इतिहास / History

गैरिक मृद्भाण्ड | कपिश मृद्भाण्ड | गैरिक मृद्भाण्ड की विशेषताएँ

गैरिक मृद्भाण्ड | कपिश मृद्भाण्ड | गैरिक मृद्भाण्ड की विशेषताएँ

गैरिक अथवा कपिश मृद्भाण्ड

सन् 1949 में बी०बी लाल ने ‘ताम्रनिधियों की समस्या के सन्दर्भ में उत्तर प्रदेश के बदायूँ जिले में स्थित ‘बिसौली’ और बिजनौर जिले के ‘राजपुर-परसू’ नामक गाँवों के पास स्थित उन पुरास्थलों पर उत्खनन कराया था जहाँ से इसके पहले खेतों की जुताई करते समय ‘ताम्रनिधियों के उपकरण प्राप्त हुए थे। इन उपर्युक्त दोनों स्थानों पर लाल को ताम्र-उपकरण तो नहीं प्राप्त हुए थे लेकिन गैरिक (गेरुए) अथवा कपिश् रंग के मिट्टी के बर्तनों के कुछ टुकड़े (Sherds) अवश्य मिले थे। लाल ने इस प्रकार के पात्र-खण्डों को गैरिक मृदुभाण्ड नाम उनके रंग के आधार पर प्रदान किया। इस प्रकार के मृद्माण्डों के लिए आज गैरिक मृद्भाण्ड या ओ०सी०सी (O.C.P.) एक सुप्रचलित नाम है। इसके अतिरिक्त ‘गेरू पुते हुए मृद्भाण्ड’ (Ochre Coloured Ware) एवं ‘गैरिक मृद्भाण्ड-परम्परा'(Ochre Washed Ware) आदि नाम भी कभी-कभी प्रयुक्त किये जाते हैं।

सन् 1950-52 के मध्य हस्तिनापुर में किये गए उत्खनन के फलस्वरूप इस प्रकार के पात्र-खण्ड सबसे निचले स्तरों से प्राप्त हुए। इस प्रकार उन्हें एक निश्चित पुरातात्त्विक परिप्रेक्ष्य प्राप्त हुआ। एटा जिले के अतरंजीखेड़ा, बरेली जिले के अहिच्छत्र, इलाहाबाद जिले के श्रृंगवेरपुर और राजस्थान के भरतपुर जिले के नोह आदि पुरास्थलों से इस प्रकार के पात्र-खंड सबसे निचले स्तरों से प्राप्त हुए हैं। इनके अतिरिक्त सहारनपुर में स्थित बड़ागाँव, आँबखेड़ी तथा बुलन्दशहर जिले में स्थित लाल किला एवं इटावा जिले में स्थित सेफई आदि एकाकी संस्कृति वाले पुरास्थलों के उत्खनन से भी इस प्रकार के पात्र-खंड प्राप्त हुए हैं। इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि इस प्रकार के पात्र-खंडों के साथ किसी पुरातात्त्विक उत्खनन में अभी तक सेफई (Saipai) से ही ताम्र-निधियों से सम्बद्ध एक उपकरण प्राप्त हुआ है। सेफई में धरताल से 45 सेमी की गहराई के स्तर से गैरिक मृद्भाण्डों के साथ एक मत्स्य-भाला पुरातात्विक उत्खनन में प्राप्त हुआ

