सार्वजनिक परीक्षाओं का प्रमापीकरण | Standardization of Public Examinations in Hindi

सार्वजनिक परीक्षाओं का प्रमापीकरण | Standardization of Public Examinations in Hindi
शिक्षा प्रक्रिया के तीन प्रमुख आधार शिक्षण, अधिगम एवं परीक्षा हैं। अगर इनमें से कोई भी एक आधार कमजार होता है तो उसका दुष्परिणाम शिक्षा प्रक्रिया के विभिन्न पक्षों पर पड़ना स्वाभाविक ही है और पारिणामतः सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हो जाती है। परीक्षा वास्तव में शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के परिणामों को जानने का एक साधन है।
शैक्षिक सुधार के लिए स्वतंत्र भारत में गठित विभिन्न आयोगों तथा समितियों ने परीक्षा प्रणाली की आलोचना करते हुए उसमें सुधार के लिये अनेक सुझाव दिये। परन्तु खेद का विषय है कि आजादी के 50 वर्षों के उपरान्त भी हमारी परीक्षा प्रणाली अभी तक मूलतः उस स्वरूप में है जो अंग्रजों से प्राप्त हुई थी एवं अनुचित तरीकों के प्रयोग के बढ़ावे ने उसे और भी अधिक संक्रमित कर दिया है। विभिन्न आयोगों तथा समितियों के द्वारा दिये सुझावों को यदा-कदा छुटपुट स्तर पर लागू करने से परीक्षा प्रणाली के मूल स्वरूप पर कोई सार्थक प्रभाव नही पड़ा है। परीक्षा प्रणाली को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के उन्नयन का एक साधन होना चाहिए परन्तु वर्तमान परीक्षा प्रणाली चौराहे पर खड़े ट्रैफिक पुलिस के सिपाही की तरह से छात्रों को आगामी कक्षा में जाने अथवा रुक जाने का सकत देने का कार्य मात्र कर रही है। वर्तमान समय में परीक्षा परिणामों का एक मात्र शैक्षिक उपयोग आगामी कक्षा में प्रोन्नति के लिए छात्रों को अर्ह घोषित करना मात्र रह गया है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सुधार लाने, शिक्षण विधियों में उन्नयन करने, पाठ्यक्रम संशोधित करने अथवा शैक्षिक क्रियाकलापों में परिवर्तन लाने जैसे कार्यों में परीक्षा परिणाम कोई भी भूमिका अदा करने में असमर्थ रहे हैं और तो और विभिन्न पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षायें आयोजित करने एवं विभिन्न रोजगारों के लिए चयन परीक्षा की व्यवस्था करने की प्रवृत्ति ने परीक्षा परिणामों के महत्व तथा आवश्यकता को नकार सा दिया है। ऐसी स्थिति में वर्तमान परीक्षा प्रणाली में सुधार का प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाता है। वास्तव में परीक्षा प्रणाली में सुधार करके उसे समसामयिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से उपयोगी बनाना अत्यन्त आवश्यक है। परीक्षा प्रणाली में सुधार की एक मात्र संजीवनी ही शिक्षण प्रणाली को एक नवजीवन प्रदान कर सकती है। निःसन्देह परीक्षा सुधार के प्रमुख उद्देश्यों यथा रटन्त स्मरण पर दिये जाने वाले बल को समाप्त करना, चयनित अध्ययन एवं अध्यापन को हतोत्साहित करना, परीक्षा आत्मनिष्ठता को समाप्त करना, परीक्षा संचालन में गत्यात्मकता लाना, परीक्षा परिणामों की तर्कसंगत व्याख्या करना, एवं परीक्षा परिणामों का प्रभावशाली ढंग से उपयोग करना आदि की प्राप्ति के लिए परीक्षाओं को छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि का मापन करने वाले एक ऐसे वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय एवं वैध साधन के रूप में परिवर्तित करना होगा जिससे प्राप्त परीक्षा परिणामों का उपयोग शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को अधिकाधिक प्रभावी बनाने के लिए सार्थक ढंग से किया जा सके।
