शिवाजी के पश्चात् मराठों का इतिहास | शिवाजी  के पश्चात् मराठों के पतन के कारण

शिवाजी के पश्चात् मराठों का इतिहास | शिवाजी  के पश्चात् मराठों के पतन के कारण

शिवाजी के पश्चात् मराठों का इतिहास

(History of the Marathas after Shivaji 1680-1761)

1680 ई० में शिवाजी को मृत्यु के पश्चात् मुगलों ने मराठों पर अपना दबाव पुनः बढ़ा दिया। मुगल अत्याचारों के विरुद्ध मराठों ने एक लंबा संघर्ष चलाया। मराठों का यह स्वातंत्र्य हत्या करवा दी।औरंगजेब ने इस कार्य द्वारा अपनी अदूरदर्शिता का परिचय दिया। इससे मुगल-मराठा संबंध और अधिक कटु बन गए। मराठे अपने राजा के अपमान और हत्या का बदला लेने के लिए कमर कसकर तैयार हो गए। मराठों ने राजाराम के नेतृत्व में अपनी मुक्ति का संघर्ष आरंभ कर दिया। यह संघर्ष तब तक चला जब तक 1708 ई. में शाहू को मुगलों ने छत्रपति के रूप में स्वीकार नहीं कर लिया।

राजाराम (Rajaram 1689-1700 ई०)

शंभाजी की हत्या के पश्चात् शिवाजी का द्वितीय पुत्र राजाराम मराठों का शासक बना। वह भी शंभाजी की ही तरह दुर्वल व्यक्तित्ववाला था। वह एक नवयुवक था और उसे पर्याप्त राजनीतिक अथवा सैनिक अनुभव भी प्राप्त नहीं था। इस समय मराठों की दुर्बल स्थिति के अनुसार मराठा राज्य का संचालक किसी योग्य व्यक्ति को होना चाहिए था। राजाराम को एक लाभ अवश्य था। शिवाजी का पुत्र होने से एवं शंभाजी की हत्या से उसे सभी मराठा सरदारों का समर्थन एवं सहयोग प्राप्त हो गया। इसका उसने लाभ उठाया। शंभाजी द्वारा गिरफ्तार किए गए मराठा सरदारों को बंदी गृह से मुक्त कर दिया गया। महत्वपूर्ण पदों पर योग्य एवं विश्वासी सरदारों जैसे- प्रहलाद, नीरोजी, परशुराम, त्रियंबक, धनाजी यादव, को नियुक्त किया गया। इन मराठा सरदारों ने अपने राष्ट्र की सुरक्षा एवं मुगलों के विरुद्ध मुक्ति अभियान के लिए वातावरण तैयार कर दिया।

मुगलों से संघर्ष- औरंगजेब ने राजाराम को भी गिरफ्तार करने की योजना बनाई। उसने रायगढ़ पर आक्रमण किया। इस अवसर पर मृत मराठा राजा शंभाजी की पत्नी येसूबाई ने अदम्य साहस एवं सूझ-बूझ का परिचय दिया। उसने रायगढ़ की सुरक्षा की जिम्मेदारी स्वयं अपने ऊपर ली तथा राजाराम को विशालगढ़ के दुर्ग में भेज दिया। मराठों ने मुगल इलाकों पर धावा मारना आरंभ कर दिया। रायगढ़ पर अधिकार करना मुगलों के लिए कठिन हो रहा था मगर मुगल सेनापति जुल्फीकार खाँ एक मराठा अधिकारी को अपने पक्ष में मिलाकर रायगढ़ पर अधिकार करने में सफल हुआ। रायगढ़ पर मुगलों का अधिकार हो गया। येसूबाई तथा शंभाजी के पुत्र शाहू सहित अनेक मराठा सरदार कैद कर लिए गए। मुगलों के बढ़ते दबाव से बाध्य होकर राजाराम को जिंजी के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी जिंजी ही अब राजाराम की गतिविधियों का केन्द्र बन गया। महाराष्ट्र मुगलों के नियंत्रण में आ गया।

मराठे इस पराजय से हुतोत्साहित नहीं हुए। मराठा सरदारों ने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। मराठा सरदार और सामान्यजन अपने राष्ट्र की सुरक्षा एवं राजा के सम्मान के लिए अपने प्राणों की आहुति देने को तैयार हो गए। मराठों में एकता स्थापित करने के उद्देश्य से राजाराम ने स्वयं को शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी शाहू का प्रतिनिधि घोषित किया एवं उन्हीं के नाम पर मराठा स्वातंत्र्य संग्राम चलाने का निश्चय किया । राजाराम ने एक और कार्य किया जिसका मराठा संग्राम पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। उसने मराठा सरदारों को इस बात की अनुमति दे दी कि वे अपनी इच्छा और शक्ति के अनुसार, मनचाही संख्या में सैनिकों को रखें । मराठा सरदारों को इस बात की भी छूट दी गई कि वे जितना चाहें उतना क्षेत्र मुगलों से छीनकर उसे अपनी जागीर बना लें। इससे प्रोत्साहित होकर मराठा सरदारों ने अपनी सैनिक और छापामार गतिविधियाँ तीव्र कर दी और मुगलों को परेशान करने लगे। छापामार युद्धनीति का सहारा लेकर और गुप्तचरी की उत्तम व्यवस्था कर मुग़लों पर आक्रमण तेज कर दिए गए। उनके हौसले इतने अधिक बढ़ गए कि एक रात मराठों ने औरंगजेब के शिविर पर आक्रमण कर उसकी हत्या करने का प्रयास किया। औरंगजेब भी शांत नहीं बैठा था। उसने जिंजी के दुर्ग का घेरा डाल रखा था। उसने मराठों में फूट डालने और उन्हें धन का प्रलोभन देकर भी अपने पक्ष में मिलाने का प्रयास किया, परंतु मुगल सेना जिंजी पर तब तक अधिकार नहीं कर सकी जब तक कि राजाराम सुरक्षित पुन: महाराष्ट्र नहीं पहुंच गया। राजाराम ने अब सतारा को अपनी राजधानी बनाई। औरंगजेब ने सतारा पर भी अधिकार और राजाराम को गिरफ्तार करने की योजना बनाई। इधर राजाराम ने खानदेश और बरार पर आक्रमण कर उसे लूटा। सूरत को लूटने का भी प्रयास किया गया। उस समय की स्थिति अजीब थी। मराठे और मुगल चूहा-बिल्ली का खेल खेल रहे थे। “मराठे कर्नाटक में थे तो कभी महाराष्ट्र में_मराठे सभी जगह थे और कहीं भी नहीं. -महाराष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति सैनिक धा, प्रत्येक घर मराठा सैनिकों का सुरक्षा स्थल था और प्रत्येक गाँव मुगलों के विरुद्ध एक किला था।” इस जन प्रतिरोध के समक्ष मुगल सेना हताश हो रही थी, परंतु औरंगजेब अपनी जिद पर अड़ा रहा। दुर्भाग्यवश जब मराठा संग्राम एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ रहा था, मार्च 1700 में इस संग्राम के वीर सेनानी राजाराम की मृत्यु हो गई।

