हैबरलर का अवसर लागत सिद्धान्त | अवसर लागत सिद्धान्त | अवसर लागत सिद्धान्त की मान्यताएं | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का अवसर लागत सिद्धान्त

हैबरलर का अवसर लागत सिद्धान्त | अवसर लागत सिद्धान्त | अवसर लागत सिद्धान्त की मान्यताएं | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का अवसर लागत सिद्धान्त

हैबरलर का अवसर लागत सिद्धान्त

रिकार्डो के तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के अनुसार श्रम ही उत्पादन का एकमात्र साधन है, श्रम समरूप होता है, और सब वस्तुओं के उत्पादन में श्रम का उपयोग एक-से स्थिर अनुपातों में किया जाता है। परन्तु ये सब मान्यताएं अवास्तविक हैं क्योंकि (i) श्रम ही उत्पादन का एकमात्र साधन नहीं है क्योंकि वस्तुओं का उत्पादन अन्य साधनों जैसे भूमि, पूंजी एवं अन्य संसाधनों के संयोग से होता है, (ii) श्रम समरूप नहीं बल्कि विभिन्नरूपीय होता है, जिसमें श्रम कई अप्रतियोगी वर्गों के विभिन्न प्रकार एवं श्रेणियों में बंटा होता है; और अन्तिम, विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में श्रम अलग-अलग अनुपातों में काम में लाया जाता है और श्रम को पूंजी के बदले और पूंजी को श्रम के बदले स्थानापन्न किया जा सकता है। अपनी पुस्तक The Theory of International Trade में हैबरलर का अवसर लागत सिद्धान्त इन कमियों को पूरा करता है। और जिस रूप में तुलनात्मक लागतों के सिद्धान्त की व्याख्या करता है। उसे उसने ‘स्थानापन्नता वक्र’ कहा है। इस स्थानापन्नता वक्र को सैम्युल्सन ने ‘उत्पादन संभावना वक्र’ अथवा ‘रूपान्तरण वक्र और लर्नर (Lerner) ने इसे ‘उत्पादन उदासीनता वक्र’ अथवा उत्पादन सीमा नाम दिया है।

अवसर लागत सिद्धान्त (Theory of Opportunity Cost)

यदि कोई देश वस्तु X अथवा वस्तु Y का उत्पादन कर सकता है तो X वस्तु को अवसर लागत दूसरी वस्तु Y की इस मात्रा के बराबर होगी जो उसे वस्तु X की एक अतिरिक्त इकाई प्राप्त  करने के लिए छोड़नी पड़ेगी। इस प्रकार, दोनों वस्तुओं की परस्पर विनिमय दर उनकी अवसर लागतों के रूप में व्यक्त की जाती है। अन्तरराष्ट्रीय व्यापार सिद्धान्त में उत्पादन संभावना वक्रों के साथ अवसर लागतों का सिद्धान्त चित्रित किया गया है।

अवसर लागत सिद्धान्त की मान्यताएं –

हैबरलर ने अपने सिद्धान्त के लिए निम्नलिखित मान्यताएं रखी हैं-

(1) केवल दो ही देश हैं, A तथा B।

(2) प्रत्येक देश के पास उत्पादन के दो साधन हैं, श्रम तथा पूंजी।

(3) प्रत्येक देश दो वस्तुओं X तथा Y का उत्पादन कर सकता है।

(4) साधन तथा वस्तुओं बाजार दोनों में ही पूर्ण प्रतियोगिता है।

(5) प्रत्येक वस्तु की कीमत उसकी सीमान्त मुद्रा लागतों के बराबर है।

(6) प्रत्येक साधन की कीमत प्रत्येक रोजगार में उसके सीमान्त उत्पादकता मूल्य के बराबर है।

(7) प्रत्येक साधन की पूर्ति स्थिर है।

(8) प्रत्येक देश में पूर्ण रोजगार है।

(9) प्रौद्योगिकी में कोई परिवर्तन नहीं होता।

(10) दोनों देशों में साधन अगतिशील हैं।

(11) देशों के भीतर साधन पूर्ण रूप से गतिशील हैं।

(12) दोनों देशों के बीच व्यापार पूर्ण रूप से स्वतन्त्र और अबाधित हैं।

इन मान्यताओं के दिये हुये होने पर, उत्पादन संभावना वक्र बताता है कि कोई देश उपलब्ध प्रौद्योगिकी के साथ उत्पादन के साधनों का पूर्ण उपयोग करते हुए दोनों वस्तुओं के अधिकतम दक्षता से कितने विविध वैकल्पिक संयोग बना सकता है। उत्पादन संभावना वक्र की ढलान एक वस्तु की उस मात्रा को मापती है जो देश को दूसरी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई प्राप्त करने के लिए छोड़नी पड़ेगी। दूसरे शब्दों में, उत्पादन संभावना वक्र की ढलानं उसकी रूपान्तरण की सीमान्त दर (MRT) है।

