सामाजिक परिवर्तन | सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा | आगस्ट कॉम्टे का रेखीय सिद्धान्त | कॉम्टे का उद्विकासीय सिद्धान्त
सामाजिक परिवर्तन | सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा | आगस्ट कॉम्टे का रेखीय सिद्धान्त | कॉम्टे का उद्विकासीय सिद्धान्त
सामाजिक परिवर्तन
सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक सामाजिक तथ्य है। यह क्यों और कैसे होता है, यह समाजशास्त्रियों के चिंतन का एक प्रमुख विषयवस्तु रहा है। ज्ञातव्य है कि समाजशास्त्र का उद्भव भी सामाजिक परिवर्तनों की व्याख्या के लिए ही हुआ है। अधिकांश पश्चिमी समाजशास्त्रियों एवं मानवशास्त्रियों ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की है।
सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा
एंथोनी गिडिंग्स- “प्रत्येक सामाजिक संरचना में एक अंतर्निहित संरचना होती है। इस अन्तर्निहित संरचना में जब परिवर्तन आता है तो इसे सामाजिक परिवर्तन कहते है।”
मैकाइवर व पेज- “समाजशास्त्री होने के नाते हमारा प्रत्यक्ष संबंध केवल सामाजिक संबंधों से हैं। और उसमें आए हुए परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन कहते है।”
किंग्सले डेविस- “सामाजिक परिवर्तन से हमारा अभिप्राय उन परिवर्तनों से है जो सामाजिक संगठन अर्थात् समाज की संरचना और कार्यो में उत्पन्न होते हैं।”
डासन एवं गेटिस के अनुसार- “सांस्कृतिक परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन है।”
जिन्सबर्ग के अनुसार- “सामाजिक परिवर्तन का अभिप्राय सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन अर्थात् समाज के आकार, इसके विभिन्न अंगों अथवा इसके संगठन की प्रकृति और संतुलन में होने वाले परिवर्तन से है।”
कॉम्टे का रेखीय या उद्विकासीय सिद्धान्त
आगस्ट कॉम्ट का विचार:- कॉम्ट, जिन्हें समाजशास्त्र का जनक कहा जाता है, का समाजशास्त्रीय योगदान उद्विकास सिद्धान्त की पुष्टि करता है। कॉम्ट का विचार था कि मानव का बौद्धिक विकास तीन चरणों स गुजरता है। जैसे-जैसे मानव समाज का एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश होता है वैसे-वैसे समाज में जटिलता बढ़ती जाती है। कॉम्ट के अनुसार ये तीन चरण निम्नलिखित है:-
(a) धर्मशास्त्रीय चरण (Theological Stage)
(b) तात्विक चरण (Metaphysical Stage)
(c) प्रत्यक्षवादी चरण (Positivistic Stage)
(a) धर्मशास्त्रीय स्तर- मानव के चिंतन का यह वह स्तर है जिसमें वह प्रत्येक घटना के पीछे अलौकिक शक्ति का हाथ मानता था। कॉम्ट ने इस स्तर की भी तीन स्तरों की चर्चा की है वस्तुपूजा – इस स्तर में इंसान ने प्रत्येक वस्तु में जीवन की कल्पना की, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव। बहुदेववाद इस स्तर में विभिन्न देवी देवताओं की कल्पना की गयी और उनका संबंध विभिन्न प्रकार की सम्बद्ध घटनाओं से माना गया है एकेश्वरवाद यह धर्मशास्त्रीय स्तर का अंतिम चरण है। इस चरण में लोग बहुत देवी-देवताओं में विश्वास न कर एक ही ईश्वर में विश्वास करने लगे।
(b) तात्विक या अमूर्त स्तरः- कॉट ने इसे धर्मशास्त्रीय एवं वैज्ञानिक स्तर के बीच की स्थिति माना है। इस अवस्था में मनुष्य की तर्क क्षमता बढ़ गयी। इस स्तर में प्रत्येक घटना के पीछे अमूर्त एवं निराकार शक्ति का हाथ माना गया। इस स्तर में सत्ता का आधार दैवी अधिकार के सिद्धांत होते थे। सामाजिक संगठन के वैधानिक पहलू विकसित होने लगे। राजा की निरंकुश सत्ता की जगह धनिक तंत्र या कुबेरतंत्र की व्यवस्था चलने लगी।
(c) प्रत्यक्षवादी स्तर:- समाज एवं मानव मस्तिष्क के उद्विकास का यह अंतिम चरण है। इस स्तर में हर घटना का विश्लेषण, अवलोकन, निरीक्षण एवं प्रयोग वैज्ञानिक तुलना के आधार पर होने लगता है। समाज में बौद्धिक, भौतिक तथा नैतिक शक्तियों का अच्छा समन्वय देखने को मिलता है। इस स्तर मे ही मानवता के धर्म एवं प्रजातंत्र का विकास होता है। वर्तमान मानव समाज इसी स्तर में है।
