शिक्षा के अंग अथवा घटक | Parts or components of education in Hindi

Photo of author
शिक्षा के अंग अथवा घटक
शिक्षा के अंग अथवा घटक

शिक्षा के अंग अथवा घटक | Parts or components of education in Hindi

शिक्षा के अंग कौन-कौन से हैं? इस सम्बन्ध में शिक्षाशास्त्रियों के अलग-अलग मत हैं। एडम्स (Adams) के अनुसार, शिक्षा के दो अंग हैं-एक विद्यार्थी और दूसरा शिक्षक। डीवी (Dewey) ने शिक्षा के तीन अंग बताये- शिक्षक, बांलक और पाठ्यक्रम। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शिक्षा कें क्षेत्र में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। शैक्षिक तकनीकी के विकास से शिक्षा को नई दिशा प्राप्त हुई है। शैक्षिक तननीकी विशेषज्ञों की दृष्टि से शिक्षा के तीन अंग होते हैं- शिक्षार्थी, शिक्षक और सीखने-सिखाने की परिस्थितियाँ। इन सीखने-सिखाने की परिस्थितियों में शिक्षा की पाठ्यचर्या, शिक्षण विधियाँ एवं शिक्षण साधन, प्राकृतिक पर्यावरण, सामाजिक पर्यावरण और मूल्यांकन की विधियाँ, प्राकृतिक वातावरण और सामाजिक वातावरण आते हैं। अधिकांश विद्वान इन सभी को शिक्षा का अंग मानते हैं। इनका वर्णन निम्नलिखित है-

शिक्षा प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग शिक्षार्थी है। शिक्षार्थी का अर्थ है-सीखने वाला। शिक्षा में मनोविज्ञान के समावेश तथा प्रजातांत्रिक विचारधारा के कारण बालक को शिक्षा में प्रमुख स्थांन प्रदान किया गया है। मनोविज्ञान मानता है कि बालक को समझे बिना शिक्षा की प्रक्रिया नहीं चल सकती है। शिक्षार्थी के अभाव में शिक्षक चाहे जितना ही भाषण देते रहें, कितनी ही अभिक्रियाएँ करते रहें, कितने ही आदर्श प्रस्तुत करते रहें, शिक्षा की प्रक्रिया नहीं होगी। एक कुशल शिक्षक के लिए यह जानना आवश्यक है कि वह शिक्षार्थी के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, सीखने की इच्छा, रुचि, चरित्र- बल एवं अध्ययनशीलता आदि पर सीखने की क्रिया निर्भर करती है। ये सारे गुण प्रत्येक छात्र में अलग-अलग होते हैं। इस सम्बन्ध में एडम्स (Adams) का यह कथन बड़ा प्रसिद्ध है- “शिक्षक जॉन को लैटिन पढ़ाता है।” इस कथन के अनुसार शिंक्षक के लिए दो बाते जानना आवश्यक है-प्रथम तो ‘जॉन’ तथा द्वितीय ‘लैटिन’ अर्थात् विषय से अधिक महत्वपूर्ण शिक्षक के लिए यह जानना है कि बालक की योग्यताएँ, क्षमताएँ व रुचियाँ क्या हैं? अत: आधुनिक युग में मनोविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है। कि शिक्षा में ‘बालक’ की प्रकृति सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। उसे जाने व समझे बिना शिक्षा की प्रक्रिया नहीं चल सकती है। आज शिक्षा की समस्त योजनाएँ शिक्षार्थी या बालक को केन्द्र में रखकर बनायी जाती हैं तथा किण्डरगार्टन, मॉण्टेसरी, डाल्टन योजना, ह्यूरिस्टिक आदि शिक्षा की नवीन बालकेन्द्रित विधियों का प्रयोग किया जाता है। अत: आधुनिक शिक्षक के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह अपने विषय के साथ-साथ बाल मनोविज्ञान का भी ज्ञाता हो।

  • शिक्षक (Educator)

शिक्षा की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग शिक्षक भी है। शिक्षा के व्यापक अर्थ में कोई भी शिक्षक हो सकता है, क्योंकि हम किसी से भी सीखते हैं तथा अन्य कोई हमसे भी सीखता है। अतः हम शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों हैं, परन्तु संकुचित अर्थ में ऐसा न होकर कोई व्यक्ति विशेष अध्यापक होता है। इसमें एक निश्चित स्थान पर पूर्व- निर्धारित शिक्षण विधियों द्वारा पूर्व-निर्धारित पाठ्यक्रम का ज्ञान दिया जाता है। प्राचीन भारतीय शिक्षा में शिक्षक को शिक्षा में प्रमुख स्थान प्रद्ान फिया गया था शिक्षक ही शिक्षा का केन्द्र-बिन्दु था। लोगों का मानना था कि योग्य गुरु के चरणों में बैठकर कोई भी व्यक्ति ज्ञानी बन सकता है। अध्यापक या गुरु को ईश्वर का माना जाता था, उसके मुख से निकला कथन ही सर्वथा सत्य एवं ब्रह्म माना जाता था और बालक द्वारा उन्हीं नियमों व कथनों को कण्ठस्थ किया जाता था। शिक्षक की समस्त आज्ञाओं का पालन करना बालक का परम कर्त्तव्य था। बालक की योग्यताओं व रुचियों पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था।

