बैक्ट्रियन यूनानी | भारत में इंडो-ग्रीक शासन के प्रभाव | भारत पर यूनानी आक्रमण | इंडो-ग्रीक शासकों की उपलब्धि

बैक्ट्रियन यूनानी | भारत में इंडो-ग्रीक शासन के प्रभाव | भारत पर यूनानी आक्रमण | इंडो-ग्रीक शासकों की उपलब्धि

बैक्ट्रियन यूनानी

भारत पर आक्रमण करते समय सिकन्दर महान ने बैक्ट्रिया में एक यूनानी उपनिवेश बसाया था। सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् उसके साम्राज्य का बंटवारा हुआ तथा बैक्ट्रिया और पार्थिया के प्रदेश सेल्यूकस को प्राप्त हुए। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य सेल्यूकस द्वारा स्थापित सीरियन साम्राज्य की शक्ति क्षीण होने लग गई तथा बैक्ट्रिया और पार्थिया के दो प्रान्तों ने साम्राज्य से अलग होकर अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली।

250 ई०पू० के लगभग बैक्ट्रिया के गवर्नर डायोडोटस ने सीरिया के शासक एण्टिओकस द्वितीय के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और बैक्ट्रिया में स्वतन्त्र-राज्य की स्थापना की। इस प्रकार बैक्ट्रिया के स्वतन्त्र यूनानी-राज्य की स्थापना हुई। 230 ई० पूर्व में डायोडोटस प्रथम की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र डायोडोटस द्वितीय गद्दी पर बैठा। परन्तु कुछ समय पश्चात् ही यूथीडेमस ने डायोडोटस द्वितीय की हत्या कर दी तथा स्वयं सिंहासन पर बैठ गया। उस समय सीरिया में एण्टिओकस तृतीय का शासन था। 208 ई० पूर्व के लगभग एण्टिओकस तृतीय ने बैक्ट्रिया पर आक्रमण किया। दो वर्ष तक दोनों पक्षों में युद्ध होता रहा परन्तु एण्टिओकस यूथीडेमस को परास्त नहीं कर सका। अन्त में एण्टिओकस तृतीय ने यूथीडेमस के साथ सन्धि कर ली जिसके अनुसार उसने यूथीडेमस को बैक्ट्रिया का स्वतन्त्र शासक स्वीकार कर लिया तथा अपनी पुत्री का विवाह यूथीडेमस के पुत्र डिमिट्रियस के साथ कर दिया। इसके पश्चात् 206 ई० पूर्व के लगभग एण्टिओकस तृतीय ने हिन्दूकुश पर्वत को पार कर भारत पर आक्रमण किया परन्तु उसे अपने भारतीय अभियानों में विशेष सफलता नहीं मिली।

भारत पर यूनानी आक्रमण

(1) यूथीडेमस-

कनिंघम आदि कुछ विद्वानों का मत है कि यूथीडेमस ने भारत पर आक्रमण कर उसके कुछ प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया था। इन विद्वानों का कहना है कि रावलपिण्डी में यूथीडेमस की कुछ मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। परन्तु अधिकांश विद्वान इस कथन को स्वीकार नहीं करते। इसका प्रमुख कारण यह है कि कोई भी यूनानी यूथोडेमस को भारत-विजेता नहीं कहता है। जहाँ तक मुद्राओं का प्रश्न है, वे संख्या में बहुत कम हैं तथा उनके आधार पर यूथीडेमस को भारत-विजेता घोषित नहीं किया जा सकता।

