ऋग्वैदिक काल की आर्थिक दशा | economic conditions of Rigvedic period in Hindi
ऋग्वैदिक काल की आर्थिक दशा | economic conditions of Rigvedic period in Hindi
ऋग्वैदिक काल की आर्थिक दशा (ऋग्वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति)–
अपने समस्त अंगों तथा उपादानों में पूर्ण थी। आनन्द एवं उल्लास पूर्ण जीवन के लिये आर्थिक समृद्धता तथा प्रगति एक आवश्यक शर्त होती है इस सन्दर्भ में हम तत्कालीन आर्थिक दशा का वर्णन निम्नलिखित रूप से कर सकते हैं-
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कृषि-
यदि आर्य किसी विदेशी भूमि से भारत आये थे तो इस आगमन का उद्देश्य अतिरिक्त भूमि की प्राप्ति तथा दैनिक जीवन की सामग्री प्राप्त करना था। अतिरिक्त भूमि की प्राप्ति के प्रायः दो उद्देश्य होते हैं- पहला कृषि योग्य भूमि की प्राप्ति तथा दूसरा निवास तथा उपयुक्त आवश्यकताओं की पूर्ति। भारत में आकर आर्यों ने वन्य प्रदेशों को साफ करके अनेक ग्रामों की स्थापना की। सम्पूर्ण ऋग्वेद में कहीं पर नगरों का उल्लेख न किया जाना यह प्रमाणित करता है कि आर्य ग्राम्य सभ्यता के संस्थापक थे तथा कृषि उनका प्रमुख उद्यम था। ग्रामीण आर्यों के निवास उनके खेतों के निकट होते थे तथा घरों की भाँति खेत व्यक्तिगत सम्पत्ति थे। आर्यों के निर्वाह तथा उद्यम का स्रोत कृषि थी। ऋग्वेद में ‘कृषि’ शब्द का अतिशय प्रयोग उनकी कृषि प्रधानता का बोध कराता है। ऋग्वैदिक देवता कृषिकर्म में भाग लेते हुए तथा सहायता प्रदान करते हुए वर्णित किये गये हैं। कृषि एवं कृषिकर्म में प्रयुक्त किये जाने वाले उपकरणों के नाम यह प्रमाणित करते हैं कि उस काल में कृषिकर्म आर्थिक प्रयास एवं प्राप्ति का प्रमुख स्रोत थे। गेहूं जौ, चावल, विभिन्न फलों तथा तरकारियों की उपज का ज्ञान था। वे उर्वरकों का प्रयोग करके सिंचाई की विभिन्न व्यवस्थाएं करते थे। ऋग्वेद में अच्छी खेती के लिये देवताओं से याचना की गई है।
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पशुपालन-
ऋग्वेद में धन के रूप में ‘पशुधन’ का उल्लेख किया जाना तथा पशुधन की वृद्धि के लिये देवताओं से प्रार्थना किया जाना यह प्रमाणित करता है कि पशुपालन आर्यों का प्रमुख उद्यम था। गाय मुद्रा की भाँति समझी जाती थी तथा वह क्रय-विक्रय का भी माध्यम थी। साँड तथा बैल का प्रयोग खेत जोतने तथा सामान ढोने के लिये किया जाता था। ऋग्वेद में ‘अवि’ (भेड़) तथा ‘अजा’ (बकरी) का भी उल्लेख मिलता है। अश्व भी उपयोगी तथा पालतू पशु था।
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व्यापार-
ऋग्वेद के अनेक प्रसंगों तथा उल्लेखों से विदित होता है कि उस समय व्यापार के क्षेत्र में प्रचुर क्रियाशीलता थी। व्यापारियों को ‘वणिक’ कहा जाता था। वणिक बड़े पैमाने पर वस्तुओं का क्रय करके उन्हें लाभ लेकर विक्रय करते थे। व्यापारिक सामग्री के लाने ले जाने के लिए नावों, रथों तथा भार ढोने वाले पशुओं का प्रयोग किया जाता था। वस्त्र, आभूषण, खाद्य सामग्री तथा बहुमूल्य धातुओं का व्यापार प्रमुख था। ऋग्वेद में ‘गण’ तथा ‘व्रात’ शब्दों का उल्लेख प्रायः व्यापारिक संघों के लिये किया गया है। इस समय विदेशी व्यापार होने का कोई प्रमाण नहीं मिल पाया