विभिन्न लागत स्थितियों के अन्तर्गत उत्पादन संभावना वक्र का रूप यह निर्धारित करता है कि अवसर लागत सिद्धान्त के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के आधार और उससे प्राप्त होने वाले लाभ क्या हैं। यदि X की अतिरिक्त मात्रा प्राप्त करने कि लिए Y की छोड़ी जाने वाली अपेक्षित मात्रा स्थिर रहती है, तो उत्पादन संभावना वक्र एक सरल रेखा होगा और वह वक्र बताएगा कि अवसर लागतें स्थिर रहती हैं। यदि X की अतिरिक्त मात्रा प्राप्त करने के लिए Y की अपेक्षाकृत अधिक मात्रा छोड़नी पड़ती है, तो उत्पादन संभावना वक्र मूल बिन्दु की ओर नतोदर होगा और बताएगा कि अवसर लागतें बढ़ रही हैं। और अन्तिम, यदि X की अतिरिक्त मात्रा प्राप्त करने के लिए Y की अपेक्षाकृत कम मात्रा छोड़नी पड़ती है तो उत्पादन संभावना वक्र मूल बिन्दु की ओर उन्नतोदर होगा जो बताता है कि अवसर लागतें घट रही हैं।

स्थिर अवसर लागतों के अन्तर्गत व्यापार

स्थिर अवसर लागतों के अन्तर्गत उत्पादन संभावना वक्र एक सरल रेखा होती है। चित्र में PA देश A का और PB देश B का उत्पादन संभावना वक्र है। देश A या तो Y वस्तु की OP मात्रा अथवा X वस्तु की OA मात्रा का उत्पादन कर सकता है और इसी प्रकार B देश Y की OP अथवा X की OB मात्रा का उत्पादन कर सकता है। यदि वे चाहते हैं कि दोनों वस्तुओं का उत्पादन करें, तो उन्हें अपने-अपने उत्पादन संभावना वक्रों पर किसी एक ही बिन्दु पर स्थित होना पड़ेगा।

उदाहरणार्थ, E बिन्दु पर देश B वस्तु X की OX1 मात्रा और वस्तु Y की OY1 मात्रा का उत्पादन कर सकता है। क्योंकि उत्पादन संभावना वक्र की ढलान दोनों वस्तुओं की सापेक्ष कीमतों को निर्धारित करती है, इसलिए सरल रेखा वक्र के सब बिन्दुओं पर वे कीमतें एक जैसी होंगी। इसका कारण यह है कि एक वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई प्राप्त करने के लिए दूसरी वस्तु की एक इकाई छोड़ने की अवसर लागत स्थिर है। इस प्रकार, दोनों वस्तुओं का लागत अनुपात (अथवा सापेक्षा कीमतें) देश B में OP/OB और देश A में OP/OA हैं।

क्योंकि दोनों देशों में सापेक्ष कीमतें भिन्न-भिन्न हैं, इसलिए दोनों देशों के बीच व्यापार हो सकता है। A और B दोनों देशों को लीजिए। दोनों ही Y की समान मात्रा अर्थात् OP का उत्पादन कर सकते हैं परन्तु देश A वस्तु X की अधिक मात्रा का उत्पादन कर सकता है। देश B के वस्तु X के OB उत्पादन के मुकाबले देश A वस्तु X काOA उत्पादन कर सकता है। इसलिए देश B के मुकाबले देश A में X वस्तु सस्ती होगी, और देश A की अपेक्षा देश B में Y वस्तु अधिक सस्ती होगी। इसलिए वस्तु X के उत्पादन में देश A को और वस्तु Y के उत्पादन में देश B को तुलानात्मक लाभ है। ऐसी परिस्थितियों में देश A वस्तु X के उत्पादन में विशिष्टीकरण करेगा और उसे देश B को निर्यात करेगा। उधर देश B वस्तु Y के उत्पादन में विशिष्टीकरण करेगा और उसे देश A को निर्यात करेगा।

