समाज शास्‍त्र / Sociology

औद्योगिक संगठन में कार्यवाहक | कार्यवाहको के कार्य

औद्योगिक संगठन में कार्यवाहक | कार्यवाहको के कार्य | Operations in industrial organization in Hindi | Duties of caretakers in Hindi

औद्योगिक संगठन में कार्यवाहक

‘औद्योगिक प्रबन्ध एक व्यापक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत संगठन तथा प्रशासन दोनों का समावेश होता है। इस संगठन तथा प्रशासन का कार्य, उद्योग के कार्यवाहक (Executive) द्वारा किए जाते हैं। कार्यवाहक उद्योग की नीति को क्रियान्वित करता है और प्रबन्ध कार्य को सम्पन्न करता है। उद्योग के स्वरूप तथा आकार के अनुसार कार्यवाहक के कार्यों में भी परिवर्तन होता रहता है। प्रबन्धकीय कार्यों के अन्तर्गत संगठन तथा प्रशासन के अतिरिक्त, विभिन्न विभागों में कार्य करने वाले व्यक्तियों के सम्बन्धों का भी समोवेश होता है।

कार्यवाहको के कार्य (Functions of the Executives)

औद्योगिक उपक्रमों में व्यवस्था तथा प्रशासन सम्बन्धी सभी कार्य, कार्यवाहकों द्वारा किए जाते हैं। किसी औद्योगिक उपक्रम में कार्यवाहक द्वारा कौन-कौन से कार्य किये जाते हैं, इन सम्बन्ध में विद्वानों ने अनेक प्रकार का विवेचन प्रस्तुत किया है। विंसेण्ट तथा मेयर्स (Vincent and Mayers) के अनुसार, कार्यवाहक के प्रमुख कार्य दो हैं-

(1) नीति निर्धारण तथा निर्णय

(2) प्रशासन। इसके विपरीत, जिस्बर्ट (Gisbert) ने कार्यवाहक के कार्यों में निम्नलिखित कार्यों को प्रमुख बतलाया है-

(1) नियोजन, (2) निर्णय करना (3) संगठन करना (4) विभागीकरण, (5) केन्द्रीयकरण और विकेन्द्रीयकरण करना, (6) निदेशन, (7) प्रेरणा तथा नेतृत्व, (8) नियन्त्रक, (9) संचार व्यवस्था ।

बर्नार्ड (Bernard) के अनुसार, कार्यवाहक के चार प्रधान उद्देश्य है। यथा- (1) उपक्रम के सामान्य लक्ष्य का निर्धारण, (2) कर्मचारियों का चयन, (3) आवश्यक सेवाओं की व्यवस्था, (4) संचार व्यवस्था को संगठित करना। कार्यवाहक के इन सभी कार्यों को ध्यान में रखते हुए हम उन्हें निम्न श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं-

(1) नियोजन कार्य (Planning) –

प्रशासन के विभिन्न स्तरों में नियोजन का महत्व सर्वाधिक है। इस कार्य को उच्च स्तर के कार्यवाहकों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इसमें यह तय किया जाता है कि कौन सा कार्य किस प्रकार और किसके द्वारा सम्पन्न होना है। इसके लिए कार्यवाहक को प्रधान पूँजी, साधन तथा कर्मचारियों की व्यवस्था करनी होती है। नियोजन कार्य के दो पहलू हैं-

(क) नीति निर्धारण (Policy Making )

(ख) निर्णय करना (Decision Making)

नीति निर्धारण (Policy Making)- नीति निर्धारण द्वारा इस बात को तय किया जाता है कि कब कौन सा कार्य करना है। नीति निर्धारण के दो लक्ष्य होते हैं। यथा- दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन दीर्घकालीन नीति, उत्पादन के आकार, वितरण आदि विषयक होती हैं। सामान्य  अल्पकालीन नीतियों का सम्बन्ध दैनिक क्रिया-कलापों से होता है। नीतियाँ संस्तरणात्मक होती हैं। इन्हें उद्योग के सर्वोच्च स्तर पर बनाया जाता है।

(2) निर्णय करना (Decision Making) :

निर्णय की प्रक्रिया का उद्योग से प्रमुख सम्बन्ध है। यह प्रबन्ध व्यवस्था का केन्द्रीय बिन्दु (Local Point) है। निर्णय के अन्तर्गत मुख्य रूप से दो कार्य आते हैं-