ताराबाई (Thrabai : 1700-08 ई०)

राजाराम की मृत्यु के पश्चात् मराठा युद्ध के संचालन का भार उनकी पत्नी ताराबाई ने उठाया। वह एक साहसी महिला थी। अपने पति की तरह उन्होंने भी मुगलों से संघर्ष करने का निश्चय किया। उन्होंने अपने चार वर्षीय अल्पायु बालक को शिवाजी द्वितीय के नाम से गद्दी पर बिठाया एवं उसकी संरक्षिका बनकर युद्ध का संचालन करने लगी।

इस बीच मुगल सेना का दबाव मराठा क्षेत्र में बढ़ता जा रहा था। सतारा, पन्हाला, विशालगढ़ और सिंहगढ़ के शक्तिशाली दुर्ग और उनके निकट का क्षेत्र मुगलों के नियंत्रण में चला गया। इस कठिन परिस्थिति में भी ताराबाई ने हिम्मत नहीं खोई । उन्होंने मुगलों के विरुद्ध अभियान तेज कर दिया। 1704 ई० में मराठे सतारा वापस छीनने में सफल हुए। गुजरात पर भी मराठों ने आक्रमण किया तथा पश्चिमी समुद्रतट के अनेक महत्वपूर्ण नगरों एवं व्यपारिक केंद्रों में लूटमार मचाई । दक्षिणी कर्नाटक पर मराठे अपना प्रभाव पुनः स्थापित करने में सफल हुए।

मुगल-मराठा संधि- इस समय तक औरंगजेब बढ़ती उम्र और मराठों के आक्रमणों से थककर निराश हो चुका था । लाख प्रयासों के बावजूद वह मराठों की शक्ति को कुचल नहीं सका था। उसकी सेना में भी निराशा की भावना आने लगी थी। अतः मुगल सरदारों और हरम की स्त्रियों ने उसे समझौता करने को प्रेरित किया। विवश होकर 1703 ई० में उसने संघि वार्ता को मंजूरी दे दी। संधि की शर्तों के अनुसार शाहू को छत्रपति स्वीकार कर उसे 6 सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार देना था। शाहू को मुगलों को अधीनता स्वीकार करनी थीं। मराठा सरदारों के साथ सम्मानजनक व्यवहार कर उन्हें उपाधियाँ दी जानी थी। इन सबके बदले मराठों को दक्षिण में शांति-व्यवस्था बनाए रखना था और शाहजादा कामबख्श को दक्षिण में औरंगजेब के प्रतिनिधि शासक के रूप में स्वीकार करना था।

औरंगजेब पहले तो इस संधि को स्वीकार करने को तैयार हो गया, परंतु जब उसे यह शक हुआ कि मराठे उसे गिरफ्तार करने का षड्यन्त्र रच रहे हैं तब उसने संधि के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। अत:, पुनः मुगल-मराठा संघर्ष आरंभ हो गया। मराठों ने अपने खोए इलाके वापस लेने आरंभ कर दिए। 1706 ई. में एक बार पुनः मराठों के साथ समझौता करने का प्रयास विफल हो गया। मराठों के दबाव के कारण मुगल अब रक्षात्मक युद्ध पर उतर आए। ऐसी ही विकट परिस्थिति में मार्च, 1707 में औरंगजेब की मृत्यु दक्षिण में ही औरंगाबाद में हो गई । मुगल-मराठा संघर्ष ने मुगलों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को अपार क्षति पहुँचाई । मुगलों को इस संघर्ष से प्राप्त कुछ नहीं हुआ परंतु उनका बहुत अहित हुआ।

औरंगजेब की मृत्यु के बावजूद मुगल-मराठा संबंध तनावपूर्ण ही बने रहे । मुगलवंश में उत्तराधिकार का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। शाहजादा आजम ने दक्षिण में ही अपने को सम्राट घोषित कर दिया। शाहू, जो अभी भी मुगलों की गिरफ्त में ही था, ने नए बादशाह से अपनी मुक्ति की प्रार्थना की और उसे विश्वास दिलाया कि वह मुगलों के अधीनस्थ शासक की हैसियत से शासन करेगा। आजमशाह इस समय मराठों से युद्ध करने की अपेक्षा अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के प्रयास में लगा हुआ था। शाहू को स्वतंत्र कर मराठों की आपसी एकता भी नष्ट की जा सकती थी। अतः, आजमशाह ने मराठों से समझौता कर लिया। शाहू को मुगलों का अधीनस्थ शासक स्वीकार किया गया। उसे खानदेश, बरार, औरंगाबाद, बीदर, गोलकुंडा और बीजापुर से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार तथा गोंडवाना, गुजरात और तंजौर की सूबेदारी भी दी गई। शाहू को मुगलों को सैनिक सहायता देनी थी तथा बंधक के रूप में अपनी माता येसूबाई, पत्नी और सौतेले भाई को मुगलों के अधीन रखना था।

आजमशाह के साथ संधि ने मुगल-मराठा संबंधों को एक नया मोड़ दिया। इस संधि का मराठों की आंतरिक स्थिति पर भी प्रभाव पड़ा। शाहू मुगल कैद से मुक्त होकर महाराष्ट्र पहुंचा। वहाँ उसे ताराबाई के विरोध का सामना करना पड़ा जो शिवाजी द्वितीय की संरक्षिका के रूप में शासन कर रही थी। शाहू ताराबाई के अनेक समर्थकों को अपने पक्ष में मिलाने में सफल हो गया। ताराबाई को युद्ध में परस्त कर शाहू ने सतारा पर अधिकार कर लिया तथा 22 जनवरी 1708 को अपना राज्याभिषेक किया। ताराबाई ने अपना प्रतिरोध जारी रखा। इस आपसी संघर्ष से मराठों को क्षति उठानी पड़ी।

