हिंदी साहित्य का इतिहास

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की समीक्षा पद्धति | आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी की समीक्षा पद्धति की विशेषताएँ

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की समीक्षा पद्धति | आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी की समीक्षा पद्धति की विशेषताएँ

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की समीक्षा पद्धति

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी में समीक्षा शास्त्र की आधारशिला ही नहीं रखी प्रत्युत अपनी मौलिक समीक्षा प्रणाली हिन्दी को दी जिसका अनुकरण आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ0 नगेन्द्र आदि समीक्षकों ने किया समीक्षा को उन्होंने एक गम्भीर कार्य माना इसलिए उन्होंने लिखा है, “उच्च कोटि की आधुनिक रौसी की आलोचना के लिए विस्तृत अध्ययन सूक्ष्म अन्वेषण बुद्धि और मर्मग्राही प्रज्ञा अपेक्षित है। आचार्य शुक्ल आलोचना का स्वरूप विवेचनात्मक मानते हैं, अतः वे आत्म प्रधान तथा प्रभावाभिव्यंजक आलोचना को महत्व नहीं देते हैं। यह बात दूसरी है कि वे स्वयं कहीं कहीं आत्म प्रधान हो गये हैं। अपनी आलोचना रचनाओं में शुक्ल जी ने समीक्षा की निम्नांकित शैलियों का प्रयोग किया है।

  1. सैद्धान्तिक समीक्षा शैली – इस शैली के दर्शन उन निबन्धों में होते हैं जिनमें आचार्य शुक्ल ने समीक्षा शास्त्र का प्रतिपादन किया है। ‘चिन्तामणि’ के काव्य में लोक मंगल की साधनावस्था, “साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद’ तथा ‘रसात्मक बोध के विविध रूप निबन्ध तथा रस मीमांसा कृति इसी प्रकार की समीक्षा शैली से अनुप्राणित है। शुक्ल जी के समीक्षा सिद्धान्त इन्हीं रचनाओं में मुखरित हुए हैं।
  2. व्याख्यात्मक आलोचना शैली – शुक्ल जी की यह आलोचना शैली अत्यधिक प्रिय है जिसका प्रयोग ‘उन्होंने जायसी सूर तथा तुलसी सम्बन्धी आलोचनाओं में किया है। ये सभी रचनाएँ उनकी व्याख्यात्मक शैली का आदर्श नमूना है। ‘सूरदास’ में जब वे सूर के विरह वर्णन पर प्रकाश डालते हैं तो व्याख्यात्मक शैली का अच्छा उदाहरण मिल जाता है।
  3. ऐतिहासिक आलोचना शैली- किसी कवि तथा उसकी रचनाओं को उसके ऐतिहासिक परिवेश के सन्दर्भ में देखना ऐतिहासिक आलोचना शैली कहलाती है। वस्तुतः किसी कृति का सही मूल्य तभी आंका जा सकता है जबकि समीक्षक उन परिस्थितियों का भी अवगाहन करे जिनके बीच उस कृति की सर्जना हुई क्योंकि कृतिकार अपनी समकालीन परिस्थितियों से प्रभावित होता है। आचार्य शुक्ल ने अपनी आलोचनाओं में इस शैली का सार्थक प्रयोग किया है। ‘जायसी ग्रन्थावली’ की भूमिका में वे जायसी के काल की परिस्थितियों की चर्चा करते हैं और सिद्धान्तों का विश्लेषण करते हैं। ‘सूरदास’ नामक पुस्तक के पूर्वार्द्ध में भक्ति के विकास तथा वल्लभाचार्य के भक्ति सिद्धान्तों का गम्भीर विवेचन किया है क्योंकि सूर के काव्य के मूल्यांकन के लिए ये दोनों ही चीजें जरूरी थीं।
  4. तुलनात्मक आलोचनात्मक शैली – समीक्षक अपने मत को पुष्ट करने के लिए तुलनात्मक शैली का प्रयोग किया करता है। तुलनात्मक शैली जहाँ समीक्षक को अन्वेषण वृत्ति की परिचायक है, वहीं समीक्षा को रोचक तथा पाठकों के लिए ग्राह्य बनाती है। शुक्ल जी ने पूरी महारत के साथ इस शैली का प्रयोग किया है। जायसी के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते समय उन्हें कबीर की याद आ जाती है तो सूर की आलोचना करते समय में तुलसी के काव्यादर्श को याद करते हैं। साधारणीकृत की तुलना वे पश्चिम के व्यक्ति व्यवाद से कहते हैं तो आनन्द की अवस्था की दृष्टि से अपने किये काव्य वर्गीकरण को करण केस छहरात हिन्दी साहित्य का इतिहास में भी उन्होंने तुलनात्मक शैली का खुलकर प्रयोग किया है।
  5. निर्णयात्मक आलोचना शैली- उन्होंने अपनी आलोचनाओं में ऐसे निर्णय दिये हैं जो आज भी हिन्दी के विद्वानों को प्राहा है। जायसी पर जायसी प्रन्थावली’ की भूमिका में उनकी उपयोगिता आज भी विद्वानों को उसी रूप में प्राहा है। तुलसी के काव्य दर्शन के सम्बन्ध में उनके निर्णय लोकप्रिय हैं। साहित्य के इतिहास सम्बन्धी उनकी अनेक मान्यतायें अब भी अपने मूल रूप में हिन्दी में स्वीकार हैं।