मान लीजिए कि देश B देश A से छोटा है और देश A से व्यापार करने लगता है। क्योंकि देश A बड़ा देश है इसलिए मान लीजिए कि PA वक्र द्वारा व्यक्त किया गया उसका आन्तरिक कीमत अनुपात देश B के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कीमत अनुपात है। व्यापार शुरू होने से पहले, देश B अपनी घरेलू कीमत रेखा PB के बिन्दु, E पर उपभोग एवं उत्पादन कर रहा था। यह बिन्दु E से चलकर बिन्दु P पर पहुँच सकता है और इस बिन्दु P पर उत्पादन कर सकता है। यह नई अन्तर्राष्ट्रीय कीमत रेखा PA पर अपने उपभोग को बिन्दु E से बढ़ाकर बिन्दु C पर ले जा सकता है, जहां पर कि यह PA रेखा द्वारा व्यक्त अन्तर्राष्ट्रीय कीमत पर देश A को Y की TC मात्रा निर्यात करके और उसके बदले वस्तु X की PT मात्रा का आयात करके उपभोग कर सकता है। इसलिए देश A से व्यापार शुरू करने के बाद देश B को निश्चय से लाभ हुआ है।

परन्तु देश B के साथ व्यापार शुरू करने के कारण देश A को लाभ नहीं हुआ है, क्योंकि व्यापार से पहले या बाद में देश A में वस्तु X तथा वस्तु Y की सापेक्ष कीमतों में परिवर्तन नहीं हुआ है जैसा कि PA रेखा से पता चलता है। वास्तव में “यह तो हो सकता है कि दोनों देशों में किसी एक देश के लिए व्यापार के बाद भी कीमत वही रहे जो व्यापार से पहले थी, पर दोनों देश एक ही कीमत पर व्यापार करते हैं। क्योंकि व्यापार से पहले कीमत भिन्न-भिन्न थी और व्यापार के बाद समान है इसलिये कम से कम एक देश में तो कीमत में अवश्य ही परिवर्तन हुआ होगा। हाँ, यह भी सम्भव है कि दोनों देशों के लिए व्यापार के बाद की कीमतें व्यापार-पूर्व कीमतों से भिन्न हों।”

अब देश B की व्यापार से पहले और बाद की स्थिति चित्र में दिखाई गई है जिसमें PR नयी अन्तर्राष्ट्रीय कीमत रेखा है। व्यापार से पहले यह देश दोनों वस्तुओं का उपभोग एवं उत्पादन बिन्दु E पर कर रहा था। व्यापार के बाद यह बिन्दु P पर वस्तु Y के उत्पादन में विशेषीकरण करता है और इसका उपभोग स्तर बिन्दु E से सरक कर नयी कीमत रेखा PR के बिन्दु C पर पहुँच जाता है। अब यह वस्तु X के PT आयात के बदले देश A को वस्तु Y की TC मात्रा निर्यात करेगा। ऐसी स्थिति में देश B को उतना लाभ नहीं होगा जितना कि पिछले उदाहरण में था, परन्तु देश A को निश्चय ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से लाभ होगा।

बढ़ती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत व्यापार

स्थिर अवसर लागतों का जो विश्लेषण ऊपर प्रस्तुत किया गया है वह इन मान्यताओं पर आधारित है कि दोनों वस्तुओं के उत्पादन के लिए पूर्ण स्थानापन्नता के कारण उत्पादन के साधन एक समान निश्चित अनुपातों में प्रयोग में लाए जाते हैं और उत्पादन के प्रत्येक साधन की सभी इकाईयां समरूप हैं। परन्तु ये मान्यताएं अयथार्थिक हैं। वस्तुत: दो वस्तुओं के उत्पादन में उत्पादन के साधन एक-दूसरे के बदले स्थानापन्न नहीं किये जा सकते। और फिर कुछ साधन एक वस्तु की अपेक्षा दूसरी के उत्पादन के लिए अधिक उपयुक्त होते हैं। उदाहरणार्थ, “यदि गेंहू या कपड़े के उत्पादन में संसाधन समान रूप से दक्ष नहीं है, परन्तु कुछ साधन जैसे भूमि और बाहर काम करने वाले व्यक्ति गेहूँ के उत्पादन में कुशल हैं, और अन्य जैसे तकली, खड्डी, और शहरी लोग कपड़ा बनाने में कुशल हैं, तो हमारे सामने बढ़ती हुई अवसर लागतों की स्थिति आएगी। कुछ संसाधन गेहूँ अथवा कपड़े के उत्पादन में समान रूप से ढाले जा सकते हैं।

