अर्थशास्त्र / Economics

भूमि सुधार का अर्थ | भूमि सुधार नीति | भारत में भूमि सुधार के कार्य | भूमि-सुधार कार्यक्रमों का मूल्यांकन

भूमि सुधार का अर्थ | भूमि सुधार नीति | भारत में भूमि सुधार के कार्य | भूमि-सुधार कार्यक्रमों का मूल्यांकन

भूमि सुधार का अर्थ (Land Reforms)

संकुचित अर्थ में भूमि सुधार से तात्पर्य मध्यस्थों को समाप्त करके वास्तविक कृषकों को भू-स्वामित्व प्रदान करना है। अन्य शब्दों में भूमि सुधार का तात्पर्य श्रमिकों के लाभ हेतु भूमि के स्वामित्व के पुनर्वितरण से है। “विस्तृत अर्थ में भूमि सुधार से तात्पर्य मध्यस्थों की समाप्ति, काश्तकारी विधान में परिवर्तन, उचित लगान निर्धारण, जोतों की अधिकतम सीमा निर्धारण, चकबन्दी सामूहिक खेती व सहकारी खेती आदि से होता है।”

प्रो. गुन्नार मिर्डल (Gunnar Myrdcl) के मतानुसार, “भूमि सुधार व्यक्ति और भूमि के सम्बन्धों में नियोजन एवं संस्थात्मक पुनर्गठन है।”

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भूमि सुधार नीति-

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने आर्थिक नियोजन के प्रारम्भ में योजनाबद्ध भूमि सुधार का बीड़ा उठाया। सरकार ने प्रथम योजना में स्वीकार किया कि भू-स्वामित्व व कृषि संरचना राष्ट्रीय विकास के लिए महत्वपूर्ण है, इसलिए सरकार ने 1952 ई0 में जमींदारी उन्मूलन व 1953 में भूमि सुधार पेनल (Penal of Land Reforms) गठित किया। दूसरी योजना में कृषि उत्पादकता में वृद्धि पर विशेष बल दिया, जिसमें समाजवादी समाज की रचना हेतु मध्यस्थों का उन्मूलन, काश्तकारी व्यवस्था में सुधार, भूमि की सीमाबन्दी, चकबन्दी व कृषि प्रथा के पुनः गठन की नीति घोषित हुई। तीसरी योजना में भूमि सुधार कार्यक्रम हेतु 1966 में भूमि सुधार कार्यान्वयन समिति गठित हुई जबकि चौथी योजना में कृषि क्षेत्रों को तकनीक उत्पादन पद्धति से विकसित करने की नीति अपनाई, जिसमें 1969 में भूमि सुधार अधिनियमों में सुधार हेतु एक सम्मेलन हुआ। 1970 में केन्द्रीय कृषि मंत्री की अध्यक्षता में भूमि सुधार समिति नियुक्त हुई, जिसने राज्यों के मुख्यमंत्रियों से विचार विमर्श कर सम्मेलन आयोजित किया। पांचवी योजना में काश्तकारी स्थाई घोषित किया गया तथा चकबन्दी 10 वर्षा में पूरी करने का लक्ष्य बनाया गया। छठी योजना में भूमि सुधार कार्यक्रमा का प्रमुखता दी गई, जिसके अनुसार भूमि की सीमाबन्दी से शेष भूमि सरकार की होगी, जिसका अनुसूचित जातियों में वितरण होगा।

सातवीं योजना में भूमि सुधार कार्यक्रमों के साथ-साथ उत्पादकता वृद्धि पर विशेष बल दिया, जिससे खाद्यान्न क्षेत्र में आत्म निर्भरता प्राप्त हो सके। आठवीं योजना (1992-97) घोषित हुई जिसमें कृषि विकास को प्राथमिकता दी गई है। इसमें भूमि सुधार नवीन कृषि पद्धति, सिंचाई सुविधाएँ, बीज-खाद हेतु डंकल प्रस्ताव लाग करने पर विचार किया गया| नवी योजना में कृषि उत्पादकता में अभूतपूर्व वृद्धि का प्रयास किया गया|