(2) डेमेट्रियस-

यह प्रथम इण्डो-ग्रीक शासक था, जिसने भारत में अपना राज्य स्थापित किया। डेमेट्रियस यूथीडेमस का पुत्र था। वह बड़ा ही वीर, कुशल, साहसी तथा महत्त्वाकांक्षी शासक था। वह सिकन्दर महान् की भाँति अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। यूनानी विवरणों में डेमेट्रियस को भारत का राजा लिखा गया है और इसमें सन्देह नहीं कि भारत की विजय करते हुए वह दूर तक मध्य देश में चला आया था। 183 ई० पूर्व में डेमेट्रियस ने अपने दो प्रमुख सेनापतियों मिनाण्डर और अपोलोडोटस के साथ भारत पर आक्रमण किया। तक्षशिला पहुँच कर उसने अपनी सेना को दो भागों में बाँट दिया। डेमेट्रियस ने अपोलोडोटस को साथ लेकर भारत-विजय के लिए प्रस्थान किया तथा सिन्ध-विजय करके आगे बढ़ते हुए अवन्ति, माध्यमिका (चित्तौड़ के आस-पास का प्रदेश), विदिशा आदि पर अधिकार कर लिया। दूसरी ओर डेमेट्रियस की सेना के दूसरे भाग ने सेनापति मिनाण्डर के नेतृत्व में साकल, मथुरा, पांचाल, साकेत को जीत लिया तथा मगध की राजधानी पाटलिपुत्र तक पहुँच गया। ‘गार्गी-संहिता’ में लिखा है कि यवनों ने मथुरा, पांचाल और साकेत पर आक्रमण किया तथा इसके बाद वे कुसुमध्वज (पाटलिपुत्र) तक पहुँच गए। अनेक विद्वानों का मत है कि ‘गार्गी-संहिता’ में जिस यवन-राजा के आक्रमण का उल्लेख है, वह डेमेट्रियस ही था।

डॉ० राजबली पाण्डेय का कथन है कि ‘मध्य देश, मध्य भारत, राजस्थान और पूर्वी पंजाब में यवनों के पैर नहीं ठहर सके, किन्तु सीमान्त पश्चिमी पंजाब और सिन्धु प्रदेश में डेमेट्रियस ने अपना अधिकार जमा लिया।’ पुष्यमित्र शुंग ने डेमेट्रियस के मगध पर अधिकार करने के प्रयास विफल कर दिये और अपने राज्य से खदेड़ दिया। कुछ विद्वानों का विचार है कि कलिंग-नरेश खारवेल ने यवनों को पश्चिम में मथुरा की ओर खदेड़ दिया।

(3) यूकेटाइडीज-

जिस समय डेगेट्रियस भारत-विजय में संलग्न था, उसी समय यूक्रेटाइडीज नामक एक सेनापति ने बैक्ट्रिया पर अधिकार कर लिया। यह समाचार सुन कर डेमेट्रियस बैक्ट्रिया पहुंचा तथा शीघ्र ही डेमेट्रियस तथा यूक्रेटाइडीज के बीच युद्ध छिड़ गया। यह युद्ध सम्भवतः 167 ई० पूर्व में हुआ जिसमें डेमेट्रियस की पराजय हुई। इस पराजय के बाद वह पुनः भारत की ओर लौटा तथा उसकी सत्ता केवल पंजाब तथा सिन्ध के प्रदेशों तक ही सीमित रह गई। इसके थोड़े दिनों बाद ही डेमेट्रियस की मृत्यु हो गई।

डेमेट्रियस की भाँति यूक्रेटाइडीज ने भी भारत पर आक्रमण किया और अनेक प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। जस्टिन के अनुसार यूक्रेटाइडीज ने भारत को जीता तथा एक हजार नगरों का स्वामी बन गया। पश्चिमी पंजाब में यूक्रेटाइडीज की मुद्राएं मिली हैं जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यूक्रेटाइडीज ने पश्चिमी पंजाब पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। डॉ० सत्यकेतु विद्यालंकार लिखते हैं कि “सम्भवतः यूक्रेटाइडीज ने उत्तर-पश्चिमी भारत के कुछ प्रदेशों को जीत लिया था और उसके आक्रमणों के कारण डेमेट्रियस तथा मिनाण्डर के हाथ से पश्चिमी पंजाब तथा गांधार के प्रदेश निकल गए थे।” परन्तु यूक्रेटाइडीज अधिक दिनों तक अपने जीते हुए राज्य का उपभोग नहीं कर सका। यूनानी इतिहासकार जस्टिन के अनुसार उसके पुत्र हेलियोक्लीज ने उसका वध कर दिया और बैक्ट्रिया पर अधिकार कर लिया।

