भक्ति आन्दोलन | भक्ति आन्दोलन के कारण | भक्ति आन्दोलन की विशेषताएँ | भक्तिवादी सन्त | भक्ति आन्दोलन का प्रभाव | भारत में भक्ति आन्दोलन के इतिहास
भक्ति आन्दोलन | भक्ति आन्दोलन के कारण | भक्ति आन्दोलन की विशेषताएँ | भक्तिवादी सन्त | भक्ति आन्दोलन का प्रभाव | भारत में भक्ति आन्दोलन के इतिहास
भक्ति आन्दोलन
ऋग्वेद में अभिव्यक्त भक्तिवाद भारतीय भूमि पर निरन्तर विकसित होता रहा। परन्तु इस्लाम धर्म के अनुयायियों द्वारा भारत में अपने धर्म का बलात् प्रचार किये जाने के कारण अनेक समस्याएँ पैदा हो गई। अब भक्तिवाद भक्ति आन्दोलन बन गया।
भक्ति आन्दोलन के कारण-
भक्ति आन्दोलन के प्रारम्भ होने के अनेक कारणों का उल्लेख किया जाता है। प्रायः यह कहा जाता है कि अपनी दयनीय अवस्था के कारण जब हिन्दुओं से और बरदाश्त न हो सका तो उन्होंने भक्ति आन्दोलन द्वारा मुसलमानों से आश्रय की अभिलाषा व्यक्त की। परन्तु हम इस तर्क को कदापि स्वीकार नहीं कर सकते। यह भी कहा जाता है कि स्वयं हिन्दू धर्म के अनेक दोषों- यथा कर्मकाण्ड, जातिव्यवस्था आदि के कारण भक्ति आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ। इस बात में हमें थोड़ा तथ्य दिखाई देता है। भक्ति आन्दोलन का एक अन्य कारण यह भी बताया जाता है कि सूफी सन्तों तथा सम्प्रदाय से प्रभाव ग्रहण करके भक्त सन्तों ने भक्ति आन्दोलन के माध्यम द्वारा एकेश्वरवाद, प्रेम तथा भ्रातृत्व का प्रतिपादन किया। किन्तु इस विषय में हम यही स्वीकार करेंगे कि सूफी सन्तों ने भक्ति आन्दोलन को तीव्रता अवश्य प्रदान की-वे वस्तुतः भक्ति आन्दोलन का कारण नहीं थे।
हमें प्रतीत होता है कि भक्ति आन्दोलन के प्रारम्भ होने का वास्तविक कारण स्वयं मानव का अपना स्वभाव था। यूनानी, हूण और सीथियनों की भाँति मुसलमान हिन्दू समाज में नहीं घुल-मिल सके। इस्लाम धर्म के अनुयाई विजेता थे और यह स्वाभाविक था कि वे अपने को हिन्दुओं से श्रेष्ठ समझें। परन्तु अन्तर होते हुए भी, दोनों को जब एक ही देश में रहना-बसना था तो उनका निकट आना अनिवार्य था। समय के साथ-साथ कटुता दूर होने लगी तथा दोनों पक्षों के सुसंस्कृत व्यक्ति गंभीरतापूर्वक समन्वय लाने का प्रयल करने लगे। हैवेल महोदय के अनुसार, परम्परागत भारतीय सहिष्णुता तथा वात्सल्य ने भ्रमणशील तुर्क तथा मंगोलों के हृदय को बहुत कुछ कोमल बना दिया।” हिन्दुओं के मन में सद्भावना उपजी तथा मुसलमान भा यह समझ गये कि शस्त्र बल पर हिन्दुओं के धर्म को पराजित नहीं किया जा सकता। अब समन्वय तथा सहिष्णुता के मूल्य को पहचाना जाने लगा और सूफी तथा भक्तिवादी सन्तों ने हिन्दू मुसलमानों में मानव धर्म के प्रति निष्ठावान होने का आग्रह किया। यही भक्ति आंदोलन के प्रारम्भ होने का कारण तथा समय था। निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि भक्तिवाद भारत में वैदिक समय से विद्यमान था परन्तु अनेक विशेष परिस्थितियों के कारण, मध्यकाल में यह एक आन्दोलन के रूप में प्रकट हुआ।
