औद्योगिक सम्बन्धों का अर्थ

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औद्योगिक सम्बन्धों का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning of Definition of Industrial Relations)

औद्योगिक सम्बन्ध एक गतिशील तथा विकासशील धारणा है। इसकी सीमाओं का निर्धारण नहीं किया जा सकता है। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि संगठन में नियोजकों एवं श्रमिकों तथा श्रम संघों के मध्य जो सम्बन्ध होते हैं, वे औद्योगिक सम्बन्ध कहलाते हैं।

औद्योगिक सम्बन्धों के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी परिभाषायें इस प्रकार हैं-

(1) डेल योडर के अनुसार, “औद्योगिक सम्बन्ध प्रबन्ध का वह पक्ष है, जो जन-शक्ति के प्रभावपूर्ण नियन्त्रण तथा उसके कुशल उपभोग से सम्बन्धित है तथा अन्य स्रोतों से भिन्न है।”

(2) बीटूल, स्मिथ एवं अन्य के अनुसार, “औद्योगिक सम्बन्ध प्रबन्ध का वह अंग है, जो कि उपक्रम की मानव शक्ति से सरोकार रखता है। चाहे यह मानव शक्ति मशीन चालक हो अथवा कुशल श्रमिक अथवा प्रबन्ध।”

(3) प्रो० डनलप के शब्दों में, “औद्योगिक सम्बन्ध श्रमिकों, प्रवन्धकों तथा सरकार के बीच पारस्परिक सम्बन्धों की जटिलता को कहते हैं।”

(4) वी० अग्निहोत्री के अनुसार, “औद्योगिक सम्बन्ध शब्द श्रमिकों, कर्मचारियों एवं प्रबन्ध के बीच उन सम्बन्धों को व्यक्त करता है जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से श्रम संघ एवं नियोक्ता के बीच सम्बन्धों के फलस्वरूप उत्पन्न होता है।”

उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेषणात्मक अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि, “औद्योगिक सम्बन्ध, श्रम-सम्बन्ध, प्रबन्ध एवं कर्मचारी संघों आदि के मध्य विद्यमान पारस्परिक सम्बन्धों को कहा जाता है।”

औद्योगिक सम्बन्धों की विशेषताएँ

(Characteristics of Industrial Relations)

औद्योगिक सम्बन्ध के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं-

(1) औद्योगिक सम्बन्ध एक प्रक्रिया है।

(2) औद्योगिक सम्बन्ध कुल प्रबन्ध का एक भाग है।

(3) औद्योगिक सम्बन्ध संगठन की नीतियों को प्रभावित करते हैं।

औद्योगिक सम्बन्धों का महत्व

(Significance of Industrial Relations)

औद्योगिक अनुशासन को बनाये रखने की दृष्टि से अच्छे औद्योगिक सम्बन्धों का विशेष महत्व है। औद्योगिक समाज में वर्ग-संघर्ष की सम्भावित उपस्थिति को रोकने के लिये श्रमिक वर्ग की कुछ मौलिक मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति वांछनीय है। भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री वी० बी० गिरी के शब्दों में, “तीव्र गति से आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये श्रमिकों और काम कराने वाले प्रबन्धकों के बीच सौहार्द सम्बन्धों का होना नितान्त आवश्यक है।” औद्योगिक जनतन्त्र की स्थापना करने और उसे कायम रखने में भी औद्योगिक सम्बन्ध महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। एक संयुक्त परिवार में पाये जाने वाले सम्बन्धों की अपेक्षा औद्योगिक सम्बन्धों में हितों की आपसी निर्भरता कहीं अधिक होती है। यही कारण है कि संयुक्त परिवार का विघटन होने पर इसके सदस्य व्यक्तिगत रूप से अपना व्यवसाय चला सकते हैं, जबकि उद्योग के विभिन्न घटकों के लिये ऐसा करना संभव नहीं होता।

