हिन्दी / Hindi

प्रयोगवाद का उद्भव और विकास | प्रयोगवादी काव्य की प्रवृत्तियाँ | प्रसाद के काव्य में छायावाद | रीतिकाल का नामकरण एवं वर्गीकरण

प्रयोगवाद का उद्भव और विकास | प्रयोगवादी काव्य की प्रवृत्तियाँ | प्रसाद के काव्य में छायावाद | रीतिकाल का नामकरण एवं वर्गीकरण

प्रयोगवाद का उद्भव और विकास

इसके आविर्भाव के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं। डॉ0 नामवर सिंह प्रयोगवाद का आरम्भ 1940 ई0 मानते हैं, किन्तु डॉ0 देवीशंकर अवस्थी प्रयोगवादी कविता के बीच छायावादेत्तर काव्य पाते हैं, किन्तु यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो इस प्रकार की कविता का प्रारम्भ 1943 ई0 में अज्ञेय द्वारा प्रकाशित ‘तारसप्तक‘ नामक काव्य-संग्रह से होता है। इस प्रकार अज्ञेय ही प्रयोगवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। इस तारसप्तक में गजानन माधव मुक्तिबोध’, नेमिचन्द्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर, रामविलास शर्मा और अज्ञेय आदि सात कवियों को स्थान मिला था।

इसके पश्चात् इस कविता पद्धति का विकास क्रमशः होता गया। फलतः 1951 ई0 में अज्ञेय ने द्वितीय ‘तारसप्तक’ प्रकाशित कराया। इसमें पहले से भिन्न कवियों को स्थान मिला। इस सप्तक के कवि धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, शमशेर बहादुर सिंह, हरिनारयण व्यास, शकुन्तला माथुर, भवानी प्रसाद मिश्र, नरेश कुमार मेहता थे। प्रयोगवादी कवियों के विकास के लिए अज्ञेय ने ‘प्रतीक’ पत्रिका का सम्पादन भी किया। इसके अतिरिक्त ‘कल्पना’, ‘पाटल’, ‘अजन्ता’ आदि में भी सुन्दर प्रयोगवादी कविताएँ प्रकाशित रही हैं। 1954 ई0 में डॉ0 जगदीश गुप्त और डॉ0 रामस्वरूप चतुर्वेदी के सम्पादन में प्रयोगवादी कविताओं का अर्द्धवार्षिक संग्रह नयी कविता के नाम से प्रकाशित हुआ। 1957 ई0 में अज्ञेय के सम्पादकत्व में तीसरा ‘तारसप्तक’ प्रकाशित हुआ जिससे नयी कविता को पर्याप्त बल मिला। सम्प्रति अजीतकुमार, सतीश चौबे, दुष्यन्त कुमार, सूर्यप्रताप सिंह, राजेन्द्र यादव आदि कवि प्रयोगवादी काव्य संवर्धन में लगे हुए हैं।

प्रयोगवादी काव्य की प्रवृत्तियाँ

हिन्दी साहित्य के विभिन्न वादों के समान ही इस वाद की भी अपनी कुछ निजी प्रवृत्तियाँ हैं। समीक्षकों के अनुसार इस वाद की कुछ प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-

(क) वैयक्तिकता का उन्मेष-‌ नयी प्रयोगवादी कविता का मूल उद्देश्य वैयक्तिक मान्यताओं, अनुभूतियों एवं विचारों की अभिव्यक्ति करना है। यह कविता लोकमंगल की भावना से विमुख है अर्थात् पूर्णतः समाज निरपेक्ष होकर केवल निजी अनुभूतियों तक ही सीमित है। उदाहरण के लिए राजेन्द्र किशोर की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

“बीस सदी की जटिल समस्याओं ने,

मुझे उत्पन्न किया।

अकाल भृत्यों के परिवार ने,

मेरा लालन-पालन किया।

शत-शत वैयक्तिक पारिवारिक, सामाजिक,

ग्रंथियों से मेरा निर्माण हुआ।”

(ख) अति यथार्थ चित्रण- प्रयोगवादी कविता में यथार्थ चित्रण की प्रधानता है। इस प्रकार की कविता में यत्र-तत्र दूषित मनोवृत्तियों का चित्रण भी अपने चरमात्कर्ष में मिलता है। इसका मूल कारण यह है कि प्रयोगवादी कवि अपनी आन्तरिक कुण्ठाओं एवं दमित वासनाओं का प्रकाशन करना चाहता है। इस प्रकार की कविता से यौन संबंधी प्रतीक अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं।

प्रसाद के काव्य में छायावाद

‘प्रसाद के काव्य में छायावाद की निम्न विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती है-

  1. प्रसाद काव्य में कल्पना- छायावादी कविताओं में कल्पना का उच्च स्थान है। यही कारण है कि छायावादी कवियों ने कल्पना की ऊँची उड़ानों द्वारा, ऐसे चित्र उपस्थित कर दिये हैं जो अन्या दुर्लभ है। प्रसादजी इसके अपवाद नहीं। कामायनी में ‘आशा’ का एक काल्पनिक चित्र देखिए-