(4) हेलियोक्लीज-

हेलियोक्लीज बैक्ट्रिया का अन्तिम यवन शासक था। उसके शासन काल में बैक्ट्रिया पर शकों के आक्रमण शुरू हो गए तथा उन्होंने शीघ्र ही वहाँ से यूनानी- शासन का अन्त कर दिया। यद्यपि शकों के आक्रमण के कारण बैक्ट्रिया से यूक्रेटाइडीज के राजवंश का अन्त हो गया था, परन्तु उसके साम्राज्य के भारतीय प्रदेश बाद में भी हेलियोक्लीज की अधीनता में बने रहे और वह वहाँ स्वतन्त्र शासक के रूप में शासन करता रहा। इस प्रकार यूनानी भारत दो भागों में बँट गया-(1) पूर्वी भाग पर डेमेट्रियस के वंशजों का राज्य था तथा जिसकी राजधानी साकल (स्यालकोट) थी तथा पश्चिमी भाग पर यूक्रेटाइडीज के वंशजों का आधिपत्य था और जिसकी राजधानी तक्षशिला थी।

(5) एण्टियालकिडस-

यूक्रेटाइडीज के वंशजों में एण्टियालकिडस नामक शासक का नाम उल्लेखनीय है। एण्टियालकिडस तक्षशिला का शासक था। उसके सिक्के तक्षशिला के आस- पास बड़ी संख्या में मिले हैं। विदिशा के ‘गरुड़ स्तम्भ लेख’ से ज्ञात होता है कि तक्षशिला के राजा एण्टियालकिडस ने अपने राजदूत में लियोडोरस को विदिशा के शासक भागभद्र के दरबार में भेजा था।

(6) हर्मियस-

हर्मियस यूक्रेटाइडीज के वंश का अन्तिम शासक था। वह लगभग 50 ई० पूर्व में गद्दी पर बैठा। उसका राज्य काबुल की घाटी तक ही सीमित था। उसके समय तक यूनानी शक्ति बिल्कुल क्षीण हो चुकी थी। शकों, यह्लवों तथा कुषाणों ने यूनानियों को चारों ओर से घेर लिया था। अन्त में लगभग प्रथम शती ई० पूर्व के मध्य में कन्धार के पह्नवों अथवा पार्थियनों ने हर्मियस को परास्त कर काबुल पर अधिकार कर लिया। कुछ विद्वानों के अनुसार कुषाण-शासक कुजुल कदफिस ने हर्मियस को परास्त करके कुषाण सत्ता की नींव डाली।

(7) मिनाण्डर-

डेमेट्रियस के पश्चात् यूथोडेमस वंश का सबसे शक्तिशाली राजा मिनाण्डर हुआ। स्ट्रेबो के अनुसार मिनाण्डर इण्डो-ग्रीक शासकों में सबसे महान् था। वह एक वीर योद्धा, कुशल सेनापति तथा महान् विजेता था। स्ट्रेबो का कथन है कि भारत-विजय आंशिक रूप से मिनाण्डर ने और आंशिक रूप से डेमेट्रियस ने की थी। यूनानी लेखकों के अनुसार मिनाण्डर डेमेट्रियस के सेनापति के रूप में साकेत होता हुआ पाटलिपुत्र तक आक्रमण करता हुआ पहुंचा था। मिनाण्डर एक विशाल राज्य का शासक था। मथुरा उसके राज्य की पूर्वी सीमा थी। मथुरा में उसके तथा उसके पुत्र स्ट्रेटो प्रथम की मुद्राएँ मिली हैं। पश्चिम में उसका राज्य गान्धार तक फैला हुआ था। पेरोपेनिसेडाई में उसकी कुछ मुद्राएँ मिली हैं जिससे ज्ञात होता है कि पेरोपेनिसेडाई पर भी उसका अधिकार था। इसके अतिरिक्त स्वात तथा बनौर के प्रदेश में भी मिनाण्डर की दो मुद्राएँ मिली हैं। इसके अतिरिक्त सिनकोट में उसका एक पात्र-लेख प्राप्त हुआ है। इन सब साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि पश्चिम में उसका राज्य गान्धार तक फैला हुआ था।

