हिंदी साहित्य का इतिहास

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की रसवादी समीक्षा

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की रसवादी समीक्षा

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की रसवादी समीक्षा

काव्य का उद्देश्य कल्पना में ‘बिम्ब’ उपस्थित करना होता है। इसे ही हम रूप विधान भी कह सकते हैं। चारों ओर फैला हुआ रूपात्मक जगत और मनोवृत्तियों या भावों की सुन्दरता स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार का जगत मन में रूप की सृष्टि करता है। यही सृष्टि ‘कल्पना’ है जो भावों इस रूप में जागरित करने की शक्ति रखती है कि वे रस कोटि में आ सके। वास्तव में मानसिक रूप विधान का नाम ही सम्भावना या कल्पना है। मन के भीतर यह रूप विधान दो प्रकार का होता है-

  1. प्रत्यक्ष देखी हुए पदार्थों के रूप, रंग, गति आदि के आधार पर खड़ा किया हुआ नया वस्तु व्यापार विधान। प्रथम प्रकार की रूप प्रतीति ‘स्मृति’ कहलाती है और दूसरे प्रकार की रूप प्रतीति ‘कल्पना’ । इन दोनों के मूल में प्रत्यक्ष अनुभव किये हुए बाहरी रूप विधान ही रहते हैं। अतः आचार्य शुक्ल ने रसात्मक बोध के लिए काव्य में तीन प्रकार के रूप विधान ही स्वीकार किये हैं-
  2. प्रत्यक्ष रूप विधान
  3. स्मृति रूप विधान
  4. कल्पित रूप विधान

सामान्य रूप से यह माना जाता है कि रसानुभूति कल्पित रूप विधान द्वारा जागरित मार्मिक अनुभूति है। अपने ‘रसात्मक बोध के विविध रूप’ नामक निबन्ध में आचार्य शुक्ल ने यह दिखाया। है कि इनमें से तीनों प्रकार का रूप विधान भावों का रस कोटि तक जागरित करने में समर्थ है। यहाँ हम देखेंगे कि शुक्ल जी ने किस प्रकार अपने मत का व्याख्यान किया है।

  1. प्रत्यक्ष रूप विधान द्वारा रसात्मक बोध-

प्रत्यक्ष रूप विधान ही भावुकता का मूल आधार है और रसात्मक बोध की भी आधारशिला है जिनमें प्रत्यक्ष रूपों की मार्मिक अनुभूति जितनी अधिक होती है, वे रसानुभूति के लिए भी उतने ही अधिक उपयुक्त होते हैं। शुक्ल जी कहते हैं- “जो किसी मुख के लावण्य, वनस्थली की सुषमा, नदी या शैलतटी की रमणीयता, कुसुम-विकास की प्रफुल्लता, ग्राम दृश्यों की सरल माधुरी देख मुग्ध नहीं होता, जो किसी प्राणी के कष्टव्यंजक रूप और चेष्टा पर करुणाई नहीं होता, जो किसी पर निष्ठुर अत्याचार होते देख क्रोध से नहीं तिलमिलाता, उससे काव्य का सच्चा प्रभाव ग्रहण करने की क्षमता कभी नहीं हो सकती।

सामान्यतया रूप विधान में लोगों का ध्यान कल्पना पर ही रहता है। इसका कारण है काव्य की प्रक्रिया में काव्य के और व्यापारों का कल्पित होना। पाठक या श्रोता मी अपनी कल्पना द्वारा ही मानसिक साक्षात्कार करके रसानुभाव करता है। उदाहरण के लिए एक स्थान पर हमने किसी अत्यन्त रूपवती का स्मित आनन और चंचल भू विलास देखा और मुग्ध हुए। फिर किसी चित्रालय में रमणीय की वैसी ही मधुर मूर्ति देख क्षुब्ध हुए। फिर तीसरे स्थान पर साथ में वैसी ही नायिका का सरस वर्णन पर रसमग्न हुए। इनमें से पहली प्रत्यक्ष या वास्तविक अनुभूति को अलग रखकर शेष दो से उसका सम्बन्ध ही न समझा गया। यूरोप में कलागत अनुभूति को वास्तविक या प्रत्यक्ष अनुभूति से एक दम पृथक और स्वतंत्र निरूपित जाने लगा। आचार्य शुक्ल ने इस सम्बन्ध में अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है-

“हमारा कहना यह है कि जिस प्रकार काव्य में वर्णित आलम्बनों के कल्पना में उपस्थित होने पर साधारणीकरण होता है। उसी प्रकार हमारे भावों के कुछ आलम्बनों के प्रत्यक्ष सामने आने पर भी उन आलम्बनों के सम्बन्ध में लोक के लिए कुछ काल अपेक्षित होता है। मोहक आलम्बन सामने पाकर कुछ क्षणों के लिए प्रेम के प्रथम अवयव स्थायी भाव का उदय एक साथ बहुतों के हृदयों में होगा।

