बहिर्जगत् के चित्रण की विशेषताएं | विद्यापति ने बहिर्जगत् के चित्रण की विशेषताएं

बहिर्जगत् के चित्रण की विशेषताएं | विद्यापति ने बहिर्जगत् के चित्रण की विशेषताएं

बहिर्जगत् के चित्रण की विशेषताएं

विद्यापति ने अपने रूप-चित्रण में बहिरंग की विशेषताओं पर ही दृष्टि रखी है, अन्तरंग की ओर देखने की उनकी रुचि नहीं मालूम पड़ती है। उन्हें अन्तर्जगत् की सूक्ष्म वृत्तियाँ बहुत कम सूझी हैं। विद्यापति का काव्य प्रेम-काव्य है। प्रेम का मूल प्रेरक है – सौन्दर्य; रूप और उसका आश्रय है – यौवनं और सौन्दर्य-समन्वित रूप ही प्रेम या रति है। रति श्रृंगार का स्थायीभाव है। विद्यापति श्रृंगारी कवि थे, अतः उन्होंने रति के मूल प्रेरक सौन्दर्य का पूर्ण एवं उत्कृष्ट चित्रण किया है। उन्होंने रूप-चित्रण में अपना पूर्ण-कौशल प्रदर्शित किया है। रूप-सौन्दर्य-चित्रण या शारीरिक रूप-चित्रण के अनेक प्रकार ये हैं – नख-शिख वर्णन, चेष्टाओं का वर्णन वेश-भूषा का वर्णन, हाव-भाव, क्रिया-प्रतिक्रिया आदि का वर्णन। रूपकातिशयोक्ति के द्वारा सौन्दर्य का यह चित्रण देखिए-

कि आरे ! नव जीवन अभिरामा।

जत देखल तत कहए न पारिअ, छओ अनुपम एक ठामा॥

कवि ने यहाँ राधा के सौन्दर्य का परम्परागत उपमानों के माध्यम से वर्णन किया है। ये उपमान हैं – चन्द्रमा, कमल, हरिन, कोकिल, चकोर, कीर, गजराज, कनक-कदलि, बिम्बाफल, दाड़िस, खंजन आदि। कवि विद्यापति ने राधा के अंग-प्रत्यंगों के वर्णन में इन उपमानों को प्रयुक्त किया है।

कतेक जतनि विहि आनि समारल, खिलि-तल लावनि सार।

विद्यापति की वृत्ति प्रायः बाह्य रूप-चित्रण में ही अधिक रमी हैं डॉ. रामकुमार वर्मा ने इसी को लक्ष्य करके लिखा है – “विद्यापति ने अन्तर्जगत् का उतना हृदयग्राही वर्णन नहीं किया, जितना बहिर्जगत् का। उन्हें अन्तर्जगत् की बहुत-सी वृत्तियाँ बहुत कम सूझी है।” देखिए यह रूप-चित्रण –

माधव की कहब सुन्दरि रूपे।

कतेक जतन बिहि आनि समारल,

देखल नयन सरूपे।

पल्लव-राज चरन-युग सोभित,

गति गजराज क भाने।

कनक-कदल पर सिंह समारल,

तापर मेरु समाने।

मेरु उपर दुइ कमल फुलायल,

नाल बिना रुचि पाई॥

इस प्रकार विद्यापति का मन बाह्य रूप-चित्रण में ही अधिक रमा है। वयः सन्धि में वे नायिका के कुचों का अनेक विधि से वर्णन करते हैं

कनक कमल माँझ काल भुजंगिनि सिरियुत खंजन खेला।

कटाक्ष का यह वर्णन देखिए-दोनों नेत्र कामदेव के बाण हैं, जो रसिक जनों का वध करते हैं-

तिन बान मदन तेजल तिन भुवने, अवधि रहल दओ बाने

विधि बड़ दारुन बधए रसिक जन, सौंपल तोहर नदाने॥

राधा का सौन्दर्य सचेष्ट, हाव-भावयुक्त है, अतः उसका चित्रण सजीव एवं प्रभावशाली बन पड़ा है। अचानक वक्षस्थल से अचंल हट जाता है तो नायिका की चेष्टाएँ और भी लुभावनी हो जाती हैं-

अम्बर विघटु अकामिक कामिनी, कर कुच झाँपु सुछन्दा।

कनक-सभु सम अनुपम सुन्दर, दुइ पंकज दस चन्दा॥

आड़ बदन कए मधुर हास दाए, सुन्दरि रहु सिर नाई।

नख-शिख में कवि की दृष्टि, कुचों पर अधिक रही है। नायिका के पीन, स्वस्थ एवं मांसल उरोजों के सम्बन्ध में कवि ने बड़ी मार्मिक कल्पना की है। देखिए –

कुच जुग उपर चिकुर फुजि, पसरल ता अरुझाइल हारा।

नायिका के केश वक्षस्थल पर बिखरे हैं, गरदन का हार केशों में उलझ गया हैं। कवि कल्पना करता है कि समस्त तारे चन्द्रमा की अनुपस्थिति में कुच-रूपी सुमेरु पर्वत पर उदित हुए हैं। स्थूल या शारीरिक सौन्दर्य के चित्रण कवि ने बड़ी मनोरम कल्पनाएँ प्रस्तुत की हैं।

सजनी, कानुक कड़ब बुआई।

रोपि प्रेम का बिज अंकुरि मुड़लि, बाँधव कौन उपाई।।

तेलबिन्दु जैसे पानि पसारिए, ऐसन मोर अनुराग।

सिकता जल जैसे छनिहि सुखाए, तैसन मोर सुहाग।।

कुल कामिनि छलौं, कुलटा भए गेलें, तिनकर वचन लोभाई।

अपने कर हम मूंड़ मुंडायल, कानु से प्रेम बठाई।

श्रृंगार का ऐसा मादक रूप चित्रित करने वाले विद्यापति ने बसन्तश्री को मुक्ति, उल्लास और हर्ष का स्वतन्त्र आलम्बन बनाया है, मानवों भागों का उद्दीपन नहीं, वह आशा के विपरीत कवि की सुष्टि है।

