भारत में माध्यमिक शिक्षा का विकास

भारत में माध्यमिक शिक्षा का विकास | ब्रिटिश काल में माध्यमिक शिक्षा का विकास | स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् माध्यमिक शिक्षा का विकास

भारत में माध्यमिक शिक्षा का विकास | ब्रिटिश काल में माध्यमिक शिक्षा का विकास | स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् माध्यमिक शिक्षा का विकास

भारत में माध्यमिक शिक्षा का विकास

(Development of Secondary Education in India)

भारत में माध्यमिक शिक्षा के विकास को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • ब्रिटिश काल में माध्यमिक शिक्षा का विकास
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् माध्यमिक शिक्षा का विकास।

(i) ब्रिटिश काल में माध्यमिक शिक्षा का विकास

(Development of Secondary Education in British Period)

1835-1854 में माध्यमिक शिक्षा का विकास-भारत में माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना के प्रयास 18वीं शताब्दी के अन्त में 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में किए गये। भारत में माध्यमिक शिक्षा के वर्तमान ढाँचे का प्रारंभ लार्ड मैकॉले (Lord Macauley) के विवरण पत्र जिसको लार्ड विलियम बैंटिक (Lord William Bentick) ने स्वीकार किया तथा माध्यमिक शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया। मैकॉले की शिक्षा योजना को 1835 में स्वीकृति दे दी गयी, जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजी भाषा पर आधारित अंग्रेजी स्कूलों की स्थापना की गयी। सन् 1844 में राजकीय पदों पर भारतवासियों को नियुक्त किया जाने लगा, जिसके कारण माध्यमिक शिक्षा विद्यालयों का निर्माण तीव्रगति से हुआ।

1854 के चार्ल्स वुड (Charles Wood) के घोषणा- पत्र ने माध्यमिक शिक्षा के विकास में योगदान दिया। यह घोषणा-पत्र आज भी भारतीय शिक्षा ढाँचे का आधार है। इस घोषणा-पत्र के आधार पर सरकार द्वारा अनेक माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना की गयी। घोषणा-पत्र में प्रतिपादित सहायता अनुदान प्रणाली (Grant-in-aid system) ने माध्यमिक विद्यालयों की संख्या 1663 तथा 1882 में बढ़कर 1969 तक पहुँच गयी।

हण्टर आयोग, 1882 (Hunter Commission, 1882)- मैकॉले की प्रणाली के परिणामस्वरूप माध्यमिक शिक्षा में अनेक दोष आ गए, जिनको दूर करने के लिये लार्ड रिपन ने 1882 ई० में हण्टर आयोग की स्थापना की। इस आयोग ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करके शिक्षा सम्बन्धी वास्तविक समस्याओं को जानने का प्रयत्न किया। इसके सुझाव के अनुसार हाई स्कूल की शिक्षा को दो भागों में विभाजित किया गया-

(1) (A) कोर्स– यह कोर्स उन विद्यार्थियों के लिये हो जो उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना चाहते हों।

(2) (B) कोर्स- यह कोर्स अधिक व्यावहारिक हो तथा इसका उद्देश्य नवयुवकों को व्यावयसायिक तथा असाहित्यिक कार्यों हेतु तैयार करना हो।

परन्तु न ही लोगों ने तथा न ही सरकार ने इस बहुमूल्य सुझाव की प्रशंसा की, बल्कि इसका उल्लंघन किया गया, क्योंकि शिक्षित वर्ग साहित्यिक अध्ययन को व्यावहारिक शिक्षा की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण समझता था। 1882 से 1902 तक के समय में निजी संस्थाओं के प्रयल तथा अनुदान प्रणाली के कारण माध्यमिक शिक्षा में विशेष रूप से विस्तार हुआ, लेकिन शिक्षा का स्तर निम्न रहा।

1902 का विश्वविद्यालय आयोग तथा माध्यमिक शिक्षा का प्रसार (University Education Commission 1902 and Progress of Secondary Education)-  सन् 1899 में लार्ड कंर्जन भारत के गवर्नर जनरल होकर आये। शिक्षा में सुधार हेतु लार्ड कर्जन ने 1901 में शिमला में एक गुप्त शिक्षा सम्मेलन आयोजित किया। 1902 में लार्ड कर्जन ने विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की। सरकार ने इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर ही सन् 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम का निर्माण किया।

