अर्थशास्त्र / Economics

भारतीय सार्वजनिक वितरण प्रणाली | सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दोष

भारतीय सार्वजनिक वितरण प्रणाली | सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दोष

भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (Public Distribution System in India)-

भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं को सस्ती कीमतों पर आवश्यक उपभोग वस्तुए उपलब्ध कराना है ताकि उन्हें इनकी बढ़ती हुई कीमतों के प्रभाव से बचाया जा सक तथा जनसंख्या का न्यूनतम आवश्यक उपभोगस्तर में सहायता दी जा सक। इस प्रणाली को चलाने के लिए सरकार व्यापारियों (या मिलों) तथा उत्पादकों से वसूली कीमतों पर वस्तुएं खरीदती है।

इस प्रकार जो खरीद की जाती है, उसका वितरण उचित दर की दुकानों ओर राशन की दुकानों के माध्यम से किया जाता है। कुछ वसली प्रतिरोधक भण्डारों के निर्माण के लिए रख ली जाती है। खाद्यान्नों के अलावा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का प्रयोग खाद्य तेलो (edible oil), चीनी, कोयला, मिट्टी का तेल तथा कपड़े के वितरण के लिए भी किया जाता है। इस प्रणाली में सम्पूर्ण जनसंख्या को शामिल किया गया है अर्थात् इसे किसी वर्ग-विशेष तक सीमित नहीं रख गया है। जिन परिवारों के पास निश्चित घरेलू पता है, उन सबको राशन कार्ड दिए गए हैं। उचित दर दकानों की संख्या 1960 के अन्त तक 0.47 लाख था जा 1984 में 3.12 लाख तक पहँच गई। अब इनकी संख्या 4.74 लाख है। भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से लगभग 16 करोड़ परिवारों को प्रतिवर्ष 30 ,0 00 करोड़ रुपए मूल्य की वस्तुओं का वितरण किया जाता है। संभवत: विश्व में अपनी तरह की यह सबसे बड़ी वितरण प्रणाली है।

खाद्यान्नों में सरकारी हस्तक्षेप तथा भारतीय खाद्य निगम (State Intervention in Food grains and FCI)-

सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खाद्यान्न उपलब्ध कराने का काम मुख्य रूप से भारतीय खाद्य निगम (Food Corporation of India) द्वारा किया जाता है। 1965 स्थापित खाद्य निगम खाद्यान्नों व अन्य सामग्री की खरीददारी, भण्डारण व संग्रहण, स्थानान्तरण, वितरण तथा बिक्री का काम करता है। निगम एक और तो निश्चित करता है कि किसानों को उनके उत्पादन की उचित कीमत मिले (जो सरकार द्वारा निर्धारित वसूली/समर्थन कीमत से कम न हो) तथा दूसरी ओर यह निश्चित करता है कि उपभोक्ताओं को भण्डार से एक-सी कीमतों पर खाद्यान्न उपलब्ध हों। (उपभोक्ताओं के लिए निर्धारित कीमत ‘निर्गमन कीमत’ या issue price कहलाती है, जिसका निर्धारण भारत सरकार द्वारा किया जाता है)। निगम को यह भी जिम्मेदारी सौंपी गई है वह सरकार की ओर से खाद्यान्नों के प्रतिरोधक भण्डार (buffer stocks) बना रखे। हाल के वर्षों में गेहूँ और चावल के बढ़ते उत्पादन के कारण भारतीय खाद्य निगम की भूमिका भी बढ़ गई है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दोष (Flaws in Public Distribution System)-

सार्वजनिक वितरण प्रणाली की निम्नलिखित आधार पर आलोचना की गई-

  1. आलोचकों का कहना है कि भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली मुख्यता गेहूं और चावल तक सीमित रही है और मोटे अनाजों (जैसे- ज्वार, बाजारा और मक्का) के वितरण पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। हालांकि गरीब जनता अधिकतर मोटे अनाजों का ही उपभोग करती है। इतना ही नहीं, राशन कार्ड केवल उन परिवारों को दिए जाते थे, जिनके पास उपयुक्त पता है (अर्थात् जिनके पास रहने की सही व्यवस्था है)। इस प्रकारबीउन लोगों को राशन कार्ड नहीं मिल पाते जिनके पास घर नहीं है।
  2. एस. महेन्द्र देव तथा एम.एच. सूर्यनारायण के एक अध्ययन के अनुसार विभिन्न राज्यों में निर्धन वर्गों की सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भरता में अत्यधिक अन्तर हैं। उदाहरण के लिए, चावल के लिए निर्धन वर्गों की सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भरता जहां केरल में 60 प्रतिशत है, वहां बिहार में 1 प्रतिशत में से भी कम है। वास्तव में, बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में यह निर्भरता 10 प्रतिशत से भी कम है।
  3. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लाभ कुछेक क्षेत्रों में केन्द्रित रहे हैं। 1995 में दक्षिण के चारों राज्यों आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडू का सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से वितरित खाद्यान्नों में हिस्सा लगभग आधा (48.7 प्रतिशत) था जबकि देश की गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या से उनका हिस्सा 1993-94 में मात्र 18.4 प्रतिशत था। इसके विपरीत, देश के चार उत्तरी राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में 1993-94 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली देश की कुल जनसंख्या 47.6 प्रतिशत वास करता था परन्तु इन राज्यों को 1995 से सार्वजनिक वितरण प्रणाली से वितरित किए गए खाद्यान्नों का मात्र 10.4 प्रतिशत प्राप्त हुआ।
  4. कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली काफी समय तक अधिकतर शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित रही और ग्रामीण क्षेत्रों में इसका अधिक प्रसार नहीं हो पाया। 1984 में प्रकाशित अपने एक लेख में पी.एस. जा्ज ने अनुमान लगाया था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली से कुल बिक्री में शहरी क्षेत्रों का हिस्सा 85 प्रतिशत था।
  5. कुछ अर्थशाखत्रियों ने विचार प्रकट किया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के कारण कीमतों में वृद्धि हुई है। इसका कारण यह है कि सरकार द्वारा बढ़ते हुए पैमाने पर प्रतिवर्षखाद्यान्नों की वसूली कर लेने से खुले बाजार में बिक्री के लिए खाद्यान्नों की पूर्ति कम हो जाती है।
  6. उचित दर दुकानों के दुकानदारों द्वारा भ्रष्ट तरीकों को अपनाए जाने के कारण, सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बड़े पैमाने पर अनाज की चोरी होती है। राशन को रियाती कीमतों पर बेचने के स्थान पर ये दुकानदार संस्ती दरों पर राशन को खुल बाजार में ज्यादा कीमतों पर बेचते हैं और इस प्रकार भारी मुनाफा कमाते हैं। टाटा कन्सलटेन्सी सर्वसीज द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार सार्वजनिक वितरण प्रणाली से इस प्रकार 31 प्रतिशत चावल और 26 प्रतिशत गेहूँ को खुले बाजार में ले जाकर बेचा जाता है।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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