इतिहास / History

गुप्तों की जाति | गुप्तों की उत्पत्ति | गुप्तों की प्राचीनता एवं आदिस्थान | गुप्त वंश का प्रारम्भिक विकास

गुप्तों की जाति | गुप्तों की उत्पत्ति | गुप्तों की प्राचीनता एवं आदिस्थान | गुप्त वंश का प्रारम्भिक विकास

गुप्तों की जाति-

गुप्तवंश की जाति का निर्धारण करना, भारतीय इतिहास की अन्य अनेक जटिलतम समस्याओं में से एक प्रमुख समस्या है। गुप्तवंश के विभिन्न साधनों तथा स्रोतों के आधार पर, विभिन्न इतिहासकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से अनेक मतों का प्रतिपादन किया है। इन मतों की परस्पर भिन्नता,इसी बात से प्रमाणित हो जाती है कि विद्वानों ने वर्णव्यवस्था के चारों वर्षों से इनकी उत्पत्ति के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। ये विभिन्न मत इस प्रकार हैं-

(1) गुप्त शूद्र थे-  

डॉ० के० पी० जायसवाल के अनुसार गुप्त शूद्र वर्ण के थे। उनका कथन है कि गुप्तों ने किसी भी स्थान पर अपनी जाति का उल्लेख नहीं किया है अतः वे शूद्र थे- इसीलिये उन्होंने अपनी निम्नता पर आवरण डालने के लिये इस विषय पर मौन-धारण किया हुआ है। डॉ० जायसवाल के मत का दूसरा आधार ‘कौमुदी महोत्सव’ नाटक को वह कथन है जिसमें चण्डसेन (चन्द्रगुप्त प्रथम) को ‘कारस्कर’ कहा गया है तथा ‘कहिं एरिस वर्णस्स से राअसिरि’ अर्थात् ऐसी नीच जाति का पुरुष राजा होने योग्य नहीं है। इस आधार पर डॉ० जायसवाल चण्डसेन तथा चन्द्रगुप्त प्रथम को एक ही व्यक्ति मानते हुए, उसे शूद्र जाति का बतलाते हैं, ‘कौमुदी महोत्सव’ नाटक में कहा गया है कि चण्डसेन तथा लिच्छवियों में वैवाहिक सम्बन्ध था तथा लिच्छवी म्लेच्छ थे। अतः उनका सम्बन्ध भी म्लेच्छ चण्डसेन से ही था-यथा ‘म्लैच्छैः लिच्छविभिः सह सम्बन्धः’ इस आधार को भी प्रस्तुत करते हुए डॉ० जायसवाल गुप्तों को शूद्रवंश ही मानते हैं। उनके इस मत का चौथा आधार, वाकाटक महारानी प्रभावती गुप्ता का वह लेख है जिसमें गुप्तों की वंशावली का वर्णन करते हुए, उन्हें ‘धारण’ गोत्र का बताया गया है। डॉ० जायसवाल का कथन है कि आज भी अमृतसर में ‘धारण’ गोत्र के जाट मिलते हैं अतः गुप्तों का गोत्र ‘धारण’ था इसलिये वे निम्नजातीय थे।

आलोचना- जिन तर्कों के आधार पर डॉ० जायसवाल ने गुप्तों को शूद्र घोषित किया है-  वे तर्क सारहीन तथा निर्बल हैं। पहली बात तो यह है कि यदि कोई अपनी जाति अथवा गोत्र का उल्लेख न करे तो क्या उसे शूद्र ही माना जायगा? जहाँ तक कौमुदी महोत्सव के उल्लेखों का सम्बन्ध है हम कह सकते हैं कि अधिकांश विद्वान् चण्डसेन तथा चन्द्रगुप्त प्रथम को दो भिन्न व्यक्ति मानते हैं। फिर भी, यदि उन्हें एक व्यक्ति मान भी लिया जाय तो ‘कारस्कर’ शब्द का प्रयोग शूद्र के लिये नहीं, वरन् पापकर्मा व्यक्ति के लिये किया गया है। नाटकीयता की चरमता को प्रदर्शित करने के लिये ही चण्डसेन को ‘कारस्कर’ कहा गया है यह शब्द उसकी जाति का सूचक नहीं है। यदि ‘कारस्कर’ का अर्थ शूद्र ही मान लिया जाये तो प्रश्न उठता है कि मगध शासक सुन्दरवर्मन ने शूद्र चण्डसेन को ही गोद क्यों लिया। अतः डॉ० जायसवाल के मत के इस आधार पर बुरी तरह खंडन हो जाता है। ‘धारण’ शब्द से भी यह अर्थ निकालना तर्कसंगत नहीं कि गुप्त जाट थे। भिन्न-भिन्न जाति वालों के गोत्र समान हो सकते हैं क्योंकि गोत्रों का निर्धारण अपने पूर्व-वंशी पुरोहितों के नाम के आधार पर होता था।

