आधुनिक तुलनात्मक राजनीति के विभिन्न उपागम

आधुनिक तुलनात्मक राजनीति के विभिन्न उपागम | तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक उपागमों की आलोचना

आधुनिक तुलनात्मक राजनीति के विभिन्न उपागम | तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक उपागमों की आलोचना

आधुनिक तुलनात्मक राजनीति के विभिन्न उपागम

(Various Approaches in Modern Comparative Politics)

तुलनात्मक विश्लेषण के आधुनिक उपागम परम्परागत उपागमों की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक एवं क्रमबद्ध हैं। आधुनिक उपागमों के अन्तर्गत राजनैतिक संस्थाओं का गहराई तक अध्ययन किया जाता है। आधुनिक तुलनात्मक विश्लेषण के आधार पर राजनीति के गतिशील कारकों को समझा जा सकता है तथा कुछ सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित किए जा सकते हैं। तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन से सम्बन्धित आधुनिक उपागमों में कुछ प्रमुख उपागम निम्नलिखित हैं:-

(1) पद्धति विश्लेषण उपागम (System Analysis approach),

(2) संरचनात्मक कार्यात्मक विश्लेषण उपागम (Structural-functional Analysis approach),

(3) राजनैतिक विकासवादी उपागम (Political Development approach),

(4) मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम (Marxist-Leninist approach)|

(1) पद्धति विश्लेषण उपागम (System Analysis)-

आधुनिक युग में पद्धति शब्द का प्रयोग बहुत अधिक होने लगा है। ‘पद्धति’ की धारणा को प्राकृतिक विज्ञानों (Natural Sciences) से लिया गया है।

पद्धति का शाब्दिक अर्थ है-‘जटिल समष्टि’ अर्थात् विभिन्न व्यधियों से युक्त परस्पर सम्बन्धित समूह | बर्टलेन्फी के अनुसार-“पद्धति एक अंत क्रियाशील तत्वों का समूह है।” आधुनिक राजनैतिक विद्वानों का मत है कि राजनैतिक जीवन को भी एक पद्धति के रूप में देखा जाना चाहिए। उनके अनुसार राजनैतिक व्यवहार को तभी समझा जा सकता है जब कि समाज के प्राधिकारपूर्ण निर्णय लेने तथा उन्हें क्रियान्वित करने के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभावों के साथ-साथ अन्य महत्वपूर्ण चरों पर भी ध्यान दिया जाए।

राजनैतिक अध्ययनों में राजनैतिक पद्धति को एक व्यवस्था की उपव्यवस्था के रूप में देखा जाता है। राजनैतिक व्यवस्था कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है। यह समाज की अनेक उप- व्यवस्थाओं (आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक) में से एक है। राजनैतिक व्यवस्था एक विशेष प्रकार की उपव्यवस्था है। सामाजिक व्यवस्था तथा उसकी अन्य उपव्यवस्थाओं सेक्षसम्बन्ध रखते हुए भी यह बहुत हद तक स्वायत्त होती है। इसके पास अन्य व्यवस्थाओं को आदेश देने तथा उन्हें मनवाने की क्षमता होती है। डेविड ईस्टन के अनुसार, “राजनैतिक व्यवस्था स्वयं में परिपूर्ण सत्ता है जो उस वातावरण या परिवेश से, जिससे वह घिरी हुई होती है और जिसके अन्तर्गत वह प्रचलितं होती है, स्पष्टः पृथक् होती है।” राजनैतिक पद्धति से प्रभावित अवश्य होती है, किन्तु यह उसकी दासी नहीं होती । राजनैतिक पद्धति को भी अनेक उपपद्धतियाँ सम्भव हैं; जैसे-कानून-निर्माण समितियों का गठन इत्यादि। इसी प्रकार समिति- पद्धति की उपपद्धतियों के रूप में वित्तीय समिति, स्थायी समिति, प्रवर समिति इत्यादि को लिया जा सकता है।

पद्धति विश्लेषण उपागम के समर्थकों का मत है कि यह उपागम कुछ ऐसी धारणाओं को विकसित करने में सहायक सिद्ध हो सकता है जिसके आधार पर विभिन्न राजनैतिक घटनाओं की व्याख्या की जा सके । पद्धति विश्लेषण का झुकाव क्रमबद्ध अनुभवमूलक विश्लेषण की ओर है। इस उपागम का प्रयोग तथ्यों तथा आँकड़ों को एकत्रित करने तथा उनमें एकरूपता स्थापित करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। यह परिकल्पनाओं के निर्धारण के लिए कुछ कामचलाऊ प्रतिरूप प्रदान करता है।

