समाज शास्‍त्र / Sociology

संस्कृति क्या है? | संस्कृति की परिभाषा | सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक | सांस्कृतिक विडम्बना के सिद्धान्त की आलोचना

संस्कृति क्या है? | संस्कृति की परिभाषा | सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक | सांस्कृतिक विडम्बना के सिद्धान्त की आलोचना

संस्कृति क्या है?

कुछ विद्वान सामाजिक परिवर्तन को संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर समझाने की चेष्टा करते हैं। इस सन्दर्भ में आगबर्न और निमकाफ (Ogburn and Nimkoff) तथा सोरोकिन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सांस्कृतिक परिवर्तनों के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने के पूर्व संस्कृति की अवधारणा की व्याख्या कर लेना आवश्यक है।

संस्कृति की परिभाषा

टायलर (Tylor) प्रसिद्ध मानवशास्त्री, संस्कृति की परिभाषा देते हुये लिखते हैं, “संस्कृति यह जटिल समग्रता है जिसके अन्तर्गत हम ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा तथा उन समस्त क्षमताओं और आदतों को सम्मिलित करते हैं तो व्यक्ति समाज के सदस्य होने के नाते प्रमुख करता है।”

पिडिंगटन (Piddington) संस्कृति की एक दूसरे प्रकार से व्याख्या करते हुए लिखते हैं, “संस्कृति उन भौतिक तथा बौद्धिक साधनों का योग है जिनके द्वारा मानव अपनी प्राणशास्त्रीय तथा सामाजिक आवश्यकताओं की संतुष्टि तथा अपने पर्यावरण से अनुकूलन करता है।”

आपका मत टायलर से भिन्न है। टायलर संस्कृति के अन्तर्गत केवल भौतिक पक्षों को ही सम्मिलित करते हैं जबकि आप अभौतिक एंव भौतिक दोनों ही पक्षों के अस्तित्व को संस्कृति के अन्तर्गत सम्मिलित करने के पक्ष में है।

लैण्डिस (Landis) भी लिखते हैं, “संस्कृतिक वह दुनिया है जिसमें एक व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक निवास करता है, चलत फिरता है एवं अपना अस्तित्व बनाये रखता है।”

हर्षकोविट्स (Herskovits) ने संस्कृति की सबसे सूक्ष्म एवं उत्तम परिभाषा दी है। आप लिखते हैं, “संस्कृति पर्यावरण का मानव निर्मित भाग है।” मनुष्य को सदैव अपने चारों ओर की दशाओं एवं शक्तियों के साथ संघर्ष करना पड़ता है। अपने सही रूप में पर्यावरण से अनुकूलित करने के लिये व्यक्ति विभिन्न प्रकार की वस्तुओं एवं पदार्थों को निर्माण करता है जिसे हम सामाजिक पर्यावरण की संज्ञा देते हैं। इसमें एक ओर विभिन्न भौतिक पदार्थ जैसे यंत्र, औजार, वस्त्र और आभूषण आदि वस्तुयें आती है तथा दूसरी ओर इस मानव निर्मित पर्यावरण का एक अभौतिक पक्ष भी होता है जिसके अन्तर्गत हम धर्म, प्रथा, कानून, लोकरीतियों, आचार-विचार एवं सामाजिक मूल्यों को सम्मिलित करते हैं।

इस प्रकार मानव निर्मित भाग को संस्कृति कहकर सम्बोधित किया गया है। इस व्याख्या के अनुसार संस्कृति के दो पक्ष होते हैं। पहला अभौतिक तथा दूसरा भौतिक। कुछ विद्वानों ने जैसे मैकाइवर और पेज ने अभौतिक सामाजिक विरासत को संस्कृति एवं भौतिक सामाजिक विरासत को सभ्यता के नाम से सम्बोधित किया है।

सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक

अब हम संस्कृति की व्याख्या की पश्चात् संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों के सन्दर्भ में प्रस्तुत सिद्धान्तों के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा को स्पष्ट करेंगे।

सांस्कृतिक विलम्बना की परिभाषा एवं अवधारणा- सांस्कृतिक विलम्बना की परिभाषा देते हुए आगर्बन लिखते हैं, “वह तनाव जो संस्कृति के दो सम्बन्धित भागों (भौतिक एंव अभौतिक) के बीच पाया जाता है जिसमें असमान गति से परिवर्तन होते हैं, उस भाग को विलम्बना कह सकते हैं जो मन्दगति से परिवर्तित होता है क्योंकि एक दूसरे के पीछे छूट जाता है।”