प्रो. जे. एच. रिचार्डसन (J.H. Rechardson) के मतानुसार, ‘उद्योग’, ‘श्रम’ और ‘औद्योगिक-सम्बन्ध’ के प्रति अब एक नया दृष्टिकोण अपनाये जाने के कारण औद्योगिक सम्बन्ध का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है। आजकल ‘उद्योग’ को केवल लाभार्जन के उद्देश्य से अपनाया गया सेवायोजकों का प्रयास ही नहीं समझा जाता, अपितु विभिन्न सामाजिक वर्गों के सहयोग पर आधारित ऐसा प्रयास माना जाता है जिसका अन्तिम उद्देश्य सामाजिक लाभ को अधिकतम करना है तथा जिसकी सफलता के लिये ‘प्रबन्धक’ और ‘श्रमिक’ अपना-अपना योगदान देते हैं। अब यह माना जाता है कि श्रमिकों के बिना प्रबन्धक इसी प्रकार बेकार साबित होंगे, जिस प्रकार प्रबन्धकों या सेवायोजकों के बिना श्रमिक अव्यवस्थित, सामग्री-रहित और प्रभावहीन होते हैं। अतः सामाजिक उद्देश्यों को पाने के लिये उद्योग द्वारा उत्पादन कार्य में संलग्न सभी वर्गों की आवश्यकताओं एवं हितों की रक्षा की जानी चाहिये। पहले ‘श्रम’ को अनभिज्ञ, असंगठित और अचेतन (Unconscious) श्रमिकों का ऐसा समूह माना जाता था, जो प्रबन्धकों के मनमाने और पक्षपातपूर्ण आदेशों का पालन करने के लिये तैयार रहे लेकिन आजकल ‘श्रमिक’ को सर्वप्रथम और अन्तिम रूप से ‘मनुष्य’ माना जाता है, जो उत्तरदायित्व स्वीकार करने और निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति में सहयोग देने की क्षमता रखता है। इसी प्रकार, आजकल ‘औद्योगिक सम्बन्धों’ का उद्देश्य केवल विवादों का समाधान ढूंढना नहीं होता, अपितु औद्योगिक समाज के विभिन्न वर्गों के वीच वाधारहित और निश्चित सहयोग एवं सद्भावना स्थापित करना और बनाये रखना भी होता है।

औद्योगिक सम्बन्धों के पक्षकार

(Parties to Industrial Relations)

अच्छे औद्योगिक सम्बन्ध औद्योगिक विकास का मूलाधार है। औद्योगिक शान्ति श्रम- प्रबन्ध के बीच मधुर सम्बन्धों पर निर्भर करती है। अतः यदि वास्तव में देखा जाये तो औद्योगिक सम्बन्धों में मूल रूप से दो ही पक्ष होते हैं – श्रमिक वर्ग और नियोक्ता वर्ग। मगर आधुनिक काल में ‘राज्य’ भी दन दोनों पक्षों के सम्बन्धों को नियमित व मधुर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अतः ‘राज्य’ भी इसमें एक महत्वपूर्ण पक्षकार हो जाता है। इस प्रकार औद्योगिक सम्बन्धों की प्रक्रिया में निम्न तीन मुख्य पक्षकार होते हैं –

(1) श्रमिक एवं उनके संगठन – इनके श्रमिकों के व्यक्तिगत गुणों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। उसका सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक स्तर, योग्यता, कुशलता, कार्य के प्रति रुचि तथा उनके जीवन चरित्र पर ध्यान दिया जाता है।

(2) प्रबन्धक एवं उनके संगठन- उनके कार्य समूह एवं कार्य संगठनों पर बल दिया जाता है। इसमें विभिन्न समूहों और संगठनों के प्रकार, विशिष्टता के क्षेत्र आन्तरिक सम्प्रेषण, स्तर एवं अधिकार प्रणाली अथवा अन्य संगठनों से सम्बन्ध की व्यवस्था की जाती है।

(3) राज्य के कार्य- इसके अन्तर्गत राज्य के उत्तरदायित्व तथा कार्यों पर विशेष बल दिया जाता है। इसमें यह देखा जाता है कि राजकीय हस्तक्षेप, सहयोग और नियमन और श्रमिकों एवं उनकी कार्य की दशाओं में परिवर्तन लाने में कितना योगदान देते हैं। प्रो. किरकाल्डी के शब्दों में, “किसी देश में औद्योगिक सम्बन्धों की व्यवस्था वहाँ की राजनैतिक सरकार के स्वरूप पर आधारित होती है। औद्योगिक संगठनों के उद्देश्य भी अधिकांशत या राजनैतिक कारकों से प्रभावित होते हैं।

इस प्रकार संक्षेप में कहा जा सकता है कि, “औद्योगिक सम्वन्ध श्रम संघ, नियोक्ता एवं सरकार तीनों का संयुक्त उत्तरदायित्व है।”

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