राजनैतिक पद्धति के विषय में ईस्टन की धारणा या निवेश-निर्गत सिद्धान्त

डेविड ईस्टन द्वारा प्रतिपादित ‘निवेश-निर्गत विश्लेषण’ पद्धति विश्लेषण की एक प्रमुख देन है। यह तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन से सम्बन्धित आधुनिक उपागमों में सर्वाधिक मौलिक एवं लोकप्रिय है। इस उपागम के अनुसार सम्पूर्ण राजनैतिक प्रणाली को उसके पर्यावरण के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। यह उपागम राजनैतिक प्रणालियों को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखता है जिसके द्वारा विभिन्न निवेशों को निर्गतों में परिवर्तित किया जाता है। माँगों तथा समर्थनों को निवेश कहा जाता है। प्रत्येक राजनैतिक प्रणाली में असंख्य आवश्यकताएँ तथा अपेक्षाएँ विद्यमान होती हैं। डेविड ईस्टन के अनुसार-“सत्ताधारकों के उन कार्यों को निर्गत कहा जाता है जिनके द्वारा शासक राजनैतिक समुदायों की माँगों अथवा स्वयं अपने द्वारा प्रस्तावित माँगों को परिवर्तन प्रक्रिया के माध्यम से पूरा करने का प्रयास करते हैं।”

डेविड ईस्टन ने किसी भी राजनैतिक प्रणाली में उठने वाली विभिन्न मांगों को अनेक वर्गों में रखा है-(1) सेवा तथा सुविधाओं की माँग, काम के अधिकतम घंटे निश्चित करने के लिए कानून की माँग, शिक्षा तथा मनोरंजन से सम्बन्धित सुविधाओं की माँग, (2) सामाजिक सुरक्षा, की मतों पर नियंत्रण, स्वास्थ्य सेवाओं के प्रबन्ध की माँग, (3) मताधिकार, राजनैतिक सत्ता में तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक उपागम सहभागिता, राजनैतिक दलों को बनाने के अधिकार की माँग, (4) प्राधिकारपूर्ण निर्णयों एवं नीतियों से सूचित किए जाने की माँग इत्यादि । केवल माँगों का होना ही पर्याप्त नहीं है। उन्हें निरन्तर समर्थन प्राप्त होना चाहिए। यह समर्थन अनेक प्रकार से प्राप्त हो सकता है-(1) समय पर करों की अदायगी के रूप में मिलने वाला भौतिक समर्थन (Physical support), (2) नियम तथा कानूनों के पालन के रूप में मिलने वाला समर्थन, (3) मतदान तथा राजनैतिक वाद-विवादों में सहभागिता के रूप में मिलने वाला समर्थन तथा (4) प्रशासनिक आदेशों के पालन के रूप में मिलने वाला समर्थन।

पद्धति-विश्लेषण उपागम की आलोचना

पद्धति-विश्लेषण उपागम की अनेक कारणों से तीव्र आलोचनाएँ की गई हैं जो निम्नलिखित हैं:-

(1) पद्धति विश्लेषण के समर्थक किसी एक विशेष विचार से मनोग्रस्त (obsessed) प्रतीत होते हैं। वे सभी घटनाओं को एक प्रणाली के रूप में देखने लगते हैं। (2) पद्धति विश्लेषण परिकल्पनाओं के निर्माण में बहुत अधिक सहायक सिद्ध नहीं हो सकता। इस उपागम के आधार पर जिन परिकल्पनाओं का निर्माण किया जाता है उनकी प्रकृति अमूर्त होती है। अतः उनकी अनुभवसिद्ध जाँच नहीं की जा सकती। (3) इस उपागम में मनोवैज्ञानिक कारणों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। (4) इस उपागम में क्रांतिकारी परिवर्तनों को स्पष्ट करने की क्षमता नहीं होती। इसमें यह मानकर चला जाता है कि राजनैतिक व्यवस्था में आए सभी परिवर्तन विकासवादी प्रवृत्ति के होंगे। (5) ईस्टन ने राजनैतिक पद्धति को अत्यधिक स्वायत्तता प्रदान की है। राजनैतिक व्यवस्था को स्वायत्त मानना विभिन्न व्यवस्थाओं की अंतःक्रिया की अनदेखी करना है।