वर्तमान परीक्षा व्यवस्था की एक बहुत बड़ी कमी परीक्षाओं का प्रमापीकृत न होना है जिसके कारण विभिन्न संस्थाओं के द्वारा ली गई परीक्षाओं के परिणामों को अन्य संस्थाओं के समकक्ष स्वीकार करने में कठिनाई होती है। प्रायः भिन्न-भिन्न संस्थाओं के द्वारा परीक्षाओं में भिन्न-भिन्न मानदण्डों का प्रयोग किया जाता है। जब तक विभिन्न संस्थाओं के द्वारा संचालित परीक्षाओं को प्रमापीकृत करके उनमें समतुल्यता स्थापित नहीं की जायेगी, तब तक इस कठिनाई का समाधान सम्भव नहीं हो सकेगा। सम्भवतः इसी दृष्टिकोण से राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में राष्ट्रीय परीक्षण सेवा को एक ऐसे गुण नियन्त्रक साधक के रूप में विकसित करने की बात कही गई थी जो स्वैच्छिक आधार पर राष्ट्रव्यापी परीक्षण आयोजित कर सक जिससे योग्यता की तुलनीयता तथा स्वतंत्र रूप से परीक्षण करने के लिए मानक तैयार किए जा सके। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन हेतु वर्ष 1992 में तैयार किए गए कार्यान्वयन कार्यक्रमों में स्वैच्छिक आधार पर राष्ट्रव्यापी परीक्षण आयोजित करने के लिए राष्ट्रीय मूल्यांकन संगठन को गुणवत्ता नियंत्रक साधन के रूप में विकसित करने का संकल्प प्रस्तुत किया गया था। इससे स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार भी परीक्षाओं में समतुल्यता स्थापित करने की दिशा में प्रयासरत है। वस्तुतः छात्रों को विद्यालयी निष्पत्ति का मापन करने के लिए परीक्षाओं का प्रमापीकरण अत्यन्त आवश्यक है। प्रमापीकरण की इस प्रक्रिया में (i) प्रश्नपत्र निर्माण का मानकीकरण, (ii) उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन का मानकीकरण, तथा (ii) परीक्षा परिणामों की प्रस्तुति का प्रमापीकरण करने की आवश्यकता है।
(i) प्रश्नपत्र निर्माण का प्रमापीकरण (Standardization of setting of Question Papers)
किसी भी परीक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व सार्थक पक्ष प्रश्नपत्र का निर्माण है। प्रश्नपत्र में समाहित किये गये प्रश्नों का प्रकार, स्तर, गुणवत्ता एवं उनकी मनोमितीय विशेषतायें किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण परीक्षा को प्रभावित करती है। वस्तुतः किसी भी परीक्षा का मूल आधार उस परीक्षा में प्रयुक्त होने वाला प्रश्नपत्र ही होता है। प्रश्नपत्र के आधार पर ही छात्र अपने उत्तर लिखते हैं एवं उन उत्तरों के आधार पर अंक प्रदान करके परीक्षक छात्रों की निष्पत्ति का निर्धारण करते हैं । यदि प्रश्नपत्र ही स्तरहीन होगा तो परीक्षा के परिणामों का प्रतिकूल होना स्वाभाविक ही होगा ।