पश्चिम भारत में मिनाण्डर का राज्य बोरीगाजा तक था। उसकी मुद्राएँ सिन्धु प्रदेश, सोनपत (दिल्ली के निकट) तथा बुन्देलखण्ड में भी प्राप्त हुई हैं। अतः ये समस्त प्रदेश मिनाण्डर के अधिकार में थे। डॉ० डी० सी० सरकार के अनुसार, “मिनाण्डर का राज्य  अफगानिस्तान के केन्द्रीय भागों, उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त, पंजाब, सिन्ध, राजपूताना, काठियावाड़ और सम्भवतः पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था। डॉ. विमल चन्द्र पाण्डेय का कथन है कि “मिनाण्डर का राज्य उत्तर-पश्चिम में कपिशा तक, पश्चिम में सिन्ध तक, दक्षिण-पश्चिम में बेरीगाजा तक, दक्षिण में बुन्देलखण्ड तक और पूर्व में मथुरा तक विस्तृत था।”

मिनाण्डर और बौद्ध धर्म- अनेक साक्ष्यों से मिनाण्डर के बौद्ध धर्मावलम्बी होने की पुष्टि होती है। ‘मिलिन्दपन्हो’ नामक ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि वह बौद्ध धर्मावलम्बी था। बौद्ध आचार्य नागसेन ने उसे बौद्ध-धर्म की दीक्षा दी थी। मिनाण्डर की कुछ मुद्राओं पर ‘धर्म चक्र’ का चित्र मिलता है तथा कुछ मुद्राओं पर ‘धमिक’ उपाधि अंकित है। इन सब साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मिनाण्डर बौद्ध धर्मावलम्बी था।

हिन्द-यूनान शासन के प्रभाव

पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भारत में लगभग 150 वर्षों तक यूनानियों ने शासन किया। यूनानी आक्रान्ताओं के साथ आने वाले बहुत से यूनानी भारत में ही बस गए। इस काल में भारतीय और यूनानी एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में आए। परिणामस्वरूप यूनानियों का भारतीय इतिहास और संस्कृति पर काफी प्रभाव पड़ा। यूनानियों और भारतीयों के इस सम्पर्क के निम्नलिखित प्रभाव पड़े-

(1) राजनीतिक प्रभाव- भारत में मथुरा, उज्जैन, सौराष्ट्र आदि विभिन्न भागों और स्थानों में क्षत्रियों द्वारा अपनाई गई फारस की शासन-प्रणाली प्रचलित हुई तथा यूनानी उपाधियों और पदवियों से युक्त राजकर्मचारी लोकप्रिय होने लगे। उनका अनुसरण करते हुए भारतीय शासकों, सामन्तों और राजकर्मचारियों ने भी उन पदवियों तथा उपाधियों को ग्रहण करना शुरू कर दिया। भारतीय राजतन्त्र की प्राचीन प्रणाली में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होने लगे।

(2) धार्मिक प्रभाव- भारतीयों के सम्पर्क में आकर अनेक यवनों ने भारतीय धर्मों को ग्रहण कर लिया। यूनानी शासक मिनाण्डर ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया और उसकी मृत्यु के बाद उसकी भस्मी पर अनेक स्तूप बनाए गए। यूनानी राजदूत हलियोडोरस ने वैष्णव धर्म को स्वीकार कर लिया था और गरुड़ध्वज स्तम्भ बनवाया था। इस प्रकार धार्मिक क्षेत्र में यूनानी ही भारतीयों से प्रभावित हुए, भारतीय यूनानियों से नहीं।

(3) ज्योतिष पर प्रभाव- ज्योतिष के क्षेत्र में यूनानियों ने भारतीयों को काफी प्रभावित किया। ‘गार्गी-संहिता’ का कथन है कि “यद्यपि यवन मलेच्छ हैं, परन्तु ज्योतिष के प्रकाण्ड ज्ञाता होने के कारण वे ऋषियों की भाँति पूज्य हैं।” भारतीय ज्योतिष में अनेक ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है जो यूनानी हैं जैसे केन्द्र, लिप्त, होरा इत्यादि। भारतीय ज्योतिष की मेष, वृषभ आदि राशियाँ यूनानी नामों के रूपान्तर प्रतीत होती हैं। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में जिन रोमक और पोलिश सिद्धान्त का उल्लेख है, वे यूनानियों से ही ग्रहण किए गए हैं।