उदाहरण के लिये आपने बताया है कि जब उद्योग में परिवर्तन होता है, तो वह शिक्षा के क्षेत्र में भी परिवर्तन करता है क्योंकि दोनों ही एक दूसरे से घनिष्ट रूप से सम्बन्धित है किन्तु उद्योग (जोकि भौतिक संस्कृति का अंग है) तीव्रगामी होने के कारण शिक्षा (जोकि अभौतिक पक्ष है) के रूढ़िवादी होने के कारण आगे निकल जाता है और यह पिछड़ (Log) उस समय तक बनी रहती है जब तक कि पिछड़ा हुआ भाग और भी अधिक तीव्रगति से परिवर्तित होकर उसके बराबर न आ जाय। इस प्रश्न के उत्तर में कि यह पिछड़ कब तक रहेगी आगबन ने उसे संस्कृति के सम्बन्धित एक की प्रकृति तथा परिवर्तनशीलता पर निर्भर बताया है।

प्रायः सामाजिक जीवन में भी यह देखने को मिलता है कि जितनी शीर्घ हम किसी भौतिक वस्तु को स्वीकार कर लेते हैं उतनी जल्दी अभौतिकता में परिवर्तन नहीं कर पाते। एक ही दिन में धोती को लड़े व्यक्ति सूट, बूट, टाई धारण कर सकता है। बैलगाड़ी को छोड़ रेल-मोटर को यातायात को साधनों के रूप में स्वीकार कर सकता है जबकि जहाँ तक धर्म-मूल्यों एवं रूढ़ियों का प्रश्न है इतनी शीघ्रता से नहीं छोड़ जा सकता है। इसी प्रकार अन्य उदाहरण भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं जैसे जनसंख्या के बढ़ने के साथ अस्पतालों, डॉक्टरों या नों की संख्या में उसी अनुपात में वृद्धि हो जाती है। ट्रैफिक बढ़ने के साथ सड़के चौड़ी नहीं हो जाती। विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि के साथ विद्यालयों, अध्यापकों की संख्या नहीं बढ़ जाती। कहने का आशय है कि भौतिक पदार्थों में परिवर्तन अधिक तीव्र होता है जिससे अभौतिक पक्ष रूढ़िवादी होने के कारण पीछे छूट जाता है। भारतीय समाज इसका सबसे सुन्दर, उदाहरण प्रस्तुत करता है। जिस गति से भौतिक क्षेत्र में प्रगति हुई उस गति से भारतीय परम्पराओं, मूल्यों विचारों, एवं धार्मिक भावना में परिवर्तन नहीं हुआ है।

इस प्रकार आगर्बन का यह कहना कि भौतिक एवं अभौतिक पक्षों में असमान गति की मात्रा में कारण संस्कृति का भौतिक पक्ष आगे निकल जाता है तथा वह अभौतिक पक्ष में भी परिवर्तन करता है जो कि आगे चलकर सामाजिक परिवर्तन को घटित कराता है।

सांस्कृतिक विडम्बना के सिद्धान्त की आलोचना

आगबर्न के सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त में कुछ आधारभूत कमियाँ है जिसके आधार पर समाजशास्त्रियों ने उसकी कटु आलोचना की है।

