अर्थशास्त्र / Economics

कृषि वित्त का अर्थ | भारत में कृषि वित्त के स्रोत | Meaning of agricultural finance in Hindi | Sources of agricultural finance in India in Hindi

कृषि वित्त का अर्थ | भारत में कृषि वित्त के स्रोत | Meaning of agricultural finance in Hindi | Sources of agricultural finance in India in Hindi

कृषि वित्त का अर्थ (Agricultural Finance)

कृषि वित्त का अर्थ – कृषि वित्त एक व्यापक शब्द है। जिसमें गाँवों के ऋणदाता, बैंकिंग संस्थाएँ आदि संलग्न हैं, जो कृषकों को ऋण प्रदान करती है। वर्तमान समय में कृषि वित्त परिमार्जित हो चुका है, जो निम्नलिखित है-

“कृषि वित्त से तात्पर्य उस प्रकार के साख से है, जिसकी आवश्यकता खेती के कार्य में निहित होती है।”

भारत में कृषि वित्त के स्रोत

भारतीय कृषि में दो प्रकार के वित्तीय स्रोत उपलब्ध हैं-

  1. निजी स्त्रोत

(अ) महाजन या साहूकार (Money Lenders) –

प्राचीन काल से ग्रामीण वित्तीय स्रोतों में महाजन या साहूकार प्रसिद्ध हैं, जो किसानों की सभी आवश्यकताओं के लिए ऋण प्रदान करते थे। भारत में संस्थागत वित्तीय स्रोत विकसित होने पर भी महाजन या साहूकार ग्रामीण वित्त व्यवस्था में आज भी सर्वाधिक प्रचलित हैं।

कार्य प्रणाली (Working System) – महाजनों या साहूकार द्वारा ऋण देने में अनेक महत्वपूर्ण कार्य बिन्दु हैं, यथा-

  1. साहूकार/महाजन आवश्यकता क समय कृषक को तुरन्त ऋण प्रदान करते हैं।
  2. ऋण प्रदान करने की प्रक्रिया में जमानत और दोनों विधियों का प्रयोग होता है।
  3. साहूकार या महाजनों के ऋण उत्पादक व अनुत्पादक कार्यों के लिए दिये जाते हैं।
  4. समयावधि के अनुसार अल्पकालीन, मध्यकालीन तीनों प्रकार के ऋण प्राप्त किये

जाते हैं।

(ब) भूस्वामी, व्यापारी व दलाल या रिश्तेदार (Land Lord, Broker, Tradesmans)-

देशी बैंकर्स में जहाँ महाजन व साहूकार प्रचलित हैं, वहीं ग्रामीण वित्त के लिए भूस्वामी, व्यापारी, दलाल व रिश्तेदार भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं, जो कृषकों की वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।

कृषि वित्त के अन्तर्गत भूस्वामी, व्यापारी व कमीशन एजेंट (दलाल) अल्पकालीन व मध्यकालीन ऋण प्रदान करते हैं।

  1. संस्थागत स्त्रोत

स्वतंत्रता के बाद संस्थागत स्रोतों की कार्यप्रणाली विस्तृत होती जा रही है, यह सन्तोषजनक स्थिति है। संस्थागत वित्त व्यवस्था के प्रमुख तीन भाग हैं-

(1) सहकारी समितियाँ, (2) सरकार, (3) व्यापारिक बैंक। लेकिन संस्थागत स्रोत मेंनसहकारी समितियाँ, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया आदि का अध्ययन उचित होगा।

(1) सहकारी समितियाँ (Co-0perative Societies)-

कृषि वित्त का प्रमुख स्रोत सहकारी समितियाँ हैं, जो स्वतंत्रता प्रप्ति के बाद पोषित हुई हैं। स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण क्षेत्र में ‘सहकारिता आन्दोलन’ प्रारम्भ होने पर विश्वास व्यक्त किया गया कि अब कृषि वित्त का मूल स्रोत सहकारी समितियाँ, होंगी, जो साहूकारों एवं महाजनों का स्थान ग्रहण कर लेंगी। लेकिन यह विश्वास निराधार हुआ है, क्योंकि 1951-52 ई में सहकारी ऋण समितियों का योगदान 3 प्रतिशत था, जिनका योगदान वर्तमान समय में लगभग 35 प्रतिशत है लेकिन इसे सन्तषजनक प्रगति नहीं कह सकते हैं।

भारत में दो प्रकार की सहकारी समितियाँ ऋण प्रदान करती हैं-

  1. 1. प्रारम्भिक कृषि ऋण समितियाँ- (अल्पकालीन व मध्यमकालीन ऋण)
  2. भूमि विकास बैंक- (दीर्घकालीन ऋण)

सहकारी समितियों के तीन वर्ग निम्न हैं-

(i) प्राथमिक सहकारी समितियाँ (Primary Co-operative Socicities)-

कृषि वित्त की दिशा में प्राथमिक सहकारी समितियाँ अति उपयोगी हैं, जिनका निर्माण ग्राम के दस सदस्यों से किया जाता है।