‘हास’ में भी एक साथ बहुत से लोगों का योग रहने पर रसानुभूति हो सकती है। ‘उत्साह’ भाव की पुष्टि व्यक्तिगत सम्बन्ध से पूर्णतया मुक्त होने पर अनेक प्रत्यक्ष अनुभवों से सम्भव है। ‘स्वदेश प्रेम के गीत गाते हुए नवयुवकों के दल जिस साहसी भरी उमंग के साथ कोई कठिन या पुण्यकर कार्य करने के लिए निकलते हैं, वह वीरत्व की रसात्मक अनुभूति हैं। ‘शोक भाव में दूसरों की पीड़ा या वेदना देखकर जो करूणा जागती है, उसकी अनुभूति सच्ची रसानुभूति कही जा सकती है। इस प्रकार शुक्ल जी प्रत्यक्ष रूप विधान में भी रसानुभूति स्वीकार करते हैं। इस विवेचन का निष्कर्ष उन्होंने इस प्रकार दिया है-

“रसानुभूति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अनुभूति से पृथक कोई अर्न्तवृत्ति नहीं है बल्कि उसी का एक उदात्त और अवदात्त स्वरूप है। हमारे यहाँ के आचार्यों ने स्पष्ट सूचित कर दिया है कि वासना रूप में स्थित भाव ही रस रूप में जगा करते हैं। यह वासना या संस्कार वंशानुक्रम में चली आती हुई दीर्घभाव परम्परा का मनुष्य जाति की अन्तः प्रकृति में निहित संचय है।

  1. स्मृति रूप विधान द्वारा रसात्मक बोध-

पहले कभी प्रत्यक्ष देखी हुई कुछ परोक्ष वस्तुओं का वास्तविक स्मरण रसात्मक होता है। जन्मभूमि या स्वदेश, बाल सखाओं या शैशव या कुमारावस्था के अतीत दृश्यों का स्मरण हमारी मनोवृत्ति को कुछ भावक्षेत्र में ले जाकर हमें रसमग्न करता साथ या कम से कम सहृदयों के साथ हमारा तादात्म्य रहता है।

शुक्ल जी ने स्पष्ट किया है कि साधारणीकरण के प्रभाव से काव्य श्रवण के समय जिस प्रकार हम अपने व्यक्तित्व से विनिर्मुक्त होकर साधारण हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रत्यक्ष या वास्तविक अनुभूति के समय भी कुछ दशाओं में सम्भव है। अतः इस प्रकार की प्रत्यक्ष या वास्तविक रसानुभूति के अन्तर्गत कोई बाधा नहीं हो सकती। शर्त केवल यह है कि प्रत्यक्ष अनुभूति में रसात्मक अनुभूति के लक्षण मिल जायें। रसात्मक अनुभूति के दो लक्षण माने गये हैं-

  1. अनुभूति काल में अपने व्यक्तित्व के सम्बन्ध की भावना का परिहार।
  2. किसी भाव के आलम्बन का सहृदय मात्र के साथ साधारणी, अर्थात् उस आलम्बन के प्रति सारे सहृदयों में उसी भाव का उदय। रसात्मक अनुभूति के दोनों लक्षण यदि किसी प्रत्यक्ष अनुभूति में मिल जाये तो उसे भी रसात्मक अनुभूति कहा जायेगा।

आचार्य शुक्ल ने रति, हास और शोक आदि भावों का उदाहरण देकर यह सिद्ध किया है कि इनकी प्रत्यक्ष अनुभूति भी रसात्मक हो सकती है। उदाहरण के लिए ‘रति’ भाव का विवेचन लिया जा सकता है। गृहरी प्रेमानुभूति की दशा में मनुष्य रस लोक में ही पहुंचा रहता है। वहाँ उसके व्यक्तित्व का परिहार हो जाता है। प्रेमी अपना व्यक्तित्व मुलाकर हर्ष विषाद स्मृति इत्यादि संचारियों का अनुभव भी करता है। व्यक्तित्व का परिहार जितना अधिक होगा, प्रेमानुभूति उतनी ही रस कोटि के भीतर होगी और अभिलाषा, औत्सुक्त आदि दशाओं में व्यक्तित्व का सम्बन्ध जितना अधिक घनिष्ठ होगा, प्रेमानुभूति उतनी ही रस कोटि के बाहर होगी। हाँ रतिभाव की पूर्ण पुष्टि के लिए है। यह स्मृति दो प्रकार की होती है-

(क) विशुद्ध स्मृति (ख) प्रत्याश्रित स्मृति या प्रत्याभिज्ञान।

(क) विशुद्ध स्मृति- रति, हास और करुणा से सम्बद्ध वास्तविक स्मरण अवश्य ही रसात्मक होता है। प्रिय बाल सखाओं या अतीत जीवन के दृश्यों का स्मरण जो प्रायः रतिभाव से सम्बद्ध होता है, हमें रससिक्त कर सकता है। दीन दुखी या पीड़ित व्यक्ति के स्मरण का लगाव करुणा से होता है। यह रसानुभूति भी व्यक्ति सम्बन्धी की मुक्तावस्था में ही सम्भव है।