शुक्ल जी की समीक्षा पद्धति की विशेषताएँ

शुक्ल जी की समीक्षा की विभिन्न शैलियों का परीक्षण करने के बाद उनकी समीक्षा की विशेषताओं पर विचार करना समीचीन रहेगा-

  1. सैद्धान्तिक समीक्षाशास्त्र का आधार – शुक्ल जी की आलोचना ऐसे सैद्धान्तिक समीक्षा मानो का निर्धारण करती है जो भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र से भिन्न थे। उन्होंने हिन्दी समीक्षा के नये मानदण्ड दिये, नये सिद्धान्त दिये तथा उन्होंने व्यावहारिक समीक्षा में इन सिद्धान्तों का प्रतिपादन भी दिखाया। यदि उन्होंने आनन्द की साधना अवस्था या प्रयत्न पक्ष को लेकर चलने वाले काव्यों के कवि को पूर्ण कवि कहा तो तुलसी में आपकी पूर्णता भी देखी। इस दृष्टि से शुक्ल जी के विषय में आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी जी का यह कथन सर्वथा उपयुक्त हैं- “जितना उत्कर्ष उन्हें साहित्य के सिद्धान्तों का निरूपण करने में प्राप्त हुआ, उतना ही दक्षता उन्हें उन सिद्धान्तों का व्यावहारिक प्रयोग करने में हासिल हुई है। पांडित्य में उनकी अप्रतिहत गति थीं, विवेचना की उनमें विलक्षण शक्ति थी।
  2. भारतीय एवं पाश्चात्य समीक्षा सिद्धान्तों का समन्वय – शुक्ल जी की दृष्टि समन्वयवादी थी। उन्होंने भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य शास्त्र का गहन अध्ययन किया तथा दोनों का तुलनात्मक विवेचन करते हुए उन्होंने अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। साधारणीकरण का सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र की देन है मगर उसकी तुलना उन्होंने पश्चिम के व्यक्ति वैचित्र्यवाद से की तथा दोनों के बीच सामंजस्य दिखाया। इसी प्रकार शुक्ल जी ने तत्व की दृष्टि से अपने लिए काव्य के भेदी का डंटन के शक्ति का काव्य तथा कला का काव्य के समान ठहराया। यह दृष्टि उनकी समीक्षा में सर्वत्र दिखाई पड़ती है।
  3. समीक्षा के व्यक्तित्व की छाप- शुक्ल जी गम्भीर एवं मर्यादावादी व्यक्ति थे। उन्हें जीवन तथा साहित्य में मर्यादा का उल्लंघन पसन्द नहीं था। उनका व्यक्तित्व उनके आलोचनात्मक निबन्धों में स्पष्ट झलकता है। वे काव्य का प्रयोजन लोकमंगल मानते थे जिस पर उन्होंने बराबर बल दिया है। व्यक्तित्व के कारण ही उन्होंने तुलसी के शील निरूपण की बेहद तारीफ की है तथा तुलसी को उन्होंने अपना आदर्श कवि माना है। इसका कारण यही है कि तुलसी का लोक उद्धारक रूप उनके व्यक्तित्व से मेल खाता है। वे प्रकृति से भावुक थे उनकी भावुकता आलोचना में