वर्तमान परीक्षा प्रणाली के मुख्य दीषों में से एक दोष परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों का अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया के साथ तालमेल का अभाव है। प्रश्नपत्र रचयिता अपनी पसन्द, नापसन्द, रुचि, अरुचि तथा प्रश्न निर्माण कौशल के आधार पर प्रश्नों की रचना करके प्रश्नपत्र तैयार करता है। कभी-क्रभी प्रश्नों मे सम्मिलित अधिकांश प्रश्न बहुत ही सतही स्तर के होते हैं तथा भाषायी अन्त को छोड़कर लगभग उसी रूप में थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल पर उन प्रश्नों की बार-बार पुनरावृत्ति होती रहती है। इसके अतिरिक्त प्रश्नपत्र निर्माता द्वारा तैयार किये गये प्रश्नपत्र न तो सम्पूर्ण पाठ्यक्रम का सही प्रतिनिधित्व कर पाते हैं न ही छात्रों के ज्ञान, बोध व कौशल का विस्तृत अर्थों में मापन करने में समर्थ होते हैं। प्रश्नपत्रों की इन क्मियों के फलस्वरूप छात्र परीक्षा हेतु कुछ केवल विशिष्ट प्रश्नों/प्रकरणों को तैयार करते हैं तथा शेष को महत्वहीन मानकर छोड़ देते हैं। वस्तुतः पाठ्यक्रम में सम्मिलित समस्त प्रकरण महत्वपूर्ण एवं उपयोगी होते हैं तथा छात्रोसे अपेक्षा की जाती है कि वे उन सभी का समुचित अध्ययन करेंगे। यही कारण है कि शिक्षा प्रक्रिया को सार्थक बनाने के लिए छात्रों द्वारा उन सभी प्रकरणों में अर्जित ज्ञान, बोध व कौशल का मूल्यांकन किया जाना अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। परन्तु प्रश्नपत्रों की रचना में होने वाली कमियों के कारण निर्धारित पाठ्यक्रम का अध्ययन असंतुलित हो जाता है तथा शिक्षा प्रक्रिया के वास्तविक उद्देश्य लुप्त होने लगते हैं। अतः प्रश्नपत्र निर्माण की प्रक्रिया को प्रमापीकृत करना अत्यन्त सार्थक कदम है। निःसन्देह विभिन्न परीक्षा संस्थाओं को समाप्त करके केवल एक परीक्षा संस्था बनाना अथवा किसी एक प्रश्नपत्र को तैयार कराकर उस स्तर की सभी परीक्षाओं मे उसका प्रयोग करने का विचार अव्यवहारिक होने के साथ-साथ परीक्षा संस्थाओं की स्वायत्तता पर भी आघात होगा, इसलिए एक ऐसी विधा का प्रयोग करना उचित होगा, जिससे प्रश्नपत्रों की गुणवत्ता को सुनिश्चित करते हुए विभिन्न संस्थाओं के प्रश्नपत्रों में समतुल्यता लाई जा सके। इसके लिए प्रश्न-बैकों का उपयोग किया जा सकता है। प्रश्न बैंकों की चर्चा इसी अध्याय में अन्यत्र की गई है।
(ii) उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन का प्रमापीकरण (Standardization of Evaluation of Answer Books)
शिक्षाशास्त्री, अध्यापकगण, अभिभावकवृन्द शोधकर्ता तथा छात्रों के द्वारा अंकन की परम्परागत प्रणाली का कटु विरोध किया जाता रहता है। अंकन की परम्परागत प्रणाली सरल व सुविधाजनक तो है परन्तु इसका पूर्णतः अवैज्ञानिक होना इस आलोचना का प्रमुख कारण है। अध्ययनों ने यह सिद्ध कर दिया है कि इस अंकन-प्रणाली में अनेक प्रकार की त्रुटियाँ हैं तथा परीक्षकों द्वारा प्रदान अंक उनकी व्यक्तगत मानसिक विचार-स्थितियों के प्रभाव से युक्त रहते हैं। प्रथम, परीक्षक के निर्णय में जरा भी चूक या अन्तर (कभी-कभी मात्र एक या दो अंक) के कारण छात्र की श्रेणी अथवा उत्तीर्ण अनुत्तीर्ण की स्थिति बदल सकती है। उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण करने तथा श्रेणी प्रदान करने की यह विधि उपयुक्त तथा वैध स्वीकार की जा सकती थी, यदि अंकन विधि