अर्थशास्त्र / Economics

भारतीय कृषि की समस्याएँ | कुल मुख्य देशों का उत्पादन | कृषि समस्याओं के समाधान का उपाय | कृषि की निम्न संवृद्धि दर के प्रमुख कारण

भारतीय कृषि की समस्याएँ | कुल मुख्य देशों का उत्पादन | कृषि समस्याओं के समाधान का उपाय | कृषि की निम्न संवृद्धि दर के प्रमुख कारण | Problems of Indian Agriculture in Hindi | total output of the main countries in Hindi | Solutions to Agricultural Problems in Hindi | Main reasons for low growth rate of agriculture in Hindi

भारतीय कृषि की समस्याएँ

भारतीय कृषि शताब्दियों से अनेक समस्याओं के पीड़ित हैं यहाँ कृषि की औसत उपज अन्य देशों की अपेक्षा बहुत कम हैं। वर्तमान समय में कृषि में कृषि की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं।

  1. भूमि पर जनसंख्या का दबाव- बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण प्रति व्यक्ति उपलब्ध भूमि का औसत कम होता जा रहा हैं। 1961 में प्रति व्यक्ति उपलब्ध भूमि का औसत 0.30 हेक्टेयर था जो घट कर 1971 में 0.25 हेक्टेयर हो गया और 1981 में 0.21 हेक्टोयर तथा 2011 जनगणना के अनुसार 0.21 हेक्टेयर वर्ग किमी० हो गया। जनसंख्या वृद्धि की तुलना में आय के साधनों में वृद्धि नहीं होने से ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याएँ और जटिल होती जा रही हैं।
  2. भूमि के वितरण में असमानता- भारत में भू-स्वामित्व की समस्या बड़ी जटिल हैं क्योंकि यहाँ भूमि का वितरण असंतुलित एवं असमान हैं। देश के एक प्रतिशत किसानों के पास कुल कृषि योग्य भूमि का 20%, 10% किसानों के पास 50% एवं 89% किसानों के पास 30% भूमि हैं।
  3. प्रति हेक्टर उत्पादकता- यहाँ पर अन्य देशों की तुलना में गेहूँ, चावल, कपास व मूंगफली आदि सभी की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बहुत कम है जैसा अंकतालिका से स्पष्ट हैं

कुल मुख्य देशों का उत्पादन

प्रति हेक्टेयर उपज 2010-2011

फसल/देश

किलोग्राम

(i) चावल (धान)

 

मित्र

9865

जापान

7420

चीन

7062

भारत

3098

(ii) गेहूँ

 

चीन

9216

फ्रांस

7967

संयुक्त राज्य अमेरिका

6567 

भारत

3976 

(iii) मूँगफली

 

सं० रा० अमेरिका

4001

चीन

3017

भारत

2700

(iv) कपास

 