भारत में भूमि सुधार के कार्य-

भारत में स्वतंत्रता के बाद भूमि सुधार के निम्न प्रयास हुए हैं-

  1. जमींदारी प्रथा का उन्मूलन (Abolition of Zamindari System) –

भारत में जमींदारी प्रथा के शोषण एवं उत्पीड़न की आवाज यों तो स्वतंत्रता संग्राम के समय ही गूँजने लगी थी, जिसमें झाँसी अधिवेशन 1928, इलाहाबाद अधिवेशन, 1935 में कांग्रेस ने जमींदारी प्रथा समाप्त करने का प्रस्ताव रखा। फलतः देश की 40% भूमि जो जमींदारों, मध्यस्थों एवं जागीरदारों के स्वामित्व में थी, को उनके चंगुल से मुत्त करने के लिए राज्यवार उन्मूलन अधिनियम बनाये गये। इसका प्रारम्भ 1948 में मद्रास में जमींदारी उन्मूलन अधिनियम पारित किया गया, तत्पश्चात् 1949 में मुम्बई व हैदराबाद 1949-50 ई0 में उत्तर प्रदेश 1951 ई पंजाब व पश्चिमी बंगाल आदि में जमींदारी उन्मूलन के अधिनियम पारित हुए।

  1. नये भूमि धर (New Land Tenures)-

जब जमींदारी उन्मूलन हुआ तो मध्यस्थों की समाप्ति होने लगी, फलतः स्वतंत्रता के बाद 1954 ई तक माल गुजारी की वसूली जमींदारी या मध्यस्थों के द्वारा नहीं अपितु भूस्वामियों से प्रारम्भ हो गई। एक अनुमान के अनुसार 1949-50 ई0 तक कृषि क्षेत्र से प्राप्त होने वाले 4800 करोड़ रु. की आय में से 1200 करोड़ रु. जमींदारों के पास रहता हैI (Evolution of Agrarian Relations in India, Page 66 by Sen.) जहां जमींदरों को भूमि पर अधिकार छोड़ने के लिए लगभग 67 लाख रु. का मुआवजा दिया गया।

जमींदारी उन्मूलन का कृषि जगत पर प्रभाव (Effect of Zamindari Abolition upon the Agricultural Word)-

भारतीय कृषि जगत में उन्मूलन एक क्रान्ति है, क्योंकि जमींदारों के परिवारों को छोड़कर शेष काश्तकात इसे सरकार का एक साहसिक कदम मानते हैं। जमींदारी उन्मूलन के प्रमुख लाभकारी प्रभाव निम्नलिखित हैं।

(1) जमींदारों की समाप्ति के साथ ही शोषण का अन्त हुआ है, क्योंकि कृषकों से ऊँचे लगान वसूलना, बेगारी, उपहार या नजराना की प्रवृत्ति समाप्त हुई है।

(2) जमींदारी उन्मूलन से सरकार के लगान में वृद्धि हुई है, उदाहरणार्थ- 1950 में लगान 48 करोड़ रु. के स्थान पर 1996-97 तक 655 करोड़ रु. हो गए हैं।

(3) जमींदारी उन्मूलन से कृषक वर्ग को भू-स्वामित्व मिल चुका है, इससे कृषक वर्ग की उत्पादन वृद्धि की प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ रही है।

(4) जमींदारी प्रथा के उन्मूलन से सामन्ती प्रथा स्वतः समाप्त हो गई, इससे कृषक वर्ग में कार्य करने की प्रेरणा बढ़ रही है।

  1. काश्तकारी व्यवस्था में सुधार (Reforms in Tenancy System)-

भारत में जमींदारी उन्मूलन के बाद, काश्तकारी में परिवर्तनों की आवश्यकता थी, जिसमें पट्टेदारी व्यवस्था के अन्तर्गत विधवा, असहाय, अपंग, लंगड़े, लूले, अंधे लोगों आदि को अपनी भूमि काश्तकारों से कराने पर विशेष छूट थी।

