मूल्य शिक्षा के विकास में परिवार की भूमिका का वर्णन

मूल्य शिक्षा के विकास में परिवार की भूमिका का वर्णन | Describe the role of family in the development of value education in Hindi

मूल्य शिक्षा के विकास में परिवार की भूमिका का वर्णन | Describe the role of family in the development of value education in Hindi

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मूल्य शिक्षा के विकास में परिवार की भूमिका

मूल्यों के विकास में घर एवं परिवार का महत्वपूर्ण योगदान होता है। परिवार ही बालक में जैविक सामाजिक, आर्थिक, चारित्रिक, नैतिक सांस्कृतिक एवं मानवीय मूल्यों का संचार सर्व प्रथम करता है। परिवार में ही बालक के व्यक्तित्व की नींव पड़ती है। जोसेफ रुसेक ने स्पष्ट कहा है कि- “Family may be conceived as the cradle of social trait of personality”. अतएव मूल्य विकास में परिवार सबसे सशक्त अभिकरण एवं साधन है। हमारे भारतीय सद्साहित्यों से परिवार द्वारा बालकों को संस्कारित बनाने हेतु आग्रह किया गया है। (मूल्य शिक्षा के विकास में परिवार की भूमिका का वर्णन)

यजुर्वेद में वर्णित है कि-

पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः ।

पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा ।। 19/39।।

अर्थात् प्रत्येक सद्गृहस्थ का अपने पुत्र और पुत्रियों को ब्रह्मचर्य, सदाचार व विद्या के द्वारा विद्वान, विदुषी, सुन्दर और शीलयुक्त (मूल्यवादी) बनाना पुनीत कर्त्तव्य है। अतएव स्पष्ट है कि परिवार को दुर्गुणों, दुव्यसनों, दुष्चरित्रों से बचाने के लिए सुख-शान्ति और प्रगति की चेतनात्मक सम्पदा की प्राप्ति करने हेतु पाल्यों को मूल्य शिक्षा देना आज के युग में बहुत हत्वपूर्ण है। बच्चों के मानसिक, चारित्रिक एवं नैतिक विचार का मुख्याधार माता-पिता की मनोभूमि, संस्कार, आदत और घर का वातावरण ही होतां है। इसलिए जहां तक सम्भव हो सके परिवार का माहौल और कार्य-व्यवहार, सामंजस्यपूर्ण मित्रता, प्रेम, सदाचार, वात्सल्य से परिपूरित होना चाहिए। परिवार का सहयोग और संस्कार मिलने पर ही बालक मूल्य सम्पोषक मंतव्यों से संपृक्त होते हैं।

परिवार निम्नलिखित कृत्यों द्वारा बालकों को मूल्यवादी बनाने में सहायक भूमिका अदा कर सकता है-

(i) परिवार के सदस्यों को दूषित प्रवृत्तियों से दूर रहना चाहिए और बालक-बालिकाओं को सही मार्ग एवं दिशा पर चलने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

(ii) परिवार के सदस्यों को अपने भाव, विचार, व्यवहार उत्तम एवं परिष्कृत रखना चाहिए।

(iii) वृद्धों का आदर, अतिथियों का सत्कार, छोटों से स्नेह का व्यवहार खना चाहिए। इससे बच्चों में भी नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों का उदय होना।

(iv) बालकों के साथ शालीनता, मृदुभाषिता, स्नेह का व्यवहार कर ह चाहिए उन्हें डराकर, धमाकर मारकर नियंत्रित नहीं करना चाहिए।

(v) अभिभावकों को स्वच्छता का प्रेमी होना चाहिए, इससे बालकों में भी स्वच्छ रहने की प्रवृत्ति एवं सफाई जैसे मूल्य अभ्युदित होंगे।

(vi) अभिभावकों को दूसरे के कार्य में सहयोग देना चाहिए। इससे बालकों में भी सहयोगात्मक मूल्यों का विकास होगा।

(vii) अनावश्यक रूप से किसी व्यक्ति को अथवा जीव क. पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। इससे बालकों में परोपकार एवं दीन-दुःखियों की सेवा की भावना संचरित होगी।

(vii) अभिभावकों को परम्परागत मूल्यों पर ही आधारित नहीं रहना चाहिए बल्कि आधुनिक मूल्यों, संवैधानिक मूल्यों से अलंकृत होना चाहिए इससे बालक भी परम्परागत एवं आधुनिक मूल्यों में समन्वय स्थापित करते हुए अपना विकास करने में समर्थ होंगे।

(ix) अभिभावकों को विभिन्न मूल्यों पर घर के सदस्यों के साथ बैठकर चर्चा, विचार विमर्श करना चाहिए, उससे बच्चों में भी मूल्यों के प्रति चिन्तन एवं विश्लेषण करने की शक्ति का प्रार्दुभाव होगा।

(x) अभिभावकों के कार्य, व्यवहार, आचरण एवं कथनी, करनी में अन्तर नहीं होना चाहिए। उनको हमेशा मूल्यवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इससे अनेक पाल्यों में भी मूल्य- सम्पोषक सुदृढ़ आधार विनिर्मित होगा।

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