संयोग पक्ष में बाह्य सौन्दर्य के वर्णन का अधिक अवसर प्राप्त होता है, क्योंकि इसमें नायक-नायिका का सानिध्य होता है, जिसमें रूप का बहिरंग (कायिक) वर्णन ही प्रमुख होता है। इसमें नायक या नायिका को अधिक दौड़-धूप नहीं करनी पड़ती। विरह पक्ष में अन्तर्जगत् की हलचल का वर्णन रहता है। इसमें व्यग्रता और औत्सुक्य दो भावों की प्रधानता रहती है। अतः विरहानुभूति जिस कवि में जितनी ही तीव्र होगी, उसका अन्तर्जगत् उतना ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी होगा। विद्यापति की विरहानुभूति में तीव्रता न होने से, संयोग, शृंगार के वर्णन. का प्राधान्य होने से, उनके काव्य में अन्तर्जगत् का उतना हृदयग्राही वर्णन नहीं मिलता, जितना बाह्य जगत् के रूप का। राधा के विरह का विद्यापति ने कतिपय पदों में मार्मिक चित्रण किया है। विरह के दीर्घकाल में नायिका का अनेक प्रकार का वर्णन बहुत कम है। कवि की रुचि इनमें अधिक रमी दिखाई नहीं पड़ती। वह अन्तर्जगत् के चित्रण में अपना रुझान व्यक्त नहीं करता। वह तो वयःसन्धि, नख-शिख, सद्यःस्नाता और अभिसार के रमणीय चित्रों को भाव, अनुभाव आदि की योजना से सुन्दर रूप प्रदान करता है। बाह्य सौन्दर्य के चित्रण में वह दत्त चित्त होकर अनेक रमणीय कल्पनाएँ करता है। कहीं मांसल-सौन्दर्य का चित्रण है, तो कहीं भावों की सुन्दर योजना है। अभिसार में नायिका अनेक बाधाओं को सहती हुई बढ़ी चली जाती है। कवि स्नान करती हुई कामिनी का चित्र-सा खींच देता है। मूर्तिकार की भाँति शब्दों की मूर्ति गढ़ देता है।

विद्यापति ने प्रकृति- वर्णन अभिसारिका के प्रसंग में उद्दीपन विभाव के अन्तर्गत किया है। इस प्रकार प्रकृति-चित्रण में भी उनकी दृष्टि बाह्य जगत् पर टिकी हुई है। बसंत के व्यापक प्रभाव का वर्णन करते हुए वह काम की अभिव्यक्ति कारता है, जो उसके शृंगार वर्णन में सहायक है। डॉ. आनन्दप्रकाश ‘दीक्षित’ के शब्दों में – “विद्यापति के रूप-स्वरूप चित्रण की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी शरीर-विज्ञान और मनोविज्ञान की सूक्ष्मातिसूक्ष्म जानकारी। साधारणतया नख-शिख या शिख-नख वर्णन में कवि अंग-उपांग का क्रमिक वर्णन करते हैं, बल्कि शरीर- विज्ञान के आधार पर एक मनोवैज्ञानिक क्रम भी रखता है। नारी-सौन्दर्य की सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च सीमा है – उसके स्तन। यदि नारी के उरोज ही आकर्षण का कारण नहीं तो नारी का सौन्दर्य ही कैसा? बिना उरोजों के नारी- न नारी है, न नर। इसलिए सुन्दर नारी के सभी अंगों में प्रधान हैं उसके उरोज वैसे भी यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि नारी के रूप-स्वरूप को देखते समय प्रथम दृष्टि उसके उन्नत उरोजा पर ही जाती हैं। नारी भी अपने उरोजों के इस महत्व को समझती है। अतः भिन्न-भिन्न विधियों से वह उन्हें प्रकट-अप्रकट रखती है। कवि विद्यापति ने सौन्दर्य-वर्णन में उरोजों को प्रधान, सर्वत्र और सर्वाधिक चर्चा की हैं। चाहे प्रेम-प्रसंग हो,चाहे अभिसार हो, चाहे विरह, विद्यापति ने सर्वत्र सौन्दर्य के उत्तुंग शिखर, इन कनक-शंभुओं ही प्राथमिकता दी है। नारी सौन्दर्य का ही क्यों, असक्ति, भोग और प्रेम का केन्द्र भी ये स्तन ही है।

निष्कर्ष-

डॉ. दीक्षित के अनुसार, “विद्यापति बाहरी सौन्दर्य के चित्रण में जितने कुशल हैं, भीतरी सौन्दर्य के अंकन में भी उतने ही निपुण। शारीरिक अवस्था से मानसिक अवस्था का गम्भीर और अटूट सम्बन्ध है। जैसी देह होगी, वैसा मन। विद्यापति को देह और मन दोनों ही के सौन्दर्य की जैसी उन्हें परख थी, वैसी गम्भीर परख अन्तरंग की नहीं थी। वे वस्तुतः बाह्याभ्यन्तर के सफल चित्रकार थे।” यह बात तथ्यपूर्ण है, फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि उनकी दृष्टि मानव के अन्तरंग की अपेक्षा बहिरंग पर ही अधिक जमी है। उनके रूप- चित्रण मेंकुच-वर्णन का आधिक्य है, साथ ही उसका मनोवैज्ञानिक निरूपण भी हुआ है।

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