यत्रतत्र दिखाई पड़ती है। तुलसी के सन्दर्भ में उन्होंने लिखा, “इस सफाई से सामने हजारों वकीलों की सफाई कुछ नहीं। इन कसमों के सामने लाखों कसमें कुछ नहीं हैं। यहाँ उन्होंने हृदय खोलकर रख दिया है, जिसकी पवित्रता को देख जो चाहे अपना हृदय निर्मल कर लें। इन पंक्तियों में समीक्षात्मक विश्लेषण कुछ नहीं है केवल स्तवन सा है। ऐसे स्थलों पर शुक्ल जी. प्रभाववादी हो गये हैं।
  4. विवेचनागत स्पष्टता – शुक्ल जी की आलोचक की यह प्रमुख बात है कि उन्होंने अपनी बातें बहुत ही स्पष्ट रूप से कहीं हैं। यदि कहीं कोई सिद्धान्त प्रतिपादित किया है तो उसे उदाहरण देकर समझाया भी है। वे जो भी विषय उठाते हैं उसके एक-एक अंग पर व्यवस्थित रूप से विचार करते हैं तथा उसे पूरी तरह स्पष्ट करके ही आगे चलते हैं। शुक्ल जी की आलोचनाओं को पढ़ने पर यह लगता है कि शुक्ल जी ने अपने विषय का गहराई से अध्ययन किया है, उस पर उनका अपना चिन्तन है तथा उसे वे ही सही ढंग से समझाने की क्षमता रखते हैं।
  5. मनोवैज्ञानिक आधार- अपनी आलोचनाओं में शुक्ल जी ने मानव मन के मनोविकारों का विश्लेषण कर अपनी आलोचना का मनोवैज्ञानिक आधार दे दिया है। यह बात अवश्य है कि यह विश्लेषण मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों में उतना खरा नहीं उतरता जितना जीवन में वास्तविकता की तथा मानव स्वभाव की कसौटी पर सूर की आलोचना में तो उन्होंने पशु प्रकृति तक का विश्लेषण किया है। ‘तुलसी’ नामक कृति में लज्जा, ग्लानि आदि मनोविकारों का बड़ा मार्मिक विवेचन हुआ है।
  6. आलोचना में कवि की अन्तर्वृत्तियों की खोज- आज तो समीक्षा कृति से कृतिकार की ओर जाने की है अर्थात् आलोचक रचनायें रचनाकार के व्यक्तित्व को पहचानने की कोशिश करता है। यह मनोविश्लेषणवादी आलोचना के अन्तर्गत आती है। यद्यपि शुक्ल जी की आलोचना में यह पद्धति विशेष मुखरित नहीं हुई है तथापि शुक्ल जी की दृष्टि इस ओर जरूर रही है। तुलसी की भक्ति पद्धति की विवेचना करते समय शुक्ल जी तुलसी के व्यक्तित्व की चित्तवृत्तियों का उद्घाटन करते हैं।
  7. वस्तुनिष्ठता या निरपेक्ष दृष्टिकोण- यद्यपि शुक्ल जी अपनी आलोचना में प्रभाववादी हो गये हैं तथा उन्होंने अपने व्यक्तित्व के गुणों के अनुसार आलोचनाएँ की हैं तथापि आलोचक शुक्ल ज्यादातर निरपेक्ष रहे हैं। उन्होंने किसी कवि के गुण दोषों पर समान रूप से चर्चा की है। यदि वे सूर के विरह वर्णन से सूर के प्रति कुछ क्रूर दिखते हैं क्योंकि उन्हें यह विरह गोपियों के बैठे ठाले का रोग दिखाई देता है तो सूर के काव्य में भावपक्ष की गहराई की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की तथा सूर की उन्होंने वात्सल्य तथा प्रेम का बेजोड़ कवि बताया है।