छत्रपति शाहू (Chhatrapati Shahu : 1708-49)

शिवाजी के पश्चात् शाहू ही मराठों का सबसे अधिक प्रभावशाली राजा हुआ। उसके समय में मराठों की शक्ति का पुनः उदय हुआ। अब मराठे भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे। शाह का शासनकाल मराठा इतिहास में एक अन्य दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। उसके समय से मराठा राज्य में पेशवा के पद का महत्व बढ़ गया। उसके अधिकारों में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई। कालांतर में छत्रपति नाममात्र का राजा रह गया। वास्तविक शक्ति पेशवा के ही हाथों में केन्द्रित हो गई। वे ही मराठा राज्य के संचालक बन गए।

पेशवा के पद का आरम्भ और विकास शंभाजी और राजाराम की तुलना में शाहू अधिक योग्य शासक साबित हुआ। उसने अत्यंत कठिन परस्थितियों में मराठा राजगद्दी प्राप्त की थी। उसे सर्वमान्य ढंग से राजा स्वीकार नहीं किया गया था। ताराबाई अभी भी उसका विरोध कर रही थीं। लंबे संघर्षों ने मराठा राज्य की आंतरिक स्थिति अत्यंत दुर्बल कर दी थी। खजाना खाली था और मराठा सरदार व्यक्तिगत हित-साधना में संलग्न थे। अतः इस समय सबसे अधिक आवश्यक था छत्रपति के पद को मुगल सम्राट से वैधानिक मान्यता दिलवाना और राज्य की आंतरिक स्थिति सुदृढ़ करना। शाहू को इन कार्यों में अपने तीन योग्य पेशवाओं-बालाजी विश्वनाथ, बाजीराव प्रथम तथा बालाजी बाजीराव का अमूल्य योगदान मिला। इन पेशवाओं ने न सिर्फ मराठा राज्य की आंतरिक स्थिति सुदृढ़ की बल्कि मराठों को भारतीय राजनीति की प्रमुख शक्ति के रूप में परिणत कर दिया।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद आजमशाह ने अपने को सम्राट घोषित कर शाहू को अपना अधीनस्थ शासक स्वीकार कर लिया था, परंतु जून, 1707 में मुगल शासन की बागडोर मुअज्जम अथवा बहादुरशाह के हाथों आई। शाहू ने उनसे पहले की संधि को पुष्ट करने एवं अपने पद को वैधानिक मान्यता देने का अनुरोध किया। ताराबाई ने भी ऐसा ही किया। अत: बहादुरशाह ने दोनों में से किसी को भी मान्यता प्रदान नहीं की। परिणामस्वरूप शाहू की स्थिति अनिश्चित बनी रहो। बहादुरशाह के समय तक उन्हें वैधानिक स्थिति प्राप्त नहीं हुई।

इस समय का उपयोग शाहू ने अपनी आंतरिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिए किया। इस कार्य में उन्हें अपने विश्वस्त पेशवा बालाजी विश्वनाथ से सहायता मिली।

पेशवा बालाजी विश्वनाथ (Peshwa balajee Vishwanatha : 1713-20)

बालाजी विश्वनाथ एक साधारण ब्राह्मण परिवार के थे। उनके पिता शिवाजी की सेवा में थे। बालाजी ने भी मराठों की नौकरी कर ली। उनकी आरंभिक नियुक्ति एक कारकुन के पद पर हुई, परन्तु अपनी प्रतिभा के बल पर वह लगातार प्रगति करते गए। गुजरात और अहमदाबाद पर हुए मराठा आक्रमणों के दौरान उन्होंने अपनी सैनिक प्रतिभा भी प्रदर्शित की। शाहू के छत्रपति बनते ही उन्होंने अनेक प्रभावशाली मराठा सरदारों को ताराबाई के पक्ष से हटाकर शाहूजी का समर्थक बना दिया। शाहूजी उनके इन कार्यों से उन्हें अपना विश्वासपात्र मानने लगा। अतः शाहू ने उसे पहले अपना सेनापति और फिर, 1713 ई० में पेशवा के पद पर प्रतिस्थापित कर दिया। पेशवा के रूप में बालाजी ने मराठा राज्य और शाहू के हितों की सुरक्षा की। इस पद रहते हुए उन्होंने प्रशासनिक, सैनिक एवं राजनीतिक क्षमता का परिचय दिया।

पेशवा के रूप में बालाजी विश्वनाथ ने विरोधी मराठा सरदारों को शाहू के पक्ष में लाने का प्रयास आरंभ कर दिया। उनके प्रयासों से कान्होजी अंग्रिया, कृष्णाराव, धानाजी थोरट जैसे अनेक प्रभावशाली मराठा सरदार शाहू के समर्थक बन गए। उन्होनें जयसिंह और अजीत सिंह जैसे राजपूत राजाओं से संबंध स्थापित कर मराठों की स्थिति उत्तरी भारत में भी सुदृढ़ की। पूना एवं कोल्हापुर पर अधिकार किया गया एवं पूरे राज्य में शांति-व्यवस्था स्थापित की गई। सेना का नए ढंग से गठन हुआ। राज्य की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए कृषि एवं लगान-व्यवस्था में सुधार किए गए।