चीन

9710

भारत

8765

संयुक्त राज्य अमेरिका

7615

पाकिस्तान

6561

  1. जोतों का छोटा आकार- भारत में कृषि जोतों का आकार बहुत छोटा हैं जिस कारण उत्पादकता कम हैं। यहाँ पर जोतों का औसत आकार 6.57 एकड़, जबकि न्यूजीलैंड में 490 एकड़ से कम तथा 44% जोतें पाँच एकड़ से कम हैं।
  2. वित्तीय साधनों का अभाव- भारत में कृषि विकास के लिए प्रतिवर्ष रु.6000 करोड़ की आवश्यकता होती हैं, परन्तु वित्तीय साधनों के अभाव में कृषि क्षेत्र का विकास नहीं हो पा रहा हैं। किसानों को पर्याप्त पूंजी के अभाव में ऋण लेना पड़ता हैं। वह वित्त की आवश्यकता महाजन से रुपया अधिक ब्याज पर लेकर पूरी करता हैं। परिणामस्वरूप वह हमेशा ऋण से लदा ही रहता हैं।
  3. निर्धनता एवं अशिक्षा- निर्धनता के कारण कृषि का विकास नहीं हो पा रहा हैं। अशिक्षा के कारण उन्हें नवीन पद्धतियों का पता नहीं लग पाता हैं। किसान भाग्यवादी और आलसी बना हुआ हैं। नवीन पद्धतियों के प्रयोग न होने से उत्पादन में वृद्धि नहीं हो पा रही हैं। निर्धनता एवं अशिक्षा के कारण किसान कठोर परिश्रम नहीं कर पाता हैं। अशिक्षा और उत्पादन करने का प्रयास नहीं करता हैं। अशिक्षा एवं निर्धनता कृषि क्षेत्र में समस्या और कारण दोनों हैं।विकास के लिए ये दोनों बाधक हैं।
  4. वर्षा की अनिश्चितता- भारतीय कृषि को मानसून का जुआ कहा जाता है। यहाँ की अधिकतर भूमि वर्षा पर ही निर्भर करती हैं। यदि किसी वर्ष वर्षा अच्छी नहीं होती तो फसल बेकार हो जाती हैं। कृत्रिम साधनों के द्वारा सिंचाई करने का यहाँ उत्तम प्रबन्ध नहीं हैं। भारतीय कृषि की स्थिति स्पष्ट करते हुए नानावती और अन्जारिया ने लिखा है, “भारतीय कृषि मानसून के हाथ का जुआ हैं। किसी वर्ष वर्षा अच्छी नहीं होती और यदि होती भी है, तो उसकी अनिश्चितता एवं असमान वितरण के कारण अकाल का दृश्य उपस्थित हो जाता हैं।”
  5. विक्रय सुविधाओं का प्रभाव- कृषकों को बाजार की सुविधाएँ नहीं मिल पाती हैं। वह बाध्य होकर अपनी उपज को ग्रामीण व्यापारियों एवं साहूकारों को बेच देता हैं क्योंकि बाजार जाने की क्षमता नहीं हैं। वह बाजार में अपनी उपज को नहीं बेच पाता है। यदि किसी प्रकार बाजार पहुँच भी गया तो वहाँ पर बड़े व्यापारियों द्वारा अनेक कटौतियाँ की जाती हैं जिससे कि उसे अपनी उपज का पूरा लाभ नहीं मिल पाता हैं।

इस कठिनाइयों के कारण वह अपनी उपज को गाँव में ही बेच देना उचित समझता है। दूसरी तरफ ऋण की वापसी की आवश्यकता पड़ती हैं जिससे कि उत्पादन के समय ही विक्रय करना पड़ता हैं। परिणामस्वरूप वह अपनी उपज की केवल 50% से 70% तक की आय प्राप्त कर सकता हैं। उसके पास पर्याप्त साधन नहीं हैं कि कुछ दिन रुककर मूल्यों के अनुकूल होने पर बेचे। दूसरी तरफ ऋणदाताओं द्वारा इतनी कठोरता का व्यवहार किया जाता हैं कि किसान फसल तैयार होते ही बेचने के लिए बाध्य हो जाता हैं। इस प्रकार की समस्या आज भी कृषि क्षेत्र में बनी हैं।

  1. कृषि की वैज्ञानिक एवं नवीन तकनीकि प्रणाली का अभाव- भारतीय किसानों के पास कृषि यन्त्रों का अभाव रहता हैं, जबकि विकसित देशों में इन यंत्रों द्वारा भूमि का सर्वाधिक उपयोग करके अधिक उत्पादन किया जाता हैं। इन वैज्ञानिक कृषि यन्त्रों के न होने का कारण यहाँ उपज बहुत कम हैं। उन्नत किस्म के बीजों, उर्वरकों एवं फसलों की हेर-फेर प्रणाली का यहाँ बहुत अभाव हैं।

कृषि समस्याओं के समाधान का उपाय

भारत में कृषि सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के लिए अग्रलिखित उपाय को कार्यान्वित करना चाहिये।