  8. हास्य व्यंग्य का प्रयोग- शुक्ल जी भले ही गम्भीर प्रकृति के रहे हों मगर उनकी आलोचनाओं में जाहिर है कि तीखी व्यंग्य चुटकी लेने की सामर्थ्य उनमें है। गम्भीर से गम्भीर आलोचना के बीच में वे व्यंग्य की ऐसी फुर्री छोड़ते हैं कि गम्भीरता की गरिमा सरसता से भीग उठती है। छायावाद को ‘नया नया ऊंट’ कहते हैं तो जायसी के विरह वर्णन में रीति कालीन कवियों तथा फारसी कवियों की ऊहात्मक उक्तियों पर भीठी चुटकी लेते हैं।
  9. सूत्रात्मकता- शुक्ल जी की यह अपनी विशेषता है कि वे गम्भीर से गम्भीर बात को एक वाक्य में कह डालते हैं जो सूक्ति बन जाता है। ऐसे सूत्र वाक्यों में गहन चिन्तन तथा गम्भीर अर्थ निहित है। एक वाक्य लीजिए- “करुणा की गति रक्षा की ओर है प्रेम की रंजना की ओर।” देखने में वाक्य अत्यन्त साधारण लगता है मगर इसकी व्याख्या उतनी सरल नहीं है। शुक्ल जी की आलोचना ऐसे सूत्र वाक्यों में भरी पड़ी है जो मणियों की तरह चमकते हैं।
  10. निगमन शैली- शुक्ल जी की आलोचनात्मक रचनाओं में यह प्रवृत्ति सामान्य रूप से देखने को मिलती है कि वे पहले एक वाक्य में कोई सिद्धान्त प्रतिपादित कर देते हैं तथा उसके बाद उसका विश्लेषण उदाहरण देकर करते हैं। उनके अनेक पैराग्राफ किसी सिद्धान्त वाक्य से प्रारम्भ होते हैं तथा पूरा अवतरण उसी की व्याख्या को समर्पित होता है। ‘लोकमंगल’ की साधनावस्था निबन्ध में एक अवतरण का प्रारम्भ इस वाक्य से होता है, “भावों की छानबीन करने पर मंगल का विघटन करने वाले दो भाव ठहरते हैं- करुणा और प्रेम। अगले कई अवतरणों में उन्होंने करुणा और प्रेम की व्याख्या लोकमंगल के सन्दर्भ में की है।
  11. शुक्ल जी की भाषा- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबन्धों की प्रतिपादन तथा भाषा शैली में एक विचित्र भव्यता है, जिसके द्वारा उनके उठान, उनके विकास और उनकी समाप्ति में प्रभूत प्रभावात्मकता दृष्टिगत होती है। यह कथन डॉ० शिवनाथ का है, जो शुक्ल की भाषा के विषय में बहुत सही लगता है। शुक्ल जी ने केवल समीक्षा शास्त्र की नींव ही नहीं रखी प्रत्युत उनके अनुरूप भाषा प्रयोग करने की प्रणाली का प्रवर्तन किया है। शुक्ल जी हिन्दी, संस्कृति, अंग्रेजी, उर्दू के पण्डित थे, जिनका प्रमाण उनकी आलोचना की भाषा देती है। उनकी आलोचना में प्रयुक्त भाषा के अनेक रूप मिलते हैं –