मुगल-मराठा संबंध- बालाजी का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य था-मुगल बादशाह से शाहू की स्थिति को वैधानिक मान्यता दिलवाना । बहादुरशाह और जहाँदारशाह ने मराठों के गृह-युद्ध और दक्षिण के सूबेदार निजाम-मुल्क के प्रभाव में आकर शाहू को मान्यता नहीं दी थी। इस बीच सैयद बंधुओं की सहायता से फर्रूखशियर बादशाह बना। फर्रुखशियर के समय में सैयद हुसैन अली और सैयद अब्दुलाह ही राज्य के वास्तविक संचालक बन बैठे। सैयद हुसैन अली इस समय दक्षिण का सूबेदार था । यद्यपि फर्रुखशियर सैयद बंधुओं की सहायता से ही गद्दी प्राप्त कर सका था, तथापि वह शीघ्र ही उनसे पीछा छुड़ाने के लिए षड्यन्त्र रचने लगा। अतः, अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए सैयद हुसैन अली ने दक्षिण के सूबेदार की हैसियत से फरवरी, 1718 में शाहू के साथ एक संधि कर ली। इसके अनुसार, शिवाजी के सीधे नियंत्रण वाले क्षेत्र (स्वराज्य) और दुर्गों पर शाहू का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। खानदेश, बरार, हैदराबाद, गोंडवाना तथा कर्नाटक में मराठों द्वारा जीते गए इलाकों को शाहू के पास ही रहने दिया गया। उसे दक्षिण के 6 सूत्रों से चौथ और सरदेशमुखी वसूलने का भी अधिकार मिला। इनके बदले शाहू को 15,000 मराठा सैनिक मुगल बादशाह की सेवा में भेजना था और मुगल सूबों में शांति व्यवस्था बनाए रखनी थी। शाहू को 10 लाख रुपया वार्षिक कर देने एवं कोल्हापुर के राज्य को परेशान नहीं करने का आश्वासन भी देना पड़ा। शाहू की माता, पत्नी एवं अन्य संबंधियों को कारागार से मुक्त कर देने का आश्वासन भी दिया गया।

यह संधि मराठों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थी। शाहू को मराठों का छत्रपति स्वीकार कर लिया गया। मराठों का दक्षिण पर प्रभुत्व भी अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकृत हो गया। सैयद हुसैन अली ने बिना फर्रुखशियर की सहमति लिए संधि को कार्यान्वित मान लिया। पेशवा बालाजी भी इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। अत: वह हुसैन अली और प्रमुख मराठा सरदारों के साथ दिल्ली गए। फर्सखशियर को गद्दी से उतार दिया गया। नया बादशाह रफी-उद-दरजात बना। उसने शाहू के साथ की गई संधि को मान्यता दे दी। इससे शाहू की वैधानिक स्थिति सुदृढ़ हो गई। चौथ और सरदेशमुखी वसूलने के अधिकार ने उसकी आर्थिक स्थिति भी मजबूत कर दी।

इन घटनाओं के कुछ समय उपरांत ही बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु अप्रैल 1720 में हो गई। थोड़े ही समय में बालाजी ने अपनी प्रशासनिक क्षमता एवं कूटनीतिज्ञता का परिचय दिया था। उनके कार्यों से मराठा राज्य की स्थिति अत्यंत सुदृढ़ हो गई। दक्षिण भारतीय राजनीति के मराठे सर्वेसर्वा तो बन ही गए वे अब उत्तर भारत और दिल्ली की मुगल राजनीति में भी हस्तक्षेप करने लगे। बालाजी ने मराठा संघ की भी स्थापना की। उनके समय से मराठा साम्राज्यवाद का विकास भी आरंभ हुआ जिसने मराठों को पतन के कगार पर पहुंचा दिया।

पेशवा बाजीराव प्रथम (Peshva Bajiran I : 1720-40)

बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के पश्चात् छत्रपति शाहू ने उनके ज्येष्ठ पुत्र बाजीराव को पेशवा के पद पर नियुक्त किया। अनेक मराठा सरदार शाहू के इस निर्णय से प्रसन्न नहीं थे। अत: नए पेशवा के समक्ष अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हो गई। उसे विरोधी सरदारों को अपने पक्ष में मिलाना एवं शाहू द्वारा सौंपे गए उत्तरदायित्व को निभाना था। उनके सामने एक अन्य समस्या भी थी। मुगल दरबार ने निजाम-उल-मुल्क को जो मराठों का विरोधी था, पुनः दकन का सूबेदार नियुक्त कर दिया था। वह मराठों की शक्ति को कुचलना चाहता था एवं स्वयं ही हैदराबाद में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना चाहता था। शिवाजी द्वितीय (कोल्हापुर के मराठा शासक) और उनके समर्थक अभी भी शाहू का विरोध कर रहे थे। पुर्तगाली और जंजीरा के सीदी भी मराठों का विरोध कर रहे थे। ऐसी स्थिति में अदम्य साहस और धैर्य की आवश्यकता थी। बाजीराव ने तत्काल इन समस्याओं की ओर ध्यान दिया।

पेशवा की स्थिति का सुदृढीकरण- बाजीराव ने सबसे पहले आंत्रिक स्थिति सुदृढ़ कर पेशवा की शक्ति एवं सम्मान में वृद्धि लाने का प्रयास किया। वह पेशवा की प्रतिष्ठा के विरुद्ध कोई भी कार्य नहीं करता था। उसने अनेक विरोधी मराठा सरदारों को अपने पक्ष में मिला लिया। अब उसने अपने शत्रुओं के प्रति नीति निर्धारित की। इस समय मुगल साम्राज्य तेजी से पतन के मार्ग पर चल रहा था। दरबार षड्यन्त्रों एवं गुटबंदी का अखाड़ा बन चुका था। बाजीराव ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर मुगलों की सत्ता समाप्त करने एवं दिल्ली पर अधिकार करने की योजना बनाई। शाहू ने भी बाजीराव का समर्थन किया।

निजाम के साथ संबंध- बाजीराव ने उत्तर भारत की राजनीति में अपना प्रभाव स्थापित करने के पूर्व दक्षिण में ही निजाम-उल-मुल्क से निबटना उचित समझा। निजाम-उल-मुल्क ने 1719 ई० की मुगल-मराठा संधि को अस्वीकार कर चौथ और सरदेशमुखी की वसूली पर रोक लगा दी थी। शाहू की सलाह पर वाजीराव ने शांतिपूर्ण ढंग से इस मामले को सुलझाने का प्रयास किया, परंतु यह विफल हो गया। निजाम कुछ समय के लिए वजीर बनकर दिल्ली चला गया, परंतु दो वर्षों बाद ही वापस आ गया। इस समय दक्षिण का सूबेदार मुबारिज खाँ था। वह निजाम का विरोधी था। अतः, दोनों में संघर्ष आरंभ हो गया। इसका लाभ उठाकर बाजीराव ने बुरहानपुर पर अधिकार कर लिया। पेशवा ने मुबारिज-निजाम संघर्ष में तटस्थता को नीति अपनाई। फलतः, निजाम ने मुबारिज खाँ को पराजित कर उसे मार डाला एवं दक्षिण के सूबों पर अधिकार कर लिया। क्रुद्ध होकर मुगल बादशाह ने उसे दक्षिण की सूबेदारी से अपदस्थ कर दिया। प्रत्युत्तर में निजाम ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली। हैदराबाद में उसने अपनी राजधानी स्थापित की।

