शिक्षाशास्त्र / Education

अस्तित्ववाद का तात्पर्य | शिक्षा में अस्तित्ववाद | भारतीय और पाश्चात्य दृष्टि से अस्तित्ववाद का तात्पर्य | अस्तित्ववाय के अनुसार दर्शन का तात्पर्य | अस्तित्ववाद की मूलभूत मान्यताएँ

अस्तित्ववाद का तात्पर्य | शिक्षा में अस्तित्ववाद | भारतीय और पाश्चात्य दृष्टि से अस्तित्ववाद का तात्पर्य | अस्तित्ववाय के अनुसार दर्शन का तात्पर्य | अस्तित्ववाद की मूलभूत मान्यताएँ

पिछले अध्यायों में हमने चार प्रमुख शिक्षा-दर्शन सम्प्रदायों के विषय में अध्ययन किया है। इन शिक्षा दर्शनों में एक विशेष बात पाई जाती रही जिससे कि ये व्यक्तिगत दृष्टिकोण न होकर तात्विक विवेचन रूप में प्रकट हुए। तत्वों के विवेचन से मनुष्य का ध्यान हट कर समूह के लौकिक जीवन की ओर केन्द्रित हुआ जिसके फलस्वरूप बीसवीं शताब्दी में सामाजिक अभिवृत्ति से सम्बन्धित चिन्तन शुरू हुआ। बीसवीं शताब्दी में विज्ञान की, तकनीकी ज्ञान की एवं समाजशास्त्रीय चिन्तन की अभिवृद्धि से व्यक्ति का मूल्य घटने लगा जिससे एक चिन्तन के क्षेत्र में संकट उपस्थित हुआ। इसी संकट को दूर करने में तथा वैयक्तिकता को पुनर्जीवित करने में एक नई दार्शनिक अभिवृत्ति का विकास हुआ जिसे “अस्तित्ववाद’ का नाम दिया गया है। अस्तित्ववाद इस प्रकार से वैयक्तिकता और मानव व्यक्ति को अक्षुण्य बनाने का एक हठ और दृढ़ आग्रह है। अस्तित्ववाद को यह मान्य नहीं कि व्यक्ति को समाप्त करके समाज को आगे बढ़ाया जावे । व्यक्ति अपने अस्तित्व को प्रकट करता है चाहे जिस ढंग से हो जीवन कायम रख कर या मृत्यु का आवाहन करके । मानव मन में उठने वाली सुखद- दुःखद भावनाओं की येनकेन प्रकारेण सन्तुष्टि, मानव की भावात्मक सतह को सचेतन रूप से छूने का प्रयल अस्तित्ववाद करता है। इस प्रकार अस्तित्ववाद समूह के बढ़ते प्रभावों के बीच व्यक्ति को जीवित रखने की दार्शनिक अभिवृत्ति है।

अस्तित्ववाद का तात्पर्य

संस्कृत के अस् धातु से “अस्ति” शब्द बना है जिसका अर्थ “होता है” है। इसी अस्ति शब्द से अस्तित्व और अस्तित्ववाद (Existence and Existentialism) शब्द बने है। इस आधार पर अस्तित्ववाद अस्तित्व सम्बन्धी विचारधारा है। अंग्रेजी शब्द Existentialism का मूल शब्द Ex (= out बाहर) तथा Sistere (= To make to stand खड़े रहना) है। इससे स्पष्ट है कि Existentialism अस्तित्ववाद वह विचारधारा है जिसमें व्यक्ति अपने अस्तित्व को संसार में खुले आम प्रकट करता है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति का निजत्व अस्तित्ववाद में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होता है।

शिक्षा में अस्तित्ववाद

  1. अस्तित्ववाद का तात्पर्य
  2. भारतीय और पाश्चात्य दृष्टि से तात्पर्य
  3. अस्तित्व वादी दर्शन की विशेषताएं
  4. अस्तित्ववाद के सिद्धांत
  5. शिक्षा में अस्तित्ववाद
  6. शिक्षा में अस्तित्ववाद का मूल्यांकन
  7. अन्य वादों से अस्तित्ववाद का सम्बन्ध

ऊपर के विचार से स्पष्ट होता है कि अस्तित्ववाद एक भौतिकवादी दृष्टिकोण है जिसमें मनुष्य का अहं अभिव्यक्त होता है। मनुष्य अपने भाव्य (Being) को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जब प्रकाशित करने की चेट करता है और तदनुकूल उसका चिन्तन भी होने लगता है वहाँ हमें अस्तित्ववादी अभिवृत्ति मिलती है। इस आधार पर प्रो० ब्लैकहैम ने इसे “भाव्य का दर्शन” (Philosophy of Being) कहा है। इनके शब्द इस प्रकार हैं:-

(अस्तित्ववाद भाव्य का दर्शन है, प्रमाणित करने तथा स्वीकार करने तथा भाव्य का चिन्तन करने एवं तर्क करने के प्रयल को अस्वीकार करने का दर्शन है।)

प्रो० लैकहैम के इस कथन से एक नई चीज मालूम होती है कि अस्तित्ववाद एक ऐसा दर्शन है जो यह प्रश्न करता है कि मनुष्य का अस्तित्व क्या है, न कि ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं है, जैसा कि सामान्यतया दर्शन में पूछा जाता है? सचमुच अस्तित्ववाद एक भौतिकवादी दृष्टिकोण वाला दर्शन है जिसका ध्यान केवल मानव-भूत (Human-Matter) की ओर है शेष चीजों से इसका सम्बन्ध नहीं होता है। इस सम्बन्ध में प्रो० एल० के० ओड के निम्न शब्द मिलते हैं :-

“परम्परागत दर्शन एक चिरन्तन प्रश्न को प्रस्तुत करते हैं-सत्ता क्या है? ईश्वर क्या है इस मूल प्रश्न से सम्बद्ध कुछ अन्य प्रश्न और पूछे जाते हैं जैसे-मनुष्य क्या है? ईश्वर क्या है ? विश्व क्या है ? ज्ञान, सत्य, सौंन्दर्य, अशुभ-शुभ आदि क्या हैं ?