पूर्णरूपेण त्रुटिरहित होती अर्थात् यदि परीक्षकों द्वारा प्रदान अंक छात्र की वांछित योग्यता का त्रटिरहित ढंग से वास्तविक परिचायक होते। परन्तु सांख्यिकीय अनुसंधानां ने सिद्ध कर दिया है कि निबन्धातमक उत्तरों पर परीक्षक द्वारा अंक प्रदान करने में 5 प्रतिशत से अधिक की त्रुटि होने की संभावना लगभग 50 प्रतिशत होती है। इसके अलावा किसी परीक्षक द्वारा प्रदान अंक छात्रों की योग्यता, ज्ञान, स्मृति, बुद्धि या अभिव्यक्ति क्षमता आदि में से किसी एक गुण अथवा अधिक गुणों के द्योतक हो सकते हैं। परिणामतः किसी भी परीक्षक द्वारा प्रदान किये गये अंकों में अत्यधिक व्यक्तिनिष्ठता हो सकती है। वस्तुतः निवन्धात्मक उत्तरों की सहायता से छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि को इतनी यथार्थता तथा असंदिग्धता से नहीं मापा जा सकता है इस मापन से लिए 101 बिन्दु-मापनी का प्रयोग किया जा सकता है। परम्परागत अंकन प्रणाली की दूसरी बड़ी कमी विभिन्न विषयों में छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि के मूल्यांकन के मानदण्डों में पर्याप्त विभिन्नताओं का होना है।
जैसे गणित तथा विज्ञान जैसे विषयों में प्रायः 0 से 100 तक प्राप्तांक दृष्टिगोचर हो जाते हैं, जबकि भाषा या इतिहास या सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों में प्रायः 20 से 80 तक प्राप्ताक ही आ पाते है। स्पष्टतः प्राप्तांकों की न्यूनतम व उच्चतम वास्तविक सीमाओं तथा प्रसार के निर्धारण में विषय की प्रकृति भी अवांछित ढंग से भूमिका अदा करती है। ऐसी स्थिति में विभिन्न विषयों के प्राप्तांको का योग करके श्रेणी ज्ञात करने की परम्परा पूर्णतः अवैज्ञानिक हो जाती है। एक सौ एक बिन्दु अंकन की इन दो मुख्य कमियों के कारण शिक्षाविज्ञ, विशेषकर परीक्षा सुधार के कार्य में संलग्न शिक्षाशास्त्री व अनुसंधानकर्ता, समय-समय पर इस अंकन प्रणाली में परिवर्तन करने का सुझाव देते रहते हैं। माध्यमिक शिक्षा आयोग (1965-66) ने अंकों के स्थान पर ग्रेड का उपयोग करने का सुझाव दिया था। परीक्षा-सुधार पर शिक्षा तथा समाज-कल्याण मन्त्रालय के कार्यदल ने भी सन 1971 में अंको के स्थान पर ग्रेड प्रदान करने का सुझाव दिया था। 1975 में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा भी ग्रेड प्रणाली के प्रयोग की सिफारिश की गई थी। नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 1986 की कार्यान्वयन योजना में भी विश्वविद्यालय स्तर पर ग्रेड प्रणाली को स्वीकार करने की बात कही गई थी।
विभिन्न संस्थाओं के द्वारा घोषित छात्रों के परिणामों की तुलना करने की दृष्टि से उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन की ग्रेड प्रणाली अत्यधिक उपयोगी है। विभिन्न परीक्षकों या संस्थाओं का अंकन स्तर भिन्न-भिन्न होने पर प्राप्तांकों के द्वारा परीक्षार्थियों की तुलना तर्कसंगत नहीं प्रतीत होती है। गुणात्गक श्रेणी को इंगित करने के कारण ग्रेड प्रणाली का प्रयोग ऐसी स्थिति में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
(iii) परीक्षा परिणामों की प्रस्तुति का प्रमापीकरण (Standardization of Presentation of Examination Results)