इस अधिनियम ने विश्वविद्यालयों को यह अधिकार दे दिया कि वे उन माध्यमिक विद्यालयों की मान्यता के लिए नियम बना सकते हैं, जो अपने छात्रों को विश्वविद्यालयों द्वारा ली जाने वाली मैट्रिकुलेशन’ परीक्षा में भेजना चाहते हैं।

1913 का शिक्षा नीति सम्बन्धी प्रस्ताव (Resolution of 1913)- 1913 में सरकार ने शिक्षा नीति सम्बन्धी अपना प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव के अन्तर्गत माध्यमिक शिक्षा सम्बन्धित निम्नलिखित सिफारिशें दी गई-

(1) माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र से सरकार को पूर्ण रूप से नहीं हटना चाहिए।

(2) अध्यापकों का वेतन निश्चित किया जाये।

(3) राजकीय विद्यालयों की संख्या में वृद्धि न की जाए।

(4) परीक्षा प्रणाली तथा पाठ्यक्रम में सुधार किया जाये।

(5) माध्यमिक विद्यालयों की कार्यक्षमता में वृद्धि करने के लिए उन पर कठोर नियंत्रण रखा जाये।

सैडलर आयोग, 1919 (Sadler Commission, 1919)- इस आयोग ने परीक्षा आधारित शिक्षा के ढाँचे के दोषों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया। इस आयोग का यह निष्कर्ष था कि जब तक माध्यमिक शिक्षा के दोषों को दूर करके उसका आमूल परिवर्तन नहीं कर दिया जायेगा, तब तक विश्वविद्यालय शिक्षा में किसी प्रकार का सुधार करना संभव नहीं होगा। इस आयोग ने प्रत्येक प्रांत में माध्यमिक शिक्षा परिषद् की स्थापना करने की सिफारिश की। यह सुझाव माध्यमिक शिक्षा के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

हर्टांग कमेटी, 1929, (Hartog Committee, 1929)- 1929 में हर्टांग ने यह स्वीकार किया कि जनसाधारण की शिक्षा की तुलना में माध्यमिक शिक्षा की उन्नति ही अधिक हुई है, परन्तु कमेटो ने साथ में यह भी कहा कि मैट्रिकुलेशन परीक्षा में अत्यधिक छात्रों के अनुत्तीर्ण होने से बहुत अपव्यय भी हो रहा है। इस कमेटी ने सुझाव दिया कि आठवीं श्रेणी के बाद अधिकतर विद्यार्थियों को औद्योगिक तथा व्यापारिक दिशाओं में भेजना चाहिए, जिससे कि उन्हें विशेष रूप से औद्योगिक अथवा तकनीकी स्कूलों के लिए तैयार किया जा सके।

ऐबट वुड रिपोर्ट, 1937 (Abbot-Wood Report, 1937)-  ऐबट वुड ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया कि सामान्य शिक्षा संस्थाओं के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा संस्थायें भी स्थापित की जाएँ। फलस्वरूप, भारत में औद्योगिक प्रशिक्षण केन्द्रों (Polytechnics) का जन्म हुआ। राज्यों में औद्योगिक, व्यापारिक तथा कृषि सम्बन्धी स्कूलों का भी आरम्भ किया गया।

सार्जेन्ट रिपोर्ट, 1944 (Sargent Report, 1944)- द्वितीय महायुद्ध समाप्त हो जाने के बाद सरकार ने शिक्षा के लिये युद्ध स्तर पर विकास की योजना बनाई। इस कार्य के लिए तत्कालीन भारतीय शिक्षा सलाहकार सर जॉन सार्जेंट की नियुक्ति की गई। सीजेंट ने अपना प्रतिवेदन केंद्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद् के समक्ष प्रस्तुत किया। इस योजना में माध्यमिक शिक्षा के लिए अग्रलिखित सुझाव प्रस्तुत किए हैं-

(1) हाईस्कूल का कोर्स 7 वर्ष का कर दिया जाए।

(2) हाई स्कूल दो प्रकार के होने चाहिये-(i) शैक्षिक (Academic), (ii) तकनीकी (Technical)| शैक्षिक स्कूलों में तो कला तथा विज्ञान (Art, and Science) की शिक्षा प्रदान करनी चाहिये, परन्तु तकनीकी स्कूलों में व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। आठवीं श्रेणी तक की शिक्षा सभी के लिये एक जैसी होनी चाहिए।

(3) सभी विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम विद्यार्थियों की मातृभाषा होनी चाहिये।

(4) इन विद्यालयों में योग्य एवं प्रतिभाशाली छात्रों को ही प्रवेश दिया जाये।

उपर्युक्त समितियों व आयोगों आदि के सुझावों के उपरांत भी माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति होती रही। 1947 में 12693 माध्यमिक विद्यालय थे।