अतः गुप्त शूद्र नहीं थे तथा हम डॉ० जायसवाल के इस मत से कदापि सहमत नहीं हो सकते।

(2) गुप्त वैश्य थे-

वायु पुराण में कहा गया है-

“शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता च भुभूजः।

भूतिर्गुप्तश्च वैशस्य दासः शूद्रस्य कारियेत् ।।

स्मृतियों तथा पुराणों में भी, इस कथन के समर्थनानुसार ब्राह्मणों को ‘शर्मा’ या देव; क्षत्रियों को ‘नाता’ या वर्मा, वैश्यों की ‘गुप्त’ या भूति; तथा शूद्रों को ‘दास’ माना गया है। अतः एलेन, आयंगर तथा अल्टेकर आदि विद्वानों ने ‘गुप्त’ शब्द के आधार पर गुप्तवंश को वैश्य वर्ण का माना है।

आलोचना- पुराण तथा स्मृतियों के कथनानुसार गुप्तों को वैश्य मान लेना दोष-पूर्ण तथा तर्कहीन बात है। यदि वायु-पुराण के उपरोक्त कथन का कठोरतापूर्वक अनुशीलन किया जाये तो हमें यह मानना पड़ेगा कि मौर्य-वंशीय चन्द्रगुप्त तथा प्रकाण्ड ब्राह्मण विष्णुगुन (चाणक्य अथवा कौटिल्य) भी वैश्य थे। परन्तु यह सर्वविदित है कि ये दोनों वैश्य नहीं थे। ‘गुप्त’ नाम वाले अनेक व्यक्ति अन्य जातियों में भी मिलते हैं। अतः हम गुप्तों को वैश्य नहीं मान सकते।

(3) गुप्त ब्राह्मण थे-

कुछ विद्वान् जिनमें डॉ० राय चौधरी प्रमुख हैं-गुप्तों को ब्राह्मणवंशीय माना है। इस सम्बन्ध में उन्होंने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं-

(1) वैवाहिक सम्बन्ध प्रायः समान वर्ण वालों से ही स्थापित किये जाते हैं। वाकाटक ब्राह्मणवंशीय थे। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने इपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक वंश के राजा रुद्रसेन द्वितीय के साथ किया था। अतः वाकाटकों की भाँति गुप्त भी ब्राह्मणवंशीय थे।।

(2) प्रभावती को ‘धारण’ गोत्र का बताया गया है। यह गोत्र ब्राह्मण गोत्र था अतः गुप्त ‘धारण’ गोत्रिय होने के कारण ब्राह्मणवंशीय थे।

आलोचना- गुप्तों को ब्राह्मणवंशीय बताने वाले उपरोक्त दोनों तर्कों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। पहली बात तो यह है कि अन्तर्जातीय विवाह पूर्णतः निषिद्ध नहीं थे। अतः विवाह के आधार पर जाति निर्धारण करना तर्कसंगत नहीं है। दूसरी बात यह है कि एक ओर डॉ० जायसवाल ‘धारण’ गोत्र को निम्न-स्तरीय मानते हैं तो दूसरी ओर ये विद्वान् इस गोत्र को ब्राह्मण गोत्र मानते हैं। यह परस्पर-विरोधी बात है। हम पहले ही कह चुके हैं कि गोत्रों का निर्धारण जाति के आधार पर नहीं वरन् पूर्वजों के नाम के आधार पर होता था अतः इससे गुप्तों का ब्राह्मण-वंशीय होना सिद्ध नहीं होता।