बढ़ती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत उत्पादन संभावना वक्र मूल बिन्दु की ओर नतोदर होता है क्योंकि जब कोई देश किसी ऐसी वस्तु के उत्पादन में विशिष्टीकरण करता है जिसके उत्पादन में उसे तुलनात्मक लाभ हो, तो उसकी अवसर लागतें बढ़ती जाती हैं। चित्र के भाग (A) में, AA1 देश A का उत्पादन संभावना वक्र है जो मूल बिन्दु की ओर नतोदर है। इसकी ढलान से पता चलता है कि यह देश वस्तु X के उत्पादन में विशिष्टीकरण करेगा। ज्यों-ज्यों हम इस वक्र पर बिन्दु A से बिन्दु A1 की ओर बढ़ेंगे, त्यों-त्यों यह देश वस्तु X की अतिरिक्त इकाइयां प्राप्त करने के लिए वस्तु Y की अधिकाधिक इकाइयों को छोड़ता चलेगा। इस प्रकार ज्यों-ज्यों देश A वस्तु X की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करेगा जिसमें कि इसने विशिष्टीकरण किया है, त्यों-त्यों इसे बढ़ती हुई अवसर लागतों का सामना करना पड़ेगा।

दूसरी ओर चित्र का भाग (B) बताता है कि B देश का उत्पादन संभावना वक्र BB1 है । इस वक्र की ढलान से पता चलता है कि यह देश वस्तु Y के उत्पादन में विशिष्टीकरण करेगा। हम ज्यों-ज्यों इस वक्र पर बिन्दु B1 से बिन्दु B की ओर बढ़ेंगे, त्यों-त्यों यह देश वस्तु Y की अतिरिक्त इकाइयों का उत्पादन करने के लिए X की अधिकाधिक इकाइयों को छोड़ता चलेगा। इस प्रकार ज्यो-ज्यों देश B वस्तु Y की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करता है जिसमें कि इसने विशिष्टीकरण किया है, त्यों-त्यों इसे बढ़ती हुई अवसर लागतों का सामना करना पड़ता है।

मान लीजिए कि विदेशी व्यापार के अभाव में देश A वस्तु X तथा Y दोनों की कुछ मात्राओं को बिन्दु K पर उत्पादन तथा उपभोग करता है, जहाँ पर कि aa रेखा उत्पादन सम्भावना वक्र AA1 को स्पर्श करती है (चित्र के भाग A में) | aa रेखा X तथा Y की घरेलू सापेक्ष वस्तु कीमतों को व्यक्त करती है। इसी प्रकार देश B वस्तु X तथा Y की कुछ मात्राओं को बिन्दु K1 पर उत्पादन तथा उपभोग करता है जहां पर कि इसकी कीमत रेखा bb इसके उत्पादन संभावना वक्र BB1 को स्पर्श करती है जैसा कि चित्र B में दिखाया गया है।

अब मान लीजिए कि दोनों देश एक-दूसरे के साथ व्यापार करने का निर्णय करते हैं। यह तभी संभव है जब दोनों वस्तुओं का अन्तर्राष्ट्रीय कीमत अनुपात प्रत्येक देश के घरेलू बाजार में चालू कीमत अनुपात से भिन्न हो। अब हम यह मान लेते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय कीमत अनुपात (अथवा

व्यापार की शर्तों को) देश A में PL रेखा और देश B में P1L1 रेखा बताती है। क्योंकि PL रेखा P1L1 रेखा के समान्तर है, इसलिए दोनों देशों के लिए व्यापार शर्ते एक समान हैं।

पहले देश A को लीजिए जहां कीमत रेखा PL द्वारा निर्धारित नया संतुलन बिन्दु E है, जैसा कि चित्र (A) में दिखाया गया है। इसका मतलब है कि घरेलू बाजार के मुकाबले अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में वस्तु X अधिक महंगी हो गयी है। इसका कारण यह है कि घरेलू कीमत रेखा aa की अपेक्षा PL की ढलान अधिक है।