विभिन्न परीक्षकों के लिए प्राप्तांकों के अभिप्राय भिन्न-भिन्न हो सकते हैं । कुछ परीक्षकों में कम अंक प्रदान करने की कुछ में औसत अंक प्रदान करने की एवं कुछ परीक्षकों में अधिक अंक प्रदान करने की प्रवृत्ति होती है। जिसके कारण विभिन्न परीक्षकों द्वारा समान अंक प्रदान करने पर भी उनका अर्थ भिन्न-भिन्न हो सकता है। उदाहरण के लिए यदि कोई परीक्षक 40 से 90 के बीच में अंक प्रदान करता है, दूसरा परीक्षक 20 से 80 के बीच अंक प्रदान करता है तथा तीसरा परीक्षक 20 से 60 के बीच अंक प्रदान करता है, तब इन तीनों परीक्षकों द्वारा प्रदान किये गये 50 प्राप्तांक का अर्थ भिन्न-भिन्न होगा। प्राप्तांक 50 से तात्पर्य पहले परीक्षक की दृष्टि में निम्न छात्र होगा, दूसरे परीक्षक की दृष्टि में औसत छात्र होगा तथा तीसरे परीक्षक की दृष्टि में श्रेष्ठ छात्र होगा। स्पष्ट है कि भिन्न-भिन्न परीक्षकों के लिए अंक प्रदान करने का मापदण्ड भिन्न-भिन्न होने पर विभिन्न परीक्षकों द्वारा प्रदान किये गये प्राप्तांकों के आधार पर छात्रों की तुलना करना तार्किक दृष्टि से कदापि उचित नहीं है। आन्तरिक परीक्षा के दौरान अध्यापको द्वारा छात्रों को प्रदान किये गये अंकों की तुलना करते समय इस प्रकार की कठिनाई और भी अधिक जटिल हो जाती है क्योंकि आन्तरिक मूल्यांकन में प्राप्तांकों के प्रसार, मध्यमान तथा मानक विचलन में विभिन्न अध्यापकों के लिए पर्याप्त अन्तर पाया जाता है।
ग्रेड प्रणाली के अपनाने से भी यह समस्या पूर्णतः समाप्त नहीं हो, जाती है। ग्रेड देने में भी परीक्षक की सदाश्यता/कठोरता की भूमिका रहती है जिसके कारण विभिन्न ग्रेड से अभिप्राय उनकी सैद्धान्तिक परिभाषा पर पूर्णरूपेण निर्भर न होकर काफी सीमा तक परीक्षक के द्वारा अपनाये गये मानदण्ड पर आधारित हो जाता है। परिणामतः भिन्न-भिन्न परीक्षकों द्वारा प्रदान किये जाने वाले ग्रेडों की तुलना भी सरल नहीं है। छात्रों के प्राप्तांकों अथवा ग्रेड में आवश्यक संशोधन किये जायें। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि परीक्षकों की आत्मनिष्ठता के कारण प्राप्तांक अथवा ग्रेड में आई विसंगतियों को दूर करने की आवश्यकता है। परीक्षकों द्वारा अपनाये गये मापदण्ड पर ले आने की प्रक्रिया को परिमापन अथवा स्केलिंग कहा जाता है। वस्तुतः विभिन्न परीक्षकों द्वारा प्रदान अंकों को एक ही मापदण्ड पर परिवर्तन करना ही स्केलिंग है। कभी-कभी विभिन्न विषयों की प्रकृति के कारण छात्रों के द्वारा विभिन्न विषयों में प्राप्त अंक अथवा ग्रेड के मानदण्ड भी भिन्न-भिन्न हो जाते हैं, जैसे संस्कृत विषय में अधिकतर छात्र अधिक अंक प्राप्त करते हैं, जबकि अंग्रेजी विषय में कम अक प्राप्त करते हैं। इस प्रकार की परिस्थितियों में विभिन्न विषयों के प्राप्तांको को भी एक हैी मानदण्ड पर परिवर्तित करना भी स्कैलिंग कहलाता है। प्राप्तांकों की स्केलिंग करने की चर्चा अन्यत्र की गई है। दृढ़ संकल्प एवं ईमानदारी के साथ कार्य करते हुए यदि। इन उपायों को अपनाया जायेगा तो निष्पत्ति के मापन की प्रक्रिया को काफी हद तक प्रमापीकृत किया जा सकता है।
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