भक्ति आन्दोलन की विशेषताएँ
समय तथा परिस्थितियों के अनुरूप भक्तिवाद ने जिस आन्दोलन का रूप धारण किया, उसकी कई विशेषताएं थीं। सर्वप्रथम, भक्ति आन्दोलन के महारथियों के सिद्धान्त समान थे। विभिन्न माध्यमों द्वारा उन्होंने आदर, प्रेम, सहिष्णुता तथा भ्रातृत्व की भावना के प्रतिष्ठापन का प्रयास किया। दूसरे, भक्त सन्त एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे। तीसरे, भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने ईश्वर के प्रति अगाढ़ प्रेम अभिव्यक्त किया। चौथे, लगभग सभी भक्ति सन्तों ने गुरु को सर्वोपरि माना तथा उसे ईश्वर से साक्षात् कराने वाला प्रमाणित किया। पाँचवें, भक्ति आन्दोलन में माया तथा भौतिकता के बन्धनों के प्रति मोह का परित्याग करके, ईश्वर के प्रति पूर्ण निष्ठा रखने पर विशेष बल दिया गया। छठे, भक्तिवादी सन्तों का सन्देश था कि ईश्वर का निवास प्रेमी हृदय में ही होता है। कलुषित तथा ईर्ष्या रखने वाले हृदय द्वारा ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। सातवें, सभी भक्तिवादी सन्तों ने मानव प्रेम तथा सहिष्णुता का सन्देश दिया। इसके द्वारा उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमानों के बीच सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध बनाने पर जोर दिया। आठवें, भक्ति आन्दोलन द्वारा समाज की कुरीतियों अन्धविश्वासों तथा आडम्बरों पर कुठाराघात किया गया। नवें, भक्तिवादी सन्तों ने किसी भी भाषा को प्राथमिकता नहीं दी। उन्होंने सभी के लिये सुगम तथा सरल भाषाओं में सन्देश दिये। दसवें, भक्ति-आन्दोलन ने तत्कालीन समाज में प्रचलित जातिवाद, ऊँच-नीच, अछूत आदि मान्यताओं का तीव्र शब्दों द्वारा खण्डन किया।
भक्तिवादी सन्त
(1) रामानुजाचार्य- विद्वान, सदाचारी, धैर्यवान, सरल, सौम्य और उदार प्रवृत्ति वाले रामानुजाचार्य ने दक्षिणी भारत में वैष्णव भक्ति का उपदेश दिया। इनके गुरु यमुनाचार्य थे तथा उन्हीं की अन्तिम इच्छानुसार इन्होंने ‘ब्रह्मसूत्र’ की ‘श्री भाष्य टीका’ लिखी तथा ‘विष्णु सहस्रनाम’ एवं ‘दिव्य प्रबन्धम’ की टीका अपने शिष्यों से लिखवाई। इन्होंने जिस सम्प्रदाय का प्रचलन किया, यह ‘श्रीसम्प्रदाय’ के नाम से प्रख्यात है। इस सम्प्रदाय की आद्य-प्रवर्तिका श्री महालक्ष्मी जी मानी जाती हैं। रामानुजाचार्य का भक्ति मार्ग शंकर के अद्वैतवाद की प्रतिक्रिया के रूप में था। इन्होंने सगुण ईश्वरोपासना का प्रतिपादन किया। दक्षिण भारत में रामानुजाचार्य को ख्याति तथा अनेकानेक अनुयायी प्राप्त हुए। मुख्य रूप से उनके 74 सन्त शिष्य थे।