आधुनिक शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षा में शिक्षार्थी को केन्द्र मानकर शिक्षकों को गौण स्थान प्रदान किया है। मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि प्रत्येक बालक में कुछ शक्तियाँ होती हैं, जिन्हें लेकर वह पैदा होता है। अध्यापक इन शक्तियों को उचित दिशा प्रदान करने का कार्य करता है, परन्तु आज शिक्षक शिक्षा का केन्द्र नही है, फिर भी उसका उत्तरदायित्व आज के समय में बहुत अधिक बढ़ गया है, क्योंकि अब वह सम्पूर्ण वातावरण का निर्माता हो गया है। आधुनिक शिक्षक बालकों को ज्ञान के साथ-साथ, उनकी योग्यताओं और क्षमताओं को विकसित करता है। शिक्षक का कार्य बहुत ही चुनौतीपूर्ण है। एक अच्छे शिक्षक का शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए। उसमें उच्च सामाजिकता, उच्च सांस्कृतिक दृष्टिकीण, स्पष्ट जीवन-दर्शन, नैतिक एवं चारित्रिक बल, शिक्षण कौशल में दक्षता संगठन शक्ति एवं अपने विषय का स्पष्ट ज्ञान तथा अन्य विषयों का सामान्य ज्ञान इत्यादि गुण पूर्ण रूप से होने चाहिए। शिक्षक का चरित्र एवं व्यक्तित्व इतना आदर्श हो कि छात्रों पर उसका सकारात्मक प्रभाव पडे, क्योंकि शिक्षकों का बालक के जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव होता है और देश के भविष्य को सँवारने का समस्त कार्यभार इन्हीं भावी नागरिकों का होता है तथा इन्हें योग्य बनाने का दायित्व शिक्षकों का होता है।

  • पाठ्यक्रम (Curriculum)

शिक्षा का तृतीय महत्वपूर्ण अंग पाठ्यक्रम है। डीवी ने अपनी शिक्षा पद्धति में इसे महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। पूर्व-निश्चित उद्देश्यों में वालक को क्या सिखाया जाना है, उसे सीखने में पाठ्यक्रम सहायता करता है, परन्तु व्यापक अर्थ में पाठ्यक्रम में वे सभी अनुभव सम्मिलित हैं जिन्हें एक बालक किसी विद्यालय, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, क्रीड़ास्थल, किसी भी तरह के वातावरण से प्राप्त करता है। धीरे-धीरे प्राचीन शिक्षा पद्धति में बदलाव के साथ पाठ्य-विषयों का क्षेत्र बहुत विकसित हो गया और शिक्षक से अधिक पाठ्य-विषय का महत्व बढ़ गया। मध्यकाल में पाठ्यक्रम. को विशेष महत्व दिया गया था। उस समय’ज्ञान के लिए ज्ञान’ के सिद्धान्त को अपनाया जाता था उत्तम भाषा ज्ञान, उत्तम शैलों और शब्द भण्डार में वृद्धि उस समय की शिक्षा का उद्देश्य बन गया था इसके फलस्वरूप कक्षा शिक्षण का कार्य आरम्भ हुआ, पाठ्य पुस्तकों की प्रथा चली और बालकों को कण्ठस्थ कराकर शिक्षा देने की पद्धति का प्रचलन हुआ और पाठ्यक्रम ने एक विस्तृत रूप धारण किया और निरन्तर विषयों में वृद्धि होती चली गयी।

पाठ्यक्रम शिक्षा प्राप्ति में शिक्षक व शिक्षार्थी के मध्य एक कड़ी का कार्य करता है। पाठ्यक्रम का निर्माण देश, काल तथा समाज की आवश्यकताओं तथा बालकों की रुचि एवं योग्यताओं पर निर्भर करता है। समाज तथा राज्य द्वारा संचालित शिक्षा में पाठ्यचर्या, शिक्षक और शिक्षारथी की शासक होती है। लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में थोड़ी छूट होती है, क्योंकि इसमें पाठ्यक्रम राज्य द्वारा संचालित होता है, परन्तु इसमें पर्याप्त विकल्प होते हैं और बालकों को अपनी रुचि के अनुसार विकल्प चुनने की छूट होती है। भारत जैसे विशाल प्रजातांत्रिक देश में अधिक विकल्प वाले पाठ्यक्रमों को लागू करने की आवश्यकता है। विश्व के कई देश ऐसे हैं जहाँ प्रजातंत्र नहीं है। वहाँ का पाठ्यक्रम अति संकीर्णता से युक्त है तथा शिक्षार्थी उसी को पढ़ने के लिए बाध्य भी हैं, जबकि आज की प्रजातांत्रिक शिक्षा में कठोरता, व्यवस्था और नियन्त्रण के स्थान पर लचीलेपन, अनुकूलन और स्वतन्त्रता पर बल दिया जाता है। वर्तमान शिक्षा योजना में व्यक्ति और स्थान दोनों की आवश्यकताओं और हितों में सन्तुलन स्थापित किया जाता है, परन्तु प्रतिकूल स्थिति तब होती है जब पाठ्यच्या को ही साध्य माना जाने लगा है और विद्यालय, अध्यापक तथा समाज सभी बालक को केवल पाठ्यक्रम में उत्तीर्ण कराकर ही श्रेष्ठता मान लेते हैं और ऐसा ही हो भी रहा है। शिक्षार्थियों में अनुचित दबाव है, उनका विकास प्रभावित हो रहा है, वे कुण्ठित हो रहे हैं। अत: यह ध्यान रखना विशेष आवश्यक है कि उन उददेश्यों को प्राप्त करने की ओर अधिक ध्यान रखते हुए बालक में मौलिकता का गुण विकसित किया जाये, जिससे वह देश का तीव्र विकास कर सके।