इस प्रकार ऑगस्ट कॉम्ट ने उपर्युक्त तीन स्तरों के सिद्धान्त (Law of the Stage) को सामाजिक जीवन पर लागू कर समाज के उद्विकास की प्रक्रिया को सहज ढंग से समझाने का प्रयत्न किया है। वस्तुतः तीन स्तरों का नियम सामाजिक परिवर्तन की आरंभिक व्याख्या है, जिसमें विचार को एक मुख्य कारक माना गया है।
(ख) एल.एच. मार्गन का विचारः- अमेरिकन (Ancieent Society) मानवशास्त्री मार्गन ने सामाजिक सांस्कृतिक उद्विकास की चर्चा की है। उन्होंने अपनी पुस्तक (1872) में उद्विकास के तीन मुख्य स्तरों का उल्लेख किया है, वे हैं- जंगली स्तर (Savagery Stage), बर्बर स्तर (Barbarian Stage), एवं सभ्य स्तर (Civilized Stage)। प्रथम दो स्तरों को उन्होंने पुनः तीन उप-स्तरों में विभाजित किया है- प्राचीनतम, मध्य एवं उच्च स्तर।
जंगली स्तर (Savage Stage):- यह समाज की सबसे आरंभिक अवस्था थी। मानव अपने कार्य एवं व्यवहार में जंगली था। इस अवस्था के प्रारंभिक स्तर में मनुष्य जंगलों में भटकता था। उसकी संस्कृति काफी सरल एवं अविकसित थी। फल, कंदमूल, कच्चा मांस आदि खाकर वह जीवित रहता था। गुफाओं या पेड़ों पर भी अस्थायी रूप से निवास करता था। यौन संबंधों में स्वच्छंदता थी। मध्य स्तर में मानव ने मछली पकड़ने और आग जलाने की कला सीख ली। अब वे कच्चे मांस को आग में भूनकर खाने लगा। सामूहिक जीवन की शुरूआत वस्तुतः इसी स्तर में हुई। मानव छोटे-छोटे समूहों में रहने लगा। अंततः जंगली अवस्था में उच्च स्तर का विकास तीर-धनुष के आविष्कार से हुआ। इसी स्तर से पारिवारिक जीवन की शुरूआत हुई यद्यपि यौन संबंध के निश्चित नियम नहीं बने थे, घुमक्कड़ी जीवन में कुछ स्थिरता जरूर आ गयी थी।
बर्बर स्तर (Barbarian Stage):- समाज के उद्विकास का यह दूसरा महत्वपूर्ण स्तर था। बर्बर अवस्था के प्राचीन स्तर की शुरूआत मार्गन ने बर्तनों एवं उसके प्रयोग की कला माना है। इस स्तर में संपत्ति की धारणा का विकास हुआ। एक समूह-दूसरे समूह पर स्त्रियों, बर्तनों, हथियारों आदि के लिए आक्रमण करते थे। मध्य स्तर में जानवर पालने एवं पौधे लगाने की कला विकसित हुई। घुमंतू जीवन में कुछ स्थायीपन आया। व्यक्तिगत संपत्ति की धारणा पहले की अपेक्षा अधिक स्पष्ट हुई। आर्थिक लेन-देन में वस्तु विनिमय की प्रथा चली। परिवार के लोगों के बीच यौन संबंध में कुछ निश्चित नियम विकसित हुए। उच्च स्तर की शुरूआत लोहे के बर्तन और औजार बनाने की कला से होती है। समाज में स्त्री-पुरुष के भेद को आधार मानते हुए श्रम- विभाजन लागू हुआ। इस स्तर में छोटे-छोटे गणराज्यों की स्थापना हो चुकी थी। स्त्रियों को भी संपत्ति माना जाता था। इस स्तर को धातु के नाम जाना जाता है।
सभ्य स्तर (Civilized Stage):- उद्विकास के क्रम का यह अंतिम विकसित स्तर है। मध्य अवस्था की शुरूआत अक्षरों के लिखने और पढ़ने की कला से मानी जाती है। इससे संस्कृति का हस्तांतरण संभव हुआ। परिवार में यौन संबंध के नियम एवं नियंत्रण निश्चित हुए। वाणिज्य, व्यापार और नगरों के विकास आरंभ हुए। धीरे-धीरे सामाजिक आर्थिक संगठन बहुत ही व्यवस्थित हो गए। श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण आर्थिक कार्य-कलाप के मुख्य आधार बने। राजनीतिक संगठन का विकास हुआ। राज्य की अवधारणा का विकास हुआ। कानून का भी विकास व्यक्तियों के हितों की रक्षा के लिए होने लगा। आधुनिक काल में विज्ञान के विकास से उद्योगीकरण और नगरीकरण की प्रक्रिया तेज हुई इसके परिणामस्वरूप जटिल समाज की रूपरेखा सामने आयी। पूँजीवादी व्यवस्था पूर्ण विकसित रूप में सामने आयी। समाज में प्रजातंत्रात्मक सिद्धान्तों को स्वीकृति मिली। राज्य को एक कल्याणकारी संस्था माना गया। समाज में प्रत्येक क्षेत्र में भौतिकवादी दर्शन की छाप पड़ी।
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