(4) गुप्त क्षत्रिय थे?-

पं० गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा तथा डॉ. वासुदेव उपाध्याय के अनुसार गुप्त क्षत्रियवंशी थे। मगध-शासक सुन्दरवर्मन को क्षत्रिय कहा गया है तथा इसी आधार पर गुप्तवंश को भी क्षत्रिय कहा गया है। परवर्ती गुप्त-नरेश महाशिव गुप्त की सिरपुर प्रशस्ति में गुप्तों को चन्द्रवंशीय क्षत्रिय कहा गया है। गुनल-नरेश अपने को उज्जैन के शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय का वंशज बतलाते हैं। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को सोमवंशीय क्षत्रिय कहा गया है। इसकी पुष्टि ‘आर्य मंजु श्री मूलकल्प’ से भी होती है। लिच्छवियों को क्षत्रिय माना गया है। इस प्रकार गुप्तों तथा लिच्छवियों के महत्त्वपूर्ण वैवाहिक सम्बन्ध भी उनके क्षत्रियत्व को प्रमाणित करते हैं। नेपाल वंशावली, चीनी यात्री ह्वेनसाँग का वर्णन तथा तिब्बती ग्रन्थ ‘दुल्व’ आदि भी लिच्छवियों को सूर्यवंशीय क्षत्रिय बताते हैं। लिच्छवि राजकुमारी-कुमारदेवी का विवाह चन्द्रगुप्त प्रथम के साथ हुआ था। प्रभावशाली लिच्छवि किसी भी दशा में निम्नस्तरीय वंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकते थे। अतः गुप्त भी क्षत्रिय थे। इसके अलावा चन्द्रगुप्त द्वितीय का विवाह भी क्षत्रिय नागराज की कन्या के साथ हुआ था। उपरोक्त तर्कों के आधार पर, अधिकांश विद्वान गुप्तों को क्षत्रिय मानते हैं।

आलोचना- अधिकांश विद्वान् कौमुदी महोत्सव के चण्डसेन तथा गुप्त नरेश चन्द्रगुप्त प्रथम को दो भिन्न व्यक्ति मानते हैं। चन्द्रगुप्त प्रथम तथा लिच्छवि राजकुमारी का विवाह अन्तर्जातीय विवाह भी माना जा सकता है। अतः यह आवश्यक नहीं है कि यदि लिच्छवि क्षत्रिय थे तो गुप्त भी क्षत्रिय रहे होंगे। यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता कि परवर्ती गुप्त-नरेश महाशिवगुप्त तथा पूर्ववर्ती गुप्तवंश में कोई सम्बन्ध था अथवा नहीं। ‘आर्य मंजूश्री मूलकल्प’ की प्रामाणिकता को पूर्णरूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इनमें अपने काल्पनिक घटनाओं एवं वर्णनों का समावेश है।

उपर्युक्त अनेक मतों के प्रतिपादक एवं उनकी आलोचना से प्रमाणित होता है कि गुप्तों की जाति का प्रश्न आज भी रहस्यात्मक बना हुआ है। इस विषय पर डॉ० राजबली पाण्डेय ने अपने संतुलित मत का प्रतिपादन करते हुए, लिखा है-“इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि गुप्त प्रारम्भ में वैश्य रहे हों तथा पीछे वर्ण बदलकर क्षत्रिय हो गये हों। गुप्तों का वैवाहिक सम्बन्ध क्षत्रिय नागों, लिच्छवियों, कदम्बों और ब्राह्मण वाकाटकों के साथ होता था। इससे प्रकट होता है कि अपने शासनकाल में गुप्त क्षत्रिय ही माने जाते थे।” परन्तु हमें यह कथन, संतुलन की अपेक्षा हास्यपूर्ण कटाक्ष प्रतीत होता है क्योंकि डॉ० पाण्डेय ने यह नहीं बताया कि गुप्त यदि प्रारम्भ में वैश्य थे तो, उन्हें वर्ण बदलने की आवश्यकता क्यों और किस कारण से हुई।