यह स्थिति मराठों के लिए संकटपूर्ण थी। आरंभ में निजाम ने मराठों के विरुद्ध तटस्थता की नीति अपनाई। ऐसा कर वह अपनी आंतरिक स्थिति सुदृढ़ करना चाहता था। इसलिए, उसने मराठों को चौथ और सरदेशमुखी वसूलने की अनुमति दे दी। जब मराठों ने कर्नाटक पर आक्रमण किया, उस समय भी वह तटस्थ रहा, परंतु इस बीच कूटनीति चाल चलकर वह मराठों में फूट डालने का प्रयास करता रहा। 1727 ई० में उसने शिवाजी द्वितीय (शंभाजी द्वितीय) से शाहू के विरुद्ध एक संधि भी कर ली। इसके तत्काल बाद शंभाजी के साथ मिलकर उसने शाहू के क्षेत्रों पर आक्रमण आरंभ कर दिया। बाजीराव इस समय कर्नाटक में था। सूचना मिलते ही वह वापस लौटा और निजाम से युद्ध आरंभ कर दिया। मार्च,1728 में मालखेद में निजाम की निर्णायक रूप से पराजय हुई। उसे शिवगाँव की संधि करने को बाध्य होना पड़ा। निजाम से 1719 ई. की संधि की सभी शर्तों को स्वीकार कर लिया, शाहू को छत्रपति माना एवं शंभाजी की सहायता नहीं करने का वचन दिया। बंदी मराठा सैनिकों एवं शाहू के अधिकृत प्रदेशों को लौटाने पर भी वह तैयार हो गया। निजाम की पराजय से बाजीराव की शक्ति बढ़ गई। वह शाहू का और अधिक प्रियपात्र बन गया। मराठा अब दक्षिण भारत की सार्वभौम शक्ति के रूप में सामने आए।

पराजित होकर भी निजाम ने हार नहीं मानी। वह शिवगाँव की अपमानजनक संधि से क्षुब्ध था। अत: उसने 1731 ई० में एक मराठा सरदार के साथ मिलकर शाहू के विरूद्ध पड्यन्त्र रचा। बाजीराव ने इस षड्यन्त्र को विफल कर दिया। निजाम ने पुनः मैत्री का आश्वासन दिया परंतु साथ-साथ षड्यन्त्र में भी लगा रहा। उसने मालवा के शासक मुहम्मदशाह बंगारा के साथ मिलकर बाजीराव पर आक्रमण किया। इस बार भी निजाम की पराजय हुई। उसे बाजीराव से पुनः संधि करनी पड़ी। मराठों ने निजाम के इलाकों पर आक्रमण नहीं करने का वचन दिया। निजाम ने भी चौथ और सरदेशमुखी वसूलने का शाहू का अधिकार मान लिया। निजाम ने यह भी आश्वासन दिया कि वह मराठों द्वारा उत्तरी भारत पर किए जानेवाले आक्रमणों के दौरान तटस्थ रहेगा। इस प्रकार, लंबे संघर्ष के पश्चात् दोनों शक्तियों में मित्रता हुई। निजाम से मुक्त होकर बाजीराव ने उत्तरी भारत की ओर ध्यान दिया।

मालवा और बुंदेलखंड में मराठा शक्ति का विकास- दक्षिण की सीमा से सटा हुआ मालवा का समृद्ध प्रांत था। अतः, आर्थिक, राजनीतिक एवं सैनिक उद्देश्यों से प्रेरित होकर बाजीराव ने मालवा विजय की योजना बनाई। मालवा की आंतरिक स्थिति इस समय संतोषजनक नहीं थी। इसके अंतर्गत अनेक छोटी-छोटी रियासतें थीं, जो आपस में ही संघर्षरत थीं। आमेर नरेश जयसिंह भी मालवा पर अधिकार करना चाहता था, परंतु उसने स्वयं आक्रमण न कर पेशवा को ही इस कार्य के लिए उकसाया। पेशवा ने मालवा पर आक्रमण कर चौथ एवं सरदेशमुखी वसूला। इससे उसका संघर्ष मालवा के प्रांतपति गिरधर बहादुर से अनिवार्य हो गया। 1728 ई० में मालवा पर आक्रमण कर उसने गिरधर बहादुर को अमझेरा के युद्ध में परास्त किया। अब जयसिंह को मालवा का गवर्नर नियुक्त किया गया। उसने मराठों से गुप्त संधि कर उन्हें मालवा में अपनी शक्ति सुदृढ़ करने का अवसर प्रदान किया। मालवा के बाद बुंदेलखंड की बारी आई। पेशवा ने छत्रसाल की सहायता से बुंदेलखंड पर आक्रमण कर इलाहाबाद के गवर्नर मुहम्मद खाँ बंगरा को परास्त कर उसे बुंदेलखंड से निकाल दिया। इसके बदले में छत्रसाल ने कालपी, झांसी, सागर, भाटा इत्यादि इलाके जागीर के रूप में पेशवा को दिया। मालवा और बुंदेलखंड में मराठों की बढ़ती शक्ति से मुगल बादशाह को चिंता हुई। सबसे पहले मुहम्मदशाह, रंगोला, (मुगल बादशाह) ने मराठों के हमदर्द जयसिंह को मालवा की सूबेदारी से हटा दिया और उनकी जगह मराठों के कट्टर दुश्मन मुहम्मद खां बंगश को मालवा का प्रांतपति नियुक्त किया। उसने मराठों को कुचलने का प्रयास किया परतु सफल नहीं हो सका। बाध्य होकर मुगलों ने मराठों के साथ 1736 ई० में संधि कर ली। बाजीराव को मालवा का प्रांतपति बनाया गया एवं शाहू के खर्च के लिए 12 लाख रुपये प्रतिवर्ष निश्चित किए गए। यह भी तय हुआ कि शाहू से दक्षिण सूबों से सरदेशमुखी वसूल किए जाने के बदले 6 लाख को राशि की माँग तब तक न की जाए जब तक शाहू दक्षिण के मुगल सूबों पर अपना प्रभाव स्थापित न कर ले। बाजीराव और उनके भाई चिमनाजी अप्पा को क्रमशः सातहजारी और पाँचहजारी मनसब भी दिए गए। अब मालवा और बुंदेलखंड मराठों के प्रभावशाली नियंत्रण में आ गए। इन अभियानों से मराठों को आर्थिक लाभ भी हुआ।