  1. जिन्स और यूडबर्न का मत है कि आगबर्न के द्वारा संस्कृति को भौतिक तथा अभौतिक दो भागों में बांटना तर्क संगत नहीं है। वास्तविक भी यही है कि प्रत्येक भौतिक पदार्थ के अस्तित्व के पीछे व्यक्ति की बौद्धिक प्रतिभा छिपी होती है अर्थात् उसकी उपज व्यक्ति के मस्तिष्क की ही उपज होती है फिर उसे कैसे भौतिक या अभौतिक पक्षों में बाँटा जा सकता है।
  2. आगबर्न का यह कथन भी तर्क संगत नहीं है कि सदैव भौतिक संस्कृति ही आगे रहती है। भारतवर्ष में इसका अपवाद भी मिलता है। यहाँ तो सदैव अभौतिकता का ही आदर्श रहा है। सत्य-अहिंसा के सिद्धान्त हजारों वर्ष पुराने है। इसके अतिरिक्त भारत में नागरिक संस्कृति में भौतिक संस्कृति आगे है तथा अभौतिक पीछे जबकि ग्रामीण समाजों में आज भी अभौतिक संस्कृति ही आगे पाई जाती है।
  3. आगबर्न ने संस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त में भौतिक एवं अभौतिक दो पक्षों में होने वाली पिछड़ (Lag) का ही उल्लेख किया है जबकि वास्तविकता यह है कि यह पिछड़े भौतिक संस्कृति के ही विभिन्न तत्वों में मिल सकती है। इसी प्रकार यह अभौतिक संस्कृति के विभिन्न तत्वों में पाई जा सकती है जैसे हम दहेज प्रथा का विरोध करते हैं किन्तु जब अपने लड़के की शादी करनी होती है तब दहेज माँगते हैं। हम कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं।
  4. आगबर्न के सिद्धान्त में एक दोष यह भी है कि कौन भाग कितना पिछड़ गया है इसका कोई वैज्ञानिक प्रभाव नहीं है क्योंकि पिछड़ की मात्रा को आंकने के लिये कोई मापक (Measurement) भी नहीं है।
  5. मैकाइवर तथा पेज ने आगबर्न के द्वारा संस्कृति का भौतिक और अभौतिक पक्षों में विभाजन तर्कहीन बताया है। आप कहते हैं कि यह आवश्यक नहीं है कि अभौतिक ही पीछे रहे और भौतिक आगे। इसके विपरीत भी हो सकता है। आपने कहा है कि आगबर्न ने प्रत्येक प्रकार के असन्तुलन को बस एक ही नाम (सांस्कृतिक विलम्बना) देने का प्रयास किया है जो कि तर्कसंगत नहीं है। इसका एकमात्र कारण संस्कृति नहीं. बल्कि प्रौद्योगिकी भी है। मैकाइवर ने विभिन्न क्षेत्रों में पाये जाने वाले असन्तुलन या तनाव को भिन्न-भिन्न शब्दों के द्वारा सम्बोधित करने की बात कही है। हम आपके सुझावों को निम्न प्रकार से प्रस्तुत कर सकते हैं-

(क) प्रौद्योगिक विलम्बना (Technological Lag)-  आप का मत है कि प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में उद्योग की विभिन्न क्रियाओं के बीच पैदा होने वाले असन्तुलन को प्रौद्योगिक विलम्बना नाम से पुकारा जाना चाहिये कि सूती मिल में बुनाई या ब्रिकी विभाग की तुलना में रंगाई विभाग का काम पिछड़ता रहता है।

(ख) प्रौद्योगिक गतिरोध (Technological Restraint)-  कभी-कभी उद्योगों में इसलिये असन्तुलन पैदा हो जाता है क्योंकि मिल मालिक एक नई मशीन लगाना चाहता है किन्तु श्रमिक उसका विरोध करते हैं कि क्योंकि वे जानते हैं कि बौद्धिकीकरण मशीनों के कारण बहुतों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। इस प्रकार के तनाव को मैकाइवर ने प्रौद्योगिकि प्रतिरोध की संज्ञा दी है।

(ग) सांस्कृतिक संघर्ष (Cultural Conflict)-  जब एक समाज में दो संस्कृतियों का साथ-साथ अस्तित्व पाया जाता हो किन्तु एक संस्कृति के लोग दूसरी संस्कृति के साथ सलतापूर्वक अनुकूलन न कर सके बल्कि संघर्ष करे तब उसे सांस्कृतिक संघर्ष कहते हैं जैसे ब्रिटिशकाल में भारत में अग्रेजी संस्कृति एवं भारतीय संस्कृति में पाया जाने वाला संघर्ष है।

(घ) सांस्कृतिक विसंयुजता (Cultural Ambivalence)-  जब एक संस्कृति प्रदेश में दूसरी संस्कृति के लोग बस जाते हैं तो मूल निवासी बाहर से आई संस्कृति की कुछ विशेषताओं की ओर आकर्षित होने लगते हैं किन्तु अपनी मूल संस्कृति की विशेषताओं को छोड़ना भी नहीं चाहते। इसी प्रकार की स्थिति को सांस्कृतिक विसंयुजता कहते हैं। जैसा कि उत्तर प्रदेश में पंजाबी संस्कृति के आने के बाद हमने उनकी बहुत-सी बातों को अपना लिया है किन्तु अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को नहीं त्यागा है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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