यह क्या मधुर स्वप्न सी झिलमिल, सदय हृदय में अधिक अधीर।

व्याकुलता सी व्यक्त हो रही, आशा बनकर प्राण समीर।

यह कितनी स्पृहणीय बन गयी, मधुर-जागरण सी छविमान।

स्मृति की लहरों सी उठती है, नाच रही जो मधुमय तान।।

  1. प्रसाद काव्य में रहस्यवादी भावना- छायावाद की द्वितीय प्रमुख विशेषता रहस्यवाद है। इसीलिए छायावादी कवि प्रत्येक कार्य में एक असीम शक्ति को देखता है। प्रसाद इसके अपवाद नहीं। उनकी ‘कामायनी’ में इसी रहस्यवादी भावना के दर्शन होते हैं-

महानील इस परम व्योम में, अन्तरिक्ष में ज्योतिर्मान।

ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण करते थे किसका सन्धान।।

  1. प्रसाद काव्य में नारी- छायावादी कवियों ने ‘नारी’ को बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। इसीलिए इन कवियों ने उसे प्रायः नूतन परिवेश में उपस्थित किया है। गुप्तजी ने जहाँ नारी को असहाय एवं अबला के रूप में उपस्थित किया था-

“अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी,

आँचल में हैं दूध और आँखों में पानी।”

वहीं प्रसादजी ने नारी को श्रद्धा के रूप में स्वीकार किया है। ‘कामायनी’ के ‘लज्जा सर्ग’ में वे लिखते हैं-

नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में।

पीयूष स्त्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।

रीतिकालः नामकरण एवं वर्गीकरण

मध्यकालीन हिन्दी काव्य को सामान्यतः दो वर्गों में विभक्त किया गया है-पूर्व-मध्यकाल और उत्तर-मध्यकाल। इनमें से पूर्व-मध्यकाल को भक्तिकाल की सां दी गयी है और उत्तर-मध्यकाल को रीतिकाल कहा गया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में इस काल की समय सीमा संवत् 1700 वि0 से 1900 वि0 तक स्वीकार की है और इस काल की रचनाओं में रीति-तत्व की प्रधानता को लक्षित कर इसका नाम ‘रीतिकाल’ रखा है। इस काल में अधिकांश कवियों ने लक्षण ग्रन्थों की, परिपाटी पर रीतिग्रन्थ लिखे, जिनमें अलंकार, नायिका-भेद, रस आदि काव्यांगों का विस्तृत विवेचन किया गया है। इस युग के कवि काव्यांग-चर्चा में गौरव का अनुभव करते थे और लक्षण-ग्रन्थ लिखे बिना कवि के पण्डित्य को स्वीकार नहीं किया जाता था। इस सम्बन्ध में टिपपणी करते हुए डॉ. भगीरथ मिश्र ने लिखा है, “रीतिकालीन कवि को रस, अलंकार नायिका-भेद, ध्वनि आदि के वर्णन के सहारे ही अपनी कवित्व प्रतिभा दिखाना आवश्यक था। इस युग में उदाहरणों पर विवाद होते थे। इस बात पर भी कि उसके भीतर कौन-सा अलंकार है, कौन सी शब्द-शक्त हे अथवा कौन सा रस या भाव है? “रीतिकाल में रीति निरूपण की जो प्रवृत्ति पायी जाती है, उसका प्रारम्भ भक्तिकाल में ही हो गया था। नन्ददास द्वारा रचित ‘रस मंजरी’ और सूरदास कृत ‘साहित्य लहरी’ में यह प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। कतिपय अन्य भक्तिकालीन कवियों रहीम, सुन्दरदास कृष्णदास के काव्य में भी रीति-तत्व का समावेश हो चला था, अतः मतिराम, चिन्तामणि, कुलपति मिश्र भूषण देव, भिखारीदास, गुमान मिश्र, प्रताप साहि, ग्वाल आदि कवियों ने रीति-ग्रन्थ लिखकर युगीन प्रवृत्ति का ही परिचय दिया शुक्ल जी ने इन्हीं कवियों द्वारा रचित ग्रन्थों को लक्षित कर इस काल की प्रधान प्रवृत्ति ‘रीति’ को आधार बनाकर इसका नामकरण रीतिकाल किया।

आचार्य शुक्ल के रीतिकाल नाम को यद्यपि अधिकांश विद्वानों ने स्वीकार किया है। तथापि उस पर कुछ आक्षेप भी किये गये हैं। कुछ विद्वानों का तर्क है कि ‘रीतिकाल’ संज्ञा व्यापक नहीं है क्योंकि इसके अन्तर्गत घनानन्द, बोधा आलम, ठाकुर बिहारी जैसे ये प्रतिनिधि कवि नहीं आ पाते जिन्होंने काव्यांग विवेचन करने वाला कोई लक्षण-ग्रन्थ नहीं लिखा।

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!