(ii) स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् माध्यमिक शिक्षा का विकास

(Development of Secondary Education after independence)

15 अगस्त सन् 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय शिक्षा के इतिहास में एक नये युग का प्रारंभ हुआ। माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में नवीन विकास कार्य अपनाये गये। इसको सुसंगठित करने के लिए हमारी सरकार ने विभिन्न कमेटियों और आयोगों की नियुक्ति की जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

डा० ताराचन्द्र समिति (Dr. Tara Chand Committee)- 1948 में सरकार ने डा० ताराचन्द्र की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की, जिसका प्रमुख कार्य देश में माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन के क्षेत्र में सुझाव देना था। इस समिति ने सुझाव दिया कि प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा की अवधि 12 वर्ष की हों। इस 12 वर्ष की अवधि का विभाजन इस प्रकार हो-5 वर्ष जूनियर बेसिक, 3 वर्ष सीनियर बेसिक तथा 4 वर्ष उच्चतर माध्यमिक। इस कमेटी ने उच्चतर माध्यमिक शिक्षा को बहुमुखी बनाने का सुझाव दिया।

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग, 1949 (University Education Commission, 1948-49)  यह आयोग डॉ० राधाकृष्णन की अध्यक्षता में स्थापित किया गया। इस आयोग का प्रमुख कार्य-क्षेत्र विश्वविद्यालय की शिक्षा तक सीमित था, परन्तु आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। आयोग के अनुसार समस्त शिक्षा के स्वरूप में माध्यमिक शिक्षा सबसे कमजोर कड़ी है। इस आयोग ने सुझाव दिया कि विश्वविद्यालय में प्रवेश 12 वर्ष स्कूल में अध्ययन करने के पश्चात् दिया जाना चाहिये।

माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952-53 (Secondary Education Commission 1948-53)-  ताराचन्द्र कमेटी और केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के परामर्श पर माध्यमिक शिक्षा के ढाँचे को परिवर्तित करने के लिए भारत सरकार ने सितंबर 1952 में माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन किया, जिसके अध्यक्ष डा० एल० एस० मुदालियर (Dr. L. S. Mudaliar) थे। इस आयोग ने जून 1953 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। माध्यमिक शिक्षा आयेग के सुझावों के आधार पर वर्तमान माध्यमिक शिक्षा प्रणाली का गठन किया गया। इस कमीशन के वर्तमान शिक्षा प्रणाली के विभिन्न दोषों का भी उल्लेख किया और उसमें सुधार लाने के लिए अनेक सुझाव प्रस्तुत किए। इस कमीशन के अनुसार माध्यमिक शिक्षा का अग्रलिखित रूप से पुनर्गठन किया जाना चाहिए-

(1)6 से 14 वर्ष तक का 8 वर्ष का कार्यक्रम।

(2) 14 वर्ष से 17 वर्ष की आयु के बालकों के लिए 3 वर्ष के विभिन्न कोर्स।

(3) हायर सेकेण्डरी के पश्चात् 3 वर्ष का डिग्री कार्यक्रम।

कोठारी आयोग (1964-66)- कोठारी आयोग का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत था। इस आयोग ने माध्यमिक शिक्षा में सुधार करने के लिये विभिन्न क्षेत्रों में अपने सुझाव दिए। इस कमीशन ने माध्यमिक शिक्षा में सुधार लाने के लिए नवीन संगठन, व्यवसायीकरण पाठ्यक्रम आदि के विषय में कई सुझाव दिए। कोठारी आयोग ने सुझाव दिया कि माध्यमिक शिक्षा का व्यक्तियों के जीवन, आवश्कयताओं तथा आकांक्षाओं से सम्बन्ध होना चाहिए।

कोठारी आयोग ने 10 वर्ष के लिए साधारण शिक्षा तथा इसके बाद 2 वर्ष के लिए व्यावसायिक शिक्षा का सुझाव दिया है। इस आयोग ने स्कूल शिक्षा हेतु राष्ट्रीय बोर्ड स्थापित करने के लिए भी सिफारिश की। इस आयोग ने शिक्षण के नवीन पाठ्यक्रम और नवीन ढंग अपनाने पर बल दिया है।

इस प्रकार स्वतंत्रता के बाद भी सरकार ने समय-समय पर माध्यमिक शिक्षा के विकास तथा सुधार के लिए उचित कदम उठाये हैं।

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