(1) मारुसी या दखलकार काश्तकार (occupancy Tenant)-

मारुसी काश्तकारों के अधिकार भू-स्वामियों जैसे होते हैं। वे भूमि पर खेती स्थाई अधिकार के कारण करते हैं। जब तक निर्धारित लगान समय पर चुकाते हैं, इन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता है, जबकि वास्तविक भू-स्वामी मालगुजारी सरकार को भुगतान करता है और ऐसे काश्तकार लगान भू-स्वामी को देते हैं।

(2) गैर मारुसी काश्तकार (No-Occupancy Tenant)-

गेर मारुसी काश्तकारों की दशाएँ मारुसी काश्तकारों से बिल्कुल अलग होती हैं, इन्हें पट्टेदारी खेती करने के लिए भूमि ऊँचे लगान पर देता है।

(3) उप-काश्तकार (Com-Tenant) –

जब बड़े-बड़े काश्तकार अपनी भूमि छोटे काश्तकारों को देते हैं तो उप-काश्तकारों का उदय होता है। भरपूर मेहनत के बाद एक बड़ा हिस्सा काश्तकार लेता है, जिसमें से वह पट्टेदार को लगान देता है।

  1. जोतों की सीमाबन्दी (Ceiling of Holdings)-

जोतों की सीमाबन्दी से तात्पर्य ऐसा स्वामित्व जिससे खेतों की अधिकतम सीमा निर्धारित होती है।

  1. भू-दान (Bhoodan)-

भारत में भूदान आन्दोलन के जन्मदाता आचार्य विनोबा भावे थे, जिन्होंने सर्वोदय द्वारा भूमि एकत्रित करके गरीबों में वितरण किया है, उन्होंने 1951 से भूदान-आन्दोलन प्रारम्भ किया। उनका कथन था कि “यदि आपके चार लड़के हैं तो पाँचवां लड़का मुझे मानकर खेती में एक हिस्सा दे दो, में इस भूमि को गरीब व हरिजन वर्ग के भूमिहीनों में बांटूगा।” यह भूदान आन्दोलन ऐच्छिक कार्यक्रम था। आचार्य भावे ने आन्ध्र प्रदेश के पोचम परुणी नामक गाँव से इसकी शुरुआत की। अन्त तक विनोबा जी ने लगभग 23.4 लाख हेक्टेयर भूमि भूदान में प्राप्त करके 12.2 लाख हेक्टेयर भूमिहीन किसानों में वितरित की है।

  1. भूमि प्रबन्ध में सुधार (Reforms in Land Management)-

भूमि सुधार के अन्तर्गत भूमि के प्रबन्ध में सुधार की आवश्यकता है। देश की ऊसर, बंजर भूमिं को कृषि योग्य, उन्नत बीजों का प्रयोग, रासायनिक खादों का प्रयोग, फसल का रोगों से बचाव आदि एसे कार्य हैं, जो भूमि के उत्तम प्रबन्ध पर निर्भर हैं। अत; जब सरकार कृषको को उत्पादन सम्बन्धी प्रबन्ध में सुधार हेतु विभिन्न सहायताएँ देती है, तो भूमि-सुधार होता है।

भूमि-सुधार कार्यक्रमों का मूल्यांकन (Evaluation of Land Reforms)-

भारतीय कृषि के पर्यावरण को देखें तो कृषि की विडम्बना है कि देश का कृषक जिसके कंधे पर हल है वह पूर्णतः शोषित है। फलतः स्वतंत्रता के 55 वर्षों में भूमि-सुधार के अनेकों भगीरथ प्रयास हुए, जिनमें जमींदारों का उन्मूलन, जोतों की सीमाबन्दी, लगान का नियमन, चकबंदी, काश्तकारी प्रथा में सुधार, सहकारी खेती व सामूहिक खेती आदि प्रमुख हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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