(2) रामानन्द- रामानुजाचार्य की भक्तिवादी शिष्य परम्परा में पाँचवें स्थान पर आने वाले रामानन्द ने बारह वर्ष की अवस्था में समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था। ये जीवन भर अविवाहित रहे ! इन्होंने भक्ति सम्प्रदाय को नया मोड़ दिया तथा विष्णु के स्थान पर भगवान राम की भक्ति पर बल दिया। अपने सन्देशों द्वारा उन्होंने जाति भेद तथा ऊँच-नीच के भेद को मिटा कर भगवद् भक्ति करने का उपदेश दिया। रामानन्द जी ने साम्प्रदायिक कलह को शान्त किया, हिन्दुओं पर अन्यायी करों को लगाये जाने का विरोध किया तथा गयासुद्दीन तुगलक की हिन्दू संहारिणी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया।
(3) संत कबीर- ‘काशी में हम प्रगट भये हैं, रामानन्द चेताये’ पंक्ति से कबीर के जन्म स्थान तथा गुरु के विषय में पता चलता है। अपने जन्म और मृत्यु में रहस्यमयता लिये हुए, कबीर भक्ति सन्त परम्परा के सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रतीत होते हैं। वे जाति पाँति, भेद भाव से बिलकुल परे रहे । उनके सन्देश सरल किन्तु हृदय भेदी थे। ‘मसि कागद छुओ नहीं, कलम गह्या नहीं हाथ’ वाले कबीर की भाषा साहित्यिकता से परे होते हुए भी बहुत ही मर्मस्पर्शी है। इन्होंने अपने सबद और साखियों में शील, दया, क्षमा, दान, सन्तोष, आत्मनिरीक्षण तथा चारित्रिक गुणों को अपनाने का सन्देश दिया। कबीर ने ईश्वर को सर्वव्यापी, निराकार तथा अजन्मा कहा है। उनकी सन्तवाणी में शंकराचार्य का अद्वैतवाद, रामानन्द का भक्तिवाद, वैष्णवों का अहिंसावाद, इस्लाम का एकेश्वरवाद, नाग पन्थ का हठयोग तथा सूफियों का प्रेम और विरह एक राग हो गया।
(4) गुरु नानक- समानता तथा एकता की प्रतिमूर्ति भक्त प्रवर गुरु नानक का जन्म ऐसे समय में हुआ जबकि मजहबी तास्सुब अर्थात् धार्मिक भेद भाव अपनी चरम सीमा पर था। गुरु नानक के अनुसार शरीर रूपी खेत में, मन रूपी किसान द्वारा भगवद् नाम का बीज बोना चाहिये, नम्रता के पानी से सींचना चाहिये तब प्रेम के रूप में फसल उपजेगी। उनके व्यक्तित्व में बड़ा आकर्षण था! एकता और प्रेम का प्रचार करने के लिये वे नेपाल, भूटान, सिक्किम, तिब्बत, चीन, ईरान, अफगानिस्तान, अरब आदि देशों में भी गये थे।
(5) वल्लभाचार्य- तेलगु देश में जन्म लेने वाले, तैलंग ब्राह्मण वल्लभाचार्य ने 13 वर्ष की अल्पायु में ही वेद पुराण तथा धर्मशास्त्रों के अर्थ को ग्रहण कर लिया था। राजानुजाचार्य की भाँति इन्होंने भी विभिन्न प्रदेशों की यात्रा की। ये वैष्णव धर्म की ‘कृष्ण भक्ति’ शाखा के भक्ति सन्त थे। इन्होंने भगवान के प्रति सर्वस्व अर्पण करने का सन्देश दिया। वे कहा करते थे कि या तो भौतिकताओं से परिपूर्ण घर को त्याग देना चाहिये अथवा उसे भगवान को अर्पण कर देना चाहिये। इस सर्वस्वार्पण का आशय यह था कि भक्त के पास अपना जो कुछ भी है वह भगवान का ही है। वल्लभाचार्य की भक्ति का सन्देश धनी वर्ग को आकर्षित नहीं कर सका।