(2) संरचनात्मक कार्यात्मक विश्लेषण (Structural-functional Analysis)-

इस विश्लेषण का उद्भव रेडिक्लिफ ब्राउन इत्यादि की रचनाओं में देखा जा सकता है। किन्तु राजनैतिक विश्लेषण के रूप में इसका प्रयोग 1950 के उपरान्त ही माना जाता है। संरचनात्मक कार्यात्मक उपागम भी पद्धति-विश्लेषण की ही देन है।

संरचनात्मक कार्यात्मक विश्लेषण दो प्रमुख धारणाओं पर आधारित हैं संरचनाएँ तथा कार्य। किसी भी प्रणाली में उन व्यवस्थाओं को संरचना कहते हैं जो विभिन्न कार्य सम्पादित करती हों। एक कार्य बहुत-सी संरचनाओं द्वारा सम्पादित किया जा सकता है और इसी प्रकार एक संरचना बहुत से कार्यों को सम्पादित कर सकती है।

ऑलमंड द्वारा विश्लेषण (Almond’s Analysis)- संरचनात्मक कार्यात्मक उपागम की दिशा में ऑलमंड का प्रयास सराहनीय रहा। उसका उद्देश्य एक ऐसे सिद्धान्त की खोज करना था जो विभिन्न राजनैतिक प्रणालियों में हुए परिवर्तनों को. स्पष्ट कर सके। ऑलमंड के अनुसार प्रत्येक राजनैतिक प्रणाली में निम्नलिखित चार मुख्य विशेषताएँ होती हैं:-

(1) प्रत्येक राजनैतिक प्रणाली में कुछ संरचनाएँ होती हैं। इनमें से कुछ संरचनाएँ अन्य संरचनाओं की तुलना में अधिक कार्य सम्पादित करती हैं।

(2) विभिन्न प्रणालियों एवं उनकी संरचनाओं में अन्तर हो सकता है, किन्तु सभी राजनैतिक प्रणालियाँ एक जैसा कार्य सम्पादित करती हैं।

(3) एक से अधिक कार्य सम्पादित करने वाली राजनैतिक संरचनाओं को बहुकार्यात्मक संरचनाएँ कहा जा सकता है।

(4) सभी राजनैतिक प्रणालियों की अपनी अलग संस्कृति होती है। यह प्रायः परम्परागत एवं आधुनिक संस्कृति का मिश्रण होता है।

संरचनात्मक कार्यात्मक उपागम की ऑलमण्ड द्वारा व्याख्या- ऑलमण्ड ने इसकी व्याख्या निम्नलिखित तीन चरणों में की है-

(1) राजनैतिक व्यवस्था के निवेश,

(2) परिवर्तन की प्रक्रिया,

(3) राजनैतिक व्यवस्था के निर्गत ।

(1) राजनैतिक व्यवस्था के निवेश- ऑलमण्ड भी निवेश के अन्तर्गत माँगों तथा समर्थनों को सम्मिलित करता है। उसके अनुसार विभिन्न मांगों को चार वर्गों में रखा जा सकता है-(1) वस्तुओं और सेवाओं की माँग, जैसे वेतन में वृद्धि की माँग, (2) व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए सुरक्षात्मक व्यवस्थाओं की माँग, (3) राजनैतिक सहभागिता से सम्बन्धित माँग, और मताधिकार की माँग तथा (4) संचारसम्बन्धी माँग, जैसे सूचनाएँ अथवा जानकारी प्राप्त करने की माँग इत्यादि।

ऑलमण्ड राजनैतिक समाजीकरण तथा भरती को निवेशों का निर्णायक तत्व मानता है। उसके अनुसार राजनैतिक समाजीकरण तथा राजनैतिक भरती के आधार पर यह ज्ञात किया जा सकता है कि माँगें किस प्रकार की होंगी तथा उनके समर्थन में जनता कितनी सक्रिय होगी। किसी भी राजनैतिक प्रणाली के विषय में कुछ धारणाओं का होना तथा राजनैतिक प्रणाली से सम्बन्धित विश्वास को राजनैतिक समाजीकरण कहा जाता है। राजनैतिक भरती से तात्पर्य राजनैतिक समाजीकरण के आधार पर व्यक्ति की राजनैतिक सक्रियता से है।