गुजरात में मराठों का प्रभाव- गुजरात भी मुगल साम्राज्य का एक समृद्ध प्रांत था जिस पर पेशवा की निगाहें लगी हुई थीं। मराठे वहाँ से भी चौथ और सरदेशमुखी वसूल करते थे। मुगल सूबेदार ने उनके इस अधिकार को मान्यता दे दी। शाहू ने गुजरात से कर वसूलने का भार त्रियम्बक राव दामेड़ (मराठा सेनापति) को दे दिया। पेशवा गुजरात में दामेड़ परिवार का बढ़ता प्रभाव व्यक्तिगत कारणों से नहीं देख सकता था। अतः, 1731 ई० में बाजीराव के नए सूबेदार मारवाड़ के शासक अभय सिंह से मैत्री कर दामेड़ के विरुद्ध सैनिक कार्रवाई आरंभ कर दी। शाहू को इसकी सूचना भी नहीं दी गई। वस्तुतः बाजीराव का प्रभाव इतना अधिक बढ़ गया था कि छत्रपति उसके हाथ की कठपुतलीमात्र बनकर रह गया था। युद्ध में त्रियंबक राव मार डाला गया। पेशवा समर्थक पिलाजी गायकवाड़ का अधिकार गुजरात में स्थापित किया गया। अभय सिंह ने जब इसकी हत्या करवा दी, तब पेशवा ने गुजरात पर आक्रमण कर 1738 ई० में गुजरात को मराठा राज्य में मिला लिया।

दिल्ली पर आक्रमण- बाजीराव ने अब दिल्ली की ओर कदम बढ़ाया। उसने अवध पर आक्रमण कर उसे लूटा और दिल्ली पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के द्वारा उसने मुगल बादशाह को खुली चुनौती दी, परंतु मुहम्मदशाह उसका कुछ नहीं कर सका। अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर, बादशाह को भयभीत करता हुआ, राजस्थान को रौंदता हुआ वह वापस लौट गया। बादशाह ने मराठों की शक्ति को कुचलने का जिम्मा एक बार पुनः निजाम-उल-मुल्क को सौंपा। उसके बेटे को मालवा का सूबेदार बनाया गया। क्रुद्ध होकर बाजीराव ने मालवा पर आक्रमण कर दिया। भोपाल के निकट 1737 ई० में पराजित होकर निजाम को दोराहा सराय की संधि (1738 ई०) करनी पड़ी। इसके अनुसार, मालवा एवं नर्मदा तथा चंबल नदी के मध्यवर्ती इलाकों पर शाहू का आधिपत्य स्वीकार कर लिया गया। क्षतिपूर्ति के रूप में 50 लाख रुपए भी शाहू को मिले। बाद में मुगल बादशाह ने भी इस संधि को मान्यता दे दी। इस प्रकार मध्य भारत का एक बड़ा क्षेत्र भी शाहू के अधिकार में आ गया।

कोंकण में मराठा शक्ति की सदृढ़ता- इस क्षेत्र में मराठों की प्रतिद्वंद्वी तीन शक्तियाँ थीं-कोलाबा के आये, जंजीरा के सीदी और गोआ के पुर्तगाली। 1737 ई० में पुर्तगालियों पर आक्रमण कर बाजीराव ने थाना, सालसेट और बेसीन पर अधिकार कर लिया। पुर्तगालियों की पराजय से सबक लेकर मुंबई में अंग्रेजों ने भी मराठों से संधि कर अपनी सुरक्षा की। बाजीराव की मध्यस्थता से कोकण का राज्य कान्होजी आंमे के दो पौत्रों के बीच बँट गया। दोनों ने ही मराठों की अधीनता स्वीकार कर ली। 1733 ई० में उसने सीदियों के विरुद्ध भी सैनिक अभियान किया। 1736 ई. में सीदियों एवं मराठों के बीच एक संधि हो गई। सीदियों ने अपना आधा इलाका मराठों को दे दिया। इस प्रकार, पश्चिमी समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों पर भी मराठों का प्रभाव स्थापित हो गया।

बाजीराव का योगदान- अप्रैल, 1740 में बजीराव की मृत्यु हो गई। 20 वर्षों की अल्प अवधि में ही उसने मराठा शक्ति के विकास को चरम सीमा पर पहुंचा दिया । दक्षिण-पश्चिम के अतिरिक्त मध्य-भारत, दोआब और दिल्ली तक मराठों की तूती बोलने लगी। मुगल सत्ता मराठों के समक्ष निष्क्रिय हो गई । बजीराव ने आंतरिक प्रशासन में सुधार लाकर शांति-व्यवस्था को भी स्थापना की। छत्रपति के पद का गौरव एवं सम्मान बढ़ा। उसने शिवाजी के अधूरे सपने को पूरा कर भारत पर मराठा शासन की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इसीलिए, उसे मराठा राज्य का द्वितीय संस्थापक भी माना जाता है; परंतु बाजीराव की नीतियों के कुछ दुष्परिणाम भी निकले। बाजीराव की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं ने छत्रपति के पद को गौण बना दिया। अब पेशवा ही वास्तविक शासक बन गया। इसके चलते विभिन्न मराठा सरदारों में आपसी प्रतिस्पर्धा भी हुई जिसने मराठों की शक्ति को धीरे-धीरे कमजोर करना आरंभ कर दिया। नए विकसित बड़े राज्य के प्रशासन एवं इसकी आर्थिक सुदृढ़ता का प्रयास भी बाजीराव नहीं कर सका। बाजीराव ने मराठा सम्राज्यवाद की जो प्रक्रिया आरंभ की वह अंततः मराठों के पतन का भी कारण बनी।

पेशवा बालाजी बाजीराव (Peshwa Balaji Bajirao : 1740-61)

