अवधी भाषा का सामान्य परिचय | भोजपुरी भाषा का सामान्य परिचय | अवधी भाषा की विशेषताएँ | भोजपुरी भाषा की विशेषताएँ

अवधी भाषा का सामान्य परिचय | भोजपुरी भाषा का सामान्य परिचय | अवधी भाषा की विशेषताएँ | भोजपुरी भाषा की विशेषताएँ

अवधी भाषा का सामान्य परिचय

अवधी का विकास अर्धमागधी से माना जाता है। अर्धमागधी का जो साहित्यिक रूप उपलब्ध है, उसमें अवधी की कुछ प्राचीन विशेषताएं दृष्टिगत होती हैं। डॉ. बाबूराम सक्सेना का मत है, ‘पूर्वी हिन्दी का सम्बन्ध जैन अर्धमागधी की अपेक्षा पालि से ही अधिक है, किन्तु वास्तव में पालि, जैन अर्धमागधी से पुरानी भाषा है, इधर जैन अर्धमागधी ग्रंथों का सम्पादन तो ईस्वी सन् की पांचवी शताब्दी में हुआ था। इससे हम यह कल्पना कर सकते हैं कि प्राचीन अर्धमागधी बाद की अर्धमागधी से भिन्न थी और इस प्राचीन अर्धमागधी में ही अवधी की उत्पत्ति हुई।

साहित्यिक भाषा तथा बोलचाल की भाषा में सदैव से काफी अन्तर रहा है। अर्धमागधी के प्राचीन और नव्य रूप की कल्पना करके अवधी की सार्थक उत्पत्ति सिद्ध नहीं की जा सकती है। वास्तव में भाषाओं के जो भी साहित्यिक साक्ष्य हमें उपलब्ध हैं उनका स्वरूप क्षेत्रीय बहुत कम है। व्यापक प्रचार-प्रसार की चिन्ता के कारण कई क्षेत्रीय बोलियों के तत्त्व उनमें सम्मिलित हो गए हैं। डॉ० रामविलास शर्मा का मत ठीक इसके विपरीत हैं ‘अवधी किसी अर्धमागधी प्राकृत या अपभ्रंश की पुत्री नहीं है।’ अवघी का मूलाधार प्राचीन कोसली समुदाय की गणभाषाएँ हैं। कारक रचना और क्रियापद रचना दोनों में इस समुदाय की विशेषता थी। इसी से भाषा की संश्लिष्ट प्रकृति का जन्म हुआ।’

व्याकरणगत विशषताएं

संज्ञा-अवधी में प्रातिपादिक अधिकांशतः स्वरान्त हैं। अन्य स्वरों की अपव्याकरणगत विशषताए प्रधानता है। वैसे अन्य स्वरों से युक्त प्रातिपादिकों की भी प्रचुरता है। जैसे—

अ- घोर (ॾ़) घर जाप बाभन
आ- राजा, बाछा (बछवा), लरिका, संज्ञा
इ- राति भगति, ऑखि, जोति
ई- अंगुरी, सामी, पानी लछिमी
उ- जीउ, आँसु, पिउ, रितु
गोरू, पलटू, साधू, गुरु

अवधी में आ/अकारान्त और ईकारान्त संज्ञाओं के तीन-तीन रूप प्रचलित हैं, जैसे-लरिका- लरिकवा-लरिकौना, बिटिया, विट्टी, विटियवा। इया या उवा या वा प्रत्यय अधिकाशंतः शब्दों के साथ लगा दिए जाते हैं, जैसे-रतिया, बतिया; भिन्सरवा (सवेरे), संझवा। विदेशी शब्द भी इन प्रत्ययों से मुक्त नहीं रह सके है जैसे-रजिस्टरवा

भोजपुरी भाषा का सामान्य परिचय

बिहार के एक जिले भोजपुर के नाम से एक व्यापक क्षेत्र का नाम भोजपुरा क्षेत्र पड़ गया। इसी क्षेत्र की बोली भोजपुरी है। इस भोजपुर को राजा भोज के वंशजों ने स्थापित किया था। भोजपुरी का एक लम्बा क्षेत्र है जो उत्तर में नेपाल की दक्षिणी सीमा के निकट से शुरू होकर दक्षिण में छोटा नागपुर तक, पश्चिम में पूर्वी मिर्जापुर,वाराणसी, अम्बेदकर नगर से लेकर पूर्व में रांची और पटना के निकट तक फैला है, जिसमें बस्ती के कुछ भाग, गोरखपुर, देवरिया, राँची तथा पालामऊ आदि सम्मिलित हैं। भोजपुरी का अधिकतर क्षेत्र उत्तर प्रदेश में पड़ता है इसलिए इसे बिहारी बोली मानने में कुछ विद्वानों को संकोच होता है।

भोजपुरी में साहित्य रचना की दीर्घ परम्परा मिलती है। मध्यकालीन भक्त कवियों-कबीरदास, चरनदास, धरमदास, धरणीदास आदि ने भोजपुरी में अपनी कुछ वाणियाँ प्रस्तुत की। ठाकुर कवि का ‘विदेशिया’ बहुत ही लोकप्रिय रहा। सिनेमा में भी भोजपुरी को स्थान मिला है।

विशेषताएँ-

  1. भोजपुरी की ध्वनियाँ अवधी के समान हैं। ण ध्वनि नहीं है।
  2. शब्दों के मध्य में आनेवाले, र का प्रायः लोप हो जाता है, जैसे-लइका (तरिका), कइ (करि)।
  3. अवधी की तरह ल, ड का परिवर्तन र में हो जाने की भी प्रवृत्ति है-जैसे-पतला = पातर, थोड़ा = थोर, बाल = बार, मछली = मछरी।
  4. म्ब, म्भ संयुक्त व्यंजन म और म्ह में बदल जाते हैं।

कदम (कदम्ब), लाम (लम्बा), सम्हाल (सम्भाल), न, न्ध, क्रमशः न, न्ह हों जाते हैं, जैसे-सुत्ररी (सुन्दरी), चान (चन्द), सिनूर (सिन्दूर), कान्ह (कन्धा )।

भोजपुरी में ङ एक स्वतन्त्र ध्वनि के रूप में प्रयुक्त होती है-टाङ्, वाङ् आदि।

इस बोली में महाप्राणीकरण, स्वरभक्ति, अल्पप्राणीकरण, अघोषीकरण, वर्ण-विपर्यय की भी प्रवृत्ति परिलक्षित होती है-

महाप्राणीकरण-सब = सभ, महाभारत = महाभारथ, ठंडा = ठंढा

घोषीकरण-डॉक्टर = डागडर, शकुन = सगुन।

वर्ण-विपर्यय = लखनऊ = नखलऊ।

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