गैरिक मृद्भाण्ड की विशेषताएँ

  1. विस्तार- गैरिक मृद्भाण्ड परम्परा का प्रसार पंजाब, हरियाणा, उत्तरी राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में मुख्य रूप से मिलता है। उत्तर प्रदेश में इसका प्रसार सहारनपुर जिले में हरिद्वार के पास स्थित बहदराबाद से लेकर लगभग 300 किमी दक्षिण-पश्चिम में राजस्थान के भरतपुर जिले में स्थित नोह तक मिलता है। इसी प्रकार पश्चिम में पंजाब के जालन्धर जिले के कतपलाँव (Katpalon) से लेकर पूर्व दिशा में लगभग 450 किमी की दूरी पर स्थित उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के अहिच्छत्र नामक पुरास्थल तक मिलता है। सन् -1979-80 के उत्खनन सत्र के दौरान इलाहाबाद जिले में स्थित श्रृंगवेरपुर के टीले के सब से निचले स्तरों से गैरिक मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार फिलहाल श्रृंगवेरपुर के पुरास्थल को गैरिक मृद्भाण्डों की सबसे पूर्वी सीमा माना जा सकता है। गैरिक-मृद्भाण्डों से सम्बद्ध पुरास्थलों का अधिकतम घनत्व ऊपरी गांगेय (दोआब) क्षेत्र में मिलता है। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में अभी तक गैरिक मृद्भाण्ड से सम्बन्धित लगभग 80 से अधिक पुरास्थल खोज निकाले गये हैं।
  2. पात्र-प्रकार- हस्तिनापुर के उत्खनन की रिपोर्ट में लाल ने प्रमाणाभाव में गैरिक मृद्भाण्ड के बर्तनों के आकार-प्रकार के सम्बन्ध में कोई निश्चित मत नहीं प्रकट किया था लेकिन अब स्थिति काफी बदल चुकी है। बहदराबाद, बड़ागाँव, लाल किला (बुलन्दशहर), अतरंजीखेड़ा तथा सेफई आदि के उत्खननों से प्राप्त पात्र-खंडों के आधार पर पात्र-प्रकारों के सन्दर्भ में कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है। बर्तनों की गढ़न (Fabric) सर्वत्र एक ही नहीं है। पतले (Thin) एवं मोटे (Thick) दोनों ही प्रकार के बर्तन प्राप्त होते हैं। गैरिक मृद्भाण्ड के बर्तनों के विषय में आम धारणा यह है कि ये बर्तन भली-भाँति एवं ठीक से पके हुए नहीं हैं। अँगुलियों से रगड़ने मात्र से ही चूर-चूर होने लगते हैं। लेकिन इस मत से प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् हँसमुख धीरजलाल सांकलिया सहमत नहीं हैं। उनका मत है कि गैरिक बर्तन कोई मृद्भाण्ड-परम्परा (Ceramic Industry) नहीं है अपितु कतिपय विशिष्ट परिस्थितियों का परिणाम है। सांकलिया का अभिमत है कि ओ०सी०पी० पुरास्थलों के लम्बे समय तक पानी में डूबे रहने (Water -logging) के कारण यह स्थिति हो गई है। यही विशेष कारण है कि इस प्रकार के बर्तन अत्यन्त नाजुक (Fragile) एवं भंगुर (Brittle) हो गए हैं। ये छूने मात्र से धूल में परिवर्तित होने लगते हैं।
  3. चित्रण तथा उत्कीर्ण डिजाइन- गैरिक मृद्भाण्ड के पात्र-खंडों में चित्रकारी तथा उत्कीर्ण रेखांकन (Painting and Incision) दोनों का अभाव था लेकिन अब इस स्थिति में काफी परिवर्तन हो चुका है। अतरंजीखेड़ा और लाल किला (बुलन्दशहर) से प्राप्त गैरिक पात्र- खण्डों की लाल सतह पर काले रंग से चित्रण मिलते हैं जैसे घड़ों (Vases) में गले के ऊपर एक चौड़ी काली पट्टी, कभी-कभी अन्य बर्तनों के ऊपरी या निचले बाहरी भाग में गहरी काली पट्टी (Thick band) समानान्तर पट्टियों (Parallel Bands) के अन्दर आड़ी जाली के चौखाने (Chickred Fattern) मिलते हैं। लाल किला से प्राप्त एक पात्र-खण्ड पर बना हुआ ककुदमान वृषभ भी उल्लेखनीय है।

उत्कीर्ण अलंकरण (Incised decoration) अतरंजीखेड़ा, लाल किला, मानपुर और पंजाब के कतपलाँव से प्राप्त गैरिक-पात्र खण्डों में मिले हैं। प्रमुख उत्कीर्ण अलंकरणों में अँगुली के नाखून से उत्कीर्ण अलंकरण (Finger nail incision) खाँचेदार अलंकरण, (Notched designs) लहरदार रेखाएँ (Wavy lines) पत्ती के आकार अथवा अंग्रेजी अक्षर वी के आकार के अलंकरण (Leaf or V Shaped pattern), टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ (Zigzag dashes), समानान्तर रेखाएँ (Parallel lines) विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं।