(क) कार्य का पूर्वानुमान (Forcasting),

(ख) वास्तविक स्थिति को पहचानना (Diagnosing)

(क) कार्य का पूर्वानुमान कार्य के पूर्वानुमान में यह निश्चित करना होता है कि क्या कार्य करना है, क्या कार्य किया जा सकता है। इसमें यह भी तय करना होता है कि किस प्रकार का उत्पादन करना है और कितनी मात्रा में।

(ख) वास्तविक स्थिति को पहचानता- इसके अन्तर्गत वे कार्य आते हैं जिनका सम्बन्ध वास्तविक परिस्थितियों को समझने से होता है। उदाहरण के लिये किसी विशेष प्रकार के उत्पाद की कितनी माँग हो सकती है और किस सीमा तक उद्योग द्वारा इस मांग को पूरा किया जा सकता है। सरकार की करारोपण सम्बन्धी नीति क्या है और वह किस सीमा तक उद्योग को प्रभावित करती है, इन सभी बातों को ध्यान में रखकर, वास्तविक स्थिति की पहचान की जा सकती है।

(3) संगठन कार्य (Organisational Functions):

कार्यवाहकों के संगठनात्मक कार्यों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। डेक्स्टर किम्बल के अनुसार, “इसके अन्तर्गत काम करने वाले कर्मचारियों तथा विभागों के कर्त्तव्यों का निर्धारण, कर्मचारियों के कार्यों, विभागों तथा व्यक्तियों के बीच कायम होने वाले सम्बन्धों का समावेश होता है।” जिस्बर्ट (Gisbert) के अनुसार, “संगठन कार्य एक ऐसी प्रक्रिया हैं, जो किसी उपक्रम, विभाग या समूह के अन्दर आवश्यक कार्यों तथा स्थितियों का निर्धारण करती है और उन्हें प्रभावपूर्ण प्रकार्यात्मक सम्बन्धों के अन्तर्गत क्रमबद्ध करती है जो प्रत्येक के अधिकार, कर्त्तव्य और दायित्व परिभाषित करती है और उन्हें आवश्यक व्यक्तियों से सम्बन्धित करती है ताकि एक सामान्य उद्देश्य की ओर सभी के प्रयत्नों का समावेश किया जा सके।” संगठन के अन्तर्गत अनेक प्रकार की क्रियाओं का समावेश होता है इनमें प्रमुख निम्न प्रकार हैं-

(क) समन्वय (Coordination)-औद्योगिक उपक्रम में अनेक कर्मचारी होते हैं। इनके कार्य तथा पद मित्र होते हैं। अतः उद्योग की सफलता के लिये विभिन्न व्यक्तियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करना कार्यवाहक के लिये आवश्यक है।

(ख) विभागीकरण (Departmentation) किसी भी औद्योगिक उपक्रम में उत्पादन कार्य अनेक प्रक्रियाओं को पूरा करने के बाद सम्पन्न होता है। अतः उत्पादन के विभिन्न स्तरों के अनुसार विभागीकरण आवश्यक होता है।

(ग) केन्द्रीयकरण और विकेन्द्रीकरण (Centralization and Decentralization) – केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीयकरण संगठन के प्रमुख पक्ष है। संगठन के सर्वोच्च स्तर पर निर्णय तथा आदेश की शक्तियाँ केन्द्रित रहती है। इसके विपरीत कुछ शक्तियाँ प्रबन्ध के निचले स्तरों तक फैली होती हैं। यह प्रबन्ध की विकेन्द्रित व्यवस्था है। उद्योग के आकार में वृद्धि के साथ-साथ विकेन्द्रीयकरण आवश्यक हो जाता है।

(ख) उदय और क्षैतिजीय विकास (Vertical and Horizontal Growth)- जब उपक्रम के संगठन के ढाँचे में, नये स्तरों (Levels) को स्थापित किया जाता है तो उसे उदग्र विकास कहा जाता है। इसके विपरीत जब स्तरों की संख्या बढ़ाये बिना, कुछ विभाग या कार्य बढ़ाये जाते है, तो उसे क्षैतिजीय विकास कहा जाता है। इस प्रकार उदग्र विकास का सम्बन्ध कार्यात्मक विकास से होता है।

(4) निदेशन करना (Directing)-

निदेशन के अन्तर्गत अधीनस्थों के कार्यों का निरीक्षण तथा उनका मार्ग दर्शन करना है। निर्देशन कार्य के निम्नलिखित प्रधान पक्ष हैं-