(2) परिवर्तन-प्रक्रिया- ऑलमण्ड ने परिवर्तन-प्रक्रिया का नया सूत्र प्रतिपादित किया। उसके अनुसार परिवर्तन-प्रक्रिया दोहरी होती है। एक ओर, परिवर्तन में उन क्रियाओं को सम्मिलित किया जा सकता है जिनके द्वारा विभिन्न मांगों को सत्ता द्वारा विचार के योग्य बनाया जाता है। दूसरी ओर उन क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है जिनके द्वारा इन मांगों पर वास्तव में विचार किया जाता है और निर्णय लिये जाते हैं।

(3) राजनैतिक व्यवस्था के निर्गत- ऑलमण्ड तथा पॉवेल ने निर्गतों के सन्दर्भ में ईस्टन द्वारा प्रतिपादित मॉडल को स्वीकार नहीं किया। वे विचारक निवेशों की भाँति निर्गतों को भी राजनैतिक समाजीकरण तथा भरती से सम्बन्धित मानते हैं। माँगों तथा समर्थनों का प्रभाव परिवर्तन-प्रक्रिया पर पड़ता है और इस प्रकार इनका प्रभाव निर्गतों पर भी पड़ता है। ऑलमंड तथा पॉवेल के अनुसार निर्गतों को चार वर्गों में रखा जा सकता है-(1) दोहक निर्गत, जैसे- करों की वसूली, (2) विनियामक निर्गत, जैसे-मानव-व्यवहार को नियमित करना, (3) वितरणात्मक निर्गत, जैसे-वस्तुओं, सेवाओं, सम्मानों का आबंटन तथा (4) प्रतीकात्मक निर्गत, जैसे-राजनैतिक नीतियों, उद्देश्यों की घोषणा आदि।

संरचनात्मक कार्यात्मक उपागम की समालोचना (Critical Evaluation of the Structural-functional Approach)- 

संरचनात्मक- कार्यात्मक उपागम की अनेक आधारों पर आलोचना की गई है जो इस प्रकार हैं-(1) इस पर स्थिर होने का आरोप लगाया गया है। कुछ विचारकों का मत है कि इस उपागम का प्रयोग यथास्थिति को उचित सिद्ध करने के लिए किया जाता है। यह आलोचना सैद्धान्तिक अधिक है और व्यावहारिक कम। संरचनात्मक कार्यात्मक उपागम में व्यवस्था की गत्यात्मक शक्तियों का भी अध्ययन किया जाता है। (2) इस उपागम पर माक्र्स-विरोधी होने का आरोप भी लगाया गया है। इन आलोचकों का  कहना है कि संरचनात्मक कार्यात्मक उपागम के समर्थक संघर्ष की अपेक्षा एकीकरण में अधिक विश्वास रखते हैं। वे बुर्जुआ प्रणाली को बनाये रखना चाहते हैं और साम्राज्यवाद का समर्थन करते हैं। (3) इस उपागम के द्वारा तीसरी दुनिया के देशों की समस्याओं का समाधान करने में कोई सहायता नहीं मिल सकी है। विभिन्न देशों की सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियाँ भिन्न- भिन्न हैं। (4) इस उपागम की बहुत-सी धारणाओं को प्राकृतिक विज्ञानों से लिया गया है। डेविड ईस्टन के अनुसार संरचनात्मक कार्यात्मक उपागम द्वारा दी गई धारणाएँ पर्याप्त नहीं हैं। इसमें प्रतिमानों (norms) को स्थान नहीं दिया गया और संरचनाओं के साथ सम्बन्ध स्थापित नहीं किया गया। (5) इस उपागम के आधार पर यह नहीं जाना जा सकता कि एक राजनैतिक पद्धति में विभिन्न कार्यों को किस सीमा तक पूरा किया जा रहा है, इत्यादि ।