(4) साहित्य पर प्रभाव-

(i) भाषा- भारतीय साहित्य पर भी यूनानी सम्पर्क का प्रभाव पड़ा। टार्न महेदय का कथन है कि भारतीयों और यूनानियों ने एक-दूसरे की भाषा के अनेक शब्दों को ग्रहण कर लिया। उदाहरणार्थ, भारतीयों ने यूनानियों से कलम, पुस्तक, सुरंग, मिठाई, केन्द्र, कोण आदि शब्द ग्रहण किये हैं। यूनानियों ने भारतीयों से मरकट, कर्पाश, शर्करा आदि शब्द ग्रहण किये।

(ii) नाटक- नाटक के क्षेत्र में यूनानी प्र. । स्पष्ट रूप से दिखाई पटता है। भारतीय साहित्य में ‘यवनिका’ शब्द का प्रयोग मिलता है। अनेक विद्वानों का मत है कि नाटकों में परदे का प्रयोग भारतीयों ने यूनानियों से ही सीखा और इसी कारण उन्होंने इसके लिए ‘यवनिका’ शब्द का प्रयोग किया है।

(5) मुद्राओं के निर्माण पर प्रभाव- भारतीय मुद्राओं के निर्माण पर भी यूनानी मुद्राओं का प्रभाव पड़ा। यूनानियों से पहले भारतीय मुद्राएँ भद्दी, अनिश्चित और लेख-विहीन होती थीं। परन्तु यूनानी प्रभाव के परिणामस्वरूप भारत में भी सुडौल, कलात्मक तथा सुन्दर मुद्राओं का प्रयोग होने लगा। इन मुद्राओं पर राजाओं के नाम भी अंकित रहते थे। सातवाहन, कुषाण तथा गुप्त राजाओं की मुद्राओं पर यूनानी प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

(6) चिकित्सा शास्त्र पर प्रभाव- बोगेल के मतानुसार भारतीय चिकित्सा शास्त्र पर भी यूनानी चिकित्साशास्त्र का प्रभाव पड़ा। भारतीय चिकित्साशास्त्री चरक के सिद्धान्त यूनानी चिकित्साशास्त्री हिपोक्रेटीज के नियमों से बहुत कुछ मिलते हैं। परन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि चरक मौलिक विचारक था। उनका विवरण भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल है।

(7) कला पर प्रभाव- भारतीय स्थापत्य कला पर भी यूनानी स्थापत्य कला का प्रभाव पड़ा। तक्षशिला में यूनानी नमूनों के स्तम्भों का निर्माण करवाया गया। तक्षशिला में यूनानी स्तम्भों वाले एक मन्दिर तथा कुछ अन्य भवनों पर यूनानी वास्तुकला का प्रभाव दिखाई देता है।

भारतीय मूर्तिकला पर यूनानी मूर्तिकला का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यूनानी प्रभाव के कारण भारत में एक नवीन शैली का विकास हुआ जिसे ‘गान्धार शैली’ कहते हैं। गान्धार-प्रदेश में इस शैली की अनेक मूर्तियों का निर्माण किया गया। इस शैली में विषय तो भारतीय हैं परन्तु शैली यूनानी है।

डॉ० जे० एन० बनर्जी का कथन है कि “भारत की द्वितीय यूनानी विजय सिकन्दर की विजय से अधिक महत्त्वपूर्ण थी। दो शताब्दियों तक भारतीय तथा यूनानियों के पर्याप्त सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे तथा दोनों की एक-दूसरे पर प्रतिक्रिया हुई। इससे केवल यूनानी सभ्यता का ही भारतीय सभ्यता पर प्रभाव नहीं पड़ा, वरन् भारतीय सभ्यता का भी यूनानी सभ्यता पर प्रभाव पडा।”

डॉ० सत्यकेतु विद्यालंकार का कथन है कि “यूनानी आक्रान्ताओं ने विशाल यवन सेना को साथ लेकर भारत पर आक्रमण किया था और यह सर्वथा निश्चित है कि बहुत से यवन सैनिक भी इनके साथ ही भारत में बस गए थे। इस दशा में यह सर्वथा स्वाभाविक है, कि इन यवनों का भारतीय इतिहास और संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा हो। डेमेट्रियस तथा यूक्रेटाइडीज के राजकुलों द्वारा स्थापित यवन-राज्य भारत में डेढ़ सदी के लगभग तक कायम रहे और इस दीर्घ काल में इस देश को उन्होंने अनेक प्रकार से प्रभावित किया।”

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