  1. कालानुक्रम- दोआब के गांगेय क्षेत्र में कृष्ण-लोहित (Black and Red) तथा चित्रित धूसर मृद्भाण्डों के पूर्व गैरिक मृद्भाण्ड प्रचलित थे। अधिकांश पुरास्थल जिनका उत्खनन किया गया है वे केवल एकाकी संस्कृति वाले पुरास्थल हैं। ऐसी स्थिति में उनके आधार पर स्तरीकरण की सहायता से तिथिक्रम निर्धारण बहुत सरल काम नहीं है। हस्तिनापुर के उत्खनन से इस प्रकार के पात्रों के सबसे निचले स्तरों से प्राप्त होने के कारण उत्खाता लाल ने इनका समय 1200 ई०पू० के पहले अनुमानित किया है। नोह, अतरंजीखेड़ा एवं अहिच्छत्र तथा श्रृंगवेरपुर की खुदाइयों से भी इस प्रकार के पात्र-खण्ड आधारभूत सबसे निचले स्तरों से प्राप्त हुए है। गैरिक मृद्भाण्डों का काल-क्रम अनुमानपरक ढंग से इस प्रकार पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर तेरहवीं-बारहवीं शताब्दी ई०पू० के लगभग निर्धारित किया जा सकता है।

उष्मा दीप्ति तिथियाँ- अभीतक गैरिक मृद्भाण्डों की कोई भी रेडियो कार्बन (C 14) तिथि उपलब्ध नहीं है। आक्सफोर्ड पुरातत्व अनुसंधान प्रयोगशाला के डॉ० हक्सटेबल ने उत्तर प्रदेश में स्थित गैरिक मृद्भाण्डों के पुरास्थलों की निम्नलिखित उष्मादीप्ति तिथियाँ निर्धारित की हैं-

अतरंजीखेड़ा  –  1690 ई०पू०  ±

झिंझना  –  2079 ई०पू०  ±

नसीरपुर  –  1340 ई०पू०  ± 10%

लाल किला  –  1800 ई०पू०  ±

ये उष्मा-दीप्ति तिथियाँ अतरंजीखेड़ा को छोड़कर शेष उन पुरास्थलों के गैरिक मृद्भाण्डों पर आधारित हैं जो मात्र एक पुरातात्विक संस्कृति वाले हैं। इसके अलावा एक ही स्थल की विभिन्न स्तरों के पात्र-खण्डों की उष्मा दीप्ति तिथियों के सुसंगत तथा क्रमबद्ध होने पर ही इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहा जा सकता है।

गैरिक मृद्भाण्डों के निर्माता- गैरिक मृद्भाण्डों के निर्माताओं एवं प्रयोक्ताओं के विषय में बहुत अधिक मतभेद हैं। जो विद्वान् गैरिक मृद्भाण्डों का सम्बन्ध ताम्र-निधियों से जोड़ते हैं, वे इन्हें गंगाघाटी के मूल निवासियों की कृति मानते हैं। अन्य विद्वान् इन मृद्भाण्डों का सम्बन्ध परवर्ती हड़प्पा या सैंधव संस्कृति के लोगों से बतलाते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि ये मृद्भाण्ड किसी एक खास संस्कृति के उपादान न होकर गैरिक एवं लाल मृद्भाण्ड प्रयोग करने वाली अनेक संस्कृतियों के द्योतक हैं।