  1. राजनैतिक विकासवादी उपागम (Political Development Approach)-

‘राजनैतिक विकास’ की कोई सुनिश्चित व्याख्या नहीं की जा सकी है। एस० एमर्सन, लिपसेट, कोलमैन इत्यादि इसे आर्थिक विकास की पूर्व-शर्त मानते हैं। गुन्नार मिर्डल, लरनर इत्यादि तो इसे राजनैतिक आधुनिकीकरण का पर्याय समझते हैं, जबकि ऑलमण्ड और कोलमैन इसे लोकतंत्र का पर्याय मानते हैं। डायच और फार्ल्स जन-संचारण और सहभागिता को राजनैतिक विकास का आधार मानते हैं। साम्यवादी विचारक स्थायित्व और व्यवस्थित परिवर्तन को राजनैतिक विकास मानते हैं। ल्यूसियन पाई समानता, क्षमता और विभेदीकरण को राजनैतिक विकास की प्रक्रिया के तीन आयाम मानता है। उसके अनुसार समानता का अर्थ है-राजनीति में आम जनता की अधिकाधिक सहभागिता । समानता का अर्थ यह भी है कि सभी कानून सामान्य प्रकृति के हों और वे सभी पर समान रूप से लागू हों। क्षमता का सम्बन्ध राजनैतिक व्यवस्था के निर्गतों से है। एक राजनैतिक व्यवस्था द्वारा शेष समाज एवं अर्थव्यवस्था को जितना ही प्रभावित किया जाता है वही उसकी क्षमता होती है। क्षमता से तात्पर्य सार्वजनिक नीतियों के कुशलतापूर्वक क्रियान्वयन तथा प्रशासन के प्रति धर्मनिरपेक्षता से भी लिया जा सकता है। विभेदीकरण की प्रक्रिया के द्वारा सरकार के विभिन्न भागों में श्रम का विभाजन कर दिया जाता है, किन्तु इनमें एकीकरण बना रहता है। समानता, क्षमता और विभेदीकरण के आधार पर किसी भी राजनैतिक पद्धति के विकास को समझा जा सकता है। राजनैतिक विकास एक भ्रामक शब्द है। मानकीय दृष्टिकोण वाले विचारकों का झुकाव ‘अच्छी राजनैतिक व्यवस्था’ की ओर रहता है।

डेविड एण्टर के अनुसार राजनैतिक विकास के अध्ययन के लिए दो प्रकार के अवधारणात्मक प्रतिरूपों का प्रयोग किया जा सकता है-(1) अविच्छिन्न प्रतिरूप और (2) अवस्थामूलक प्रतिरूप । अविच्छिन्न प्रतिरूप के अन्तर्गत पृथक-पृथक चरों के आधार पर विकास- प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है। इस विश्लेषण के आधार पर दो ऐसी प्रणालियों में तुलना की जा सकती है जिनमें कुछ विशेषताएँ समान हों किन्तु अन्य नहीं। उदाहरणार्थ, विकास के विभिन्न स्तरों पर प्रजातांत्रिक और सत्ताधारी पद्धतियों से सम्बद्ध विशेषताओं की तुलना की जा सकती है।

अविच्छिन्न प्रतिरूप के अन्तर्गत तीन प्रकार से विश्लेषण किया जा सकता है-(1) मात्रात्मक विश्लेषण, (2) गुणात्मक विश्लेषण और (3) बहुतत्वीय विश्लेषण | इस प्रतिरूप के अनुसार राजनैतिक विकास की तीन अवस्थाएँ सम्भव है-(1) परम्परागत अवस्था, (2) संक्रमणकालीन अवस्था तथा (3) आधुनिक अवस्था। परम्परागत अवस्था में कृषि प्रमुख होती है और उसी के अनुरूप राजनैतिक संरचनाएँ भी होती हैं। संक्रमणकालीन अवस्था में उद्योगीकरण आरम्भिक अवस्था में होता है और राजनैतिक प्रणाली भी नये पथ पर अग्रसर हो जाती है। आधुनिक अवस्था में उद्योगीकरण उन्नत दिशा में होता है और इसी के अनुरूप राजनैतिक प्रणाली भी विकसित अवस्था में होती है।

राजनैतिक विकासवादी उपागम की सीमाएँ या दोष (Limitations of Political Development Approach)-