“उक्त सभी प्रश्न सार तत्व से सम्बन्धित हैं। अस्तत्ववाद इन सारतत्व विषयक प्रश्नों से ध्यान हटाकर इस ओर दृष्टिगत होता है”-“मनुष्य क्या है?”

“…….. अस्तित्ववादी के लिए केवल मनुष्य है, जिसका अस्तित्व है। किसी विशिष्ट वस्तु होने के पूर्व सबसे पहले उसका अस्तित्व है।”

भारतीय और पाश्चात्य दृष्टि से अस्तित्ववाद का तात्पर्य

भारतीय परम्परा में “अस्तित्व” को स्वीकार किया गया है परन्तु इस अस्तित्व का स्वरूप “भौतिक मनुष्य” नहीं है, वह तो केवल “आध्यात्मिक अस्तित्व” (Spiritual Existence) है। भारतीय दर्शन मूलतः अवैयक्तिक और आध्यात्मिक है। (Indian Philosophy originally is impersonal and spiritual)। यहाँ तक कि मनुष्य में आत्मा की कल्पना करके उसे भी आध्यात्मिक अस्तित्व दिया गया है। अतएव भारतीय दर्शन के विचार से अस्तित्ववाद आध्यात्मिक भाव्य (Spiritual Being) का अस्तित्व स्वीकार करता है। मनुष्य के भौतिक भाव्य (Materialistic Being) को नहीं। आधुनिक अस्तित्ववाद में इस प्रकार के आध्यात्मिक भाव्य की कुछ झलक हमें किर्कगाई के शब्दों में मिलती है जिसमें पाश्चात्य एवं भारतीय दृष्टिकोणों का अन्तर भी पाया जाता है।

अस्तित्ववादी दर्शन “क्रियाशील अहं” (Active Ego) की अभिव्यक्ति है (Existential philosophy is the expression of active ego) | इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य यही सोचता है कि “मैं केवल एक प्राणी नहीं हूँ परन्तु ऐसा प्राणी हूँ जो अस्तित्व को प्रकट कर सकता है या जिसे प्रकट करना चाहिए। …मेरे लिए अस्तित्व स्वतन्त्रता में अपने आप का क्रियात्मक चुनाव है। …. अस्तित्व केवल मैं हूँ यही नहीं है बल्कि मैं क्या हूँ? यह है जो मैं होऊँगा इसको निर्णय करता है?”

ऊपर के विचारों से स्पष्ट है कि अस्तित्ववाद दर्शन का वह दृष्टिकोण है जो केवल मानव के अस्तित्व में विश्वास करता है और मानव में अहं की व्याप्ति इतनी होती है कि वह करता है और अपने-आपको प्रकट करता है जिससे एक व्यक्ति का अस्तित्व दूसरे को मालूम होता है। यह एक प्रकार से आत्म-अहं का ठोस प्रकाशन है।

अस्तित्ववाय के अनुसार ‘दर्शन’ का तात्पर्य

डॉ० एच० एन० मिश्र लिखते हैं कि “अस्तित्ववाद उन दर्शनों की एक कटु आलोचना है जो मनुष्य के अस्तित्व को महत्व देते हैं और संसार तथा उसकी समस्याओं को चिन्तन का केन्द्र समझते हैं।” अन्यत्र भी डॉ. मिश्र ने लिखा है कि “अस्तित्ववाद आत्मगत चिन्तन है”-(वर्दिएफ) तथा “अस्तित्ववाद में स्वयमेव हूँ” यह है। मैं का तात्पर्य मनुष्य से है। इन उद्धरणों से ज्ञात होता है कि अस्तित्ववाद संसार व मनुष्य के अस्तित्व का अहमवादी विश्लेषण है तथा आत्मगत चिन्तन है।

अस्तित्ववाद इस प्रकार से व्यक्तिगत दृष्टिकोण है और “अस्तित्ववाद को एक जीवन- पद्धति कहना अधिक सटीक लगता है।”-(डा० शिव प्रसाद सिंह) । अब स्पष्ट होता है कि अस्तित्ववादियों के अनुसार “दर्शन संसार की समस्याओं एवं व्यक्तिगत अस्तित्व से सम्बन्धित विश्लेषणात्मक चिन्तन है।” इनके अनुसार दर्शन एक आत्मगत मानवीय विश्लेषण का तरीका है। दर्शन वस्तुतः ऐसी स्थिति एक वैयक्तिक अनुभूति मात्र कहा जा सकता है जिसमें “मैं न कि “हम” केन्द्र माना जाता है। यही कारण है कि प्रत्येक अस्तित्ववादी का अपना दर्शन है, अपना तरीका है और अपना विश्वास भी है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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