की लोच इकाई के बराबर है अर्थात् जिस अनुपात में वस्तुओं की कीमत घटती है उसी अनुपात में उसकी माँग बढ़ जाती है, परन्तु यह मान्यता सही नहीं है, क्योंकि सम्भव है कि यदि एक देश में कीमतें बढ़ती हैं तो दूसरे देश मे उसके माल की माँग न घटे।
(5) केवल दीर्घकालीन प्रवृत्ति की व्याख्या करता- यह सिद्धान्त विनिमय दर की दीर्घकालीन प्रवृत्तियों की ओर संकेत करता है, जबकि दैनिक जीवन में विदेशी विनिमय सम्बन्धी सिद्धान्त का, जो केवल दीर्घकालीन विवेचना करता है। कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि मौद्रिक कारण अल्पकाल में ही भयंकर उपद्रव मचा देते हैं।
(6) विनिमय दर केवल मूल्य परिवर्तन से ही निश्चित नहीं होती- इस सिद्धान्त के अनुसार दो देशों की मुद्रा इकाईयों की क्रय-शक्ति के परिवर्तन विनिमय दर में होने वाले परिवर्तनों का एकमात्र कारण होते हैं। वास्तव में विनिमय दर अनेक कारणों से प्रभावित होती है, उनमें से कीमत स्तर भी एक है। कीन्स के अनुसार, “विनिमय दर पर मुद्रा इकाई की क्रय-शक्ति के अतिरिक्त अन्य शक्तियों का भी प्रभाव पड़ता है, जैसे पूँजी के आवागमन, परस्पर माँग, की लोच आदि।”
(7) भुगतान सन्तुलन को प्रभावित करने वाले तत्वों का अध्ययन नहीं करता- यह सिद्धान्त अनेक ऐसे तत्वों की उपेक्षा करता है जो भुगतान सन्तुलन को प्रभावित करके विनिमय दर मे परिवर्तन कर देते हैं।
(8) विनिमय दर को पहले से ही मान लेना- यह सिद्धान्त विनिमय दर को निर्धारित नहीं करता है अपितु उसे मानकर आगे बढ़ता हैं ।
(9) सामान्य अनुभव के विरुद्ध- व्यावहारिक रूप में कहीं भी ऐसा नहीं पाया जाता है कि विनिमय दर को दो देशी मुद्राओं की क्रय-शक्ति के द्वारा निर्धारित किया गया है। गत वर्षों में ऐसे उदाहरण सामने आये हैं जिनमें विनिमय दर क्रय-शक्ति समता सिद्धान्त के द्वारा तय नहीं हुई।
(10) यह सिद्धान्त परिवहन व्यय की उपेक्षा करता है- यह सिद्धान्त वस्तुओं के परिवहन व्यय की उपेक्षा करता है। जैकब वाइनर ने स्पष्ट कहा है कि “एक देश में वस्तुओं की कीमतें बढ़ सकती हैं तथा दूसरे देश में गिर सकती हैं, यदि एक दिशा में परिवहन व्यय बढ़ जाता है और दूसरी दिशा में गिर जाता है।”
(11) वस्तुओं के गुणों की उपेक्षा- यह सिद्धान्त वस्तुओं के गुणों की उपेक्षा करता है।
क्रय शक्ति समता सिद्धान्त का व्यावहारिक महत्व
अनेक दोषों के होते हुये भी क्रय शक्ति समता सिद्धान्त व्यावहारिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। प्रो० बेन्हम के अनुसार, “यह सिद्धान्त भूतकाल में एक महत्वपूर्ण पथ-प्रदर्शक रहा है।” संक्षेप में इस सिद्धान्त का महत्व निम्न प्रकार है-
(1) यह सिद्धान्त हमें स्पष्ट करना बताता है कि अपरिवर्तनीय पत्र-मुद्रामान पर आधारित दो देशों के बीच विनिमय दर किस प्रकार निर्धारित होती है।
(2) यह सिद्धान्त स्पष्ट करता है कि किसी देश के आन्तरिक कीमत स्तर तथा उनकी विनिमय दर में गहरा सम्बन्ध होता है।
(3) यह सिद्धान्त सभी प्रकार के मुद्रामानों तथा मुद्राओं पर क्रियाशील होती है।
(4) इस सिद्धान्त की सहायता से यह पता लगाया जा सकता है कि किस समय दो देशों के बीच व्यापार का रुख किस दिशा में होगा।
(5) इस सिद्धान्त की सहायता से यह अनुमान भी लगाया जा सकता है कि मद्रा के आन्तरिक मूल्यों में परिवर्तन का विदेशी व्यापार की मात्रा पर क्या प्रभाव पड़ सकता है।
(6) विभिन्न देशों का पारस्परिक ऋण शेष जानने के लिये इस सिद्धान्त का ज्ञान अनिवार्य है।
(7) इस सिद्धान्त के आधार पर विनिमय दर में होने वाले परिवर्तन की अनुमानजनक सीमायें निश्चित की जा सकती हैं।
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