परिणामस्वरूप देश A का लाभ इस बात में है कि वह अपने उत्पादन के कुछ साधन Y के उत्पादन से हटाकर X के उत्पादन में लगा दे जिसके लिए उसे अपना उत्पादन स्तर उत्पादन संभावना वक्र पर बिन्दु K से बिन्दु E पर ले जाना होगा जहाँ पर कि अन्तर्राष्ट्रीय कीमत रेखा PL स्पर्शज्या है। इस प्रकार देश A वस्तु X की OR तथा वस्तु Y की OQ मात्रा का उत्पादन करेगा। देश A का उपभोग बिन्दु कीमत रेखा PL पर C होगा। तब यह X की TR मात्रा का निर्यात और Y की QS मात्रा का आयात करेगा, और घरेलू रूप से X की OT तथा Y की Qs मात्रा का आयात करेगा, और घरेलू रूप से X की OT तथा Y की 0Q मात्रा का उपभोग करेगा। इसके निर्यात और आयात को “व्यापार त्रिभुज” CDE द्वारा भी दिखाया जा सकता है जहां DE (=TR) इसका वस्तु X को निर्यात और DC(=QS) और वस्तु Y का आयात है। इसी प्रकार इसका वस्तु X का उपभोग QD(=OT) और वस्तु Y का उपभोग TD (=OQ) है। इस प्रकार व्यापार के परिणामस्वरूप देश A, वस्तु X तथा Y दोनों की अधिक मात्राओं का उपभोग कर सकता है क्योंकि बिन्दु C बिन्दु K से ऊपर और दायीं ओर है।

देश B को लीजिए जहां अन्तर्राष्ट्रीय कीमत रेखा PILI उत्पादन संभावना वक्र BB1 को बिन्दु E1 पर स्पर्श करती है जैसा कि चित्र (B) में दिखाया गया है। इसका मतलब है कि घरेलू बाजार की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में वस्तु Y अधिक महंगी हो गई है। इसका कारण यह है कि घरेलू कीमत रेखा bb की अपेक्षा P1L1 की ढलान कम तिरछी है। इसलिए देश B का लाभ इस बात में है कि वह अपने कुछ संसाधनों को वस्तु X के उत्पादन से हटाकर वस्तु Y के उत्पादन में लगा दे जिसके लिए उसे अपना उत्पादन स्तर उत्पादन संभावना वक्र पर बिन्दु K1 से बिन्दु E1 पर लाना होगा। तब यह Y की OQ1 तथा X की OR1 मात्रा का उत्पादन करेगा। देश B का उपभोग बिन्दु C1 कीमत रेखा P1L1 पर होगा। यह व्यापार त्रिभुज E1D1C1 पर X की D1C1 मात्रा का आयात और Y की D1E1 मात्रा का निर्यात करेगा। और घरेलू रूप से यह Y की OS1 तथा X की OR1 मात्रा का उपभोग करेगा। इस प्रकार देश A के साथ व्यापार के परिणामस्वरूप देश B को भी लाभ होता है क्योंकि वह X तथा Y दोनों वस्तुओं की अधिक मात्रा का उपभोग कर सकता है, क्योंकि व्यापार के बाद उपभोग बिन्दु C1 बिन्दु K1 के ऊपर और दायीं ओर है।

परन्तु बढ़ती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत घटते हुए प्रतिफलों के कारण विशिष्टीकरण हमेशा अधूरा रहता है। इसलिए पूर्ण विशिष्टीकरण के अन्तर्गत होने वाले लाभों की तुलना में अपूर्ण विशिष्टीकरण के अन्तर्गत व्यापार के अपेक्षाकृत कम लाभ होते हैं। फिर, तुलनात्मक लागतों का  नियम केवल बढ़ती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत ही लागू होता है। “दो-वस्तु-जगत् में यदि एक देश दूसरे देश की अपेक्षा दोनों वस्तुओं के उत्पादन में अधिक दक्ष है तो उसे उस वस्तु के उत्पादन पर ध्यान केन्द्रित करने में अधिक लाभ होगा जिसके उत्पादन में उसे तुलनात्मक लाभ अधिक है और उस वस्तु के खरीदने में अधिक लाभ होगा जिसमें उसे तुलनात्मक हानि है। आधारभूत कसौटी यह है कि व्यापार के परिणामस्वरूप उसे अपने विशिष्टीकरण की वस्तु की अधिक कीमत मिलती है अथवा उस वस्तु के बदले कम भुगतान करना पड़ता है जिसके उत्पादन में वह तुलनात्मक रूप से उतना दक्ष नहीं है।”