(ख) प्रत्याभिज्ञान- वह प्रत्यक्ष मिश्रित स्मरण हैं। भूतकाल में देखी हुई वस्तु या व्यक्ति को पुनः देखकर ‘यह वही है’ शब्दों में प्रत्याभिज्ञान की व्यंजना होती है। इसमें भी रस संचार की बड़ी गहरी शक्ति है। कौमार्य जीवन के किसी साथी को बहुत दिनों बाद सामने पाकर या अतीत के किसी जीवनखण्ड में सम्मिलित किसी स्थान विशेष को पुनः देखकर न जाने कितनी स्मृतियाँ हमें व्यक्ति सत्ता से पृथक कर भावक्षेत्र में पहुँचा देती है। ‘मन है जात अजौ वह वा जमुना के तीर’ ऐसी ही प्रत्यभिज्ञान स्मृति है। स्थिति की विषमता का प्रत्यभिज्ञान करुणा मिश्रित होता है। इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान रसात्मक अनुभूति या बोध का ही एक रूप है।

  1. कल्पना द्वारा रसात्मक बोध-

रसात्मक बोध में कल्पना द्वारा रूप विधान सर्वजन मान्य है। काव्य का सारा रूप विधान द्वारा ही होता है। इस सम्बन्ध में शुक्ल जी ने कहा है कि “काव्य में प्रयोजन की कल्पना द्वारा वही होती है जो हृदय प्रेरणा से प्रवृत्त होती है और हृदय पर प्रभाव डालती है।

कल्पना का प्रयोग विभाव अनुभाव सभी प्रकार के रूप-विधानों में होता है। स्थूल रूप से कल्पना का प्रस्तुत कार्य दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-

(क) प्रस्तुत रूप विधान- प्रस्तुत के सम्बन्ध में कल्पना का कार्य विभाव अनुभाव दोनों पक्षों के भीतर आता है। कल्पना का जगत या जीवन के सुन्दर रूपों, मार्मिक दशाओं और तथ्यों को मन में उपस्थित करती हैं, किसी विशिष्ट दशा या तथ्य की मार्मिकता का पूर्ण अनुभव कराने के लिए कल्पना मूर्त भावनाएँ भी खड़ी करती हैं, “विभाव पक्ष के ही अन्तर्गत हम उन सब प्रस्तुत व्यापारों को भी लेते हैं जो हमारे मन में सौन्दर्य, माधुर्य, दीप्ति, कान्ति, प्रताप, ऐश्वर्य, विभूति इत्यादि की भावनाएँ उत्पन्न करते हैं। सारा रूप विधान कल्पना ही करती हैं, अतः अनुभव कहे जाने वाले व्यापारों और चेष्टाओं द्वारा आश्रय को जो रूप दिया जाता है, वह भी कल्पना के द्वारा ही।

आचार्य शुक्ल ने यहाँ इस भ्रम का निराकरण भी किया है कि काव्य स्वप्न के रूप की वस्तु नहीं है। दोनों के आविर्भावस्थान एक ही है। परन्तु स्वरूप में भेद है। स्वप्न काल की प्रतीति प्रायः  प्रत्यक्ष के समान होती हैं। कल्पना में तृप्ति या वासना बुद्धि का प्रश्न नहीं उठता, जैसा कि स्वप्न के सम्बन्ध में कहा जाता है कि शुक्ल की कला के सम्बन्ध में प्रयुक्त अतृप्त वासनाओं की अभिव्यक्ति के सिद्धान्त को भी काव्य के विषय में सही मानते हैं, उनके विचार में काव्य का सम्बन्ध काव्य वासना की तृप्ति से बताने का भ्रम काव्य की कलाओं में परिणत करने से हुआ है। काव्य की गिनती कलाओं में नहीं होनी चाहिए।

(ख) अप्रस्तुत रूप विधान- काव्य में अप्रस्तुत का विधान भी कल्पना ही करती है। शुक्ल जी के विचार से कल्पना द्वारा अप्रस्तुत योजना भी भाव के संकेत पर होनी चाहिए, तभी यह सौन्दर्य, माधुर्य, दीप्ति आदि की भावना में वृद्धि करने वाली होगी और तभी उसमें काव्य का प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा। भाव की प्रेरणा से लाये गये अप्रस्तुत काव्य को प्रभविष्णु बनाते हैं, कोरी कल्पना से लाये गये अप्रस्तुत नहीं। कल्पना का कार्य भाषा शैली को व्यंजक मार्गिक तथा चमत्कार पूर्ण बनाने में भी होता है। लक्षणिक वक्रता भी कल्पना की ही देन है।

निष्कर्ष-

काव्य में रसात्मकता बोध के लिए कल्पित या कल्पनाश्रित रूप विधान सर्वथा  महत्वपूर्ण, परन्तु साथ ही प्रत्यक्ष या स्मृति रूप विधान भी रसात्मकता बोध का हेतु हो सकता है। शुक्ल जी ने विशेष रूप से अपने इस निबनध में यही बताया है कि प्रत्यक्ष स्मृति से लाया रूप विधान भी कल्पित रूप विधान से पृथक नहीं है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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