  1. सम्बद्ध पुरानिधियाँ- गैरिक मृद्भाण्डों के साथ सम्बद्ध पुरानिधियों की संख्या बहुत कम है। ताम्रनिधियों के उपकरण समूह में से अधिकांश परिस्थितिजन्य प्रमाणों के आधार पर ही गैरिक मृद्भाण्डों से सम्बद्ध माने जाते हैं। इटावा में सेफई के उत्खनन से गैरिक मृद्भाण्डों के साथ एक मत्स्य भाला अबश्य प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार अतरंजीखेड़ा में गैरिक मृद्भाण्डों के स्तरों से एक टुकड़े (Potsherd) पर कुछ ताम्र-कण (Copper grains) चिपके हुए मिले हैं। अनुमान किया जाता है कि यह पात्र-खण्ड मूषा (Crucible) अथवा साँचे का टुकड़ा है। बड़ागाँव के उत्खनन से तांबे का एक उसी प्रकार का छल्ला (Copper-ring) प्राप्त हुआ है जिस प्रकार के पोण्डी और बादराबाद से प्राप्त ताम्रनिधियों में मिले हैं।
  2. मृणमूर्तियाँ- सहारनपुर जिले में स्थित आँबखेड़ी से मिट्टी की बनी हुई कई वस्तुएँ मिली हैं जैसे डीलदार (ककुदमान) बैल की मृणमूर्ति, खिलौना गाड़ी का केन्द्रीय नाभि वाला पहिया तथा मृत्पिण्ड आदि। इसी प्रकार बड़ागाँव से गोल मृत्पिण्ड, खिलौना गाड़ी का पहिया, प्रस्तर के बाट तथा कांचली मिट्टी (Faience) की बनी हुई चूड़ियाँ प्राप्त हुई हैं। मानव मृण्मूर्तियाँ बहुत कम मिली हैं। लाल किला से प्राप्त मातृदेवी की मृणमूर्ति इस सन्दर्भ में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है। यह सुविदित ही है कि पूर्ववर्ती हड़प्पा सभ्यता के कतिपय पुरास्थलों से बहुसंख्यक मृणमूर्तियाँ मिली हैं।
  3. कृषि तथा पशु-पालन- अतरंजीखेड़ा के गैरिक मृद्भाण्ड वाले स्तरों से धान, जौ तथा दालों के कार्बनीकृत दाने प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार ऊपरी गंगाघाटी में यह साक्ष्य कृषि-कार्य प्राचीनतम प्रमाण हैं। इनके अतिरिक्त सिल-बट्टे भी प्राप्त हुए हैं जो अनाज के दानों को पीसने के सूचक हैं। बड़े-बड़े मटके और घड़े भी सम्भवतः अनाज-भण्डारण के लिए उपयोग में आते रहे होंगे।

सेफई तथा लाल किला के उत्खननों से पशुओं की कुछ हड्डियाँ प्राप्त हुई हैं। सेफई से प्राप्त हड्डियों में से बैल की पसलियाँ (Ribs of Bos indicus) उल्लेखनीय हैं। लालकिला से प्राप्त पसुओं की हड्डियों में से अधिकांश या तो अधजली (Charred) हैं अथवा उनमें हलाल करने के निशान (Cut marks) हैं। लाल किला से प्राप्त एक पात्र खण्ड पर ककुदमान वृषभ का चित्र भी इस सन्दर्भ में

  1. मकान- गरिक मृद्भाण्ड के किसी भी पुरास्थल से मकान की रूपरेखा (Plan) नहीं मिली हैं। लाल किला से मिट्टी के कुछ लोदों पर नरकुल की छाप मिली है जिनसे यह संकेत मिलता है कि मकानों का निर्माण बाँस-बल्ली एवं घास-फूस की सहायता से किया जाता था। लाल किला से एक मकान की फर्श का साक्ष्य मिला है। यह फर्श मिट्टी के बर्तनों के टुकड़ों को कूट कर बनाया गया था तथा ऊपर से मिट्टी का पलस्तर (Plaster) करके चिकना किया गया था।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि गैरिक मृद्भाण्ड परम्परा ऊपरी गंगा घाटी में ग्राम्य जीवन का सबसे पहला उदाहरण प्रस्तुत करती है किन्तु अधिकांश पुरास्थल एकाकी संस्कृति वाले हैं। पुरास्थलों पर सांस्कृतिक जमाव का स्तर बहुत मोटा नहीं मिलता है। पुरास्थल भी एक-दूसरे से पर्याप्त दूरी पर स्थित हैं। इससे यह इंगित होता है कि उस समय मानव की आबादी अत्यन्त विरल थी। लम्बे समय तक एक ही स्थान पर एक संस्कृति के लोग लगातार नहीं निवास करते थे बल्कि अपनी बस्तियाँ बदलते रहते थे। गैरिक मृद्भाण्ड परम्परा के विभिन्न पक्षों के विषय में पुरातात्त्विक जानकारी नितान्त अपेक्षित है। आशा की जाती है कि पुराविद् इसके विभिन्न पक्षों से जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिए निकट भविष्य में अपेक्षित पुरातात्त्विक साक्ष्य जुटाने में सफल हो सकेंगे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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