घटती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत व्यापार

जब दो देशों में घटती हुई अवसर लागतों की स्थिति होती है तो उनके उत्पादन संभावना वक्र मूल बिन्दु की ओर उन्नोतदर होते हैं। घटती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत, व्यापार के बाद प्रत्येक देश केवल एक ही वस्तु के उत्पादन में विशिष्टीकरण करता है। इसका कारण यह है कि उत्पादन के बढ़ते हुए प्रतिफल होते हैं जो उत्पादन की आन्तरिक मितव्ययिताओं पर आधारित होते हैं।

घटती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत व्यापार को चित्र में प्रदर्शित किया गया है जहां AA1 देश A का उत्पादन संभावना वक्र है और BB1 देश B का उत्पादन संभावना चक्र है। व्यापार से पहले देश A का उपभोग और उत्पादन बिन्दु K है जहां इसकी घरेलू कीमत रेखा aa इसके उत्पादन संभावना वक्र AA1 को स्पर्श करती है। इसी प्रकार, देश B का उपभोग और उत्पादन बिन्दु K1 है जहां इसकी घरेलू कीमत रेखा bb इसके उत्पादन संभावना वक्र को स्पर्श करती है। देश A की घरेलू कीमत रेखा aa का ढलान बताता है कि इसे वस्तु X के उत्पादन में अपेक्षाकृत अधिक तुलनात्मक लाभ है। इसी प्रकार देश B के घरेलू कीमत अनुपात bb के ढलान से पता चलता है कि इसे वस्तु Y के उत्पादन में तुलनात्मक लाभ अपेक्षाकृत अधिक है। परन्तु K तथा K1 स्थिर संतुलन के बिन्दु नहीं हैं क्योंकि हर एक देश में प्रत्येक वस्तु के उत्पादन में घटते हुए प्रतिफलों का नियम कार्यशील है। यदि अन्य वस्तु की तुलना में विशिष्टीकरण वाली वस्तु की कीमत में वृद्धि के रूप में थोड़ी- सी भी गड़बड़ी होगी तो उसके परिणामस्वरूप उस देश में पूर्ण विशिष्टीकरण होगा।

मान लीजिए कि दोनों देश आपस में व्यापार शुरू कर देते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय कीमत अनुपात रेखा BA1 है। यह BA1 रेखा देश A की घरेलू कीमत रेखा aa की अपेक्षा अधिक ढलान वाली है। इसका मतलब है कि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में वस्तु X अधिक महंगी हो गयी है। इसलिए देश A पूर्णारूप से वस्तु X के उत्पादन में विशिष्टीकरण करेगा और परिणामस्वरूप अपने सब संसाधनों को इसके उत्पादन में लगा देगा तथा बिन्दु K से चलकर बिन्दु A1 पर पहुँच जाएगा। दूसरी ओर अन्तर्राष्ट्रीय कीमत रेखा BA1 देश B की घरेलू कीमत रेखा bb की अपेक्षा अधिक चपटी है। इसका मतलब है कि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में वस्तु Y अधिक महंगी हो गयी है। इसलिए देश B अपने सब संसाधन वस्त Y के उत्पादन में लगा देगा और पूर्ण रूप से उसके उत्पादन में विशिष्टीकरण करेगा तथा बिन्दु K1 से चलकर बिन्दु B पर पहुँच जायेगा।

इस प्रकार देश A बिन्दु A1 पर वस्तु X के उत्पादन में पूर्ण रूप से विशिष्टीकरण करेगा और देश B बिन्दु B पर वस्तु Y के उत्पादन में पूर्ण रूप से विशिष्टीकरण करेगा। अब प्रत्येक देश अन्तर्राष्ट्रीय कीमत रेखा के साथ-साथ आगे बढ़ेगा, देश A बिन्दु A1 से ऊपर की ओर तथा देश B बिन्दु B से नीचे की ओर जाएगा और दोनों ही उपभोग में बिन्दु C पर पहुँच जायेंगे। देश A व्यापार त्रिभुज CD1A1 वस्तु X की  D1A1 मात्रा देश B को निर्यात करेगा और वहां से वस्तु Y की D1C मात्रा आयात करेगा और स्वयं वस्तु X की OD1 मात्रा उपभोग करेगा। इसी प्रकार, देश B व्यापार त्रिभुज BDC पर देश A को वस्तु Y की DB मात्रा निर्यात तथा वहां से वस्तु X की DC मात्रा आयात करेगा और स्वयं वस्तु Y की OD मात्रा उपभोग करेगा।