(क) संचार व्यवस्था (Communication System)

(ख) स्टाफ की नियुक्ति (Staffing)

(ग) अभिप्रेरण (Motivation),

(घ) नेतृत्व (Leaders tip) ।

(क) संचार व्यवस्था (Communication System)- संगठन के विभिन्न स्तरों के बीच संरक्षण बनाये रखने के लिए, संचार-व्यवस्था आवश्यक होती है। संचार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा विभिन्न स्तरों तथा विभागों के मध्य सम्पर्क स्थापित होता है। उद्योग की सफलता के लिए कुशल संचार व्यवस्था का होना आवश्यक है।

(ख) स्टाफ की नियुक्ति (Staffing)- आधुनिक औद्योगिक उपक्रम के लिए अनेक कर्मचारियों की आवश्यकता होती है। अतः उद्योग की आवश्यकतानुसार उपयुक्त कर्मचारियों का चयन और नियुक्ति आवश्यक होती है। इसके अन्तर्गत श्रमिकों की उत्पादकता, अनुपस्थिति, कर्मचारियों की नियुक्ति, पद निर्धारण, पद छंटनी, पदोत्रति तथा प्रशिक्षण आदि शामिल किए जाते हैं।

(ग) अभिप्रेरणा (Motivation)- औद्योगिक प्रबन्ध केवल मशीनों तक सीमित नहीं है। इसमें मानवीय तत्व का भी समावेश होता है। उद्योगों में कार्य करने वाले कर्मचारी विशेष महत्वपूर्ण है। इन्हीं के ऊपर उद्योग की सफलता निर्भर होती है। कार्यवाहकों के लिए यह आवश्यक बनाये रखें, ताकि उनहें अधिक उत्पादन के लिए प्रेरित किया जा सके। अभिप्रेक्षण एक मनोवैज्ञानिक कारक है जिसका प्रबन्ध के अन्तर्गत विशेश महत्व है।

(घ) नेतृत्व (Ledership)- स्वस्थ औद्योगिक सम्बन्धों के कर्मचारियों तथा प्रबन्ध व्यवस्था के बीच परस्पर सहयोग आवश्यक है। इसके लिए कार्यवाहकों के नेतृत्व सम्बन्धी कार्य महत्वपूर्ण हैं। नेतृत्व विभिन्न उपक्रमों की प्रकृति तथा दशाओं पर निर्भर हैं। उपक्रम में संगठन की दृष्टि से नेतृत्व सम्बन्धी कार्यों में आदेशों का पालन कराना, कर्मचारियों का मार्ग दर्शन कराना, कर्मचारियों के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार करना, उद्योग की प्रगति का ध्यान  रखना तथा विभिन्न स्तरों पर उत्पन्न होने वाली समस्याओं को हल करना प्रमुख है।

(5) नियन्त्रण करना (Controlling):

औद्योगिक प्रबन्ध का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष नियन्त्रण है। नियन्त्रण का आशय उपक्रम के कार्यों को इस प्रकार से नियन्त्रित करना है कि उसके उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके, नियोजन के दौरान ऐसी घटनाएँ हो सकती हैं, जो लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधक हों। ऐसी परिस्थिति में नियन्त्रण की प्रक्रिया द्वारा आवश्यक सुधार किया जा सकता है। औद्योगिक प्रतिष्ठान के सन्दर्भ में नियन्त्रण के तीन स्वरूप होते हैं–

(1) परिमाणात्मक नियन्त्रण (Quantitative Control)- परिमाणात्मक नियन्त्रण बजट, सांख्यिकी तथा कार्यक्रम-मूल्यांकन से सम्बन्धित हैं।

(2) गुणात्मक नियन्त्रण गुणात्मक नियन्त्रण उत्पादित वस्तुओं के गुण से सम्बन्धित हैं। गुण निर्धारण के प्रतिमान भी इसके अन्तर्गत आते हैं।

(3) मानवीय नियन्त्रण (Human Control)- मानवीय नियन्त्रण द्वारा उपक्रम में काम करने वाले कर्मचारियों की उन क्रियाओं को नियन्त्रित किया जाता है, जो उद्योग के अनुकूल न हों।

संक्षेप में कार्यवाहकों के अनेक कार्य होते हैं जिनका निर्वाह उद्योग की सफलता के लिए आवश्यक होता है। इन कार्यों को सम्पन्न किये बिना, उद्योग का ठीक प्रकार संचालन नहीं हो सकता।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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