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समकालीन कविता | साठोत्तर कविता | विचार कविता | समकालीन कविता की प्रमुख विशेषताएं

समकालीन कविता | साठोत्तर कविता | विचार कविता | समकालीन कविता की प्रमुख विशेषताएं

समकालीन कविता

सन् 1960 के बाद की कविता को अनेक नाम से जाना जाता है, जिनमें प्रमुख सगोत्तरी कविता, समकालीन कविता, अकविता अस्वकृत कविता, वीट कविता तथा सहज कविता आदि। इन अनेक नामों का अभिप्राय यह है कि सठोत्तरी या समकालीन कविता नयी कविता से कुछ अलग हटकर है।

समकालीन हिन्दी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित है-

(1) आस्था और अनास्था का संकुल चित्रण-

समकालीन हिन्दी काव्य में आस्था और अनास्था दोनों का संकुल चित्रण मिलता है। बदलते मानव-मूल्यों ने मानवीय संवेदनाओं को भोथरा बना दिया है। प्यार-प्रेम जैसी समकोमल भावनाएँ केवल छलावा बनकर रह गयी हैं, इनकी आड़ में मनुष्य कोई भी घटिया से घटिया कर्म करने से नहीं चूकता-

सहानुभूति और प्यार

अब एक ऐसा छलावा है

जिसके जरिये

एक आदमी दूसरे को अकेले

अँधेरे में ले जाता है और

उसकी पीठ में

छुरा भोंक देता है।

(2) व्यक्ति-मन का सहज अभिकथन-

समकालीन कविता की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इसमें पूरी ईमानदारी के साथ आम आदमी के दैनंदिन संसार को सुरेखित किया गया है। औसत व्यक्ति की सहज-साधारण संवेदनाओं को इतने कलात्मक ढंग से उकेरा गया है कि वे स्वयं में अद्भुत असाधारण बन गयी हैं। इस उपभोक्तावादी संस्कृति की वासदियों को झेलते-झेलते मनुष्य की चेतना इतने खण्डों में बंट गयी है कि उसे हर चीज से वितृष्णा-सी हो गयी है। इसी मनःस्थिति को व्यक्त करती हुई निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

क्या मैं छपाऊँ इश्तिहार

क्या मैं बन जाऊँ किसी क्लब का सदस्य ?

क्या मैं बैठे-बैठे

करूं सभी

परिचित-अपरिचित को फोन?

क्या मैं तमाम मूर्ख स्त्रियों से हँस-हँसकर

बात करूँ झुक-झुक नमस्कार ?

दूसरों के बच्चों से

झूठ-मूठ प्यार?

(3) काम उन्मुक्त चित्रण-

पाश्चात्य जीवन-दृष्टि से प्रभावित समकालीन साहित्यकारों की रचनाओं में काम का उन्मुक्त चित्रण देखने को मिलता है। भारतीय संस्कृति के चतुर्वर्गों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला ‘काम’ अपनी प्राचीन गरिमा को खोकर केवल पाश्विक उपभोग तक सीमित रह गया है। नारी केवल भोग-विलास की वस्तु माना जा रहा है और अधिक आश्चर्य होता है यह देखकर कि अश्लीलता की इस दौड़ में कवयित्रियाँ भी पीछे नहीं हैं। भारतीय नारी की सारी मान-मर्यादा को भूलकर वह निःसंकोच स्वर में कहती हैं-

सुबह से दिन डूबने तक

मैं इन्तजार करती हूँ

रात का

जब हम दोनों एक ही कोने में सिमटकर

एक-दूसरे को कुत्ते की तरह चाटेंगे।

(4) प्रकृति-चित्रण-

समकालीन हिन्दी कविता में प्रकृति का वह बहुरंगी रूप देखने को नहीं मिलता है जो छायावाद में था। प्रकृति के प्रति इस तटस्थ रागात्मकता का कारण इसके कन्द्र में स्वयं मानव का होना है। फिर भी जगदीश गुप्त, नरेश मेहता, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, त्रिलोचन, प्रयाग शुक्ल आदि के काव्य में प्रकृति का सुन्दर और हृदयावर्षी रूप दिखाई देता है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

स्लेटी बादल आसमान को घेर घिरे हैं

कहीं जरा भी रन्ध नहीं है। जब तक बूंदा-

बाँदी हो जाती है। फैल-फैल कर मूंदा

बदली न नभ-नील-नयन को। उधर तिरे हैं

बादल के ऊपर बादल, चहुँ ओर फिरे हैं

नाना रूपों-रेखाओं में, जैसे खूंदा

खूंदी बँधे अश्व करते हैं। सुन्दर फूंदा

किरणों का निकला, जिससे सान्ध्य घिरे हैं।

(5) जनवादी-चेतना की विस्तृत व्यंजना-

सामान्य रूप से जनवाद से तात्पर्य उन मार्क्सवादी विचारधाराओं से हैं, जिनके मूल में सर्वहारा वर्ग की मुक्ति और संघर्ष के लिए किये गये सचेतन प्रयास एवं वर्गविहीन समाज की परिकल्पना प्रमुख है। लोकतन्य की इस जनतन्त्री व्यवस्था से क्षुब्ध होकर कवि मानस का ऐसा विराट विश्वव्यापी चिन्तन प्रक्रिया के प्रति आकर्षित होना सहज-स्वाभाविक ही था। कवि का अकम्प विश्वास है कि इन भयावह परिस्थितियों से टकराने का एकमात्र उपाय संघर्ष ही है। इसके लिए वह सामान्य से सामान्य व्यक्ति के पास जाना चाहता है, चाहे वह होरी किसान हो गया मोचीराम-

राजतन्त्र की इस वनतन्त्री व्यवस्था में

मैं अकेला और असक्षम हूँ

मेरे स्नायुतन्त्र पर भय और आतंक की कंटीली झाड़ियाँ

उग आयी हैं, जिन्हें काटने के लिए

ठीक हाथों और ठीक शब्दों की तलाश में

मैं होरी किसान और मोचीराम के

पास जाऊँगा मैं अपने मुहल्ले के पास जाऊँगा।

(6) भाषिक भंगिमा-

भाषा भावों अथवा विचारों की वाहिका होती है। भाव-विचार जैसे होंगे, भाषा का तवर भी वैसा ही होगा। यदि कविता का प्रतिपाद्य यथार्थपरक और आम आदमी के दैनंदिन से लिया गया है तो स्वाभाविक है कि उसका शिल्प भी तद्नुरूप सहज सपाट होगा। चूंकि समकालीन कविता अपने परिवेश के प्रति प्रतिबद्ध कविता है, अतः पारिवेशिक विसंगतियों- विद्रूपताओं की बेपर्द अभिव्यक्ति के लिए जो दो टूक शैली अपनायी गई है, उसने भाषा को नयी शकित प्रदान की है। समकालीन काव्य-भाषा आभिजात्य और संस्कार की भाषा नहीं है, अपितु अनुभवों की भट्ठी में तपी-निखरी आम बोलचाल की भाषा है उदाहरण देखिए-

बाबू जी! सच कहूँ-मेरी निगाह में

न कोई छोटा है न कोई बड़ा है

मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी-जूता है

जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है

असल में वह एक दिलचस्प गलतफहमी का

शिकार है जो यह

सोचता है कि पेशा एक जाति है और

भाषा पर आदमी का

नहीं किसी जाति का अधिकार।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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