घटती तथा बढ़ती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत व्यापार

यह सम्भव नहीं है, कि घटती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत अथवा बढ़ती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत दोनों ही वस्तुओं का उत्पादन किया जा सके। बल्कि स्थिति यह हो सकती है कि जहां वस्तु X का उत्पादन घटती हुई लागतों के अन्तर्गत हो रहा है वहां वस्तु Y का उत्पादन बढ़ती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत हो। उक्त वस्तुओं में से पहले प्रकार की वस्तु अर्थात् X कोई ऐसी विनिर्मित वस्तु हो सकती है जैसे कपड़ा और दूसरी किस्म की (Y) वस्तु कोई कृषि-फसल हो सकती है जैसे चावल। इस स्थिति को चित्र में व्यक्त किया गया है जहां AB वक्र देश A के उत्पादन संभावना वक्नु को प्रदर्शित करता है। इस वक्र का भाग AF नतोदर है जो बढ़ती हुई अवसर लागतों को प्रकट करता है। और भाग FB उन्नतोदर है जो घटती हुई अवसर लागतों को प्रदर्शित करता है। जो बिन्दु इस वक्र AB को दो खण्डों में विभक्त करता है उसे अन्तर्वक्र बिन्दु कहते हैं।

पहले उत्पादन संभावना वक्र के क्षेत्र AF को लीजिए जहां अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार शर्तों की aa रेखा इसे बिन्दु E पर स्पर्श करती है जहां दोनों ही वस्तुएं बढ़ती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत उत्पादित की जाती हैं। देश A वस्तु X की OX तथा वस्तु Y की OY मात्रा का उत्पादन करता है। इसका उपभोग बिन्दु C पर है जिसके परिणामस्वरूप यह X की DC मात्रा का आयात और Y की DE मात्रा का निर्यात करता है। क्योंकि C बिन्दु उत्पादन संभावना वक्र के बाहर है, इसलिए इस देश को दूसरे देश के साथ व्यापार करने से लाभ होता है।

अब मान लीजिए कि आन्तरिक मितव्ययिताओं के कारण वस्तु X का उत्पादन घटती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत होने लगता है और AB वक्र के FB क्षेत्र में उत्पादन संभावना वक्र उन्नतोदर हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप ज्यों-ज्यों वस्तु X का उत्पादन बढ़ता जाता है, त्यों- त्यों उत्पादन की लागत घटती चलती है। देश अन्त में बिन्दु B पर पहुँच जाएगा जहाँ यह पूर्ण रूप से वस्तु X के उत्पादन में विशिष्टीकरण करता है। यह मानकर कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की शर्ते वही रहती हैं जो पहले थीं, हम aa रेखा के समानान्तर bB रेखा खींचते हैं जिससे नया उपभोग बिन्दु B बन जाता है। अब यह देश वस्तु X की NB मात्रा को निर्यात और वस्तु Y की NR मात्रा को आयात करेगा। देश को व्यापार से बिन्दु C की अपेक्षा बिन्दु R पर अधिक लाभ होता है। यह

तभी तक सम्भव है जब तक व्यापार शर्तों की bB रेखा aa रेखा के बायीं ओर रहती है। यदि यह रेखा, aa रेखा के बाएं को चली जाएगी तो देश को हानि होगी और उसके हित में यही ठीक होगा कि वह वस्तु X के उत्पादन में पूर्ण रूप से विशिष्टीकरण न करे और aa रेखा के C जैसे उपभोग बिन्दु पर रहे। यही तर्क देश B पर लागू होता है।

आलोचनात्मक मूल्यांकन

क्लासिकी तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के विकल्प के रूप में अवसर लागत सिद्धान्त अधिक वास्तविक है क्योंकि यह मूल्य के श्रम सिद्धान्त की उन अयथार्थिक मान्यताओं को छोड़ देता है। जिन पर क्लासिकी तुलनात्मक लागत सिद्धान्त आधारित है। अवसर लागत सिद्धान्त स्थिर, बढ़ती हुई तथा घटती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत व्यापार के पहले और व्यापार के बाद की स्थिति का विश्लेषण करता है जबकि तुलनात्मक लागत सिद्धान्त देश के भीतर स्थिर लागतों और दो देशों के बीच तुलनात्मक लाभ तथा हानि पर आधारित है। इस प्रकार विश्लेषणात्मक आधार पर क्लासिकी तुलनात्मक लागत सिद्धान्त की अपेक्षा अवसर लागत सिद्धान्त अधिक श्रेष्ठ है।