यदि हमसे, बहुत जोर देकर इस प्रश्न का उत्तर पूछा जाये कि गुप्त कौन थे- तो हम विवश होकर, इतना ही कहेंगे कि उनका क्षत्रिय ही होना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। परन्तु अभी इस विषय पर अपने निर्णय को सुरक्षित रखना ही श्रेयस्कर होगा।

गुप्तों की प्राचीनता एवं आदिस्थान

प्राचीनता- गुप्त-वंश काफी प्राचीन प्रतीत होता है। अनेक प्राचीनतम् अभिलेखों में ‘गोतिपुत’ (गौप्तिपुत्र) का उल्लेख हुआ है। सातवाहन-काले के कई लेखों में ‘गुप्त’ शब्द का प्रयोग किया गया है। परन्तु इतना सब होते हुए भी हम गुप्त वंश की प्राचीनता का निर्धारण करने में अभी तक असफल रहे हैं। इसके अतिरिक्त अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं हो पाया है कि ‘गुप्त’ नाम के सभी व्यक्ति एक ही वंश के थे अथवा विभिन्न वंशों या उपवंशों से सम्बन्धित थे।

गुप्तों का आदिस्थान- गुप्तों की जाति की भाँति, गुप्तों के आदिस्थान के विषय में काफी मतभेद हैं। इस सम्बन्ध में तीन प्रमुख मत हैं जिनका वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है.

(1) कौशाम्बी का प्रदेश- इस मत का आधार कौमुदी महोत्सव है। चन्द्रसेन तथा चन्द्रगुप्त प्रथम को समान व्यक्ति मानते हुए, डॉ० जायसवाल के मतानुसार, गुप्त राजा प्रारम्भ में भारशिवों के अधीन थे तथा वे कौशाम्बी के निकटवर्ती प्रदेश में शासन करते थे। परन्तु अधिकांश विद्वान् कौमुदी महोत्सव के वर्णन का ऐतिहासिक महत्त्व स्वीकार नहीं करते। इसके अतिरिक्त चण्डसेन तथा चन्द्रगुप्त प्रथम को एक ही व्यक्ति मानना सन्देहरहित नहीं है।

(2) बङ्गाल प्रदेश- इस मंत का आधार, सातवीं शती ई० के चीनी यात्री इत्सिंग का वर्णन है। उसने कहा है कि पाँच सौ वर्ष पूर्व चेलिकेतो नामक राजा ने मृग-शिखावन के निकट एक चीनी उपासना-गृह का निर्माण कराया था। चेलिकेतो को गुप्तवंश का आदि-संस्थापक माना गया है। अतः इस प्रारम्भिक गुप्त राजा का आदिस्थान मृगशिखावन या इसके आस-पास का प्रदेश रहा होगा। इत्सिंग के वर्णन से प्रेरित होकर डॉ० मजूमदार तथा श्री गंगोली ने अपने इस मत का प्रतिपादन किया है कि गुप्तों का आदिस्थान बंगाल का प्रदेश रहा होगा।

परन्तु इस मत को स्वीकार करने में पहली बाधा तो यह है कि मृगशिखावन बंगाल में न होकर, उत्तर प्रदेश या बिहार में स्थित था। दूसरी बात यह है कि गुप्त-राज्य का जो प्रथम विवरण प्राप्त हुआ है उसमें बङ्गाल का नाम नहीं है। इस दृष्टिकोण से बङ्गाल को गुप्तों का आदि निवास-स्थान मान लेना तर्कसंगत नहीं है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश अथवा पश्चिमी मगध प्रदेश- इतिहासकार एवं अन्य विद्वानों का बहुत बड़ा वर्ग इस मत का समर्थक है कि गुप्तों का आदिस्थान पूर्वी उत्तर प्रदेश या पश्चिमी मगध में अवस्थित था। श्री जगन्नाथ महोदय का मत है कि मृगशिखावन, नालन्दा के पूर्व में (बंगाल में) नहीं वरन् पश्चिम सारनाथ के निकट था। डॉ० मुकर्जी, एलेन तथा आयंगर के मतानुसार प्रारम्भिक गुप्त पाटलिपुत्र में निवास करते थे। पुराणों द्वारा भी इस बात की पुष्टि होती है। पुराणों में कहा गया है कि प्रारम्भिक गुप्त राज्य में उत्तर प्रदेश तथा मगध के प्रान्त सम्मिलित थे। इस दशा में पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी मगध को गुप्तों का आदिस्थान माना जा सकता है। हमारा मत यह है कि गुप्तवंश के आदिस्थान के उपरोक्त तीनों सिद्धान्तों में विकट मत विभिन्नता है। प्रत्येक मत के पक्ष तथा विपक्ष में अपने प्रमाण दिये जा सकते हैं, अतः इस विषय पर कोई निश्चित मत नहीं दिया जा सकता।

