मानव संसाधन प्रबंधन / Human Resource Management

कार्य से पृथक् प्रशिक्षण | Off the Job Training in Hindi | कार्य से अलग प्रशिक्षण की विधियों की विवेचना

कार्य से पृथक् प्रशिक्षण | Off the Job Training in Hindi | कार्य से अलग प्रशिक्षण की विधियों की विवेचना | Discussion of methods of off-job training in Hindi

कार्य से पृथक् प्रशिक्षण

(Off the Job Training)

कार्य से अलग प्रशिक्षण के अन्तर्गत वे प्रशिक्षण विधियां शामिल की जाती हैं, जो उनके कार्यस्थल से अलग कहीं दूसरे स्थान पर आयोजित की जाती हैं। इन विधियों में कर्मचारी कार्य वातावरण अथवा वास्तविक उत्पादन स्थलों पर प्रशिक्षण न प्राप्त करके बाह्य शिक्षण संस्थानों, संगठनों, प्रशिक्षण केन्द्रों, प्रशिक्षण संस्थाओं अथवा कम्पनी कक्षाओं में प्राप्त करता है। प्रशिक्षण के दौरान कर्मचारी अपना पूरा समय ज्ञान प्राप्त करके या प्रशिक्षण प्राप्त करने में लगाता है और इस अवधि में वह संगठन के सामान्य कार्य से बिल्कुल अलग रहता है। प्रशिक्षण अवधि पूरी हो जाने के बाद ही कर्मचारी अपने पूर्व के कार्य पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। इस प्रशिक्षण विधि को कक्षा प्रशिक्षण विधि (Classroom Teaching Method) भी कहा जाता है। इस विधि का सबसे लाभदायक पक्ष यह है कि कर्मचारी अपने कार्यों से मुक्त होकर स्वतंत्र दिमाग से पूर्ण अवधि तक ज्ञान व अनुभव प्राप्त करता है, जिससे उसके ज्ञान व कार्यकुशलता में अधिक वृद्धि होती है।

कार्य से अलग प्रशिक्षण की विधियाँ निम्न प्रकार की हैं:

  1. व्याख्यान सह वाद-विवाद (Lectures-cum-Discussions) – यह विधि काफी सरल, प्रचलित व पुरानी विधि है। व्याख्यान पद्धति के अन्तर्गत प्रशिक्षक मौखिक व्याख्यान देकर प्रशिक्षण प्राप्तकर्ता का ज्ञानवर्द्धन करता है। इस विधि में अति विशिष्ट व जानकार विशेषज्ञों द्वारा व्याख्यान कराया जाता है और उस व्याख्यान के बाद उस विषय पर वाद- विवाद भी कराया जाता है ताकि व्याख्यान के समय कुछ संशय रह गया हो, तो उसे दूर कराया जा सके। इस विधि में प्रशिक्षक में प्रभावी सम्प्रेषण तथा श्रोताओं की जिज्ञासाओं को शान्त करने की क्षमता होनी चाहिए। इसमें सैद्धान्तिक पक्षों को भी उजागर किया जाता है। हालांकि कभी-कभी इस विधि में चित्र व कार्य प्रदर्शन का भी सहारा लिया जाता है। यह विधि कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षण में ज्यादा प्रचलित है। औद्योगिक प्रशिक्षण में इसका प्रयोग कम किया जाता है। यह एक पक्षीय सम्प्रेषण विधि है और इसमें प्रशिक्षण का मूल्यांकन करना कठिन होता है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसमें कम लागत में, कम समय में अधिक-से-अधिक लोगों को सैद्धान्तिक प्रशिक्षण दिया जा सकता है।
  2. सम्मेलन विधि (Conference Method) – सम्मेलन विधि में अधिक-से- अधिक विशेषज्ञों द्वारा सामूहिक तौर पर विचार-विमर्श व सूचनाओं अथवा विचारों का अदान- प्रदान किया जाता है। सम्मेलन में किसी खास विषय की विशिष्टता पर विशेषज्ञों द्वारा अपने दृष्टिकोण प्रकट किये जाते हैं और उन्हें अपने ज्ञान, दृष्टिकोण व विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता रहती है। इनमें प्रशिक्षण प्राप्त करने वाला व्यक्ति भी अपनी भावनाओं व अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर सकता है और विचार-विमर्श में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है। इस विधि का प्रचलन बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। सम्मेलन विधि में निर्देशित सम्मेलन या समस्या समाधानमूलक सम्मेलनों के माध्यम से ज्ञान में वृद्धि की जाती है। इस विधि में समान योग्यता एवं स्तर वाले व्यक्तियों को प्रशिक्षित किया जाता है और पहले से भी उस विषय के बारे में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले को जानकारी रहती है। इस विधि में प्रशिक्षणार्थी का मानसिक विकास होता है।
  3. समस्या अध्ययन विधि (Case Study Method) – समस्या अध्ययन विधि प्रशिक्षण की एक महत्वपूर्ण विधि है और इसका प्रचलन सबसे पहले अमेरिका के हारवार्ड बिजिनेस स्कूल में किया गया था। इस विधि में समूह के सामने एक वास्तविक या काल्पनिक व्यावसायिक समस्या या स्थिति को रखकर उस पर विचार-विमर्श किया जाता है। समस्याओं के समाधान के लिए कई विकल्प रखे जाते हैं और उसका विश्लेषण, उसकी उपयुक्तता, तुलनात्मकता का निर्धारण कर श्रेष्ठ विकल्प की तलाश की जाती है। इस विधि में समस्याओं का गहन अध्ययन किया जाता है और सभी प्रतिभागी अपनी-अपनी राय व विश्लेषण प्रकट करते हैं। यह विधि विश्लेषणात्मक चिन्तन तथा समस्या समाधान की योग्यता को विकसित करती है। यह प्रशिक्षणार्थी के विषय की गूढ़ता, अस्पष्टता, विरोधाभास, अनिश्चितताओं व सही विकल्पों के तलाश के प्रति जागरूक करती है और निर्णय लेने की क्षमता में वृद्धि करती है। यह विधि प्रबन्धकीय कर्मचारियों, कानून, चिकित्सा, समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों आदि के लिए अधिक उपयुक्त है।
  4. भूमिका निर्वाह पद्धति (Role Playing Method)- यह भी प्रशिक्षण की महत्वपूर्ण पद्धति है। इस पद्धति में प्रशिक्षणार्थियों को नाटकीय तौर पर विभिन्न पद सौंपे जाते हैं और फिर उन्हें अपनी भूमिका निभाने को कहा जाता है। यह एक नाटकीय विधि या मनोनाट्य (Psychodrama) की पद्धति है, जिसमें प्रशिक्षणार्थी अपनी भूमिका का निर्वहन केवल अभिनय मात्र से करता है। अभिनय करते समय उस व्यक्ति का उस पद पर की व्याप्त अभिव्यक्ति का पता चलता है। यह विधि प्रशिक्षणार्थियों को विभिन्न व्यवहारों, मनोवृत्तियों एवं मनोदशा का अनुभव कराती है। इसमें प्रशिक्षणार्थी की योग्यता का तुरन्त मूल्यांकन हो जाता है और उससे उनके आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।
  5. संवेदनशीलता प्रशिक्षण (Sensitivity Training) – संवेदनशीलता प्रशिक्षण को टी-ग्रुप (T-Group), लेबोरेटरी ट्रेनिंग या नेतृत्व प्रशिक्षण आदि के नाम से भी जाना जाता है। यह प्रबन्धकीय विकास की एक तकनीकी के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। यह एक ऐसी विधि है जिसमें सदस्यों को खुला एवं स्वतन्त्र वातावरण प्रदान करने में, उसमें जागरूकता, सहनशीलता, सचेतनता, दूसरो को समझने की योग्यता आदि गुणों का विकास किया जाता है। इसमें प्रशिक्षणार्थियों के छोटे-छोटे समूहों में विभाजित कर नियन्त्रित परिस्थितियों में उनके अन्तर्वैयक्तिक व्यवहार (Interpersonal behaviour) का मूल्यांकन किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना व्यवहार तथा दूसरों पर उसके प्रभाव का ज्ञान कराया जाता है। इस प्रकार वे अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों में सुधार ला सकते हैं। यह प्रशिक्षण सदस्यों के लिए उनके विश्वासों, अभिवृत्तियों तथा आदर्शों को अभिव्यक्त करने का अवसर उत्पन्न करता है। इस विधि का सबसे बड़ा लाभ यह कि इससे प्रशिक्षणार्थियों में मानव व्यवहार (Human behaviour) को समझने की कला में विकास होता है और अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों को विकसित करने का अवसर प्रदान करता है।