जैकब वाइनर (Jacob Viner) ने अपनी पुस्तक Studies in the Theory of International Trade (1937) में मूल्य के वास्तविक लागत सिद्धान्त का समर्थन किया है और अवसर लागत सिद्धान्त की कटु आलोचना की है। वाइनर का मत है कि कल्याण मूल्यांकन के औजार के रूप में क्लासिकी वास्तविक लागत सिद्धान्त की अपेक्षा अवसर लागत सिद्धान्त घटिया हैं। उसका कहना है कि उत्पादक सेवाएं प्रदान करने में “परित्याग”, “अनुपयोगिताओं” अथवा “कठिनाइयों” के रूप में जो वास्तविक लागतें पायी जाती हैं, अवसर लागतों का सिद्धान्त उन्हें मापने में असमर्थ रहता है। वाइनर का यह भी कहना है कि उत्पादन संभावना वक्र “साधन पूर्ति में होने वाले परिवर्तनों तथा आय की तुलना में अवकाश के लिए अधिमानों पर ध्यान नहीं दे सकता।”

परन्तु ये सब आलोचनाएं निराधार हैं। अर्थशास्त्रियों ने वास्तविक लागत सिद्धान्त को हमेशा- हमेशा के लिए छोड़ दिया है क्योंकि “यह अवास्तविक तथा भ्रान्तिपूर्ण उप-कल्पना की भूल- भुलैया में उलझा देता है।” अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सिद्धान्त में अवसर लागत सिद्धान्त के स्थान पर नतोदर उत्पादन संभावना वक्र के रूप में अवसर लागत सिद्धान्त आकर जम गया है और सैम्युल्सन ने बहुत गहन रूप से इसका प्रयोग किया है।

इस आक्षेप के बारे में कि उत्पादन संभावना वक्र उन परिवर्तनों को ध्यान में नहीं रखता जो साधन पूर्तियों में होते रहते हैं, वी०सी० वाल्श ने अवसर लागत के रूप में “उन परिवर्तनों को प्रदर्शित किया है जो बदलते हुए वस्तु कीमत अनुपातों और साधन सीमान्त उत्पादकताओं के प्रत्युत्तर में साधन पूर्तियों में होते हैं।”

वाइनर का एक आक्षेप यह था कि उत्पादन संभावना वक्र आय की तुलना में “अवकाश’’ को दिए जाने वाले अधिमान को ध्यान में नहीं रख सकता। वाल्श ने इस आक्षेप का भी खण्डन किया है। वाल्श का तर्क यह है कि “अन्तर्राष्ट्रीय अनुपात पर व्यापार की संभावना सामान्य रूप से किसी देश को अपनी आय वास्तविक रूप से बढ़ाने का अवसर देती है। इस बढ़ोत्तरी का कुछ भाग अपेक्षाकृत अधिक अवकाश के रूप में ग्रहण किया जाएगा जिससे दोनों वस्तुओं का उत्पादन घट जाएगा।” उसने इसे त्रिआयामीय चित्र पर उत्पादन संभावना वक्र के रूप में प्रदर्शित किया है जहां अवकाश को तीसरे आयाम पर लिया गया है। रिचर्ड केन्ज के मतानुसार, “वाल्श का तर्क यह प्रदर्शित करता है कि जब अवकाश के लिए अधिमान में परिवर्तन होगा तो साधन लागतों को निश्चित मात्राओं के लिए परिभाषित रूपान्तरण वक्र के आकार तथा परिमाण दोनों में परिवर्तन हो जाएगा।”

इन आलोचनाओं के बावजूद, रिचर्ड केन्ज के अवसर लागत सिद्धान्त को सामान्य संतुलन मॉडल का सरल रूप माना है। जैसा कि सैम्युल्सन ने लक्ष्य किया है कि अवसर लागत सिद्धान्त अधिक उपयोगी है क्योंकि इसे आसानी से सामान्य सन्तुलन प्रणाली में विस्तारित किया जा सकता है।

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