छत्रपति शाहू का अंतिम पेशवा बालाजी बाजीराव हुआ। वह बाजीराव का ज्येष्ठ था। पेशवा बनने के समय उसकी आयु मात्र 18 वर्ष थी। अतः, अनेक मराठा सरदारों ने उसका पेशवा बनना स्वीकार नहीं किया और विरोध किया, परन्तु शाहू अभी भी उसके पिता के उपकारों को भूला नहीं था। इसलिए, उसने बालाजी बाजीराव को ही पेशवा नियुक्त किया। बालाजी बाजीराव का समय मराठा शक्ति के चरमोत्कर्ष का काल था, परन्तु उसी के समय में मराठा शक्ति का पतन भी आरंभ हुआ। पानीपत के तृतीय युद्ध ने मराठा शक्ति पर करारा आघात कर मराठों के अखिल भारतीय राज्य की स्थापना के स्वप्न को भंग कर दिया।

पेशवा की आरंभिक कठिनाइयाँ एवं सत्ता के सुदृढ़ीकरण का प्रयास- पेशवा बनते समय बालाजी के समक्ष अनके कठिनाइयाँ थीं। रघुजी भोंसले, ताराबाई तथा अन्य प्रभावशाली मराठा सरदार उसका विरोध कर रहे थे। निजाम दक्षिण में अपनी शक्ति पुनः बढ़ाने और मराठों का विरोध करने पर उतारू था। कर्नाटक में भी मराठों की स्थिति गड़बड़ा रही थी। राज्य की आंतरिक व्यवस्था एवं आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। इन सभी समस्याओं पर तत्काल ध्यान देना आवश्यक था। दुर्भाग्यवश दिसंबर, 1749 में छत्रपति शाहू की मृत्यु ने पेशवा के लिए नई मुसीबतें आरंभ कर दीं। शाहू की वसीयत के अनुसार ताराबाई के पौत्र राजाराम द्वितीय को 14 जनवरी, 1750 को छात्रपति के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। ताराबाई ने उसे कठोर नियंत्रण में रखा और स्वयं प्रशासिका बन गई। जब पेशवा एवं अन्य मराठा सरदारों ने इसका विरोध किया तो उसने पहले छत्रपति को गिरफ्तार करने की योजना बनाई । इस प्रयास में विफल होकर ताराबाई ने राजाराम की वैधता की ही चुनौती दी। यह कठिन घड़ी थी; परंतु बालाजी ने धैर्य एवं कुशलतापूर्वक इस समस्या पर नियंत्रण स्थापित किया। ताराबाई के सलाहकार को गिरफ्तार कर लिया गया। पूना में एक सभा की गई जिसमें ताराबाई सहित सभी प्रमुख मराठा नेता उपस्थित हुए। इस सभा के निर्णय के अनुसार, छात्रपति का कार्यालय सतारा के स्थान पर पूना बनाया गया। पेशवा को राज्य का वास्तविक प्रशासक स्वीकार किया गया। इस समझौते ने पेशवा को अत्यंत शक्तिशाली और छत्रपति को नाममात्र का शासक बना दिया। जिन मराठा सरदारों ने इस समझौते का विरोध किया उन्हें बलपूर्वक दबा दिया गया। इससे पेशवा की शक्ति और प्रतिष्ठा बढ़ गई। बालाजी ने राज्य के शासन-प्रबंध एवं अर्थव्यस्था को भी संगठित किया एवं मराठों के विरोधियों के विरुद्ध सैनिक अभियान आरंभ कर दिया।

मालवा की नायब सूबेदारी-बालाजी ने सबसे पहले मालवा की ओर ध्यान दिया। 1736 ई० को संधि के बावजूद मालवा पर मराठा आधिपत्य प्रभावशाली नहीं हो सका था। पेशवा को नायब सूबेदार का पद नहीं दिया गया था। इसलिए बालाजी ने इसकी मांग की। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह इसके लिए तैयार नहीं था; परंतु जयसिंह के प्रयासों से जुलाई, 1741 में बालाजी को मालवा का नायव सूबेदार बना दिया गया। पेशवा इसके बदले 500 स्थायी सैनिक दिल्ली में रखने, आवश्यकता पड़ने पर 4000 सिपाहियों से मुहम्मदशाह की सहायता करने एवं मुगल प्रदेशों में शांति-व्यवस्था बनाए रखने पर सहमत हो गया। इस समझौते के परिणामस्वरूप दिल्ली दरबार में मराठों का प्रभाव बढ़ने लगा।

कर्नाटक पर अधिकार- बाजीराव के समय से ही कर्नाटक में मराठा सरदार रघुजी भोसले अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे। बालाजी के समय में रघुजी ने पुनः कर्नाटक पर आक्रमण कर कर्नाटक के नवाब दोस्त अली की हत्या कर दी एवं उनके दामाद चंदा साहब को गिरफ्तार कर पूना भेज दिया। कर्नाटक पर रघुजी का अधिकार हो गया।

भोंसले से संबंध- रघुजी अपना प्रभाव निरंतर बढ़ा रहे थे। 1744-51 मे मध्य उन्होंने बंगाल पर अनेक आक्रमण किए। वंगाल के सूबेदार अलीवर्दी खाँ ने मराठा दवाव के प्रभाव में आकर उड़ीसा रघुजी को सौंप दिया तथा 12 लाख रुपए वार्षिक बंगाल और बिहार से चौथ के बदले में देना स्वीकार किया। पेशवा और रघुजी के आपसी वैमनस्य को छत्रपति ने मध्यस्थता द्वारा समाप्त कर दिया एवं दानों के बीच का अधिकार क्षेत्र विभक्त कर दिया। इससे पेशवा-रघुजी को आपसी प्रतिद्वंद्विता तो समाप्त हुई; परंतु मराठों को एकता पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा।

महाराष्ट्र में पेशवा के प्रतिद्वंद्वी और उन पर नियंत्रण- रघुजी भोंसले के अतिरिक्त महाराष्ट्र में भी पेशवा के अनेक प्रतिद्वंद्वी थी। पेशवा से असंतुष्ट मराठा सरदारों को ताराबाई नेतृत्व प्रदान कर रही थीं। उन्होंने सतारा का दुर्ग घेर लिया एवं छत्रपति राजाराम को बंदी बना लिया। पेशवा ने सेनापति दामाजी गायकवाड़ को पराजित कर उससे 25 लाख रुपए वसूले और गुजरात का आधा भाग छीन लिया। पेशवा इतने पर भी संतुष्ट नहीं हुआ। कुछ समय बाद उसने दामजी पर आक्रमण कर उसके पुत्र सहित उसे गिरफ्तर कर लिया। दामाजी को आत्मसमर्पण करना पड़ा। पेशवा ने गुजरात से मुगल सूबेदार को निकाल दिया और पूरे गुजरात पर अधिकार कर लिया। ताराबाई ने भी बालाजी से समझौता कर लिया।