गुप्त वंश का प्रारम्भिक विकास

नाम-निर्णय- वायु पुराण में कहा गया है-

“अनुगंगा प्रयागश्च साकेतं मगधास्तथा,

एतान् जनपदान् सर्वान् भोक्षन्ते गुप्तवंशजाः।”

अर्थात् गुप्त वंश के शासक प्रयाग, साकेत तथा मगध आदि प्रदेशों पर शासन करेंगे। इससे स्पष्ट होता है कि गुप्त-वंश के आदि संस्थापक का नाम ‘गुप्त’ था।

गुप्तवंशीय अभिलेखों में गुप्तों के आदिपुरुष का नाम ‘महाराजा श्रीगुप्त’ कहा गया है। प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त अपने को महाराज श्रीगुप्त का प्रपौत्र बताता है यथा-

‘महाराजा श्रीगुप्तप्रपौत्रस्य महाराज श्री घटोत्कच पौत्रस्य महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्तपुत्रस्य लिच्छवीदौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्तस्य”

अनेक इतिहासकारों की मान्यता है कि गुप्तवंश के आदिपुरुष का नाम केवल ‘गुप्त’ था तथा ‘गुप्त’ नाम के साथ ‘श्री’ शब्द को केवल सम्मानसूचक के रूप में जोड़ा गया है।

कई अन्य विद्वानों का मत है कि गुप्तवंश के आदिपुरुष का कोई अन्य नाम था तथा. ‘गुप्त’ इस नाम का अन्तिम शब्द था। बाद में उसके नाम के प्रथम अंश को त्याग दिया गया तथा दूसरे वंश ‘गुप्त’ का प्रयोग निरन्तर होता रहा।

उपरोक्त वर्णन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि गुप्त-वंश के आदि-संस्थापक के नाम में ‘गुप्त’ शब्द तो अवश्य ही विराजमान था अतः हमारा मत है कि ‘श्रीगुप्त’ ही गुप्तवंश का आदि-संस्थापक था।

महाराज की उपाधि- गुप्तवंश के अभिलेखों में उनके प्रथम दो राजाओं के नाम के साथ ‘महाराज’ की उपाधि जुड़ी हुई है तथा तीसरे राजा के पश्चात् सभी राजाओं को महाराजाधिराज कहा जाता है। प्रश्न उठता है कि प्रथम दो राजाओं को ‘महाराज’ तथा अन्य सभी को ‘महाराजाधिराज’ की संज्ञा से क्यों विभूषित किया गया है। इस सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों का कथन है कि ‘महाराज’ की उपाधि अधीनता सूचक तथा ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि स्वतन्त्रतासूचक है। परन्तु हमें अनेक स्थानों स्वतन्त्र शासकों के लिये भी ‘महाराज’ उपाधि के प्रयोग के प्रमाण प्राप्त होते हैं। रिठपुर प्लेटो में समुद्रगुप्त जैसे महान् सम्राट् को ‘महाराज’ की उपाधि दी गई है। डॉ० आर०डी० बनर्जी का मत है कि प्रथम दो गुप्त शासक कुषाणों के अधीन थे। परन्तु हम अच्छी तरह से जानते हैं कि कुषाणों का पतन इन दोनों गुप्त- शासकों से पहले ही हो चुका था। डॉ० जायसवाल ने कहा है कि प्रथम दो गुप्त शासक भारशिवों के अधीन थे-परन्तु उन्होंने अपने इस कथन के समर्थन में कोई सबल प्रमाण नहीं दिया है।

ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रकार यौधेय, कुणिन्द, मालव, नाग तथा मग आदि जाति ने कुषाणों की दुर्बलता का लाभ उठाकर अपने स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना की थी-ठीक उसी प्रकार पूर्वी भारत में गुप्त वंश की स्वतन्त्र सत्ता का उदय हुआ था। अतः गुप्त-वंश के प्रथम दो शासकों के लिये प्रयुक्त ‘महाराज’ उपाधि से यह अर्थ निकालना तर्कसंगत नहीं है कि प्रारम्भिक गुप्त-शासक किसी विशाल सत्ता के अधीनस्थ थे।

गुप्तवंश के प्रारम्भिक शासक

श्रीगुप्त- गुप्त साम्राज्य एक छोटे से राज्य से बढ़कर इतना विशाल हुआ था। गुप्त सम्राट अपने अभिलेखों में अपना उद्भव ‘महाराज श्रीगुप्त’ से बतलाते हैं। चक्रवर्ती गुप्त सम्राटों का यह मूल पुरुष केवल ‘महाराज’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। इससे पता चलता है कि वह चक्रवर्ती नरेश नहीं था। स्व० डॉ० जायसवाल के अनुसार वह प्रयाग के निकट के भारशिवों के अधिनायकत्व में एक गुप्त साम्राज्य के अन्तिम नरेश द्वारा बुद्धनीति का अनुसरण. किये जाने के कारण इस वंश की पतन प्रक्रिया का तीव्र होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

(iv) कूटनीति का परित्याग- उत्कर्ष काल के गुप्त नरेशों ने अनेक विदेशी तथा भारतीय शक्तियों के साथ कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना की थी। चन्द्रगुप्त प्रथम तथा द्वितीय ने अनेक वैवाहिक सम्बन्धों तथा समुद्रगुप्त ने मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों द्वारा अनेक तटस्थ तथा शत्रु राज्यों को मित्र बना लिया था। कुमारगुप्त प्रथम तथा स्कन्दगुप्त ने भी इन सम्बन्धों की मर्यादा रखी, परन्तु पश्चात्कालीन गुप्त नरेशों की अदूरदर्शी नीति के परिणामस्वरूप अनेक मित्र-शत्रु तथा हितैषी- द्वेषी बन गये। डॉ० वासुदेव उपाध्याय के अनुसार “अपने पूर्वजों के सम्बन्धों को तो स्थायी रखना दूर रहा पीछे के तो गुप्त नरेशों ने उनसे शत्रुता मोल ले ली।” इसका परिणाम यह हुआ कि जब गुप्त वंश पर संकट आया तो पूर्वकाल के हितैषियों तथा मित्रों से कोई सहायता नहीं मिली।

(v) उत्तराधिकार सम्बन्धी संघर्ष- गुप्तवंश के उत्तराधिकार सम्बन्धी नियम निश्चित नहीं थे। चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा समुद्रगुप्त को बहुमत द्वारा उत्तराधिकारी घोषित करना, चन्द्रगुप्त द्वारा रामगुप्त की हत्या किया जाना आदि घटनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि गुप्तवंश में इस प्रश्न पर अनेक बार संघर्ष हुए होंगे। ऐसी परिस्थिति में गुटबन्दी तथा षड़यन्त्र रचना की सम्भावना बनी रहती थी। भासित होता है कि उत्तराधिकार सम्बन्धी विवादों तथा दलबन्दी के कारण गुप्त साम्राज्य को अधिक-क्षति उठानी पड़ी होगी।

वास्तव में यदि केन्द्रीय सत्ता सबल तथा सक्षम रही होती, कूटनीति का चतुर प्रयोग किया जाता तथा शासक वर्ग स्वार्थपरक नीति को त्यागकर देश और समाज का भला चाहते तो गुप्त साम्राज्य को पतन की दिशा में जाने से रोका जा सकता था। परन्तु जो कुछ नियति से निश्चित था वही हुआ और भारतीय इतिहास का यह गौरवशाली युग, छठी शताब्दी ई० के मध्य चरणों में समाप्त हो गया अर्थात् गुप्त साम्राज्य धराशायी हो गया।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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