कुण्ट्ज और वहरिच (Koontz and Weihrich) ने संवेदनशीलता प्रशिक्षण के मूलतः तीन उद्देश्य बतायें है:

(i) प्रशिक्षणार्थियों को अपने व्यवहार तथा उसका दूसरों पर प्रभाव के प्रति संचेतना उत्पन्न करना।

(ii) समूह प्रक्रिया की अच्छी समझ विकसित करना।

(iii) समूह प्रक्रिया में मानव व्यवहार का आकलन तथा उसमें उचित हस्तक्षेप की कला विकसित करना आदि।

  1. व्यवहारात्मक विश्लेषण (Transactional Analysis) – व्यवहारात्मक विश्लेषण पद्धति एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के साथ सम्बन्धों व व्यवहार को व्यक्त करने की प्रशिक्षण विधि है। जब व्यक्ति एक-दूसरे से सम्पर्क स्थापित करते हैं तो एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से किस प्रकार का व्यवहार करता है। इसका अध्ययन ही व्यवहारात्मक विश्लेषण है। यह विधि अन्तर्वैयक्तिक (Interpersonal) व्यवहारों व सम्बन्धों को प्रभावशाली बनाने का प्रशिक्षण प्रदान करती है। कुछ विशेषज्ञ इस विधि को तात्कालिक (Instant) अथवा ‘स्वयं करिये मनोविज्ञान’ (Do it Your self Psychology) भी कहते हैं। इस प्रशिक्षण विधि के द्वारा प्रशिक्षणार्थी को दो बातें सिखाने पर बल दिया जाता है :

(i) समस्त व्यक्तियों के भीतर विद्यमान तीन अहम् स्थितियाँ (Ego Status) की समझ विकसित करना; तथा

(ii) इन तीन अहम स्थितियों के सन्दर्भ में अन्तर्वैयक्तिक व्यवहारों का विश्लेषण करना।

व्यवहारातमक विश्लेषण इरिक बर्ने (Eric Berme) द्वारा 1964- में अपनी पुस्तक गेम्स पिपुल प्ले (Games Peole Play) द्वारा विकसित किया गया जिसे बाद में 1976 में थॉमस हेरिस (Thomas Heris) ने अपनी पुस्तक “I am Ok- You’re Ok” में अधिक प्रचलित कर व्यक्ति के अपने स्वयं के जीवन में अपने व्यवहारों को समझने की चर्चा की। इनका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर तीन अहम् स्थितियाँ – पिता (Parent), वयस्क (Adult) तथा शिशु (Child) विद्यमान होती है जो कि उसके व्यवहारों को प्रकट करती है। कभी वह पिता के रूप में, कभी वयस्क के रूप में तो कभी शिशु के रूप में व्यवहार करता है। इन तीन स्थितियों को समझ कर दूसरों के साथ किये जाने वाले व्यवहार में एक उपयुक्त अन्तर्दृष्टि उत्पन्न की जा सकती है। किसी भी व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के साथ अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों को निम्न चार स्थितियों में देखा जा सकता है :

(1) I am Ok – You’re Ok.

(2) I am Ok – You’re not Ok

(3) I am not Ok- You’re Ok.

(4) I am not Ok = You’re not Ok.

संगठन में प्रबन्धकों व अधीनस्थ कर्मचारियों या कर्मचारियों व कर्मचारियों के अन्तर्सम्बन्धों को अहम् स्थिति (Ego Status तथा Ok or not Ok के दृष्टिकोण व व्यवहार को समझकर संवादवाहन व सम्बन्ध विकसित किये जा सकते हैं और संगठन की समस्याओं के सन्दर्भ में उचित निर्णय लिए जा सकते हैं।