(ii) केन्द्रीय या जिला सहकारी बैंक (Center or District Co-operative Bank)-

केन्द्रीय या जिला सहकारी बैंक का प्रमुख कार्य प्राथमिक सहकारी समितियों को आर्थिक सहायता देना है। केन्द्रीय सहकारी बैंक के सदस्य प्राथमिक सहकारी समिति के सदस्य नियुक्त होते हैं, अथवा बगर किसी प्रकार की सदस्यता रखने वाले लोग भी इसके सदस्य हो सकते हैं।

(iii) राज्य सहकारी बैंक (State Co-perative Bank) –

राज्य सहकारी बैंक कृषि वित्त की एक प्रमुख संस्था है जो केन्द्रीय या जिला सहकारी बैंकों को आर्थिक सहायता देती है। इस बैंक का प्रधान कार्यालय राजधानी में स्थापित होता है।

(2) भूमि विकास बैंक (Land Development Bank ) –

कृषि वित्त में भूमि विकास बैंक का महत्वपूर्ण योगदान है, जिसे भूमि बन्धक बैंक (Mortgage Bank) भी कहते हैं। सहकारी समितियों को दीर्घकालीन ऋण देने वाली यह एक मात्र संस्था हैं जो कृषकों को कृषि विकास हेतु प्रोत्साहित करती है।

(3) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया (State Bank of India) –

कृषि– वित्त का प्रमुख स्रोत स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया है जो अपनी शाखाओं को ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित कर रही है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा नियुक्त अखिल भारतीय ग्राम्य शाखा सर्वेक्षण ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें “ग्राम्य साख की एक एकीकृत योजना” पर बल दिया। परिणामस्वरूप इम्पीरियल बैंक के नाम से विख्यात स्टेट बैंक ने ग्रामीण वित्त व्यवस्था में विशेष योगदान दिया।

(4) व्यापारिक बैंक (Commercial Banks)-

व्यापारिक बैंक कृषि वित्त का एक उपयोगी साधन है, जबकि इनके राष्ट्रीयकरण से पूर्व व्यापारिक बैंकों का कृषि-वित्त में कोई योगदान नहीं रहा है, क्योंकि कृषि वित्त के रूप में व्यापारिक बैंकों की भूमिका केवल 1 प्रतिशत थी, जो नगण्य है। लेकिन 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद सन् 1979 से व्यारिक बैंकों की रुचि कृषि वित्त के क्षेत्र में बढ़ रही है। इन कृषकों को अल्पकालीन व मध्यमकालीन ऋण देने में सरल नीति अपनाई है।

(5) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (Regional Rural Banks ) –

ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उद्योगों एवं अन्य कार्यों को कृषि-वित्त की उचित व्यवस्था हेतु बैंकिंग आयोग 1972 एवं शिवरामन कमेटी 1974 ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना का सुझाव दिया था, जिसके परिणामस्वरूप 2 अक्टूबर 1974 को संसद में एक अधिनियम पारित करके फरवरी 1976 में देश में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शाखाएँ ग्रामीण वित्त के लिए स्थापित की गईं।

(6) अग्रणी बैंक योजना (Lead Bank Scheme)-

अग्रणी बैंक योजना भारत सरकार की वह योजना है, जिसमें राष्ट्रीयकृत बैंकों को कृषि-वित्त एवं विकास हेतु 335 जिलों की बैंकों को 17 भागों में बांट दिया है। इस व्यवस्था को अग्रणी बैंक योजना (Lead Bank Scheme) कहते हैं। अग्रणी बैंक योजना का कार्य जिलों की बैंकों का शाखा विस्तार, ऋण वितरण व सामान्य विकास करना है।

(7) रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया (Reserve Bank of India) –

यद्यपि रिजर्व बैंक अधिनियम के अनुसार कृषक को कोई भी प्रत्यक्ष ऋण प्रदान नहीं करती है। लेकिन रिजर्व बैंक राज्य सहकारी बैंकों के माध्यम से कृषि-वित्त में विशेष योगदान दे रही है। रिजर्व बैंक की शर्त के अनुसार राज्य सहकारी बैंकों को उनकी माँग का ढाई प्रतिशत व समग्र दायित्वों का 1 प्रतिशत नकद कोष के रूप में रिजर्व बैंक में जमा होता है, इसके बदले में रिजर्व बैंक ने अल्पकालीन व मध्यमकालीन ऋण देने का अधिकार प्रदान किया है।

(8) सरकार (Government)-

कृषि वित्त में सरकार भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक सहायता देती है। जब सरकार कृषकों को प्रत्यक्ष रूप से ऋण देती है, तो उसे ‘तकाबी ऋण’ कहते हैं। ऐसे ऋण सरकार कृषकों को भूमि-सुधार, सिंचाई, बाढ़ या भू-क्षरण आदि के लिए देती है। सरकार के प्रत्यक्ष ऋण अधिकतम 25 वर्षों के लिए व 6 प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक ब्याज पर दिए जाते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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