  1. भूमि सुधान- कृषि विकास के लिए यह आवश्यक हैं कि भू-वितरण में समानता लायी जाय तथा जोत की आकारों की भी छोटी नहीं किया जाना चाहिये। भूमि सुधार कानून तो पास हो गये हैं, परन्तु उनका प्रभावशाली ढंग से क्रियान्वयन नहीं होने के कारण उत्साहपूर्वक कृषि नहीं की जाती। अत: भूमि सुधान कानून को पूर्ण रूप से लागू किया जाना चाहिए।
  2. सहकारी आन्दोलन का विकास- भारतीय कृषि की दशा को सुधारने के लिए सहकारी आन्दोलन का विकास किया जाना चाहिये। सामूहिक रूप से खेती करें और फिर धन बँटवारा न्यायपूर्वक हो, तो कृषि की दशा में सुधार लाया जा सकता हैं।
  3. नवीन तकनीक का प्रयोग- कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए आवश्यक हैं कि कृषि की नवीन तकनीक के प्रयोग में वृद्धि किया जाय। किसान को ट्रेक्टर, थ्रेशर मशीन, डीजल- पम्प, विद्युत, उन्नत किस्म के हल, खाद, बीज, कीटनाशक औषधियों आदि का उचित मूल्य पर पर्याप्त मात्रा में वितरण की व्यवस्था होनी चाहिये।
  4. बंजर व बेकार भूमि को कृषि योग्य बनाना- भारत में बहुत बंजर एवं बेकार भूमि पड़ी है जिस पर खेती नहीं की जा सकती हैं। अत सरकार को इस दिशा में ध्यान देकर बेकार भूमि को खेती योग्य बनाने के लिए शीघ्र कार्यक्रम चलाना चाहिये।
  5. कृषि अनुसंधान- भारतीय कृषि के विकास के लिए विभिन्न संस्थाओं में किये जाने वाले अनुसंधान कार्यों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये। नवीन खोजों को ग्रामीणों तक पहुँचाना चाहियें।
  6. सिंचाई के साधनों का विकास- मानसून की अनिश्चितता के कारण गहन कृषि के लिए सिंचाई के अन्य साधनों, जैसे-नलकूप लगाना, बाँध बनाकर नहरें निकालना, जल का भंडारण करना इत्यादि की व्यवस्था होनी चाहिये।
  7. पर्याप्त साख की व्यवस्था- कृषि की नवीन तकनीकों को प्रोत्साहन के लिए, विपणन व्यवस्था में सुधार के लिए तथा उन्नत बीजों एवं उर्वरकों के प्रयोग इत्यादि के लिए किसानों का उचित शर्तों पर पर्याप्त साख की व्यवस्था किया जाना चाहिये।
  8. विपणन व्यवस्था में सुधार- किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य दिलाने एवं खेती में रुचि पैदा करने के लिए यह आवश्यक हैं कि विपणन व्यवस्था में सुधार हो, सरकारी विपणन समितियां स्थापित की जाएँ तथा मण्डियों को नियंत्रित किया जाय। केन्द्रीय व राजकीय भण्डारों द्वारा भी विपणन की समस्याओं का समाधान किया जाना चाहिये।
  9. किसानों की शिक्षा का प्रबन्ध- कृषि को उन्नतशील बनाने हेतु यह आवश्यक है किसानों की शिक्षा का उत्तम प्रबन्ध किया जाये। किसानों की शिक्षा हेतु प्रौढ़ रात्रि पाठशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिये। शिक्षा के द्वारा किसानों की रूढ़िवादिता की भावना दूर होगी। वे अन्धविश्वासों का परित्याग करके नवीन दृष्टिकोण को अपनाकर कृषि में सुधार करने हेतु प्रयत्नशील होंगे।
  10. ग्रामीण क्षेत्रों में लघु एवं कुटीर उद्योग का विकास- भारत में भूमि पर जनसंख्या का भार कम करने के लिए गाँवों में लघु कुटीर उद्योगों को स्थापित करने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिये। स्थानीय उत्पादित मालों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने तथा ले आने के लिए ग्रामीण सड़कों की व्यवस्था होनी चाहिये जिससे किसानों को उचित मूल्य मिल सके और उन्हें अधिक कार्य करने की प्रेरणा मिल सके।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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