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गृह-उद्योग तथा अन्य व्यवसाय-
आर्य कलाकौशल में दक्ष थे ही, साथ ही वे गृह उद्योग द्वारा निर्मित सामग्री एवं उपकरणों का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में करते थे। ऋग्वेद में तन्तुकार (जुलाहों), हिरण्यकार (स्वर्णकार), तक्षण (बढ़ई), चर्मकार, लुहार तथा वैद्यों आदि का नामोल्लेख मिलता है। शिल्पकार, दस्तकारों तथा कारीगरों को काफी महत्व प्राप्त था। कर्म के आधार पर कोई भी हीन नहीं समझा जाता था।
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विनिमय के साधन-
श्री आप्टे महोदय का विचार है कि ‘पशुओं का प्रयोग मूल्य के प्रमाण अथवा विनिमय के माध्यम के लिये होता था।’ ऋग्वेद में पशुधन का उल्लेख भी यह संकेत देता है कि पशु विनिमय साधन रहा होगा। ऋग्वेद में ‘निष्क’ शब्द का उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वान ‘निष्क’ को मुद्रा मानते हैं तो कुछ अन्य विद्वान इसे किसी प्रकार का आभूषण स्वीकार करते हैं। मुद्राशास्त्रियों में निष्क के अर्थ पर प्रचुर मतभेद है। क्योंकि निष्क का भार निश्चित होता था अतः संभव है कि इसका प्रयोग मुद्रा के रूप में किया जाता रहा हो। ऋग्वेद के एक उल्लेखानुसार एक राजा पुरोहित को दस ‘हिरण्यपिण्ड’ दान में देता था। दस ‘हिरण्यपिण्ड’ की संख्या के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ये सभी एक तौल के रहे होंगे। डा० भण्डारकर का मत है कि ‘निष्क’ निश्चित माप की चित्रित तथा अंकपूर्ण मुद्रा थी तथा ‘हिरण्यपिण्ड’ पिटे हुए स्वर्ण का निश्चित टुकड़ा था। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि इस समय निश्चित मापतौल का ज्ञान था तथा वस्तु विनिमय के अलावा लेनदेन के कार्यों में मुद्रा का भी प्रयोग किया जाता था।
सामान्य आर्थिक दशा-
ऋग्वेद की ऋचाओं से जिससे राजनैतिक जीवन का शाब्दिक अर्थ हमारे सामने उभरता है उससे प्रतीत होता है कि प्रजा का सामान्य जीवन सुख समृद्धिपूर्ण था। प्रश्न उठता है कि ऋग्वैदिक जन के इस सुख एवं समृद्धि के क्या कारण थे? इस प्रश्न का उत्तर हमें तत्कालीन आर्थिक दशा के समुन्नत तथा विकसित होने में मिलता है। ऋग्वैदिक समाज में आर्थिक विषमता नहीं थी। कर्म प्रधान होने के कारण सभी आर्थिक कर्म समानरूप से आदरणीय थे। उदारता, दानशीलता एवं सहानुभूति के कारण ऋग्वैदिक काल में न तो आर्थिक विषमता थी और न ही आर्थिक असमानता। यूं, थोड़ा बहुत आर्थिक अन्तर होना तो स्वाभाविक ही है।
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
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- ऋग्वैदिक सभ्यता की सामाजिक दशा | Social Condition of Rigvedic Civilization in Hindi
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