निजाम से संबंध- निजाम-उल-मुल्क आरंभ से ही मराठों का विरोधी रहा था। यद्यपि रघुजी ने कर्नाटक पर अधिकार कर लिया था, परंतु 1743 ई० में निजाम ने इस पर पुनः अधिकार कर लिया। निजाम मुगल बादशाह की सहायता से मालवा पर भी अधिकार करना चाहता था, परंतु इसी बीच 1748 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। इसकी मृत्यु के बाद सलावत-जंग और गाजीउद्दीन के बीच गद्दी के लिए संघर्ष आरंभ हुआ। पेशवा ने इस संघर्ष में पहले गाजीउद्दीन का पक्ष लिया, परंतु उसकी मृत्यु के बाद सुलावतजंग से संधि कर बरगलाना एवं खानदेश का इलाका प्राप्त कर लिया। 1758 ई० में हैदराबाद में पुनः गृहयुद्ध आरंभ हुआ। इसका लाभ उठाकर पेशवा ने 1759 ई० में हैदराबाद पर आक्रमण किया। उदगीर के युद्ध में निजाम की निर्णायक रूप से पराजय हुई। उसने बाध्य होकर पेशवा से संधि कर ली। निजाम ने बीजापुर, बीदर, औरंगाबाद के निकटवर्ती इलाके एवं असीरगढ, बुरहानपुर, अहमदनगर, बीजापुर तथा दौलताबाद के दुर्ग मराठों को सौंप दिया। मराठों को चौथ देने का भी आश्वासन दिया गया। इससे दक्षिण में पुनः एक बार पेशवा की धाक जम गई।

बुंदेलखंड पर आक्रमण- बालाजी ने बुंदेलखंड के सामरिक महत्व को ध्यान में रखते हुए बुंदेलखंड पर भी आक्रमण किया। 1741-47 के बीच समस्त बुंदुलखंड मराठों के नियंत्रण में आ गया। इस क्षेत्र में झाँसी मराठों की शक्ति का केंद्र बन गया।

राजपूताना की राजनीति में हस्तक्षेप- बालाजी ने राजपूताना की राजनीति में भी हस्तक्षेप किया। इसका एक प्रमुख कारण था राजपूताना में पवार, सिंधिया एवं होल्कर मराठा सरदारों की आपसी प्रतिद्वंद्विता । आमेर के राजा जयसिंह की मृत्यु के पश्चात् उत्तरधिकार का संघर्ष आरंभ हुआ। ईश्वर सिंह और माधव सिंह के दावे को लेकर सिंधिया और होल्कर में आपसी वैमनस्य उत्पन्न हुआ। पेशवा ने माधव सिंह के पक्ष में समझौता करवा दिया, परंतु यह व्यवस्था स्थायी नहीं रह सकी। शीघ्र ही माधव सिंह मराठों का दुश्मन बन गया। उसने जयज्या सिंधिया और मल्हार राव होकर की हत्या का षड्यंत्र रचा तथा हजारों मराठों की हत्या करवा दी। इससे मराठों और राजपूतों का वैमनस्य बढ़ा । पेशवा राजपूता को अपना समर्थक नहीं बना सका। इसी प्रकार मारवाड़ की गद्दी के प्रश्न तथा सिंधिया की हत्या और उसके बाद की प्रतिक्रियात्मक कार्रवाइयों ने मराठा-राजपूत संबंधों को विषाक्त कर दिया। मराठों को इसकी कीमत बाद में चुकानी पड़ी।

जाटों से संबंध- पेशवा अब आगरा और अजमेर के निकटवर्ती स्थानों पर अधिकार करने की योजना बनाने लगा। उसकी इस इच्छा ने उसे जाटों से संघर्ष करने को बाध्य कर दिया। मुगल बादशाह की सहमति से पेशवा ने भरतपुर के जाट राजा सूरजमल पर आक्रमण कर दिया। कुम्हेर के दुर्ग पर मल्हारराव ने घेरा डाल दिया। सूरजमल के संधि प्रस्ताव को मराठों ने ठुकरा दिया। सूरजमल ने युद्ध में मराठों को पराजित कर कुम्हेर का दुर्ग वापस ले लिया। मराठों को क्षतिपूर्ति के रूप में धन भी देना पड़ा। इससे मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को तो ठेस लगी ही उन्हें जाटों की मैत्री भी खोनी पड़ी।

पंजाब और दिल्ली की राजनीति में हस्तक्षेप- बालाजी के समय में मराठों ने पंजाब और दिल्ली की राजनीति में भी हस्तक्षेप किया जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अहमदशाह अब्दाली से पानीपत का तृतीय युद्ध लड़ना पड़ा जिसमें मराठों की शक्ति नष्टप्राय हो गई। अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर अनेक बार आक्रमण किए। उसने पंजाब पर अधिकार कर लिया और दिल्ली दरबार में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया, परंतु मराठों ने पंजाब पर अधिकार कर लिया तथा अहमदशाह अब्दाली के प्रतिनिधि नजीबुद्दौला को मीरबख्शी के पद से हटा दिया। उसने अहमदशाह अब्दाली के पास फरियाद की। अतः, अब्दाली पंजाब पर अधिकार करता हुआ, मराठों को पराजित करता हुआ पानीपत आ धमका जहाँ जनवरी 1761 में मराठे बुरी तरह पराजित हुए।

पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के कुछ समय बाद ही 23 जून, 1761 को बालाजी बाजीराव की मृत्यु हो गयी। बालाजी के समय में मराठों को शक्ति अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई। मराठे दक्षिण और उत्तरी भारत पर नियंत्रण स्थापित करने के अतिरिक्त पश्चिमोत्तर क्षेत्र में पंजाब से आगे बढ़कर काबुल-कांधार पर अधिकार करने की योजना भी बनाने लगे जो दुर्भाग्यवश पूरी नहीं हुई। बालाजी के समय में पेशवा की शक्ति में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई । बालाजी ने प्रशासनिक सुधार एवं जनहित के कार्यों पर भी ध्यान दिया, परंतु उसकी असीम महत्वाकांक्षा ने उसी के समय में मराठा शक्ति का पतन भी कर दिया।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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