(6) चैतन्य महाप्रभु- वल्लभाचार्य के समसामयिक तथा बंगाल के महान भक्तिवादी सन्त चैतन्य महाप्रभु पच्चीस वर्ष की युवावस्था में गृह त्याग करके संन्यासी हो गये। संन्यास से पूर्व इनका नाम श्री गौरांग था। चैतन्य महाप्रभु का व्यक्तित्व अति आकर्षक तथा चुम्बकीय था। कीर्तन करते-करते जब वे प्रेमोन्मत्त हो जाते तो जिसे स्पर्श कर देते थे, वह उसी समय सुधबुध खोकर नृत्यमग्न हो जाता, प्रेमाशु बहाता तथा श्रीकृष्ण नाम पुकारने लगता था। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु का नाम घर-घर में व्याप्त है। लोग कृष्णावतार के रूप में उनकी पूजा करते हैं। चैतन्य महाप्रभु ने दैवी सम्पत्ति के प्रधान लक्षणों, दया, अहिंसा, सत्य, समता, उदारता, परोपकार, पर-दुःख कातरता, मैत्री, धैर्य, अनासक्ति आदि तथा आचरण की पवित्रता पर जोर दिया।
(7) मध्वाचार्य- विष्णु के अनन्य भक्त मध्वाचार्य का जन्म 1197 ई० में कन्नड़ के उडुपो स्थान पर हुआ था। इनकी धारणा थी कि जीव ईश्वर का अनुचर है तथा ईश्वर के अधीन है। ईश्वर सत्य है तथा उसकी सृष्टि भी सत्य है। इनके मतानुसार ज्ञान प्राप्ति के बिना मोक्ष नहीं मिल सकता तथा ईश्वर की भक्ति द्वारा ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
(8) निम्बार्काचार्य- ये रामानुजाचार्य के समकालीन तथा कृष्ण मार्गी शाखा के अनुयायी थे। इनके अनुसार राधाकृष्ण की भक्ति द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। इनके द्वारा प्रचलित सम्प्रदाय को सनक सम्प्रदाय कहा जाता है।
(9) नामदेव- महाराष्ट्र के भक्तिमार्गी सन्त नामदेव ने पहले सगुण और बाद में निर्गुण भक्ति का उपदेश दिया। गुरु को सर्वोपरि मानते हुए, उन्होंने गरु को ज्ञान तथा मक्षिका माध्यम बताया। उन्होंने मूर्तिपूजा का प्रबल विरोध किया तथा अनेक सामाजिक कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खण्डन किया।
(10) रैदास- इन्होंने कबीर के मार्ग का अनुसरण करते हुए, ईश्वर को निर्गुण बताया। रैदास, मानव एकता तथा समता के समर्थक थे। इन्होंने अस्पृश्यता तथा जाति भेद का विरोध, किया।
(11) मीराबाई- मेवाड़ नरेश रत्नसिंह की पुत्री मीराबाई अपने बाल्यकाल से कृष्ण भक्ति में तल्लीन रहती थीं। कृष्ण भक्ति में आत्मविभोर होकर इन्हें शरीर की सुध-बुध भी नहीं रहती थी। ये अपने इष्टदेव कृष्ण की भक्ति अपने प्रियतम के रूप में करती थीं। मीरा के पदों तथा उनके माधुर्य से सभी भली-भांति परिचित हैं।
भक्ति आन्दोलन का प्रभाव
भक्तिवाद ने जब समसामयिक परिस्थितियों में भक्ति आन्दोलन का रूप लिया तो इसका प्रभाव तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन पर पड़ा। इस आन्दोलन का वास्तविक उद्देश्य समाज में समन्वय तथा नैतिकता लाना था। अपने इस उद्देश्य में भक्तिवाद को बड़ी सफलता मिली। सामाजिक जीवन की अनेकानेक कुरीतियों के प्रति लोग गम्भीरता पूर्वक सोचने लगे सद्भावना की जागृति हुई तथा हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे के निकट आये। रूढ़िवादी विचारों के खण्डन द्वारा, भक्तिवादी सन्तों ने समाज को परिस्थितियों से अनुकूलन करने की क्षमता प्रदान की!
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
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