राजनैतिक विकासवादी उपागम में बहुत से दोष हैं जो निम्नलिखित हैं:-

(1) राजनैतिक विकासवादी उपागम अभी तक कोई ऐसा सिद्धान्त विकसित करने में सफल नहीं हो सका है जिसे विभिन्न राजनैतिक प्रणालियों पर समान रूप से लागू किया जा सके। जब तक विभिन्न विकासशील देशों की प्रक्रियाओं, संरचनाओं तथा प्रकार्यों के परिणामात्मक मापन के लिए समान संकेतकों एवं परिकल्पनाओं को निर्धारित नहीं किया जाता, तब तक राजनैतिक विकास के अध्ययन को अधूरा ही कहा जाएगा।

(2) राजनैतिक विकासवादी उपागम मार्क्सवादियों को भी संतुष्ट नहीं कर पाता । मार्क्सवादी विचारक वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज को ही विकास की सर्वश्रेष्ठ अवस्था मानते हैं।

(3) राजनैतिक विकासवादी उपागम दोषपूर्ण है, क्योंकि इसमें राजनैतिक विकास तथा आधुनिकीकरण में कोई अन्तर नहीं किया जाता । इस उपागम के समर्थक कुछ राजनैतिक व्यवस्थाओं को ‘आदर्श’ मान लेते हैं जो कि विकासशील राज्यों के लिए असंगत अथवा असम्भव हो सकती हैं।

(4) पाश्चात्य विद्वानों ने स्वतंत्रता की तुलना में विकास को अधिक महत्व दिया। संयुक्त राज्य अमरीका में स्वतंत्रता का विकास पहले हुआ, व्यवस्था का बाद में। किन्तु सोवियत संघ में व्यवस्था का विकास तो तेजी से हुआ, पर स्वतंत्रता की भावना का अनुकूल विकास नहीं हो सका। परिणामस्वरूप वहाँ साम्यवादी दल की तानाशाही स्थापित हो गई। विकासशील देशों में हम पाते हैं कि प्रशासक-वर्ग स्वतंत्रता-जैसे मूल्यों को जनता तक पहुँचाने में असमर्थ रहा है।

(4) मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम (Marxist-Leninist Approach)- 

सोवियत संघ के ‘महाशक्ति’ के रूप में उदय तथा चीन, वियतनाम और पूर्वी यूरोपीय राज्यों में साम्यवाद के स्थापित होने के फलस्वरूप एक ऐसे उपागम की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी जिससे मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण के आधार पर राजनैतिक सामान्यीकरण तथा सम्भावनाओं की ओर ध्यान दिया जा सके। मार्क्सवादी-लेनिनवादी समर्थकों का कहना है कि पाश्चात्य विद्वानों द्वारा किए गए तुलनात्मक अध्ययन इतने अधिक विशिष्ट तथा व्यक्तिवादी हो गए कि राजनैतिक पद्धति का सन्दर्भ छूटने-सा लगा।

मार्क्सवादी-लेनिनवादी अध्ययन कोई नवीन नहीं है, किन्तु तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन में इसका प्रयोग अब होने लगा है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम की कुछ अपनी मान्यताएँ हैं, अवधारणाएँ तथा प्रविधियाँ हैं। इस उपागम में राज्य तथा इसकी औपचारिक संस्थाओं को अधिक महत्व नहीं दिया जाता। इस उपागम के आधार पर किया गया अध्ययन वास्तविक राजनैतिक प्रक्रियाओं से अधिक सम्बद्ध होता है। इस उपागम के प्रयोगकर्ता राजनैतिक व्यवहार को समझने के लिए समग्रवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं।

मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम के समर्थकों का कहना है कि विकासशील राज्यों की समस्याओं को इसी उपागम के आधार पर समझा जा सकता है। इनकी मान्यता है कि विकासशील राज्यों की महत्वपूर्ण समस्याओं को मार्क्स तथा लेनिन द्वारा प्रतिपादित धारणाओं के आधार पर ही समझा जा सकता है ।

मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम के समर्थक सामाजिक जीवन में शक्ति के आर्थिक पहलू को सर्वोच्च मानते हैं तथा राजनैतिक शक्ति को आर्थिक शक्ति के अधीन मानते हैं। इनके अनुसार जिस वर्ग के पास आर्थिक शक्ति होती है वही वर्ग अन्य वर्गों पर आधिपत्य स्थापित कर लेता है।’

मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम की आलोचना

(Criticism of Marxist-Leninist Approach)