  1. प्रबन्धकीय खेल (Management Games) – इसे व्यावसायिक क्रीड़ा भी कहा जाता है। यह प्रवन्धकीय कला को विकसित करने की तकनीकी है। यह संगठन को सही दिशा में चलाने के लिए प्रोत्साहित करने की विधि है। इस विधि के अन्तर्गत दो दलों के बीच किसी विशेष लक्ष्य को लेकर प्रतियोगिता की जाती है। इस प्रतियोगिता में वास्तविक जीवन की परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व होता है। प्रशिक्षणार्थियों को व्यवसाय के विभिन्न क्षेत्रों जैसे – उत्पादन, वितरण, वित्त या कार्मिक आदि से जुड़े विषयों पर निर्णय लेने को कहा जाता है। प्रशिक्षणार्थी इसमें भाग लेकर तथा अनुरूपित अनुभव के द्वारा विभिन्न प्रकार के कौशल का विकास करते हैं। इस विधि के द्वारा प्रशिक्षणार्थी तुलनात्मक रूप से कम समय में संतुलित निर्णय लेने की योग्यता का विकास करते हैं।
  2. कार्यशाला (Workshop)- समय-समय पर प्रशिक्षणार्थियों को कार्यशाला आयोजित कर भी प्रशिक्षित किया जाता है। इस विधि में प्रशिक्षणार्थियों को कुछ समस्याओं का गहन अध्ययन करने का कार्य सौंपा जाता है। फिर आपसी विचार-विमर्श द्वारा समस्याओं के हल खोजे जाते हैं। प्रत्येक भागीदार सदस्य इसमें अपने ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर योगदान देता. है तथा सीखता है। सूचनाओं व अनुभवों के विनिमय से समस्या का समग्र चित्र स्पष्ट हो जाता है तथा वे अपनी दृष्टि बनाने में सक्षम होते हैं। कार्यशाला पद्धति काफी लोकप्रिय है। नई सूचनाओं एवं तकनीक की भी जानकारी कार्यशाला के माध्यम से दी जाती है।
  3. विशेष प्रशिक्षण पाठ्यक्रम विधि (Special Training Course) – आज बहुतेरी ऐसी संस्थाएँ हैं जो विशेष प्रशिक्षण पाठ्यक्रम चलाती हैं। इस विधि के अन्तर्गत संगठन अपने कर्मचारियों को विशेष प्रशिक्षण पाठ्यक्रम हासिल करने के लिए विभिन्न प्रबन्धकीय व तकनीकी संस्थाओं में भेजती है। विशेष तौर से प्रशासनिक सेवाओं, सेविवर्गीय सेवाओं, वित्तीय सेवाओं आदि के लिए कई ऐसी संस्थाएँ जैसे – भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, भारतीय सेविवर्गीय प्रबन्ध संस्थान, भारतीय प्रबन्ध संस्थान, विदेश व्यापार संस्थान, यूनिट ट्रस्ट कैपिटल मार्केट संस्थान, भारतीय वित्तीय संस्थाएँ आदि हैं, जिसमें विशेष पाठ्यक्रमों के द्वारा प्रशिक्षण देकर कार्यकुशलता वृद्धि का प्रयास किया जाता है। प्रवन्धकीय व प्रशासनिक श्रेणी के कर्मचारियों के लिए यह पद्धति काफी उपयुक्त है, जिसमें विशेषज्ञों का मार्गदर्शन प्राप्त होता है।
  4. अन्य पद्धतियां (Other Method) – कार्य से बाहर उपर्युक्त प्रशिक्षण विधियों के अतिरिक्त भी कई विधियाँ हैं, जिनके माध्यम से प्रशिक्षण दिया जाता है। आये दिन प्रशिक्षण की नवीन-नवीन पद्धतियाँ विकसित हो रही हैं। विशेष तौर से जबकि सूचना एवं तकनीकी क्रांति का प्रचलन बढ़ रहा है, सूचना तन्त्र के माध्यम से, इन्टरनेट, ऑडियो विजुअल, टेलीविजन, स्लाइड शो, आदि के द्वारा प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त स्वयं पठन (Self-reading), क्रिया अनुसंधान (Action Research), कारखाना दौरा (Plant visit), ब्रेन स्टॉर्मिंग सेशन (Bain storming sessions), उपलब्धि अभिप्रेरण कार्यशाला (Achievement Motivation Workshops), संरचनात्मक अन्तर्दृष्टि (Structural Insight), विशेष सभाएँ (Special Meetings), गोलमेज पद्धति (Round Table Method), सिन्डीकेट (Syndicate), अण्डर स्टडी (Under Study), इन-वॉस्केट प्रशिक्षण विधि (In-basket Training Method), विशेषज्ञ समूह विचार-विमर्श विधि (Expert Panel Discussion Method), प्रोग्राम्ड लर्निंग, कम्प्यूटर एडेड इन्स्ट्रक्शन एण्ड इन्टरएक्टिक वीडियो आदि अनेक ऐसी विधियाँ है जिसका प्रयोग कर संगठन के प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों को प्रशिक्षित कर उनकी कार्यकुशलता एवं योग्यता को बढ़ाया जा रहा है तथा संगठन के लक्ष्यों व उद्देश्यों की पूर्ति की जा रही है।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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