(क) परिष्कृत एवं तत्सम प्रधान भाषा- शुक्ल जी के उन निबन्धों में जिनमें उन्होंने समीक्षा के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, उन्होंने परिष्कृत तथा तत्सम प्रधान भाषा का प्रयोग किया है। इसलिए डॉ0 जयनाथ नलिन ने उनकी भाषा के विषय में कहा, “इतनी सम्मत परिष्कृत प्रौढ़, विशुद्ध और सुष्ठ भाषा कम ही मिलेगी। विवेचना की गम्भीरता के अनुपात से भाषा गम्भीर और प्रौढ़ रूप धारण करती है। साधारणीकरण और व्यक्तिवैचित्र्यवाद निबन्ध की भाषा अत्यन्त परिष्कृत तथा तत्सम प्रधान है। यहाँ पर कहना भी अनुचित नहीं होगा कि शुक्ल जी ने परिष्कृत भाषा में गम्भीर आलोचना करने का हिन्दी में सूत्रपात ही किया।

(ख) विषय एवं भाव के अनुकूल भाषा- शुक्ल जी की भाषा विषय एवं भावों के अनुकूल गम्भीरता तथा हल्का रूप धारण करती है। जब वे गम्भीर तथा सैद्धान्तिक विषय पर लिखते हैं तो उनकी भाषा गम्भीर शुद्ध परिष्कृत और तत्सम प्रधान होती है। काव्य में ‘लोक मंगल की साधनावस्था’ तथा ‘जायसी का विरह वर्णन’ निबन्धों की भाषाओं में यह अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है। जहाँ शुक्ल जी पूरी तन्मयता से लिखते हैं वहां उनकी भाषा भाव सबल हो जाती है।

(ग) समास प्रधान भाषा- शुक्ल जी ने कहीं-कहीं सामाजिक पदावली का प्रयोग अपनी आलोचनाओं में किया है। ऐसा उन्होंने वहीं किया है जहाँ शुक्ल जी भावुक हो गये हैं। ये पंक्तियाँ समास प्रधान भाषा के उदाहरण रूप में प्रस्तुत हैं, जो केवल प्रफुल्ल प्रसून-प्रसाद के सौरभ संचार, मकरन्द लोलुप-मधुर गुंजार, कोकिल निकुंज और शीतल सुख, स्पर्श समीर इत्यादि की ही चर्चा किया करते हैं वे विषयी भाग लिप्सु हैं।

(घ) विभिन्न भाषाओं के शब्द प्रयोग- शुक्ल जी ने आवश्यकतानुसार संस्कृत के, अंग्रेजी के, उर्दू फारसी के शब्दों का प्रयोग अपनी आलोचनाओं में किया है। केवल शब्द ही नहीं उन्होंने हिन्दी में नये शब्दों का प्रयोग किया है- जैसे कहीं-कहीं चलते शब्दों को उन्होंने नयी अर्थवत्ता प्रदान की है, जैसे- ‘तुलसी’ के सन्दर्भ में ‘चकपटाहट’ को एक संचारी भाव मानकर इस शब्द का अर्थोत्कृष कर दिया है।

अलंकार योजना- अपनी आलोचनाओं में शुक्ल जी ने रूपक, अलंकार आदि अलंकारों का खूब प्रयोग किया है। जायसी की आलोचना से यह वाक्य लीजिए। “यह दृश्य हिन्दू स्त्री के जीवन-दीपक की अत्यन्त उज्जवल दिव्य प्रभा है, जो निर्वाण के पूर्ण दिखाई पड़ती है। अथवा जैसे कवियों का स्वभाव रुख तोड़ना तुलसीदास ने बताया है वैसे ही कवियों का स्वभाव तोड़ना- मरोड़ना हो गया था।

स्थान और प्रदेय- आचार्य शुक्ल से पूर्व हिन्दी समीक्षा की आरम्भिक पृष्ठभूमि तैयार हो गयी थी फिर भी न तो हिन्दी समीक्षा का स्वतन्त्र रूप ही निखर पाया था न हिन्दी का समीक्षा शास्त्र ही बन पाया था। दरअसल शुक्ल जी से पूर्व हिन्दी में, समीक्षा कर्म को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया गया। आचार्य श्यामसुन्दर दास ने इस क्षेत्र में अवश्य कुछ गम्भीर कार्य किया किन्तु उसकी आलोचना का कोई स्वतन्त्र मौलिक स्वरूप नहीं हो पाया था। ऐसी स्थिति में हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में शुक्ल जी का आविर्भाव एक अभूतपूर्व घटना थी तथा उन्होंने हिन्दी समीक्षा को पहली बार मौलिक आधार दिया है। इसलिए उन्हें हिन्दी समीक्षा का जन्मदाता कहा जाता है। डॉ0 जयचन्द्र राय ने ठीक ही कहा है, “वस्तुतः आचार्य शुक्ल में ही सर्वप्रथम उस संगति के दर्शन हुए, जो हिन्दी आलोचना सिद्धान्तों को किसी प्राच्य अथवा पाश्चात्य सिद्धान्तों से नहीं अपने लक्ष्य ग्रन्थों और सृजनशील चेतना से जोड़ती है। इसलिए उन्हें मौलिक एवं उद्भावक आचार्य ही नहीं बल्कि हिन्दी आलोचना का जन्मदाता कहना सर्वथा युक्तिसंगत है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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