इस उपागम की निम्नलिखित आलोचना की गयी है-(1) मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम में अत्यधिक विहंगम दृष्टिकोण अपनाया गया है। इसमें छोटे-छोटे किन्तु महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। (2) मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम के समर्थक एक ओर तो सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित करना चाहते हैं, दूसरी ओर इसकी जाँच के लिए आवश्यक सामग्री नहीं जुटा पाते; अतः इसमें सैद्धान्तिक परिशुद्धता नहीं आ पाती । (3) इस उपागम में ‘समर्षि’ को इकाई मानकर ही अध्ययन किया जाता है। आजकल राजनैतिक व्यवहार इतना जटिल हो गया है कि इसे व्यष्टि स्तर पर भी पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। (4) मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम विकसित तथा स्थिर राजनैतिक पद्धतियों के अध्ययन के लिए अधिक लाभप्रद नहीं है।

तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक उपागमों की आलोचना

(Criticism of Various Approaches in Modern Comparative Politics)

तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन की वर्तमान स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अधिकाँश विचारकों में तुलनात्मक राजनीति की विभिन्न अवधारणाओं, मान्यताओं तथा अध्ययन- पद्धतियों के विषय में मतैक्य (consensus) नहीं है। तुलनात्मक राजनीति के अध्येताओं के पास इतने अधिक कार्य हैं जिन्हें वे संतोषजनक ढंग से पूरा नहीं कर पाते। आधुनिक तुलनात्मक राजनीति के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं:-

  1. अत्यधिक दुःसाध्य विषय-क्षेत्र (Unwieldy in Scope)— तुलनात्मक राजनीति का विषय-क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। जी०के० रॉबर्ट्स के अनुसार तुलनात्मक राजनीति या तो सब कुछ है या फिर कुछ भी नहीं। इसके विषय-क्षेत्र का एक सीमा से अधिक विस्तार इसे राजनैतिक विज्ञान बना देता है और यदि इसके क्षेत्र को सीमित करने का प्रयास किया जाए, तो कोई उपयोगी निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते।
  2. अवधारणाओं के बारे में मतैक्य का अभाव (Lack of consensus on various concepts)- तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक अध्ययन में प्रयुक्त नवीन अवधारणाओं के बारे में मतैक्य का अभाव दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थ, राजनैतिक पद्धति, राजनैतिक विकास, राजनैतिक समाजीकरण इत्यादि शब्दों की कोई सुनिश्चित व्याख्या नहीं की जा सकती।
  3. विकासशील राज्यों पर अत्यधिक बल (Excessive emphasis on developing States)- द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका के नवोदित राज्यों के ऊपरं बहुत काम किया गया। इन राजनैतिक पद्धतियों को समझने के लिए नई-नई संकल्पनाओं तथा अध्ययन-दृष्टिकोणों को अपनाया गया। ये प्रयास अधिक सार्थक सिद्ध नहीं हो सके क्योंकि ये राज्य अभी संक्रमणकालीन अवस्था से गुजर रहे हैं और इनमें बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं।
  4. अत्यधिक व्यवहारवादी (Excessive emphasis upon behavior)- तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक उपागमों में राजनैतिक व्यवहार पर अत्यधिक बल दिया गया है। इसमें आनुभाविक तथ्यों पर प्रमाणित आँकड़ों को इतना महत्व दिया जाने लगा कि अन्य तथ्यों की अवहेलना होने लगी।

निष्कर्ष

तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन को अधिक वास्तविक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन सकारात्मक एवं मानकीय दोनों दृष्टियों से मानव-स्वभाव के अनुसार तथा सामाजिक अनुकूलन की अन्तहीन प्रक्रिया के रूप में किया जाए। साथ ही इस अध्ययन को अधिक से अधिक सरल बनाया जाए। इसके लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न राजनैतिक प्रणालियों पर किए गए नये अनुसन्धानों एवं उनके परिणामों को एकत्रित किया जाए ताकि अधिक भरोसे योग्य जानकारी प्राप्त की जा सके। इस प्रकार किसी भी देश की आन्तरिक राजनैतिक व्यवस्था के सैद्धान्तिक विश्लेषण में भी तुलनात्मक शोध-कार्यों का विशेष योगदान हो सकता है।

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