  • शिक्षण तकनीकी (Technique of Teaching)

शिक्षण प्रक्रिया को सुचारु रूप से चलाने और शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए आवश्यक हो जाता है कि शिक्षक को इसका ज्ञान हो कि छात्र को कैसे पढ़ाया जाये और प्रभावशाली शिक्षण हेतु किन प्रविधियों का प्रयोग किया जाये। कौन-कौन से साधनों को अपनाया जाये जिससे कम से कम समय में अधिक से अधिक ज्ञान शिक्षार्थियों को दिया जा सके। शिक्षक को जितना अधिक शैक्षिक तकनीकी ज्ञान होगा तथा उसका प्रयोग करने में वह निपुण होगा, उसका शिक्षण उतना ही अधिक प्रभावशाली होगा। आधुनिक समय में अनेक शिक्षण सिद्धान्तों, शिक्षण विधियों, प्रविधियों, शिक्षण सामग्री, शिक्षण सूत्रों का निर्माण किया गया है, जिनसे शिक्षा की प्रक्रिया को एक नई दिशा प्राप्त हुई है। अत: शिक्षण तकनीकी भी शिक्षण प्रक्रिया का एक अंग है।

  • सामाजिक पर्यावरण (Social Environment)

बालक की सम्पूर्ण शिक्षा सामाजिक पर्यावरण में ही होती है। उसकी भाषा, विचार, सभ्यता और संस्कृति का विकास सामाजिक वातावरण में ही होता है। सामाजिक वातावरण का प्रभाव शिक्षक और विद्यार्थी दोनों पर ही पढ़ता है। बालक अपने समाज में प्रचलित परम्पराओं, मान्यताओं, आकांक्षाओं, मूल्यों, आदर्शों और संस्कृति को ही अपनाता है और उन्ही के प्रभाव के अनुसार ही आचरण करता है।

प्राचीन काल में गुरुकुल शिक्षण प्रणाली थी, जहाँ छात्र शिक्षा अध्ययन हेतु गुरु के आश्रम में रहता था। अत: वहाँ की व्यवस्था ही बच्चो का सामाजिक वातावरण होती थी। बालक आश्रम में निवास करके उच्च नैतिक मूल्यों एवं संस्कारों से परिपूर्ण होता था । आधुनिक समय के विद्यार्थी पर समाज की आर्थिक, धार्मिक एवं राजनैतिक स्थिति का सीधा प्रभाव पड़ता है। अतः बच्चों की उचित शिक्षा तभी हो सकती है जब समाज का वातावरण स्वस्थ और नैतिक मूल्यों से युक्त हो। हमारे समक्ष शिक्षार्थियों में गिरती हुई नैतिकता का उदाहरण है जो सामाजिक वातावरण में हो रहे हास का ही परिणाम हैं।

  • मापन और मूल्यांकन (Measurement and Evaluation)

शिक्षा में पाठ्यक्रम की प्रभावोत्पादकता को बनाये रखने के लिए मापन और मूल्यांकन की आवश्यकता निरन्तर बढ़ रही है। शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लक्ष्य को मापने हेतु भी मूल्यांकन की आवश्यकता होती है। मूल्यांकन के द्वारा शिक्षार्थियों की वृद्धि, रुचि, अभिरुचि, अभिवृत्ति और व्यक्तित्व का मापन कर उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन दिया जाता है। मापन और मूल्यांकन के आधार पर जो परिणाम सामने आते हैं उनका अध्ययन करके यदि आवश्यकता होती है तो शिक्षण के तरीकों में भी सुधार किया जाता है तथा छात्रों को भली – भाँति मार्गदर्शित किया जाता है। शिक्षा में मनोविज्ञान के समावेशित होने के कारण मापन और मूल्यांकन को भी शिक्षा का ही अंग माना जाता है। एक शिक्षक को मापन एवं मूल्यांकन में भी निपुण होना चाहिए क्योंकि निदानात्मक शिक्षण के लिए इसमें दक्षता बहुत आवश्यक है।

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimersarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- [email protected]

Related Articles

Leave a Comment